गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

कोरोना काल : लॉकडाउन, वैक्सीन और राजनीति

एक  समय था जब भारत में युद्ध और आपदा के समय सत्ता और विपक्ष  देश हित में एक साथ खड़े हो जाते थे लेकिन अब समय बदल गया है पहले का सत्ता पक्ष अब  विपक्ष में आ गया है, जिसने  राजनीति  के नियम बदल दिए हैं. अब आपदा में भी अवसर तलाशे  जाने लगे हैं .  “युद्ध हो या महामारी, राजनीति है जरूरी,”   और वह भी बेहद निम्न स्तर की. कुछ राजनीतिक दल मोदी विरोध करते-करते कब  राष्ट्र विरोध करने लगते हैं  शायद  इसका उन्हें पता ही नहीं चलता. 


पिछले साल  चीनी  वायरस  के भारत में प्रवेश के साथ  ही, राजनीति शुरू हो गई.  लॉकडाउन लगाने का विरोध किया गया,  ताली और थाली  बजाने को लेकर  ताने  मारे गए, प्रवासी श्रमिकों के विस्थापन को लेकर निम्न स्तरीय राजनीति हुई, उत्तर प्रदेश की सीमा पर 1000 बसें खड़ी करने का फर्जीवाड़ा किया गया, विशेष ट्रेनों से श्रमिकों को भेजने का  पूरी तरह राजनीतिकरण किया गया.  प्रवासी  श्रमिकों के रोजगार और  आर्थिक सहायता को लेकर भी अनावश्यक  राजनीति  की गई. 

 

 कोरोना महामारी  के इस संक्रमण काल में किसान आंदोलन को लेकर भी खूब  राजनीति  हुई.  पंजाब से शुरू  हुए इस राजनीतिक आंदोलन   ने दिल्ली की सीमाओं को घेर लिया. मौके की तलाश में बैठे लगभग सभी विपक्षी दलों ने  इसे अपना समर्थन दिया  और कुछ लोग   उनके मंच पर भी जाकर भी  बैठे। दिल्ली की सरकार ने तो जैसे पलक  पावड़े  बिछा दिए और पूरी कैबिनेट सहित अरविंद केजरीवाल ने  आंदोलन स्थल पहुंचकर इन  तथाकथित किसान नेताओं को  तन मन धन से सहायता का आश्वासन भी दिया. 


कोरोना वायरस  की पहली  लहर के प्रबंधन में  भारत को  विश्व में बहुत सराहना मिली. विश्व में संक्रमण के शुरुआती दिनों में भारत ने अमेरिका,  ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी  सहित  विश्व के कई देशों को दवाइयां और अन्य सहायता भेज कर  भारत की प्राचीन “वसुधैव कुटुंबकम”   संस्कृति  का   सराहनीय  उदाहरण प्रस्तुत किया था . 


रिकॉर्ड समय में कोरोना वायरस  की  दो वैक्सीन बनाकर भी  भारत ने  विश्व में ख्याति अर्जित की.  इसमें एक भारत बायोटेक की को-वैक्सीन    पूर्णता स्वदेशी है,  लेकिन विपक्षी  राजनीति ने इस उपलब्धि को भी  देश हित को अनदेखा कर बहुत छोटा  बना दिया.  वैक्सीन के संदर्भ में अनेक भ्रम उत्पन्न किए गए . कुछ राजनीतिक दलों ने इसे जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ बताया तो कुछ ने इसे  भाजपा की वैक्सीन बताया और  न लगवाने का  ऐलान कर दिया. 


 वैक्सीन  के  उत्पादन के सापेक्ष  भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए  टीकाकरण के लिए एक नीति बनाई गई जिसके अंतर्गत  प्रथम चरण में कोरोना योद्धाओं, स्वास्थ्य  सेवाओं से जुड़े हुए कर्मचारियों तथा  सेना एवं अर्धसैनिक बलों का टीकाकरण  किया  गया .   दूसरे चरण में  60 वर्ष और अधिक  आयु के लोगों तथा 45 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के ऐसे लोगों को जो गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं, के टीकाकरण  का अभियान शुरू किया गया.  राजनीति ने उसे भी नहीं छोड़ा.  वैक्सीन की गुणवत्ता पर  संदेह प्रकट किया गया   और  प्रश्न  किया गया  कि मोदी  ने वैक्सीन  क्यों नहीं लगवाई ?  ताकि वैक्सीन की गुणवत्ता पर  भ्रम फैलाया  जा सके. यह   झूठ अभियान तब तक चलाया गया जब तक अपनी बारी आ जाने पर मोदी ने वैक्सीन नहीं लगवा ली.  किंतु आज भी कोई नहीं जानता कि सोनिया गांधी ने  कहां और कब वैक्सीन लगवाई ? सूत्रों के अनुसार उन्होंने वैक्सीन लगवा ली है.  कितना अच्छा होता अगर वह स्वयं आकर सार्वजनिक रूप से  यह बताती   तो  जनता पर न सही लेकिन उनकी पार्टी के लोग तो टीकाकरण के लिए प्रेरित होते.  


विपक्ष द्वारा  जहां एक ओर वैक्सीन का विरोध  किया जा रहा था  वही दूसरी ओर  मुफ्त वैक्सीन की  मांग भी की जा रही थी, यह जानते हुए भी कि  टीकाकरण केंद्र सरकार की तरफ से मुफ्त किया जा रहा है.  प्राइवेट अस्पताल में जो ₹250 प्रति व्यक्ति लिए जाते हैं वह अस्पताल  के लिए निर्धारित  शुल्क है  लेकिन सरकारी अस्पतालों में यह पूरी तरह निशुल्क है. 


कोरोना की दूसरी लहर आने पर  विपक्षी दलों ने वैक्सीन के लिए हाय तौबा मचाने शुरू कर दी और कहा कि  “यूनिवर्सल वैक्सीनेशन”  होना चाहिए  यानी  सभी नागरिकों को वैक्सीन उपलब्ध कराई जानी चाहिए.  यह आरोप लगाया गया कि  केंद्र सरकार ने पूरे वैक्सीन कार्यक्रम को हाईजैक कर लिया है. गई कि टीकाकरण का कार्य राज्य सरकारों को सौंप देना चाहिए ताकि वह जल्दी से जल्दी मुफ्त टीकाकरण शुरू करके राज्य के नागरिकों को सुरक्षित कर सकें.  सर्वदलीय बैठक के बाद जब राज्य सरकारों को 18 से 45 आयु वर्ग के लोगों के लिए टीकाकरण करने के लिए अधिकृत कर दिया गया तो  एक बार फिर राजनीति शुरू हो गई.  विपक्षी दलों ने वैक्सीन  के मूल्यों को लेकर हंगामा खड़ा कर दिया.  


दरअसल  सीरम इंस्टिट्यूट  पुणे और भारत बायोटेक हैदराबाद दोनों ही भारत सरकार को ₹150 प्रति डोज के हिसाब से  वैक्सीन  आपूर्ति करते हैं. अब सीरम इंस्टीट्यूट राज्य सरकारों को ₹300 और  प्राइवेट अस्पतालों को ₹600 प्रति डोज़  के हिसाब से  वैक्सीन की आपूर्ति करेगी.  भारत बायोटेक ने राज्य सरकार को ₹400 और प्राइवेट अस्पतालों को रु. 800 प्रति डोज  हिसाब से आपूर्ति का प्रस्ताव दिया है. आश्चर्यजनक  बात यह है कि इन विपक्षी दलों को  वैक्सीन के मूल्य की चिंता नहीं है  उन्हें इस बात पर आपत्ति ज्यादा है कि  वैक्सीन निर्माता केंद्र सरकार से कम और राज्य सरकारों को ज्यादा मूल्य क्यों ले  रहे हैं?  मेरा मत  है कि  सभी वैक्सीन  की डोज  सरकारी खरीद है,   चाहे वह  केंद्र सरकार हो  या राज्य सरकार इसलिए  मूल्य तो एक ही होना चाहिए. मूल्य में अंतर होने  से भारत जैसे देश में  जहां  जमीनी  स्तर पर भ्रष्टाचार  होते देर नहीं लगती कहीं ऐसा न हो कि केंद्र सरकार की  सस्ती  वैक्सीन खुले बाजार में मेडिकल स्टोर पर बिकने लगे. 


पूरे विश्व में दवाओं की  लागत और उनके  मूल्य निर्धारण पर  नियंत्रण एक बहुत बड़ी समस्या है.  इसलिए   बड़े ब्रांड की   दवाएं  कम लागत के बाद भी बेहद महंगी होती हैं. यह सही है कि   वैक्सीन जैसी औषधि में  अनुसंधान की कीमत बहुत ज्यादा होती है इसलिए इसका मूल्य निर्धारण इतना आसान भी नहीं है.  चीन की वैक्सीन जिसकी  प्रमाणिकता संदिग्ध है, को छोड़कर दुनिया की सभी वैक्सीन भारत भारत में बन रही वैक्सीन से कई गुना महंगी है.  उदाहरण के लिए  अमेरिका में एक  वैक्सीन  की कीमत  लगभग 19.5 डॉलर आती है. 

सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी  वैक्सीन  यूरोपीय देशों को 2.18  डॉलर ( लगभग डेढ़ सौ रुपए)  और  दक्षिण अफ्रीका को 5.25  डॉलर (  लगभग ₹400 )  में आपूर्ति की है.  इसलिए मूल्यों पर वैक्सीन  उत्पादक कंपनियों से  बात की जा सकती है. 



इस बीच  आपूर्ति बढ़ाने  और विभिन्न वैक्सीन निर्माताओं के बीच  मूल्य  प्रतिस्पर्धा  करने के लिए भारत सरकार ने रूस की स्पूतनिक V  का अनुमोदन कर दिया है इसका मूल्य लगभग ₹1000 है और जब यह भारत में बनाई जाएगी तो इसका मूल्य कम हो जाएगा.  प्रधानमंत्री मोदी के आग्रह पर रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने उसकी  पहली खेप  1 मई को  भेजने का आश्वासन दिया है.   विपक्षी दलों के शोर में एक छुपा हुआ कारण  यह भी है कि राज्य टीकाकरण की इस कीमत को  स्वयं  वहन नहीं करना चाहते  बल्कि  उनकी इच्छा है कि केंद्र सरकार इसे  वहन करें.  इसलिए  मुफ्त में रेवड़ी बांटने वाले  राज्यों सहित  कई अन्य राज्य सरकारों ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं.  


कितना अच्छा होता  कि टीकाकरण  केंद्र सरकार के निर्देशन में  होता और विवादों  से परे होता,  जिससे उसे जल्दी से जल्दी पूरा किया जा सकता था.  देश का दुर्भाग्य है  कि राजनीतिक  गिद्ध  दृष्टि से  कुछ भी नहीं बख्शा जा रहा  है  न आपदा, न  महामारी और न ही  युद्ध जैसी स्थितियां. टीकाकरण भी युद्ध स्तर पर होना चाहिए पर क्या कोई युद्ध ऐसे ही लड़ा और जीता जा सकता है ?


स्वतंत्रता  के बाद लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले दल को भी ये  चिंता नहीं है कि  उसकी कुटिल राजनीति से जनता को कितना कष्ट हो रहा है और  विश्व में भारत की साख को कितना बट्टा लग रहा है. 

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  - शिव मिश्रा  


 












शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

को वैक्सीन और कोवीशील्ड में से कौन सी वैक्सीन ज्यादा अच्छी है ?

 


मेंरे विचार से वैक्सीन लगवाना ज्यादा महत्वपूर्ण है इसलिए जो भी मिल रही है उसको तुरंत लगवा ले. दोनों ही अच्छी हैं और दोनों के ही सफल क्लीनिकल ट्रायल के बाद ही मंजूरी दी गई है.

दूसरी बात यह है कि भारत में कोविड-19 का टीकाकरण कोविन ऐप द्वारा नियंत्रित किया गया है, अगर आप स्वयं रजिस्ट्रेशन करते हैं तो आपको यह विकल्प उपलब्ध नहीं होता है कि आप कौन सी वैक्सीन लगवाना चाहते हैं. रजिस्ट्रेशन करते समय आपको अस्पताल और उपलब्ध स्लॉट ही दिखाई पड़ते हैं और एक अस्पताल में एक ही तरह की वैक्सीन उपलब्ध कराई गई है. इसलिए आपको कौन सी वैक्सीन मिलेगी यह पूरी तरह से आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता है.

फिर भी अगर आप पहले से ही तय कर चुके हैं कि कौन सी वैक्सीन लगवानी है तो फिर आपको पता करना पड़ेगा कि कौन सा अस्पताल कौन सी वैक्सीन लगा रहा है और तदनुसार आपको रजिस्ट्रेशन करते समय अस्पताल का विकल्प चुनना होगा या अपना आईडी प्रूफ लेकर सीधे अस्पताल पहुंचना होगा.

कोवीशील्ड वैक्सीन को पहले अनुमति दी गई थी क्योंकि इसका क्लीनिकल ट्रायल पहले पूरा हो गया था. को वैक्सीन को बाद में अनुमति दी गई थी इसलिए उसका उत्पादन भी देर से शुरू हुआ. इसलिए ज्यादातर अस्पतालों में कोवीशील्ड वैक्सीन लगाई जा रही है. को वैक्सीन को जब सरकार ने अनुमति दी थी तो इसका अंतिम चरण का ट्रायल चल रहा था लेकिन सीमित संख्या में पूरे के किए गए ट्रायल के आधार पर इसे अनुमति दे दी गई.

कई राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी संगठनों ने सरकार के इस कदम का जबरदस्त विरोध किया और लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने के लिए सरकार को जमकर कोसा . सरकार को घेरने के चक्कर में इन स्वार्थी तत्वों ने भारत बायोटेक की को-वैक्सीन को भी कटघरे में खड़ा कर दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी मार्केटिंग को अत्यधिक क्षति पहुंचाई. विरोध करने वालों के अपने निहित स्वार्थ थे. कोई चीन की, तो कोई रूस की स्पूतनिक, तो कोई मनपसंद अमेरिका की कंपनी को इस क्षेत्र में लाना चाहता था. कोई बड़ी बात नहीं यदि कुछ स्वार्थी तत्व सिरम इंस्टीट्यूट पुणे को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य ऐसा कर रहे हो.

स्वार्थ में अंधे होकर कुछ लोगों ने इसे बीजेपी वैक्सीन का नाम भी दे दिया.

आइए समझते हैं क्या अंतर है दोनों वैक्सीन में

  • Covaxin एक इनएक्टिवेटेड वैक्सीन है यानी इसे मृत कोरोना वायरस से बनाया गया है। इसके लिए भारत बायोटेक ने पुणे के नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वायरलॉजी में आइसोलेट किए गए कोरोना वायरस के एक सैम्‍पल का इस्‍तेमाल किया। जब यह वैक्‍सीन लगाई जाती है तो इम्‍युन सेल्‍स मृत वायरस को पहचान लेती हैं और उसके खिलाफ ऐंटीबॉडीज बनाने लगती हैं। वैक्सीन की दो डोज चार हफ्तों के अंतराल पर दी जाती है और इसे 2 डिग्री सेल्सियस से 8 डिग्री सेल्सियस के बीच स्‍टोर किया जाता है।
  • Covishield को ऑक्‍सफर्ड यूनिवर्सिटी और अस्‍त्राजेनका ने मिलकर विकसित किया है। इसे भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया तैयार कर रही है। यह वैक्सीन आम सर्दी-जुकाम वाले वायरस के एक कमजोर रूप से बनाई गई है। इस वायरस को परिवर्तित करके कोरोना वायरस जैसा दिखने वाला बनाया गया है। जब वैक्‍सीन लगती है तो वह इम्‍युन सिस्‍टम को कोरोना वायरस के संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है। यह वैक्‍सीन शुरुआत में दो डोज में चार हफ्तों के अंतराल में लगाई जा रही थी लेकिन बाद में इस अवधि को बदलकर 6 से 12 हफ्ते कर दिया गया हैं क्योंकि कंपनी के मुताबिक अगर बूस्टर डोज 6 हफ्तों के बाद लगाई जाती है तो इसका प्रभाव बढ़ जाता है. इसे भी 2 डिग्री से 8 डिग्री के बीच स्‍टोर किया जा सकता है।

प्रभावशीलता -

  • 4 सप्ताह के अंतराल पर बूस्टर डोज लेने के बाद Covaxin ने 81% क्लिनिकल एफेकसी दिखाई है। यह वैक्‍सीन ट्रायल के दौरान सेफ पाई गई थी और किसी वालंटियर में सीरियस साइड इफेक्‍ट्स देखने को नहीं मिले थे।
  • 12 सप्ताह के अंतराल पर बूस्टर डोज लेने के बाद ऑक्‍सफर्ड-अस्‍त्राजेनेका के इंटरनैशनल ट्रायल में वैक्‍सीन 90% तक असरदार पाई गई। वैक्‍सीन किसी तरह के अस्‍वीकार्य साइड इफेक्‍ट्स पैदा नहीं करती।

निष्कर्ष :-

  • दोनों वैक्सीन के बनाने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है इसलिए दोनों की तुलना करना उचित नहीं है.
  • हां एक बात अवश्य है कि को-वैक्सीन की दूसरी डोज जिसे बूस्टर डोज कहा जाता है 28 दिन बाद लगाई जाती है लेकिन कोवीशील्ड में इसे 6 से 12 हफ्ते के बाद लगाए जाने का परामर्श दिया जाता है.
    • इसलिए को वैक्सीन की साइकिल 1 महीने में पूरी हो जाती है जबकि को भी सील के लिए 3 महीने का समय चाहिए.
  • चूंकि बूस्टर या दूसरी डोज लगने के 2 सप्ताह बाद बाद वैक्सीन का सुरक्षा कवच कार्य करना शुरू कर देता है.
    • इसलिए को वैक्सीन लेने वाले व्यक्ति 6 हफ्ते बाद और कोवीशील्ड लेने वाले व्यक्ति 8 से 14 हफ्ते बाद सुरक्षित होते हैं.
    • इसलिए समय सीमा के अनुसार को वैक्सीन जल्दी सुरक्षित करना शुरू कर देती है.

मुझे अगर विकल्प मिलता तो मैं को वैक्सीन ही लगव़ाता लेकिन उपलब्धता के आधार पर मुझे कोवीशील्ड ही मिली .


शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

न्याय निर्णय : ज्ञानवापी परिसर में बाबा विश्वनाथ की तलाश

  स्वागत योग्य  निर्णय 



एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में वाराणसी की फास्ट ट्रैक कोर्ट ने आदेश दिया है  की ज्ञानवापी परिसर में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की सहायता से मंदिर के प्रमाण  ढूंढे  जाएं  और जरूरत पड़ने पर अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाए जिसमें ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार और जिओ रेडियोलॉजी सिस्टम  शामिल है . 


लगता है काशी के अच्छे दिन आने वाले हैं क्योंकि अगर पुरातत्व सर्वेक्षण में यह सिद्ध हो जाता है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़ कर किया गया था तो वांछित निर्णय इसके बाद ही आ सकेगा और जरूर आयेगा .



मामला 1991 से   न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है  लेकिन फास्ट ट्रैक कोर्ट में  यह मामला वर्ष 2019 में दायर किया गया था, 2 वर्ष बाद  ही सही न्यायालय ने मामले में सही दिशा की तरफ एक  सार्थक कदम बढ़ाया है.  अपने निर्णय में  न्यायालय ने परिसर के अंदर के सभी स्थानों को सर्वेक्षण में शामिल करते हुए  निर्णय दिया -


  1. पुरातत्वविदों  की  5 सदस्य टीम गठित करने के लिए कहा है जिसमें  दो पुरातत्वविद मुस्लिम होंगे.  

  2. टीम की जिम्मेदारी होगी कि वह वर्तमान और पूर्व के ढांचे या उसके अवशेषों की जांच करें और दोनों  ढांचों  की उम्र निर्धारित करें.  

  3. कमेटी  यह तय करें कि उक्त स्थल पर किस संप्रदाय का  कौन सा आराधक था या पूर्व में कोई मंदिर मौजूद था और अगर था तो उसकी साइज,  रंग,  डिजाइन आदि पता करने की कोशिश करें.

  4.  कमेटी विवादित स्थल के धार्मिक निर्माण के प्रत्येक भाग में प्रवेश कर सकेगी और आवश्यकता पड़ने पर उत्खनन भी किया जा सकता है जिसके लिए उपलब्ध अत्याधुनिक तकनीक जैसे ग्राउंड पेनेट्रेटिंग  रडार, जिओ रेडियोलॉजी सिस्टम  आदि का प्रयोग किया जा सकता है.

  5. प्रदेश सरकार का पुरातत्व विभाग उपलब्ध अवशेषों  को संरक्षित करें. 

  6. अदालत ने पुरातत्व विभाग के महानिदेशक को आदेश दिया है की पूरी निगरानी के लिए किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय के पुरातत्व वैज्ञानिक को ऑब्जर्वर बनाए . 

  7. यदि नमाज अदा की जा रही हो तो उसमें रुकावट नहीं आनी चाहिए.

 

यह बेहद दुखद है कि 1991  में परिसर में नए मंदिर के निर्माण तथा हिंदुओं को पूजा पाठ करने देने के अधिकार को लेकर एक मुकदमा कायम किया गया था  वह ३0 वर्षों से  लंबित है  और उसकी प्रगति शून्य है. इसी बीच 1991 में ही  तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एक  कानून बना दिया कि  अनुसार अयोध्या विवाद को छोड़कर शेष सभी  पूजा स्थलों में 1947 की स्थिति  बनाए  रखी जाएगी ताकि काशी और मथुरा के मुद्दे हिंदुस्तान  का बहुसंख्यक वर्ग  उठा न  सके और उन स्थानों पर गुलामी के प्रतीक आक्रांताओं के दमन की कहानी सुना कर पूरे  सनातन समाज को मनोवैज्ञानिक रूप से दासता की याद दिलाते रहे. 


तुष्टीकरण के इस कदम ताल से परेशान होकर 2019 में वाराणसी की फास्ट ट्रैक कोर्ट में प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान  विश्वेश्वर  नाथ की ओर से  वाद मित्र श्री विजय शंकर रस्तोगी की ओर से एक याचिका दायर की गई  जिसमें अनुरोध किया गया था कि आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करते हुए परिसर का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया जाए ताकि तदनुसार शीघ्र से शीघ्र निर्णय लिया जाए, जिस पर कोर्ट ने सकारात्मक और सार्थक निर्णय दिया है. 


क्या है  विश्वनाथ  मंदिर का इतिहास ? 




 काशी में   भगवान  विश्वेश्वर नाथ या बाबा विश्वनाथ  का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना काशी का अस्तित्व. प्राचीन मंदिर के इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या की थी और उनके शयन  करने पर उनकी नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई थी जिन्होंने बाद में पूरे विश्व की रचना की थी.  इसे आदि सृष्टि स्थली भी बताया जाता है.


ब्रह्मा और विष्णु के बीच   श्रेष्ठता  कि विवाद को हल करने के लिए भगवान शंकर ने अनंत ज्योतिर्लिंग का निर्माण किया और दोनों से उसकी ओर छोर  पता लगाने के लिए कहां.  ब्रह्मा और विष्णु दोनों इस काम में लग गए किंतु कल्पों तक प्रयास करने के बाद  विष्णु भगवान इसका पता नहीं लगा सके और उन्होंने  आकर  अपनी विफलता स्वीकार कर ली. ब्रह्मा ने आकर  झूठ बोल दिया कि उन्होंने  इसका पता लगा लिया है,  जिससे नाराज होकर भगवान शंकर ने उन्हें श्राप दे दिया कि ब्रह्मांड में  कहीं भी ना उनका कोई मंदिर होगा और ना ही उनकी पूजा होगी .  इस प्रकार से इसका का यह विवाद सुलझ गया . 

 

ऐसा माना जाता है की प्रलय काल में भी काशी का विनाश  नहीं होता  क्योंकि उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं.  ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी के निर्माण के समय सूर्य की पहली किरण काशी यानी वाराणसी पर पड़ी। मान्यता है कि भगवान शिव स्वयं मंदिर में कुछ समय के लिए रुके थे और वे इस शहर के संरक्षक हैं।


भगवान  भोलेनाथ  जिन्हें  काशी मे बाबा विश्वनाथ  भी कहा जाता है,  की कृपा के कारण ही  काशी को सर्व तीर्थ  और सर्व संताप हारिणी मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है. मान्यता है कि काशी में प्राण त्यागने वाले व्यक्ति को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो जाता है क्योंकि यहां प्राण त्यागने वाले प्राणी के कान में भगवान भोलेनाथ तारक मंत्र का उपदेश देते हैं. 


मत्स्य पुराण में वर्णन है कि  दुखों और कष्टों से पीड़ित   और जप तप  ध्यान रहित व्यक्तियों के लिए काशी ही एकमात्र मोक्ष प्राप्त करने का साधन है. श्री विश्वेश्वर विश्वनाथ का यह ज्योतिर्लिंग साक्षात भगवान परमेश्वर महेश्वर का स्वरूप है, यहाँ भगवान शिव सदा विराजमान रहते हैं।


अगस्त्य मुनि ने भी  यहां पर  बहुत समय तक विश्वेश्वर की आराधना की थी.  इसी स्थान पर आराधना करने से वशिष्ठ मुनि तीनों लोकों में पूजित हुए.  ऋषि विश्वामित्र  भी राज ऋषि और  ब्रह्मर्षि  अपनी   विश्वेश्वर आराधना के कारण  हुए. 


आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, बामाख्यापा, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी दयानंद सरस्वती, सत्य साईं बाबा और गुरुनानक सहित कई प्रमुख संत इस स्थल पर आये हैं।

 भगवान  विश्वेश्वर नाथ  (बाबा विश्वनाथ)   मंदिर की प्राचीनता :-

बाबा भोलेनाथ का यह मंदिर भारत में सभी ज्ञात मंदिरों में प्राचीनतम है और ऐसा माना जाता है यह भगवान पार्वती और शंकर का आदि स्थान है.  आधुनिक ज्ञात इतिहास  के अनुसार ईशा से  पूर्व 11वीं शताब्दी में राजा हरिश्चंद्र ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था.  इसके पश्चात सम्राट विक्रमादित्य ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार और पुनरुद्धार कराया.   

1194 में मुहम्मद गोरी  नाम के एक मुस्लिम लुटेरे  आक्रांता  ने इसे   तोड़  दिया था. मंदिर का बारंबार जीर्णोद्धार  होता रहा.  वर्ष 1447 में  जौनपुर में  सुल्तान महमूद शाह ने  एक बार फिर इस  मंदिर को  तोड़ दिया था. 

वर्ष  1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे  पुनः सजाया संवारा.   विडंबना देखिए कि जिस शाहजहां को  प्यार की निशानी ताजमहल बनाने के लिए  दुनिया भर में याद किया जाता है वह भी इतना क्रूर और राक्षसी प्रवृत्ति का था कि उसने वर्ष 1632 में  इस मंदिर को  तुड़वाने के लिए सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिंदूओं के प्रतिरोध के कारण सेना अपने  उद्देश्य में सफल नहीं हो पाई किन्तु काशी के अन्य  सैकड़ों प्राचीन मंदिरों को तोड़ दिया गया ।

डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका  वर्णन   किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। 

उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था क्योंकि  सनातन संस्कृति  में ब्राह्मण   ही ऐसा वर्ग था जो पूरे समाज को  जोड़ने और जागृत करने का कार्य करता था.  आज भी  भारत के ज्यादातर मुसलमान ब्राह्मणों के  सख्त विरोधी होते हैं.

1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए।

7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 

1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। 

 1809 में इस तथाकथित ज्ञानवापी मस्जिद पर हिंदुओं ने पुनः कब्जा कर लिया और इसका पुनर्निर्माण करने लगे लेकिन अंग्रेजों ने सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इस कार्य को रोक दिया. हालांकि 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया  और तब से यह विवाद  यथावत चल रहा है .


( 154 साल पहले का विश्वनाथ मंदिर )



(तोड़फोड़ के बाद का विश्वनाथ मंदिर)




ज्ञानवापी मस्जिद का अस्तित्व :-



  • सुनवाई के दौरान मंदिर की तरफ से दलील दी गई कि ज्ञानवापी स्थित विश्वेस्वर नाथ मंदिर तोड़कर मस्जिद का रूप दिया गया है. अभी भी तहखाने सहित चारों तरफ की जमीन पर वैधानिक कब्जा हिन्दुओं का है.
  • मस्जिद के पीछे श्रृंगार गौरी की पूजा होती है. कथा भी आयोजित होती है. नंदी भी मस्जिद की तरफ मुख करके विराजमान हैं.
  • तहखाने के गेट पर हिन्दुओं व प्रशासन का ताला लगा है. दोनों की तरफ से दरवाजा खोला जाता है.
  • मस्जिद के पीछे मंदिर का ढांचा साफ दिखाई देता है.
  • विवादित ढांचे में तहखाने की छत पर मुस्लिम नमाज पढ़ते हैं. इस्लाम में विवादित स्थल पर पढ़ी गई नमाज कबूल नहीं होती इसलिए अवैध कब्जे के खिलाफ वाद पोषणीय है. लेकिन ये कैसा धर्म है कि उसके अनुयायी स्वयं अपने धर्म का पालन नहीं करते .
  • मुस्लिम पक्ष का कहना है कि कानून के तहत 1947 की मस्जिद-मंदिर की स्थिति मे बदलाव नहीं किया जा सकता. यथास्थिति बनाए रखने का कानून मुकदमे पर रोक लगाता है. स्थिति बदलने की मांग में वाराणसी में दाखिल मुकदमा पोषणीय नहीं है. अपर सत्र न्यायाधीश वाराणसी द्वारा मुकदमे की सुनवाई का आदेश देना गलत है.
  • वहीं मंदिर पक्ष की तरफ से कहा गया कि विवाद आजादी के पहले से चल रहा है, इसलिए बाद में पारित कानून से विधिक अधिकार नहीं छीने जा सकते. मंदिर को तोड़कर मस्जिद का रूप दिया गया है.


मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की उपलब्धि प्रमाण


मुस्लिम लुटेरे और आक्रांता जिन्होंने बाद में हिंदुस्तान में अपना साम्राज्य भी स्थापित किया  जनता के भारी विरोध के कारण मंदिर तोड़ने  और उसी को मस्जिद का स्वरूप देने का कार्य इतनी शीघ्रता से किया जाता था कि लगभग हर इस तरह के विवादित मंदिर मस्जिद में हजारों प्रमाण उपलब्ध हैं और काशी विश्वनाथ मंदिर में भी सैकड़ों हजारों और लाखों में प्रमाण उपलब्ध है



विश्वनाथ कॉरिडोर :-



प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी को जापान के क्योटो की तर्ज पर एक धार्मिक शहर बनाने का संकल्प लिया जो हर सुख सुविधा से लैस होगा. विश्वनाथ कॉरिडोर उसी सपने का एक हिस्सा है. 800 करोड़ की लागत से बन रहे इस कॉरिडोर की वजह से वाराणसी घूमने आने वाले लोगों और काशी विश्वनाथ के दर्शन करने आने वाले भक्तों को बहुत सुविधा होगी. 

इस प्रोजेक्ट के तहत मुख्य मंदिर परिसर, मंदिर चौक, शहर की गैलरी, संग्रहालय, सभागार, हॉल, सुविधा केंद्र, मोक्ष गृह, गोदौलिया गेट, भोजशाला, पुजारियों-सेवादारों के लिए आश्रय, आध्यात्मिक पुस्तक स्टॉल सहित सभी निर्माण 30 फीसदी हिस्से में होंगे.

श्री काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर में करीब 3100 वर्ग मीटर में मंदिर परिसर बनेगा. इसके साथ ही कॉरिडोर के बाहरी हिस्से में जलासेन टैरेस बनेगा. इस टैरिस पर खड़े होकर गंगा जी के साथ ही मणिकर्णिका, जलासेन और ललिता घाट का भी निहारा जा सकेगा.

कॉरिडोर का मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था :-

जब विश्वनाथ कॉरिडोर बनना शुरू हुआ तो मुस्लिम पक्ष को लगा कि इससे उनके तथाकथित ज्ञानवापी मस्जिद को नुकसान पहुंच सकता है. इसकी वजह से ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली कमिटी अंजुमन इंतजामिया मस्जिद की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी. याचिका में कहा गया था कि मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के आसपास के भवनों को तोड़े जाने और नए रास्‍ते खोले जाने से से मस्जिद की सुरक्षा को गंभीर खतरा उत्‍पन्‍न हो गया है.

 सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच न्‍यायमूर्ति अरुण मिश्र और विनीत सरन ने फैसला दिया कि महज आशंका के आधार पर विश्‍वनाथ मंदिर के विस्‍तारीकरण पर रोक नहीं लगाया जा सकता है. 

 निष्कर्ष

  • भारत आज एक स्वतंत्र देश है. अंग्रेज चले गए हैं. मुस्लिम लुटेरे आक्रांताओं के आक्रमण रुक गए हैं.  

  • लेकिन  सनातन संस्कृति पर होने वाले  आक्रमण आज भी नहीं रुके  हैं  केवल उनका स्वरूप बदल गया है. पहले तलवार के जोर पर धर्मांतरण होता था आज लव जिहाद,  लालच, धोखाधड़ी आदि के माध्यम से धर्मांतरण होता है. 

  •  सबसे बड़ी बात सनातन  संस्कृति के प्रति  घृणा और उसके कारण  आक्रामकता  और बढ़ रही है.  इसी कारण सनातन संस्कृति,  राष्ट्रीय अस्मिता  और हिंदू आस्था  से जुड़े हुए  मुद्दों पर  उसी प्रकार हर स्तर पर विरोध किया जा रहा है जैसे ये  लोग स्वयं  लुटेरे  और आक्रांताओं के वंशज  है. 

  • राष्ट्रवादियों को रक्षात्मक मुद्रा से  बाहर निकलना होगा और हमें यह  सुनिश्चित करना होगा कि जिसे राष्ट्रीय संस्कृति  और राष्ट्रवाद स्वीकार्य नहीं वह हमें स्वीकार नहीं हो सकता. 

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-शिव मिश्रा
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रविवार, 4 अप्रैल 2021

नरेन्द्र मोदी दूसरे राजनैतिक दलों के नेताओं से कैसे अलग हैं?

 



यह व्यक्ति दूसरे नेताओं से बिल्कुल अलग है.  इसका उदय ऐसे समय पर हुआ जब सनातन संस्कृति अपने  विनाश के कगार पर  खड़ी थी.  भारत के ज्यादातर  राजनीतिक दल सत्ता के लालच में  तुष्टिकरण के काम में  इतने अंधे हो चुके थे  कि उन्हें ये  एहसास भी नहीं था कि  उनके कुकृत्यों  से हिंदू समाज पतन  की खाई में गिरता जा रहा है और सनातन संस्कृति मिटने के कगार पर पहुंच  चुकी है.


  • प्राचीन भारत की इस पावन भूमि पर जहां   वेदों और उपनिषदों की छाया है, गीता का मार्गदर्शन है,  इसके बाद भी भारत 1000 साल तक विधर्मियों  की दासता का शिकार हुआ.  


  • पहले मुस्लिम आक्रांता उन्हें इस देश की धन संपदा और सांस्कृतिक अस्मिता को लूटा और इसके बाद अंग्रेजों ने भी सोने की इस चिड़िया के पंख काट लिए और धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना को सदा सर्वदा के लिए आहत  और  लांछित  करने का महापाप भी किया.  


  • दुर्भाग्य से इस देश के कुछ राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों ने भी इन आक्रांताओं का साथ दिया और और पृथ्वी की इस प्राचीनतम देव भूमि  के प्रभाव के षड्यंत्र में जुट गए.  

  • इस तरह के लोग आज भी  भारत की  वैदिक संपत्तियों का आज भी अपमान करने में जुटे हैं.


  • यह किसी ईश्वरीय चमत्कार से कम नहीं कि ऐसे में एक व्यक्ति का उदय होता है  जिसने   हिंदू चेतना और सनातन संस्कृति के सामाजिक उन्नयन का कार्य  गुजरात से शुरू किया.  उसके प्रयासों का ऐसा फल मिला जैसे किसी मरुस्थल में वर्षा से हरियाली आ जाए.

 

  • 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में भी  ऐसा लगा जैसे बरसों से पड़ी बंजर  भूमि  पर फिर से बीज अंकुरित होने की आशा जाग पड़ी हो.  इसकी परिणति यह हुई कि 30 वर्षों बाद  केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी,  जो  भारत की तत्कालीन परिस्थितियों में किसी चमत्कार से कम नहीं था. 

  • भारत के लोगों में  प्राचीन संस्कृति और हिंदू चेतना के  पुनर्जागरण की आकांक्षा और तीव्र हो गई.  इसलिए 2019 में इतिहास एक बार फिर दोहराया गया और एक पूर्ण बहुमत की सरकार पुनः केंद्र में आई. 


  •  राष्ट्र के  घावों  पर मरहम लगाने का काम शुरू हो गया.   अयोध्या में राष्ट्र के आराध्य  मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम  के भव्य  मंदिर  बनने का रास्ता साफ हो गया.  


  • धारा 370 गई  और अपने साथ कई और  दुष्प्रभाव भी ले गई.  

  • राम मंदिर के बाद अब लोगों में   राष्ट्र मंदिर बनने की  आशा भी बलवती हो गई है.


  • यह राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्जागरण का कालखंड है और इसमें  भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति विशेषकर सनातन संस्कृति में विश्वास रखने वाले लोगों का यह उत्तरदायित्व है कि वह इस अभियान में तन मन धन से  सम्मिलित हो.  


  • ऐसा पूरे देश में हो रहा है और पश्चिम बंगाल भी इसका अपवाद नहीं हो सकता इसलिए यहां भी लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातें  बहुत ध्यान से सुनते हैं,  मनन करते हैं.  लोगों की प्रतिक्रिया अत्यधिक उत्साहवर्धक है.  


 





यह अभियान  बिना रुके  तब तक चलता रहेगा जब तक  भारत अपना प्राचीन गौरव प्राप्त नहीं कर लेता. 


यह कार्य नरेंद्र मोदी इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि उनका उद्देश्य महान है और यही उन्हें अन्य नेताओं से अलग करता है. 


 शायद ईश्वर पृथ्वी की इस प्राचीनतम सनातन संस्कृति को बचाने के लिए हम सभी की सहायता कर रहा है और   इस कारण  हम सभी की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है.   

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- शिव मिश्रा

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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

अमावस्या और पूर्णिमा को लोग अलग व्यवहार क्यों करते है ? क्या चन्द्रमा मनुष्य और प्रकृति को प्रभावित करता है ?





 मेरा स्वयं का एक अनुभव है जिसका उल्लेख करना आवश्यक है. मैं कुछ समय पहले  किसी काम से कोलकाता  गया था. जिस दिन वापसी की फ्लाइट थी उसके एक  दिन पहले ही मेरा काम खत्म हो गया था. मेरे मन में आया कि इस समय का उपयोग गंगासागर जाने के लिए करू.

अगले  दिन बहुत सुबह मैं सुंदरबन के  काकदीप में  जेटी के निकट  पहुंच गया जहां से फेरी ( छोटा पानी का जहाज) सागर दीप जाने के लिए चलती है . मैं जल्दी पहुंचने के उद्देश्य इतनी सुबह आ गया था लेकिन बड़ा आश्चर्य हुआ कि 9:30 बजे के पहले कोई फेरी नहीं जायेगी  और  अभी 2 घंटे बाकी थे. मैंने देखा कि  जेटी के आसपास सूखी जमीन थी,  दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान नहीं था. मुझे  संदेह  हुआ तो मैंने जाकर बुकिंग काउंटर से पूछा कि  शिप  कहां से जाएगा ? उसने आश्वस्त किया यहीं से जाएगा जब मैंने पूछा कि यहां तो दूर-दूर तक पानी नहीं है तो उसने कहा आप इंतजार करिए 2 घंटे बाद  यहां पानी आ जाएगा. 2 घंटे बाद सचमुच जेटी  के आस पास पानी ही पानी था  और इसका कारण था ज्वार भाटा. फेरी आ गयी और  सभी यात्रियों को लेकर  सागर द्वीप में कचुबेरी जेटी के लिए चल पड़ी.  

 

यहां महत्वपूर्ण यह है  कि यहां पानी आना ज्वार भाटा पर निर्भर करता है और ज्वार भाटा आने का कारण चंद्रमा होता है जिसका समय चंद्रमा की स्थिति पर निर्भर करता है इसलिए यहां से फेरी  जाने का समय भी  चंद्रमा की स्थिति के अनुसार बदलता रहता है.   

 

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य के मन मस्तिष्क में उठने वाले विचार और समुद्र में उठने वाली  लहरों का कारण चंद्रमा का प्रभाव होता है. आइये  समझते हैं कि  अमावस्या और पूर्णिमा के दिन  लोगों का व्यवहार कैसे प्रभावित  हो जाता है? 


 भारतीय ज्योतिष शास्त्र का आधार है  कि  पृथ्वी  और  मानव जीवन पर  ब्रह्मांड के विभिन्न ग्रहों का प्रभाव पड़ता है और  विभिन्न  जीव जंतुओं और प्रकृति पर इन ग्रहों का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है, जिसके कारण उनमें भिन्न-भिन्न तरह की विशेषताएं या विकार  विकसित /  उत्पन्न हो सकते  हैं. चंद्रमा  सभी ग्रहों में पृथ्वी के सबसे नजदीक है और वास्तव में यह पृथ्वी का ही प्राकृतिक उपग्रह है,  इसलिए पृथ्वी पर प्रकृति और  मानव  सहित सभी जीव जंतुओं पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है. 


भारत में  प्राचीन काल प्रचलित अमावस्या और पूर्णिमा की तिथियां  पृथ्वी पर  चंद्रमा की दृष्टि स्थिति के अनुसार  है.  जहाँ अमावस्या  पूर्ण अंधेरी रात होती है वहीं  पूर्णिमा पूर्ण चंद्रमा की रात होती है. 


पौराणिक भारतीय  ग्रंथों  के अनुसार इसे जल गृह कहा जाता है . स्थापित वैज्ञानिक तथ्यों और  आविष्कारों के आधार पर  यह सिद्ध हो चुका है कि  चंद्रमा की  गुरुत्वाकर्षण  या अन्य कोई शक्ति पृथ्वी के पानी को  अपनी ओर खींचती है  जिसके कारण समुद्र में ज्वार भाटा आते हैं.  चूंकि मनुष्य के शरीर में  60%  से अधिक पानी  होता है  इसलिए स्वाभाविक रूप से प्रत्येक मनुष्य भी चंद्रमा से प्रभावित होता है  और इसका सबसे अधिक  प्रभाव  मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर होता है.  


चूंकि  चन्द्रमा, पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग 27 दिन और 8 घंटे में पूरी करता है और इतने ही समय में अपने अक्ष पर एक घूर्णन करता है। इस  अवधि में हम पृथ्वी से चंद्रमा कलाएं  रोज बढ़ते क्रम में देखते हैं जो पूर्णिमा के दिन पूर्ण चंद्र हो जाता है और फिर घटते क्रम में देखते हैं और अमावस्या को यह विलुप्त हो जाता है. इसलिए प्रत्येक दिन चन्द्रमा के  प्रभाव अलग-अलग होते हैं . 


भारतीय ऋषियों और मनीषियों को  वैदिक काल से ही  ब्रह्मांड के ग्रहों की जानकारी थी.  चंद्रमा के पृथ्वी पर प्रभाव  के बारे में बहुत विस्तार से अध्ययन किया जा  गया  था जिसे  इस बात से समझा  जा सकता कि  भारतीय ज्योतिष के अनुसार  भविष्यफल  व्यक्ति के  जन्म के समय की चंद्र राशि के आधार पर ही निकाले  जाते हैं।  ज्ञातव्य है कि  किसी व्यक्ति के जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में स्थित होते हैं, वह राशि उस व्यक्ति की चंद्र राशि कहलाती है।


चूंकि  चंद्रमा का निर्माण पृथ्वी से ही हुआ है,  ऐसा माना जाता है कि चन्द्रमा का पृथ्वी से बेटे और मां जैसा  रिश्ता  है.  जैसे बच्चे को देख कर मां के दिल में हलचल होने लगती है, वैसे ही चन्द्रमा को देख कर पृथ्वी पर हलचल होने लगती है.  चंद्रमा को सुख स्थान का और माता का कारक  माना जाता  है इसलिए  चन्दा भारत में  बच्चों के मामा कहलाते हैं .


ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा मन का अधिष्ठाता  होता   है इसलिए  मन की कल्पनाशीलता चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होती है। अनगिनत भारतीय दार्शनिक, कवि और लेखक चन्द्रमा से प्रभावित   होकर अपनी लेखनी को चरम पर पहुंचा चुके हैं,  जिसमें उन्होंने चंद्रमा चांदनी आदि का उल्लेख किया है 


वैसे तो चंद्रमा से  पृथ्वी और उसके जीवों और पर पड़ने वाले प्रभाव अनगिनत हैं लेकिन कुछ प्रमुख, जिनमें  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से काफी अनुसंधान हो चुका है,   इस प्रकार हैं


  • जिन व्यक्तियों में चंद्रमा का  अत्यधिक दुष्प्रभाव  हो जाता है, उनका दिमाग विकृति हो जाता है और ऐसे मनुष्यों को भारत में पागल कहा जाता  है.  

    • इस तरह के मनुष्यों के लिए इंग्लिश  शब्द है  लुनेटिक (Lunatic),  जो ग्रीक भाषा में  लूनर ( Lunar)  से बना हुआ है,  जिसका अर्थ होता है  चांद या चंद्रमा. इसलिए ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में लुनेटिक का अर्थ दिया गया है “चांद मारा”  अर्थात जिसकी  चांद या चंद्रमा ने यह गति कर दी. इंग्लिश का यह Lunatic  शब्द अंग्रेजी में किये जाने वाले  सभी कानूनी  और अन्य सामान्य दस्तावेजों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल किया जाता है. 


  • विश्व में कई पागल खानों और मानसिक रोगियों के अस्पतालों  में अनुसंधान किया गया और यह पाया गया की पूर्णिमा की रात में  सभी  मानसिक रोगी  और पागल मरीज  बहुत ज्यादा असामान्य  व्यवहार करते हैं और बहुत अशांत हो जाते हैं. 

    • इसलिए   सभी पागल खानों में पूर्णिमा की रात को विशेष  सावधानी बरतने के निर्देश हैं.  


  • कांगो सहित अफ्रीका के कई  देशों में एक विशेष प्रजाति के बंदर पूर्णिमा की रात को बहुत अजीब अजीब आवाजें निकालते हैं, ऐसा लगता है कि ये इस रात  बहुत व्याकुल हो जाते हैं. 


  • प्रत्येक दिसंबर की चांदनी रात में विशेष  रूप से  पूर्णिमा की रात में ऑस्ट्रेलिया के तट पर  कोरल पृथ्वी पर पर सबसे बड़े पैमाने पर प्रजनन करते हैं। 

    • शोधकर्ताओं ने पाया है कि  इस दिन चांदनी के स्तर एक प्रमुख भूमिका निभाता  हैं. यह  घटना हमेशा पूर्णिमा पर होती है।



  • अफ्रीका के शेर पूर्णिमा की रात को  शिकार नहीं करते.  इसका  कारण यह है कि  शायद वे  पूर्णिमा की रात भोजन नहीं करते,  लेकिन सबसे ज्यादा सनसनीखेज बात यह है की पूर्णिमा के तुरंत बाद पढ़ने वाले दिन में वह   मनुष्यों पर  सबसे ज्यादा आक्रमण करते हैं इसलिए  इस दिन सभी लायन सफारी में विशेष सावधानी बरती जाती है . 


  • चांदनी की  किरणें बिच्छू में नीली चमक देती है इससे   वे अमावस्या के दौरान बहुत अधिक सक्रिय होते हैं.  


  • बिल्लियाँ और कुत्ते भी पूर्णिमा के दिन असामान्य रूप से  सक्रिय हो जाते हैं और   इस कारण कुत्ते और बिल्ली सबसे अधिक पूर्णिमा के दिन  घायल  होते हैं। 


  • भारत में पाए जाने वाला एक पक्षी चकोर चाँद को एकटक देखता रहता है. ऐसा माना जाता है कि चकोर चाँद के इस स्वरूप को बहुत प्यार करता है इसलिए ऐसा चाँद के आकर्षण  के कारण करता है. 


  • संसार के जितने भी ऊष्ण प्रदेश हैं, वहां को लोगों को पूर्णिमा की रात में  खुली चांदनी में सोने पर विचित्र स्वप्न दिखाई देते हैं। 

  


भारतीय ज्योतिष के अनुसार मानव जीवन पर पड़ने वाले अन्य प्रभाव :


  • जन्म कुंडली में जिनका चंद्रमा निर्बल रहता है, वे प्राय: शीतजनित रोगों से पीड़ित रहते हैं।

  • रक्त प्रवाह और हृदय इसके अधिकृत क्षेत्र हैं, किंतु अन्य ग्रह के साथ अशुभ य‍ुति होने  पर ही यह रक्तचाप, हृदय रोग की संभावना बनाता   है।

  • मूत्र संबंधी रोग, दिमागी खराबी, हाईपर टेंशन, हार्ट अटैक भी चन्द्रमा से संबंधित रोग है.

  • चन्द्रमा पश्चिम दिशा का स्वामी माना जाता है। चंद्रमा कर्क राशि में उच्च का एवं वृश्चिक राशि में नीच का माना जाता है। चंद्रमा उच्च राशि का होने पर मिष्ठान्न भोजी और अलंकार प्रिय बनाता है तथा इनके प्राप्त होने के योग भी बनाता है। मूल त्रिकोणी होने पर यह धनी और सुखी भी करता है। चंद्रमा नीच राशिगत होने पर धर्म, बुद्धि का ह्रास करता है तथा दुरात्मा व दुखी बनाता है। 

  • शुक्र ग्रही होने पर यह माता के स्नेह और सुख से वंचित करता है।

  • चन्द्रमा का आकर्षण पृथ्वी पर भूकंप, समुद्री आंधियां, तूफानी हवाएं, अति वर्षा, भूस्खलन आदि लाता हैं।



श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...