गुरुवार, 13 मई 2021

कोरोना की तीव्रता और न्यायपालिका की सक्रियता

 



( ये लेख मैंने एक हिन्दी साप्ताहिक "माधव भूमि" के लिए लिखा था जो कुछ विलम्ब से १८ मई २०२१ के अंक में प्रकाशित हुआ है, फोटोप्रति लेख के नीचे दिया गया है )

कोरोना की तीव्रता  और  न्यायपालिका की सक्रियता 

 

पिछले साल  चीनी वायरस कोरोना  का संक्रमण  प्रभावी ढंग से रोकने के लिए भारत सरकार की पूरे विश्व में सराहना की गई थी. ऐसी स्थिति में जब भारत में स्वास्थ्य ढांचा विकसित देशों के मुकाबले लगभग न के बराबर था, भारत में कोरोना  महामारी  रोकने का सबसे प्रभावी उपाय बना था लॉकडाउन, जिसके कारण  व्यापक जन हानि से बचा जा सका  था . यद्यपि लॉकडाउन के दुष्परिणाम  स्वरूप  अर्थव्यवस्था को बहुत गहरी चोट लगी थी, लेकिन  “जान है तो जहान है”  के  मोदी मंत्र  ने मानवीय  जीवन को अर्थव्यवस्था से ज्यादा महत्व दिया  था  और ये भारत जैसी प्राचीन सनातन देश की परंपरा के अनुरूप ही था. सनातन परंपरा के  अभिवादन  दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करने का प्रचलन विश्व के अनेक देशों में शुरू हो गया. भारतीय आयुर्वेदिक दवाओं   और प्राचीन घरेलू  नुस्खों ने भी  सामान्य लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिली  और इस कारण बहुत से लोगों को संभवत:  संक्रमण हुआ भी होगा, जिसका पता भी नहीं चला  और वह अपने आप ठीक हो गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  अनेक  देशों को  कोरोना संक्रमण में प्रभावी दवाओं की खेप  भेज कर वसुधैव कुटुंबकम का  परिचय  दिया था  जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने काफी ख्याति अर्जित की लेकिन भारतीय विपक्ष ने भारत की इस उपलब्धि को सिरे से नकारते हुए   सामान्य दिनों से कहीं ज्यादा सरकार का विरोध   करना जारी रखा.

 

लम्बे  लॉकडाउन  और इस अति आत्मविश्वास के कारण  ज्यादातर लोगों ने  जनवरी  2021 के आरंभ से ही सहज  और सामान्य जीवन  जीना शुरु कर दिया था. जनमानस में  ऐसा माना  जाने लगा था  कि कोरोना  पर भारत ने विजय प्राप्त कर ली है  और इसी बीच कोरोना के लिए दो भारतीय  वैक्सीन भी  उपलब्ध हो चुकी थी  जिसमें एक पूर्णतया भारतीय थी और दूसरी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सहयोग से बनाई जा रही थी. लोगों का आत्मविश्वास लौट आया था.   केंद्र सरकार  और राज्य सरकारों ने लॉकडाउन की अवधि का इस्तेमाल स्वास्थ्यगत  ढांचा की क्षमता बढ़ाने  में  किया.  इस समय दुनिया के कई विकसित देशों में कोरोना महामारी की दूसरी लहर चल रही थी और जिससे व्यापक जनहानि हुई थी.  जिसे देखते हुए केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को  राज्य के अनुरूप  योजनाएं बनाने और नए ऑक्सीजन प्लांट लगाने हेतु अनुरोध किया था और इसके लिए पीएम केयर्स फंड से धनराशि भी प्रदान की गई थी.  कई राज्यों ने इस दिशा में अच्छा कार्य किया लेकिन दिल्ली जैसे कई राज्य  आत्ममुग्ध होकर अपना गुणगान करने में ही लगे रहे. 


भारत में कोरोना की दूसरी लहर का आगाज मार्च के मध्य में शुरू हुआ और होली का त्यौहार आते आते इसका व्यापक असर दिखाई पड़ने लगा था, जिसके कारण  केंद्र द्वारा  व्यापक दिशा निर्देश दिए गए थे और राज्य सरकारों को  इस नई चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहने को कहा गया था.  अप्रैल में कोरोना महामारी ने कहर बरपाना शुरू कर दिया . कोरोना वायरस  का नए   वेरिएंट  ब्रिटेन और साउथ अफ्रीका के थे जो अपेक्षाकृत बहुत तेज   संक्रमण फैला रहे थे.  इसके अलावा पश्चिम बंगाल और विशाखापट्टनम  से एक नए वेरिएंट का भी आगाज हुआ जिसे  B.1.617 कहा  गया है, वह विश्व के 44 देशों में देखा गया है  जहां इस वैरिएंट ने   अत्यंत विकराल रूप धारण किया और व्यापक जनहानि की. भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में जहां अमेरिका की तुलना में जनसंख्या घनत्व बहुत ज्यादा है, इस तरह की महामारी फैलने की संभावना कहीं ज्यादा होती है, कोरोना  वायरस के कई वेरिएंट्स  और डबल  म्यूटेंट  ने मिलकर भारत में स्वास्थ्य ढांचे को चरमरा दिया.  इसके कारण प्रारंभ में  दिल्ली, महाराष्ट्र, और केरल जैसे राज्य लड़खड़ा गए वहीं बाद में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु भी इससे बुरी तरह से प्रभावित हो गए. ज्यादातर राज्य  ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहें हैं  और इसके कारण अचानक ऑक्सीजन की इतनी मांग बढ़ गई, जिसे उद्योगों को ऑक्सीजन की आपूर्ति रोक कर भी अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है.  

 

विपक्ष शासित राज्यों, विशेष  रूप  से दिल्ली सरकार ने  ऑक्सीजन के लिए न केवल अनावश्यक हो हल्ला मचाया  बल्कि केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय भी पहुंच  गई.  दिल्ली सरकार के इशारे पर कई अस्पताल भी उच्च न्यायालय पहुंच गए.  यह सही है कि देश में ऑक्सीजन की कमी थी लेकिन चारों तरफ से ऑक्सीजन की कमी के  शोर के कारण  लोगों ने ऑक्सीजन का  अनावश्यक भंडारण शुरू कर दिया. आपदा में अवसर तलाशने वाले कई  जमाखोर  सक्रिय हो गए और देखते ही देखते ऑक्सीजन सहित कई महत्वपूर्ण दवाइयों की भी कालाबाजारी शुरू हो गई.  इतनी भयंकर महामारी के समय में  भारतीय समाज का इतना गिरा हुआ  क्रूर चेहरा  शायद पहले कभी नहीं देखा गया. 

 

विभिन्न उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में  कोरोना  महामारी  को  लेकर  कई जनहित याचिकाएं दायर की गई.  कुछ उच्च न्यायालयों  ने मामलों का स्वत संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू कर दी. ज्यादातर उच्च न्यायालयों  ने अपने अपने राज्य को अधिक से अधिक ऑक्सीजन का कोटा देने के लिए केंद्र सरकार  को निर्देश दिए. दिल्ली की केजरीवाल सरकार के नाट्य  प्रस्तुतीकरण पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार को 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन दिल्ली को देने का निर्देश दिया जो उत्तर प्रदेश को मिल रहे 900 मीट्रिक टन ऑक्सीजन जिसकी जनसंख्या दिल्ली  की तुलना में  13 गुनी अधिक है, की तुलना में बहुत थोड़ा कम है.  आसानी से समझा जा सकता है कि न तो ऑक्सीजन का उत्पादन रातों-रात बढ़ाया जा सकता था और न ही तुरत फुरत किसी राज्य में  ऑक्सीजन पहुंचाई जा सकती थी क्योंकि ऑक्सीजन के प्लांट दूरस्थ स्थानों पर स्थित है और दिल्ली  जैसे कुछ राज्य  होम डिलीवरी की अपेक्षा कर रहे थे और  उच्च न्यायालय के माध्यम से  उन्होंने केंद्र सरकार को होम डिलीवरी करने के लिए मजबूर भी कर दिया.  

 

दिल्ली को ऑक्सीजन देने की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली और केंद्र सरकार के विरुद्ध काफी सख्त टिप्पणियां भी की  जिसका औचित्य समझना मुश्किल है.  मद्रास उच्च न्यायालय ने तो चुनाव आयोग के खिलाफ सख्त टिप्पणी करते हुए उनके विरुद्ध हत्या का  मुकदमा दर्ज करने की भी धमकी दी.  प्रयागराज उच्च न्यायालय  ने तो उत्तर प्रदेश सरकार को 5 शहरों में लॉकडाउन लगाने का  निर्देश जारी कर दिया जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और उस पर रोक लगाई जा सकी.  प्रयागराज उच्च न्यायालय ने ही  पंचायत चुनाव में कोरोना  प्रोटोकॉल का पालन न करवा पाने  और उसके कारण हुए  संक्रमण  पर  चुनाव आयोग के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां की.  यहां यह भी एक तथ्य है कि उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव उच्च न्यायालय के आदेश देने के  के कारण ही कराने पड़े थे  अन्यथा पंचायत चुनाव  तय समय से कुछ महीने बाद होने से लोकतंत्र खतरे में नहीं पड़ता, लेकिन चुनाव कराने के कारण करोड़ों लोगों का जीवन  कोरोना के खतरे के साये  में है.  उत्तर प्रदेश के गांवों  में  फ़ैली  कोरोना महामारी  प्रथम दृष्टया पंचायत चुनाव के कारण ही फैली है और दूसरा कारण है अहमदाबाद, दिल्ली और मुंबई से  पलायन कर आए श्रमिक.  कोलकाता उच्च न्यायालय ने भी   कोरोना संक्रमण पर सरकार और चुनाव आयोग के विरुद्ध टिप्पणियां की. 

 

इस समय सर्वोच्च न्यायालय देश की वैक्सीन नीति को लेकर सुनवाई कर रहा है जिसके लिए केंद्र सरकार ने एक हलफनामा दाखिल किया है.  इस हलफनामा में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया है कि न्यायपालिका को  अति उत्साह से बचना चाहिए और ऐसे मामले जिनमें विशेषज्ञ परामर्श की आवश्यकता होती है, अपने हाथ में लेने से बचना चाहिए.   केंद्र सरकार का यह अनुरोध बिल्कुल उचित प्रतीत होता है क्योंकि न्यायपालिका इस तरह के मामलों में दखल देकर कार्यपालिका के हाथ बांधने का काम कर रही है, जिसे इस महामारी के समय अपना पूरा ध्यान संकट से उबरने में लगाना चाहिए. 

 

न्यायपालिका को अपना संवैधानिक उत्तरदायित्व निभाते हुए कार्यपालिका को दिशा निर्देश देने का अधिकार है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि न्यायपालिका हर मामले की विशेषज्ञ नहीं हो सकती और  केवल निर्देश दे देने मात्र से किसी बड़े संकट का समाधान नहीं हो सकता क्योंकि हर संकट के लिए विशेषज्ञ नीति और क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है. संकट के समय जहां न्यायपालिका की सक्रियता की प्रशंसा की जानी चाहिए, वहीं  न्यायपालिका से यह अपेक्षा है कि वह कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करके संकट के समाधान में व्यवधान न बने.  कई विपक्षी राजनीतिक दल और विपक्षी राज्य सरकारें अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए न्यायपालिका से अनावश्यक और अनुचित हस्तक्षेप के लिए आग्रह कर रही हैं,  न्यायपालिका को इसे अच्छी तरह  समझना चाहिए  और अनावश्यक हस्तक्षेप से परहेज करना चाहिए. 


भारत की न्याय व्यवस्था की हालत भी  बहुत अच्छी तो नहीं कही जा सकती है क्योंकि   सामान्य जनमानस इससे बुरी तरह खिन्न और परेशान है. आम आदमी  में यह धारणा घर कर गई है कि चूंकि न्याय मिलना आसमान से तारे तोड़ने जैसा है, इसलिए जहां तक संभव हो सके कोर्ट कचहरी के चक्कर में ही न पड़ा जाए. इसलिए वह दिल पर पत्थर रख लेता है लेकिन कोर्ट कचहरी की तरफ जाने में हजार बार सोचता है, और जाता भी तभी है जब किसी ने उसे खुद ही घसीट लिया हो. अच्छा हो कि हमारी  न्यायपालिका भारतीय जनमानस की इस व्यथा को समझे और व्यापक सुधार के लिए कदम उठाए. मुझे याद नहीं आता कि न्यायपालिका ने स्वयं आगे आकर कार्यपालिका को कोई सुझाव दिया हो कि न्यायपालिका में लंबित  करोड़ों  मामले शीघ्र कैसे निपटाए जा सकते हैं और इस दिशा में क्या किया जाना चाहिए ?  न्यायालयों में अंग्रेजों के जमाने की पुरानी व्यवस्था चल रही है. अंग्रेज न्यायाधीश गर्मियों में अपने देश ब्रिटेन वापस चले जाते थे और सर्दियों में क्रिसमस मनाने भी अपने देश वापस चले जाते थे ये  छुट्टियां आज भी लगभग उसी तरह चल रही है.   लंबित मामलों का ढेर लगता चला जा रहा है. न्यायपालिका को इस बारे में  तुरंत ध्यान देना चाहिए .

 

राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड पर उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि  भारत में उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय और तालुका अदालतों में लगभग  3.77 करोड़  मामले लंबित हैं, जिनमें से करीब 37 लाख मामले पिछले 10 सालों से लंबित पड़े हुए हैं, इसमें 28 लाख मामले जिला और तालुका अदालत में  और  9.20 लाख मामले  उच्च न्यायालयों  में लंबित हैं।  यह भी बेहद चौंकाने वाला है कि 1.31 लाख मामले 30 सालों से  और 6.60 लाख से ज्यादा मामले पिछले 20 सालों से लंबित हैं। उच्च न्यायालय में स्थिति जिला न्यायालय से भी खराब है. देश भर में 25 उच्च न्यायालयों के समक्ष 47 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पीढ़ियां गुजर जाती हैं लेकिन  वर्तमान न्याय प्रणाली से न्याय नहीं मिलता. 

सर्वोच्च न्यायालय भी स्वत: संज्ञान में कितने ही मामलों की सुनवाई करता है, कितनी ही  जनहित याचिकाओं की प्राथमिकता  के आधार पर  सुनवाई करता है लेकिन  समय  आ गया है जब सर्वोच्च न्यायलय इस बात की स्वत: सुनवाई करे  कि करोड़ों की  संख्या में  लंबित इन मुकदमों का भविष्य कैसे तय किया जाए ? न्यायपालिका के प्रति विश्वास और सम्मान कैसे स्थापित किया जाए ?

देश हित में उचित यही होगा कि न्यायपालिका अपने संवैधानिक दायित्वों का पालन करें और  कार्यपालिका  को जहां जरूरी हो उचित दिशा निर्देश अवश्य  दें लेकिन  न्यायपालिका का जो प्राथमिक दायित्व है   उस दिशा में भी सकारात्मक और सार्थक कदम शीघ्र ही उठाए जाने की अपेक्षा जनता लंबे समय से कर रही है.