शनिवार, 16 नवंबर 2024

बटेंगे तो कटेंगे : कांग्रेस चुनाव जीतना चाहती है लेंकिन उलेमा हिन्दुस्तान जीतना चाहते हैं

 

बटेंगे तो कटेंगे ? लेकिन क्यों और कैसे ? यह कहना सांप्रदायिक है या फिर यह हिन्दू एकता का नारा है ?


राजनीति में बटेंगे तो सांप्रदायिकता से कटेंगे, स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है महाराष्ट्र चुनाव में  जहाँ कांग्रेस चुनाव जीतना चाहती है लेंकिन ... ...वे हिन्दुस्तान जीतना चाहते हैं 


लगभग 100 साल बाद भारत में वैसा ही वातावरण बनाया जा रहा है जैसा 1920 में जिन्ना की मुस्लिम संगठनों ने तैयार किया था. तुर्की के खलीफा की पद से हटाए जाने के विरोध में भारत में शुरू किये गए खलीफ़त आंदोलन को गाँधी और कांग्रेस ने समर्थन दिया था, जिसने मुस्लिम कट्टरपंथ को चरम पर पहुंचा कर देश में विभाजन की नींव तैयार कर दी थी. हिंदुओं की आँखों में धूल झोंकने के लिए गाँधी ने बड़ी चालाकी से इस आंदोलन का नाम खलीफ़त से खिलाफत आंदोलन कर दिया था. गाँधी और कांग्रेस के प्रश्रय में जिन्ना ने 1929 में मुसलमानों के लिए 14 सूत्रीय मांगें रखी, जिन का समर्थन गाँधी और कांग्रेस ने किया था, जिससे मुस्लिम कट्टरपंथियों के हौसले बुलंद हुए और यही हिन्दुओं के वीभत्स नरसंहार तथा देश के विभाजन का आधार बना. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में लगभग वैसा ही वातावरण बनता जा रहा है. आखिल भारतीय मुस्लिम उलेमा बोर्ड ने जिन्ना के नक्शेकदम पर चलते हुए 17 सूत्री मांगपत्र कांग्रेस को सौंपा है, जैसे कांग्रेस ने बिना समय गंवाए स्वीकार कर लिया है. 1929 और 2024 में केवल इतना अंतर है की अब कांग्रेस के साथ उसके इंडी गठबंधन के सभी सहयोगी भी शामिल है जिनमे शरद पवार के साथ साथ हिंदू हृदयसम्राट बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव बाल ठाकरे भी शामिल है.

जिन्ना और ऑल इंडिया मुस्लिम उलेमा बोर्ड की मांगों में बहुत समानता है. 1929 का जिन्ना का प्रस्ताव भारत में मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग का पहला कदम माना जाता है, वहीं ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल की मांगों में भी उसी की झलक देखी जा सकती है। कांग्रेस और शरद पवार द्वारा सभी शर्तों को स्वीकार करने के बाद मुस्लिम उलेमा बोर्ड ने कांग्रेस और महाअघाड़ी गठबंधन को चुनाव में समर्थन का ऐलान कर दिया है और सभी मुसलमानों को महा अघाड़ी के उम्मीदवारों को वोट देने का फतवा जारी कर दिया है.

उलेमा बोर्ड ने कांग्रेस को समर्थन देने के लिए जो 17 शर्तें रखी हैं उनमें 1- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध, 2- शिक्षा और नौकरियों में मुस्लिमों को 10% आरक्षण, 3- वक्फ बिल का विरोध, 4- महाराष्ट्र वक्फ मंडल के विकास के लिए 1000 करोड़ रुपये का फंड, 5- 2012 से 2024 तक के दंगों के मामलों में बंद मुसलमान कैदियों की रिहाई, 6-मौलाना सलमान अजहरी की रिहाई, 7- मस्जिदों के इमामों और मौलवियों को15 हजार रुपये सरकारी वेतन, 8- मुस्लिम युवाओं को पुलिस भर्ती में प्राथमिकता, 9- रामगिरी महाराज और नितेश राणे पर सख्त कार्रवाई, 10- उलेमा बोर्ड के मौलवियों और इमामों को सरकारी समितियों में शामिल करना, 11- महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड में 500 कर्मचारियों की नियुक्ति,12- वक्फ में केवल मुसलमान युवकों की भर्ती,13- चुनाव मे 50 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट,14- वक्फ बोर्ड की संपत्तियों से अतिक्रमण हटाने हेतु सख्त कानून,15- पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ बोलने पर प्रतिबन्ध, 16- राज्य के 48 जिलों में मस्जिदों, कब्रिस्तानों और दरगाहों की जब्त जमीनों की वापसी,17- उलेमा बोर्ड को 48 जिलों में संसाधन उपलब्ध कराना.

मुस्लिम उलेमा बोर्ड की शर्तों के पीछे छिपी विभाजनकारी मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है और इन शर्तों को स्वीकार करने की कांग्रेस की मानसिकता को भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि जो कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए भारत का विभाजन कर सकती है, वह कांग्रेस शेष भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने में संकोच नहीं करेगी. कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व पूरी तरह से मुस्लिम कट्टर पंथियों के प्रभाव में है. जवाहर लाल नेहरू से लेकर राहुल गाँधी तक, इस परिवार का मुस्लिम प्रेम जगजाहिर है. नेहरू परिवार अपनी को भारत से अधिक मुगलों के नजदीक समझता है. नेहरू और इंदिरा गाँधी की कार्यशैली हमेशा हिंदू विरोधी और मुस्लिम रही जिससे उन्होंने किसी तरह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि उनका मुस्लिम प्रेम देश प्रेम पर भारी पड़ता आया है. संविधान में मुसलमानों के लिए विशेष प्रावधान तथा हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति को नष्ट करने के प्रयास इस शंका का समर्थन करते हैं कि नेहरू भारत का जल्द से जल्द इस्लामिक बनाना चाहते थे.

राहुल गाँधी ने तो कई मौकों पर यह कहने से भी गुरेज नहीं किया है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी है. उनका वायनाड से चुनाव लड़ना और मुसलिम लीग तथा अन्य मुस्लिम संगठनों सहित जमीयत उलेमा ए हिंद का समर्थन लेना केवल एक संकेत है. वायनाड उपचुनाव में राहुल गाँधी की जगह प्रियंका वाड्रा को उम्मीदवार बनाना भी गाँधी परिवार का मुस्लिम लीग और मुस्लिम संगठनों के साथ गहरे संबंधों को उजागर करता है इसकी बानगी चुनाव प्रचार में देखी जा सकती है. जो व्यक्ति अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को नाच गाने का समारोह बताता है और मस्जिद से अजान की आवाज आने पर अपना भाषण बंद कर देता हो और संकेतों से जनता को भी चुप खड़े रहने की अपील करता हो, उससे हिंदू क्या अपेक्षा कर सकते हैं. यद्यपि वह हिंदुओं को मूर्ख बनाने के लिए कभी कभी कभी मंदिर जाने का नाटक करता है, और स्वयं को दत्तात्रेय गोत्र का ब्राह्मण बताता है. कोई भी औसत बुद्धि और विवेक का व्यक्ति समझ सकता है कि जब उनके पिता, दादा और परदादा हिंदू नहीं थे तो वह ब्राह्मण कैसे हो गए, और उन्हें दत्तात्रेय गोत्र कहाँ से मिला. अमेरिका और ब्रिटेन में राहुल गाँधी की सभाओं का आयोजन कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों द्वारा किया जाता रहा है, जिनमें से कई का संबंध आतंकवादी संगठनों से भी मिलता है. नेहरू से लेकर राहुल तक गाँधी परिवार का कोई भी ऐसा सदस्य नहीं है जो अफगानिस्तान में बाबर की मजार पर सजदा करने ना गया हो. ढाका से प्रकाशित ब्लिटज वीकली ने राहुल गाँधी और उनके परिवार पर जो सनसनीखेज खुलासे किए हैं उसे स्वयं कांग्रेसी भी हैरान हैं. जो परिवार हिंदुओं का वोट लेने के लिए, इतना बड़ा छलावा करता हो, उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है, आज इस प्रश्न पर सभी हिंदुओं को बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए.

हरियाणा विस चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भारत में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा किए गए हिंदू नरसंहार के परिपेक्ष्य में एक नारा दिया था “बटोगे तो कटोगे” जिसने हिंदुओं के मन मस्तिष्क में गहरा प्रभाव डाला. वास्तव में इस छोटे से नारे में सातवीं शताब्दी से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक भारत में हिंदुओं के भयानक नरसंहार की कहानी छुपी है. मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा भारत भूमि पर लगभग 10 करोड़ हिंदुओं का वीभत्स नरसंहार किया गया, जो पृथ्वी पर मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार है, जिसका कारण भी हिंदुओं में एकता का अभाव था. इतना हो जाने के बाद भी हिंदू नहीं चेते उन्हें न तो अपनी सुरक्षा के प्रति सजगता और सतर्कता उत्पन्न हो सकी और न हीं नरसंहार करनेवाले मुस्लिम आक्रांताओं को अपना पूर्वज कह कर गुणगान करने वालों के प्रति शत्रु भाव उत्पन्न हो सका. पता नहीं यह हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति सहिष्णुता है या हिंदुओं की स्वयं को नष्ट करने की प्रबल आकांक्षा.

पिछले लोकसभा चुनाव में विमर्श आधारित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर पहुँच गया था जिसका आभास प्रधानमंत्री मोदी को हुआ लेकिन बहुत देर से. पिछले 10 साल की पूर्ण बहुमत वाली अपनी सरकार के कार्यकाल में वह इसे भांप नहीं सके. इसलिए कट्टरपंथियों और गज़वा ए हिंद के प्रवर्तकों के विरुद्ध जो सख्त कदम उठाए जाने चाहिए थे वह नहीं उठाए गए. देर से ही सही न केवल भाजपा वरन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी इसका अहसास हो गया है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी योगी के इस नारे का न केवल समर्थन किया बल्कि उसे प्रचारित और प्रसारित भी किया. आज महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में इसकी गूंज सुनाई पड़ रही है. इसका असर तो चुनाव परिणामों के बाद ही दिखाई पड़ेगा लेकिन इतना निश्चित है कि हिंदू अभी भी सचेत नहीं हुआ तो ना तो हिंदू बचेगा और ना ही हिंदुस्तान.

~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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