शनिवार, 6 अप्रैल 2024

सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर लगाई रोक


हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ निर्णय चर्चा में रहे जिनमें न्यायिक सर्वोच्चता के साथ साथ न्यायिक अतिसक्रियता भी परलक्षित हुई, जिससे लोगों ने तरह तरह के कयास लगाने शुरू कर दिए.

कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर रोक लगा दी. रोक लगाते हुए उसने जो टिप्पणी की वह गंभीरतो है ही, कयासों को हवा देने वाली भी हैं, कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला कि मदरसा बोर्ड की स्थापना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है, सही नहीं हो सकता. बड़ी हैरानी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि उच्च न्यायालय का निर्णय सही नही है. अब वह पूरे मामले की फिर से सुनवाई करेगा, तब तक वर्तमान व्यवस्था चलती रहेगी. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कब आएगा इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है और यह मुकदमा भी 80 हजार लंबित मुकदमे में शामिल हो जाएगा और अनंतकाल तक पडा रह सकता है. ज्ञातव्य है कि 22 मार्च 2024 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के समानांतर मदरसा शिक्षा बोर्ड का कानून बनाना धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है. चूँकि उ.प्र.मदरसा शिक्षा बोर्ड उत्तर प्रदेश में संचालित मदरसों की इस्लामिक शिक्षा व्यवस्था का उत्तरदायित्व संभालता है, जिसमे केवल मुस्लिम छात्र पढ़ते है, इस तरह की सरकारी व्यवस्था एक देश दो विधान वाली है.

ज्ञानवापी के मामले में पूरे देश ने देखा कि कैसे भारतीय पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण को अनावश्यक विलंब का सामना करना पड़ा. सर्वोच्च न्यायालय ने मामला सेशन अदालत से लेकर जिला न्यायाधीश की अदालत को स्थानांतरित किया. दो कदम आगे और चार कदम पीछे चलने की प्रक्रिया से मामला कई बार उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों से गुजरा और कीमती समय बर्बाद हुआ. नई पीढ़ी के लोग इससे आसानी से समझ सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का 1950 में शुरू हुआ मुकदमा 2019 तक (लगभग 70 वर्ष) तक क्यों लटका रहा.

नेशनल जुडिशल डेटा ग्रिड पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में इस समय लगभग 80 हजार मुकदमे लंबित हैं, इसमें 50 हजार से अधिक मुकदमे एक साल से अधिक समय से लंबित है. कुछ मुकदमे 40 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित है. लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि जितने मामलों का निपटारा होता है उससे अधिक नए मामले आ जाते हैं. अगर लंबित मामलों का विश्लेषण करें तो यह बिलकुल स्पष्ट है कि 2013 के बाद साल दर साल मुकदमो की संख्या बढ़ती जा रही है. पिछले वर्ष 2023 के 10481 मुकदमे लंबित हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. सभी उच्च न्यायालयों मे मिलाकर 62 लाख मुकदमे लंबित हैं, जिनमे लगभग 80% एक वर्ष से अधिक समय से लंबित है, बड़ी संख्या में मामले कई दशकों से लंबित हैं. वर्तमान समय में सभी न्यायालयों में मिलाकर 4.4 करोड़ मुकदमे लंबित है, इनमें राजस्व, चकबंदी, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर, विभिन्न त्रय्बुनल के मुकदमे शामिल नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय में 80 हजार से भी अधिक मुकदमे लंबित होने के वास्तविक कारण हो सकते हैं लेकिन असाधारण रूप से जनता को अंग्रेजों के जमाने के ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश खटकते हैं जिस पर सोशल मीडिया में जमकर विरोध किया जाता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और ये व्यवस्था पूरे शान-ओ-शौकत के साथ चलती जा रही है. मुकदमों के शीघ्र निपटान के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई वैकल्पिक व्यवस्था या प्राथमिक स्तर पर सरलीकृत व्यवस्था का सुझाव दिया गया हो ऐसा भी नहीं है. तो फिर इन लंबित मुकदमो की जिम्मेदारी किसकी है, इसका भी समुचित उत्तर नहीं मिलता. ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में गंभीर नहीं है. न्याय की आश में पीढ़ियां गुजर जाती हैं लेकिन मुकदमें ज्यों के त्यों चलते रहते हैं. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कुछ ऐसे मुकदमे भी लंबित हो जिनसे दोनों पक्ष के पैरवीकार मर खप गए हो और मुकदमे तारीख का इंतजार कर रहे हो.

लंबित मुकदमों के बढ़ते जाने का एक सबसे बड़ा कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णयों पर रोक लगाना हो सकता है. आखिर सभी न्यायाधीश कोलिजियम की कथित बेहतरीन व्यवस्था से निकले हैं तो इतना विरोधाभास या अविश्वास क्यों. जनहित याचिकाओं को बढ़ावा देना भी प्रमुख कारण है. प्रभावशाली, धनाढ्य और राजनीतिक व्यक्तियों तथा मुस्लिम संगठनों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान करना भी, बड़ा कारण है. जनहित याचिकाएं हमेशा से विवादों के घेरे में रहती आई है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ जनहित याचिकाएं बहुत ही महत्वपूर्ण और जनहित में दायर की गई होती है लेकिन कुछ याचिकाएं ऐसी होती हैं जो प्रथम दृष्टया स्वार्थ पूर्ण लगती हैं. हाल में एक ऐसी जनहित याचिका दायर की गई जिनमें कोलेजियम द्वारा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को भेजी गई सूची को निश्चित समय सीमा में स्वीकृत प्रदान करने से संबंधित थी. समझा जा सकता है कि जनहित याचिकाकर्ता का सर्वोच्च न्यायालय से, या कोलिजियम सूची में नामित सदस्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कितना गहरा संबंध है.

हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक निर्णय में चुनाव आयुक्तों सहित कुछ अन्य नियुक्तियों के लिए बनी कमेटी में मुख्य न्यायाधीश को एक सदस्य घोषित किया था. कितनी हास्यास्पद बात है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने खुद किसी कमेटी का सामना नहीं किया, कोई साक्षात्कार नहीं दिया, वह इन कमेटियों का सदस्य बनना चाह रहा है ताकि नियुक्तियां पारदर्शी हो सके.

सर्वोच्च न्यायालय की अतिसक्रियता या संसद के अधिकारों के अतिक्रमण करने का एक संगीन मामला तब सामने आया जब उसने संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को निरस्त कर दिया. कारण बताया गया कि यह संविधान विरोधी है. हाल में इलेक्टोरल बांड का 2019 में बना कानून भी असंवैधानिक बता कर निरस्त कर दिया है. इन सभी पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर कर चुके थे. अगर सर्वोच्च न्यायालय संसद से भी सर्वोच्च है तो क्यों न उसे लोकसभा, राज्यसभा के साथ तीसरे सदन की मान्यता दे दी जाय और जब तक सर्वोच्च न्यायालय अनुमति न दे कोई नया कानून न बनाया जाय. ऐसा विश्व में किसी देश में नहीं होता है. सर्वोच्च न्यायालय पर जो आरोप लगते हैं उसका कारन इस तरह के पक्षपाती दिखने वाले फैसले ही होते हैं.

1991 में पारित पूजा स्थल कानून में यह व्यवस्था है कि देश के धार्मिक स्थलों का जो स्वरूप 15 अगस्त 1947 को था उसे यथारुप बनाए रखा जाएगा. क्या कोई ऐसा कानून बनाया जा सकता है जो 43 वर्ष पीछे से लागू किया जाए. इस कालखंड में अगर हिंदुओं ने अपने उन धर्म स्थलों का पुनः प्राप्त कर जीर्णोद्धार कर लिया होता, जिन पर मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़फोड़ कर मस्जिदे बना दी थी, तो कितने विषम स्थिति उत्पन्न हो गई होती. वक्फ बोर्ड का कानून भी किसी भी दृष्टिकोण से न तो संवैधानिक है और न ही धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इन सब पर खामोश रहा, खामोश हैं और खामोश रहेगा. मंदिरों पर सरकारी नियन्त्रण और उनके चढ़ावे को हड़पने का जो कानून जवाहर लाल नेहरू ने बनाया था उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय को कभी कोई आपत्ति नहीं हुई. संविधान की प्रस्तावना में इंदिरा गाँधी द्वारा “सोसलिस्ट सेक्युलर” जोड़ने पर भी उसे कोई समस्या नहीं. ऐसा क्यों.

कई ऐसे मौकों पर जब न्यायपालिका को सक्रिय होकर अपनी राष्ट्रीय भूमिका अदा करना चाहिए था, सर्वोच्च न्यायालय निष्क्रिय रहा. लंबे समय तक शाहीन बाग में चले सीएए विरोधी आंदोलन के कारण दिल्लीवासियों को हुई भयानक असुविधाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई निर्देश देने की बजाय अपने वार्ताकार भेज दिये. न्यायपालिका के इस अभिनव प्रयोग की प्रशंसा नहीं की जा सकती. किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली घेरकर बैठे कुछ आंदोलनकारियों और असामाजिक तत्वों के धरने प्रदर्शन पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने जो रवैया अपनाया उससे भी न्यायपालिका की गरिमा की गंभीर क्षति हुई.

धारा 370 हटाने के विरोध में दायर की गई लगभग 40 याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने 16 दिन तक लगातार सुनवाई की. यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने धारा 370 हटाने पर मुहर लगा दी लेकिन संसद द्वारा पारित कानूनों की इतनी सूक्ष्म विवेचना और उस पर लगाए जाने वाले समय को कम किया जा सकता था.

मेरा अपना मत है कि पांच सात न्यायाधीशों की पीठ संसद, जो भारत के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, द्वारा बनाये गए किसी कानून को निरस्त करने की हकदार नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय न्यायपालिका में तो सर्वोच्च है लेकिन देश में सर्वोच्च है, इस गलतफहमी से जितनी जल्दी हो सके बाहर आ जाने में ही उसकी और देश की भलाई है.

~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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