नव रात्र
क्रम संख्या |
अध्याय |
पेज संख्या |
१. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. |
नव रात्र का प्रथम दिन - प्रथम दुर्गा : श्री शैलपुत्री नव रात्र का दूसरा दिन – द्वितीय दुर्गा : श्री मां ब्रह्मचारिणी नव रात्र का तीसरा दिन –
तृतीय दुर्गा : श्री मां चन्द्र घंटा नव रात्र का चौथा दिन – चतुर्थ दुर्गा
: श्री मां कूष्मांडा नव रात्र का पांचवां दिन
– पंचम दुर्गा : श्री मां स्कंदमाता नव रात्र का छटा दिन –
षष्ठम दुर्गा : श्री मां कात्यायनी नव रात्र का सातवां दिन
– सप्तम दुर्गा : श्री मां काल रात्रि नव रात्र का आठवां दिन –
अष्ठम दुर्गा : श्री मां महा गौरी नव रात्र का नौवां दिन – नवम दुर्गा : श्री मां सिद्धिदात्री हवन करने की विधि माँ दुर्गा के मंत्र दुर्गा चालीसा दुर्गा जी की आरती दुर्गा जी की आरती |
३ ६ १० १५ २२ ३१ ३७ ४७ ५३ ५८ ७१ ७३ ७८ ७९ |
नव रात्र का प्रथम दिन -
प्रथम दुर्गा : श्री शैलपुत्री
श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज
हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन
इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
विधि :
नवरात्र के पहले दिन सर्वप्रथम गनेश वंदना के लिए कलश की
स्थापना करें फिर एक चौकी पर माता
शैलपुत्री की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से
शुद्धीकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश
स्थापना करें। उसी चौकी पर श्रीगणेश, वरुण, नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त घृत मातृका की स्थापना भी करें। इसके उपरांत व्रत, पूजन का संकल्प लें और
वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा मां शैलपुत्री सहित समस्त स्थापित देवताओं की
षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन,
पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा और मंत्र पुष्पांजलि
मां शैलपुत्री को अर्पित करें। मां शैलपुत्री की पूजा के समय इन मंत्रों का जाप
करना बहुत फलदायक होता है।
शैलपुत्री का ध्यान
वन्दे वांछितलाभाय
चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां
शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां
गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
पटाम्बर परिधानां
रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना
पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां
स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
मां शैलपुत्री की साधना के लिए साधक अपने मन को “मूलाधार
चक्र” में स्थित करते हैं। इनको साधने से “मूलाधार चक्र” जागृत होता है और यहीं से
योग चक्र आरंभ होता है जिससे अनेक प्रकार की सिद्धियों कि प्राप्ति होती है।
शैलपुत्री की स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।
मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
शैलपुत्री की कवच
ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
‘ऊं’ ऐं
ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊं शैलपुत्री देव्यै नम:’ का नित्य एक माला जाप
करने से हर प्रकार की शुभता प्राप्त होती है। ऐसा माना जाता है कि सच्चे मन से
शैलपुत्री की आराधना करने वाले भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
मां शैलपुत्री की साधना
साधकों को यह जान लेना भी आवश्यक है कि मां
शैलपुत्री कि साधना मनोवांछित लाभ के लिए की जाती है। इनकी साधना का सबसे उत्तम
समय सायं पांच बजे से सात बजे के बीच है। मां शैलपुत्री की पूजा श्वे़त पुष्पों से
करनी चाहिए और इन्हें मावे से बने भोग लगाने चाहिए। श्रृंगार में मां शैलपुत्री को
चंदन अर्पित करना सर्व फलदायक होता है।
पूजा का ज्योतिष दृष्टिकोण
देवी दुर्गा के प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री की साधना का
संबंध चंद्रमा से है। कालपुरूष सिद्धांत के अनुसार कुण्डली में चंद्रमा का संबंध
चौथे भाव से होता है। अतः मां शैलपुत्री की साधना का संबंध व्यक्ति के सुख, सुविधा, माता, निवास स्थान, पैतृक संपत्ति, वाहन सुख, और चल-अचल संपत्ति से भी
है। ज्योतिष शास्त्र के जानकारों के अनुसार जिनकी कुण्डली में चंदमा किसी नीच ग्रह
से प्रताड़ित है या चंद्रमा नीच का है। उन्हें मां शैलपुत्री की साधना सर्वश्रेष्ठ
फल देती है। मां शैलपुत्री की साधना का संबंध व्यक्ति के मन से भी है। इनकी
साधनासे साधक की मनोविकृति दूर होती है।
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नव रात्र का दूसरा दिन - द्वितीय
दुर्गा : श्री मां ब्रह्मचारिणी
दच्चना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु| देवी प्रसीदतु मयि
ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||
श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां
ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से
प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम
से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है।
ब्रह्मचारिणी की
उपासना से मनुष्य में तप,
त्याग, वैराग्य, सदाचार , संयम की वृद्धि होती है।
जीवन की कठिन समय मे भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है। देवी अपने
साधकों की मलिनता, दुर्गणों व दोषों
को खत्म करती है। देवी की कृपा से सर्वत्र सिद्धि तथा विजय की प्राप्ति होती है.
जो साधक मां के इस रूप की पूजा करते हैं उन्हें तप, त्याग, वैराग्य, संयम और सदाचार की प्राप्ति होती है और जीवन में वे जिस बात
का संकल्प कर लेते हैं उसे पूरा करके ही रहते हैं।
क्या चढ़ाएं प्रसाद
मां भगवती को नवरात्र के दूसरे दिन चीनी का भोग लगाना चाहिए
मां को शक्कर का भोग प्रिय है।
ब्राह्मण को दान में भी चीनी ही देनी चाहिए। मान्यता है कि
ऐसा करने से मनुष्य दीर्घायु होता है। इनकी उपासना करने से मनुष्य में तप, त्याग, सदाचार आदि की वृद्धि
होती है।
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप ज्योर्तिमय है। ये मां दुर्गा
की नौ शक्तियों में से दूसरी शक्ति हैं। तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा इनके अन्य नाम हैं। इनकी पूजा
करने से सभी काम पूरे होते हैं, रुकावटें दूर हो जाती हैं और विजय की प्राप्ति होती है।
इसके अलावा हर तरह की परेशानियां भी खत्म होती हैं। देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा
करने से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है।
ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा विधि
देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा करते समय सबसे पहले
हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें और प्रार्थना करते
हुए नीचे लिखा मंत्र बोलें।
श्लोक -
दच्चना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु| देवी प्रसीदतु मयि
ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||
ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलु धराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
इसके बाद देवी को पंचामृत स्नान कराएं, फिर अलग-अलग तरह के फूल,अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें। देवी को
सफेद और सुगंधित फूल चढ़ाएं। इसके अलावा कमल
का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं और इन मंत्रों से प्रार्थना करें।
1. या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण
संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
2. दधाना कर
पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
अर्थ : हे मां! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप
में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा
बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं।
इसके बाद देवी मां को प्रसाद चढ़ाएं और आचमन करवाएं। प्रसाद
के बाद पान सुपारी भेंट करें और प्रदक्षिणा करें यानी 3 बार अपनी ही जगह खड़े
होकर घूमें। प्रदक्षिणा के बाद घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें। इन सबके बाद
क्षमा प्रार्थना करें और प्रसाद बांट दें।
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
“मां ब्रह्मचारिणी
का कवच”
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
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नवरात्रि का तीसरा दिन : मां चंद्रघंटा
या
देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो
नमः।"
माँ
दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है।
नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के
विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र
में प्रविष्ट होता है।
“ पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | प्रसादं
तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता”
नवरात्र
के तीसरे दिन का महत्व
अपने चंद्रघंटा स्वरूप में मां परम शांतिदायक और
कल्याणकारी हैं. उनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है. इसलिए मां के इस
रूप को चंद्रघण्टा कहा जाता है. इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है. इनका
वाहन सिंह है. इनके दसों हाथों में अस्त्र-शस्त्र हैं और इनकी मुद्रा युद्ध की
मुद्रा है. मां चंद्रघंटा तंभ साधना में मणिपुर चक्र को नियंत्रित करती है और
ज्योतिष में इनका संबंध मंगल ग्रह से होता है. इनकी पूजा करने से भय से मुक्ति
मिलती है और अपार साहस प्राप्त होता है. माँ का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है।
इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का
रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। इनके दसों हाथों में खड्ग आदि
शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के
लिए उद्यत रहने की होती है।माँ का स्वरूप अत्यंत
सौम्यता एवं शांति से परिपूर्ण रहता है। इनकी आराधना से वीरता-निर्भयता के साथ ही
सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होकर मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में
दिव्य, अलौकिक माधुर्य का
समावेश हो जाता है। माँ चंद्रघंटा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें
देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं।
माँ के आराधक
के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है। यह दिव्य
क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखाई नहीं देती, किन्तु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव
भली-भाँति करते रहते हैं
माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य
सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं।
ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं।
या
देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो
नमः।"
अर्थ : हे
माँ! सर्वत्र विराजमान और चंद्रघंटा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको
मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे
सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।
इस दिन सांवली
रंग की ऐसी विवाहित महिला जिसके चेहरे पर तेज हो, को बुलाकर उनका पूजन करना चाहिए। भोजन में दही और हलवा खिलाएँ।
भेंट में कलश और मंदिर की घंटी भेंट करना चाहिए
माता चंद्रघंटा की कथा
देवताओं और असुरों
के बीच लंबे समय तक युद्ध चला. असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवाताओं के
इंद्र. महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया
और स्वर्गलोक पर राज करने लगा. इसे देखकर सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्या
से निकलने का उपाय जानने के लिए त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास गए.
देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और अन्य देवताओं के सभी
अधिकार छीन लिए हैं और उन्हें बंधक बनाकर स्वयं स्वर्गलोक का राजा बन गया है.
देवाताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्याचार के कारण अब देवता पृथ्वी पर विचरण कर
रहे हैं और स्वर्ग में उनके लिए स्थान नहीं है.
यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शंकर को अत्यधिक
क्रोध आया. क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्पन्न हुई. देवगणों के शरीर
से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई. यह दसों दिशाओं में व्याप्त होने
लगी. तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ. भगवान शंकर ने देवी को त्रिशूल और भगवान
विष्णु ने चक्र प्रदान किया. इसी प्रकार अन्य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों
में अस्त्र शस्त्र सजा दिए. इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक
घंटा दिया. सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया. देवी अब
महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं. उनका विशालकाय रूप देखकर
महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है. महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर
हमला करने को कहा. अन्य देत्य और दानवों के दल भी युद्ध में कूद पड़े. देवी ने
एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया. इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्य बड़े दानवों और
राक्षसों का संहार मां ने कर दिया. इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान
दिलाया.
कैसे
करें पूजन
मां चंद्रघंटा को लाल फूल चढ़ाएं, लाल
सेब और गुड़ चढाएं, घंटा बजाकर पूजा करें, ढोल
और नगाड़े बजाकर पूजा और आरती करें, शुत्रुओं
की हार होगी. इस दिन गाय के दूध का प्रसाद चढ़ाने का विशेष विधान है. इससे हर तरह
के दुखों से मुक्ति मिलती है.
मां चंद्रघंटा के इस मंत्र का करें जाप:
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
मां चंद्रघंटा का
मंत्र
1.
सरल मंत्र : ॐ एं ह्रीं क्लीं
माता चंद्रघंटा का उपासना मंत्र
पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता.
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता..
2. ‘या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै
नसस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:‘
ये मां का महामंत्र है जिसे पूजा पाठ
के दौरान जपना होता है.
मां चंद्रघंटा का बीज मंत्र है-
‘ऐं श्रीं शक्तयै नम:’
3. पिंडजप्रवरारुढ़ा चन्दकोपास्त्रकैर्युता!
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघंटेति विश्रुता
इस
मंत्र का जाप भी होता है शुभकारी:
ॐ देवी चन्द्रघण्टायै नमः
माँ
चंद्रघंटा माँ पार्वती का सुहागिन स्वरुप है. इस स्वरुप में माँ के मस्तक पर
घंटे के आकार का चंद्रमा सुशोभित है इसीलिए इनका नाम
चन्द्र घंटा पड़ा. माँ चंद्रघंटा की आराधना करने
वालों का अहंकार नष्ट होता है एवं उनको असीम शांति और वैभवता
की प्राप्ति होती है. माँ चंद्रघंटा के ध्यान मंत्र, स्तोत्र
एवं कवच पाठ से साधक का मणिपुर चक्र जागृत होता है जिससे साधक को
सांसारिक कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है.
प्रथम नवरात्र के वस्त्रों का रंग एवं प्रसाद
नवरात्र के तीसरे दिन आप पूजा में हरे रंग
के वस्त्रों का प्रयोग कर सकते हैं. यह
दिन ब्रहस्पति पूजा के लिए सर्वोत्तम दिन है. तीसरे नवरात्रि
के दिन दूध या दूध से बनी मिठाई अथवा खीर का भोग माँ को लगाकर ब्राह्मण को दान
करें। इससे जीवन में सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है
ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम
कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल
मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ
आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥
कवच
रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।
स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न
दातव्यं कदाचितम्॥
ॐ
नव रात्र का चौथा दिन - चतुर्थ दुर्गा- श्री कूष्मांडा
चतुर्थ दुर्गा : श्री कूष्मांडा
श्री दुर्गा का
चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न
करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ
दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त
रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु
मे।
नवरात्रि में
दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की
पूजा-उपासना की जाती है। आइए जानते हैं चौथी देवी मां कूष्मांडा के बारे में :-
नवरात्रि में
चौथे दिन देवी को कूष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड
को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कूष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब
सृष्टि नहीं थी, चारों
तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना
की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।
इस देवी की आठ
भुजाएं हैं, इसलिए
अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी
सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें
कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कूष्मांड कहते हैं इसलिए इस
देवी को कूष्मांडा।
इन देवी का वास सूर्यमंडल के
भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए
इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से
दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज
व्याप्त है।
अचंचल और
पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे
भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी
अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा
करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।
विधि-विधान से
पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह
देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान
करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
ब्रह्माण्ड में
अवस्थित सभी वस्तुओं व जीवों का तेज इन्हीं की छाया है। भगवती के इस स्वरूप की आठ
भुजाएं हैं। इन्हें अष्ठभुजा के नाम से जाना जाता है। इनके सात हाथों में कमंडलु, धनुष, वाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र व गदा सुशोभित रहती है, आठवें हाथ में सभी सिद्धियां व निधियां
देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
संस्कृत भाषा
में कूष्माण्डा यानी कुम्हड़े को कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय
मानी जाती है। इस कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है। नवरात्रि के चौथ्ो दिन देवी
के इन्हीं स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक के मन में अनाहत चक्र अवस्थित
होता है, इसलिए
इस दिन साधक को अत्यन्त पवित्र और अचंचल भाव से कूष्माण्डा देवी का पूजन अर्चन
करना चाहिए। मां कूष्माण्डा की कृपा से रोग व शोक नष्ट हो जाते हैं। आयु, यश व आरोग्य प्रदान करती हैं। मां कूष्माण्डा
अल्प सेवा व भक्ति से प्रसन्न हो जाती हैं। यदि मनुष्य सच्चे मन से भगवती के इस
स्वरूप की पूजा करे तो उसे नि:संदेह परमगति प्रदान होती है। हमे चाहिए कि
शास्त्रों में वर्णित विधि विधान से मां दुर्गा की उपासना व भक्ति करे। साधक भी
मातृ कृपा को अनुभव जल्द ही करने लगता है। लौकिक व परालौकिक उन्नति के लिए साधक को
इनकी उपासना के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
चतुर्थ
नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के
चौथे दिन आयु, यश, बल एवम ऐश्वर्य प्रदायिनी भगवती कुष्माण्डा
की पूजा आराधना का प्रावधान है।
सुरा सम्पूर्ण कलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्त पद्माभ्यां कुष्माण्डा
शुभदास्तु मे।।
माता की साधना
करने वाले साधक सर्वप्रथम माता भगवती की प्रतिमा स्थापित करें उसके बाद चौकी पर
पीले वस्त्र पर दुर्गायंत्र स्थापित करें और मनोरथ पूर्ति के लिए नीचे लिखे मंत्र
का १०८ बार जप करें-
ऊँ क्रीं कूष्माण्डायै क्रीं ऊँ।।
मंत्र का पाठ
करने के उपरान्त भक्ति पूर्वक शुद्घ घी से प्रज्वलित दीपक से आरती करें और
प्रार्थना करें कि-हे माता! मैं अज्ञानी! आप की पूजा आराधना करना नहीं जानता यदि
मुझसे कोई त्रुटि हो तो अपना पुत्र समझकर क्षमा करें।
चतुर्थ दिन
अराधना कर भक्त अपनी आतंरिक प्राणशक्ति को उर्जावान बनाते हैं
कूष्माण्डा की
नवरात्रि के चतुर्थ दिन अराधना कर भक्त अपनी आतंरिक प्राणशक्ति को उर्जावान बनाते
हैं। इन्हें सृष्टि की आदि स्वरूप देवी माना जाता है। यही आदि शक्ति हैं, इनसे पूर्व ब्रह्माण्डा का अस्तित्व नहीं
था।कूष्माण्डा का अभिप्राय कद्दू से हैं। गोलाकार कद्दू मानव शरीर में स्थित
प्राणशक्ति समेटे हुए हैं। एक पूर्ण गोलाकार वृत्त की भांति प्राणशक्ति दिन-रात
भगवती की प्रेरणा से सभी जीवों का कल्याण करती हैं।
कद्दू
प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता
और शक्ति की वृद्धि करता है। कू का अर्थ है छोटा, उष्म का अर्थ उर्जा और अंडा का अर्थ है
ब्रह्मांडीय गोला। धर्म ग्रंथों में मिलने वाले वर्णन के अनुसार अपने मंद और हल्की
से मुस्कान मात्र से अंड को उत्पन्न करने वाली होने के कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा
गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, तब इन्हीं देवी ने महाशून्य में अपने मंद
हास्य से उजाला करते हुए अंड की उत्पत्ति की, जो कि बीज रूप में ब्रह्मतत्व के मिलने से
ब्रह्माण्ड बना।
इस प्रकार मां दुर्गा
की यही अजन्मा और आदिशक्ति रूप है। जीवों में इनका स्थान अनाहत चक्र माना गया है।
नवरात्रि के चतुर्थ दिन योगी इसी चक्र में अपना ध्यान लगाते हैं। मां कूष्माण्डा
का निवास सूर्य लोक में है। उस लोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं
में है। इनका वाहन सिंह है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा यानी कुम्हड़े को कहते
हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय मानी जाती है। इस कारण इन्हें
कूष्माण्डा कहा जाता है।
इनके स्वरूप की
कांति और तेज मंडल भी सूर्य के समान है। सूर्य के समान ही अतुलनीय है। मां
कूष्माण्डा अष्टभुजा देवी हैं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष, वाण, कमल का फूल, अमृत कलश, चक्र और गदा है, जबकि आठवें हाथ में सर्वसिद्धि और सर्वनिधि
देने वाली जप माला है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन मां के इस स्वरूप के सामने मालपूवे
का भोग लगाना चाहिए। इसके बाद इस प्रसाद को दान करें और स्वयं भी ग्रहण करें। ऐसा
करने से भक्तों की बुद्धि का विकास होने के साथ-साथ निर्णय क्षमता भी बढ़ती है।
देवी कूष्मांडा
का साधना मंत्र
ओम देवी कुष्मांडायै नम:
सूरा सम्पूर्ण कलशं रुधिरा प्लुतमेव च ।
दधानां हस्त पदमयां कूष्माण्डा शुभदास्तु
मे ।।
दिन साधक का मन अनाहक चक्र
में होता है। भक्तों को नवरात्र के चौथे दिन पवित्र एवं उज्जवल मन से देवी के
स्वरूप का ध्यान करना चाहिए और पूजा उपासना करनी चाहिए। क्योंकि माँ कूष्मांडा
बड़ी ही सरलता से अपने भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होती हैं।कहा जाता है कि मां की
उपासना भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयष्कर मार्ग है।जैसा की
दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा गया है-
कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत:
संसार: ।
स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा
कूष्मांडा ।।
इसका अर्थ है
कि “वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं।देवी
कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं।जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी।उस
समय अंधकार का साम्राज्य था।“
देवी कूष्मांडा
अष्टभुजा से युक्त हैं इसीलिए इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता
है।देवी अपने हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र और गदा धारण करती हैं।वहीं देवी के
आठवें हाथ में कमल फूल के बीज की माला है।यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि
सिद्धि देने वाली है।देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं।जिस प्रकार ब्रह्मांड
के गहन अंधकार के गर्भ से सृष्टि का सृजन नव ग्रहों के रूप में हुआ वैसे ही मनुष्य
के जीवन का सृजन भी माता के गर्भ में नौ महीने के अंतराल में होता है।मानव योनि के
लिए गर्भ के ये नौ महीने नवरात्र के समान होते हैं।जिसमें आत्मा मानव शरीर धारण
करती है। वास्तव में नवरात्र का अर्थ शिव और शक्ति के उस नौ दुर्गा के स्वरूप से
भी है जिन्होंने आदिकाल से ही इस संसार को जीवन प्रदायिनी ऊर्जा प्रदान की है और
प्रकृति और सृष्टि के निर्माण में स्त्री शक्ति की प्रधानता को सिद्ध किया है।
मां दुर्गा
स्वयं सिंहवाहिनी होकर अपने शरीर में नवदुर्गाओं के अलग-अलग स्वरूप को समाहित किए
हुए हैं। मां भगवती के इन नौ स्वरूपों की चर्चा महर्षि मार्कंडेय जी को ब्रह्मा जी
द्वारा जिस क्रम में बताया गया था उसी क्रम के अनुसार नवरात्र के चौथे दिन मां
कूष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है।
श्रीमद् देवी
भागवतमहापुराण मे भगवती के पृथ्वी पर आगमन और विस्तार का वर्णन है।कहा जाता हैं की
काशी के राजा ने अपनी कन्या का विवाह सुदर्शन नामक साधारण युवक से करा दिया था।
जिससे रूष्ट होकर सभी राजाओं ने युद्ध के लिए सुदर्शन को ललकारा जिसके बाद सुदर्शन
ने भगवती की प्रार्थना और तपस्या की। तब प्रसन्न होकर भगवती ने सभी राजाओं को
युद्ध में हरा दिया और वर भी दिया की वो काशी में ही रहेंगी।
देवी
पूराणानुसार ब्रम्हा जी ने देवी मां की स्तुती में स्वयं कहा है कि आप जगजननी हैं,सृष्टी धारण करती हैं,आप ही जगतमाया देवी,सृष्टी स्वरूपा और आप ही कल्पांतसंहारी
हैं।नवरात्रि महोत्सव पर हजारों की संख्या मे श्रद्धालुओं का मंदिरों में तांता
लगा रहता है।क्योंकि मां जगतजननी जगदम्बा विपदा और संकट मे घिरे भक्तों के लिए
तारणहार है,मुक्तिकारक
है,मनोकामना पूरी
करने वाली हैं।
मां कूष्मांडा
को प्रसन्न करने के लिए सबसे पहले उनका ध्यान करना चाहिए और फिर स्त्रोत मंत्र से
मां कूष्मांडा की आराधना करनी चाहिए,और फिर उपासना मंत्र।जो क्रमश:इस प्रकार
है:-
ध्यान मंत्र
सुरा संपूर्ण रुधिराप्लुतमेव च
दधानां हस्तपद्माभ्यां कूष्मांडा शुभदास्तु
मे ।
ध्यान वन्दे वांछित
कामर्थेचन्द्रर्घकृत शेखराम।
सिंहरुढ़ा अष्टभुजा
कूष्मांडा यशस्नीम्घ।
भास्वर भानु निभां
अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम।।
कमण्डलु चाप,बाण,पदमसुधाकलश चक्त्र गदा जपवटीघराम्घ।
पटाम्वर परिधानां
कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषीताम।
मंजीर हार केयूर
किंकिण रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
प्रफुल्ल वदनं नारु
चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम।
कोलांगी स्मेरमुखीं
क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनिम् घ् स्तोत्र दुर्गतिनाशिनी तंवमहि दारिद्राहि
विनाशिनीम्।
जयदां धनदां
कूष्मांडे प्रणमाम्हम्घ्।
चराचरेश्र्वरी
कूष्मांडे प्रणमाम्यहम्ध्।
त्रैलोक्यसुंदरी
त्वंहि दुरुख शोक निवारिणांम्।
परमानंदमयी
कूष्मांडे प्रणमाम्यहम्ध् कवच हसरै मे शिररु पातु कुष्मांडे भवनाशिनीम।
हसलकरीं नेत्रथ,हसरौश्र्च ललाटकम्घ्।
कौमारी पातु
सर्वगात्रे वाराही उत्तरे तथा।।
पूर्वे पातु
वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिग्दिध सर्वत्रैव
कूं बीजं सर्वदावतुघ।।
उपासना मंत्र
सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च
दधानां हस्तपद्भ्यां कूष्मांडा
शुभदास्तुमे।।
ये सभी मंत्र
श्रीदेवीभागवत और दुर्गा सप्तशती से लिए गए हैं, जिनका भक्तिभाव से नित्य पाठ करना सदैव
कल्याणकारी होता है।
नव रात्र का पांचवा दिन - पंचम दुर्गा : श्री स्कंदमाता
पंचम दुर्गा : श्री
स्कंदमाता
सिंहासन गता नित्यम पदमाश्रित कर द्वया ।
शुभदास्तु
सदा देवी
स्कंदमाता यशस्विनी ।।
या देवी सर्वभूतेषु मां स्कन्दमाता रूपेण
संस्थिता. नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री
स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें
स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती
हैं।
नवरात्रि के पांचवें दिन का महत्व
नवरात्रि-पूजन के पांचवें दिन का
शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है. इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की
समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है. वह विशुद्ध चैतन्य
स्वरूप की ओर अग्रसर हो रहा होता है.साधक का मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बंधनों से
विमुक्त होकर पद्मासना मां स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है. इस
समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिए. उसे अपनी समस्त
ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए.
मां स्कंदमाता की उपासना से भक्त की
समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं. इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का
अनुभव होने लगता है. उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वमेव सुलभ हो जाता है. स्कंदमाता
की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव हो जाती है. यह विशेषता केवल
इन्हीं को प्राप्त है, अतः
साधक को स्कंदमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए.
सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के
कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है. एक अलौकिक प्रभामंडल
अदृश्य भाव से सदैव उसके चतुर्दिक् परिव्याप्त रहता है. यह प्रभामंडल प्रतिक्षण
उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है. हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ
की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए. इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर
मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है
माता स्कंदमाता के मंत्र
1. या देवी सर्वभूतेषु मां स्कन्दमाता
रूपेण संस्थिता.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
2. या देवी सर्वभूतेषु मां स्कन्दमाता
रूपेण संस्थिता.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
3. महाबले महोत्साहे. महाभय विनाशिनी.
त्राहिमाम स्कन्दमाते. शत्रुनाम भयवर्धिनि..
4. ओम देवी स्कन्दमातायै नमः॥सिंहासनगता
नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में
नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। नवरात्रि में पांचवें दिन इस देवी की
पूजा-अर्चना की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है।
स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण
इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप
में इनकी गोद में विराजित हैं।
इस देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाईं
तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल
का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में
कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं।
इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है।
इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं
पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के
कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अतः मन को एकाग्र रखकर और
पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में
कठिनाई नहीं आती है।
उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता
है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का
निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत
रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।
“सिंहासनगता नित्यं पद्याञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥“
श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता
होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और
आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां
स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।
इनकी आराधनासे मनुष्य सुख-शांति की
प्राप्ति करता है। सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो
वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।
नवरात्री दुर्गा पूजा पंचमी तिथि –
स्कंदमाता की पूजा
भगवान स्कन्द जी बालरूप में माता की
गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में अवस्थित होता है.
स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और
दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के
पुष्प पर विराजितरहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा
देवी भीकहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है|
माँ स्कंदमाता सूर्यमंडल की
अधिष्ठात्री देवी हैं| इनकी
उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है | यह अलौकिक प्रभामंडल
प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है| एकाग्रभाव से मन को पवित्र
करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से
मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है|
स्कन्दमाता की पूजा विधि :
कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से जो
साधक दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध
चक्र की साधना का होता है. इस चक्र का भेदन करने के लिए साधक को पहले मां की विधि
सहित पूजा करनी चाहिए. पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा
प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अब तक केचार दिनों में किया
है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए “सिंहासनगता नित्यं
पद्माश्रितकरद्वया. शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी.अब पंचोपचार विधि से
देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए. नवरात्रे की पंचमी तिथि को कहीं कहीं भक्त जन
उद्यंग ललिता का व्रत भी
रखते हैं. इस व्रत को फलदायक कहा गया है. जो भक्त देवी स्कन्द
माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं
उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है. देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और
घर में सुख, शांति
एवं समृद्धि रहती है.
स्कन्दमाता की मंत्र :
सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया |
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण
संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
स्कन्दमाता की ध्यान :
वन्दे वांछित
कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा
चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द
चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म
करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां
मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल
धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना
पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या
चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥
स्कन्दमाता की स्तोत्र
पाठ :
नमामि स्कन्दमाता
स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागररमपारपार
गहराम्॥
शिवाप्रभा
समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां
जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता
सनंतकुमाररसस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता
यथार्थनिर्मलादभुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां
विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता
विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां
मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां
त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी
सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनी
सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोन्धकारयामिनी
शिवस्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र्सूर्यराजिका
धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला
सुभडवृन्दमजुल्लाम्।
प्रजायिनी प्रजावति
नमामि मातरं सतीम्॥
स्वकर्मकारिणी गति
हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति
कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनःपुनर्जगद्वितां
नमाम्यहं सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने
प्रसीद देवीपाहिमाम्॥
स्कन्दमाता की कवच :
ऐं बीजालिंका देवी
पदयुग्मघरापरा।
हृदयं पातु सा देवी
कार्तिकेययुता॥
श्री हीं हुं देवी
पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वांग में सदा
पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥
वाणंवपणमृते हुं
फ्ट बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्नेव
वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणां भैरवी
चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां
देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥
वात, पित्त, कफ
जैसी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए और माता को
अलसी चढ़ाकर प्रसाद में रूप में ग्रहण करना चाहिए || नवरात्री में दुर्गा
सप्तशती पाठ किया जाता हैं
स्कन्द माता कथा :
दुर्गा पूजा के पांचवे दिन देवताओं के
सेनापति कुमार कार्तिकेय की माता की पूजा होती है. कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में
सनत-कुमार, स्कन्द
कुमार के नाम से पुकारा गया है. माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नज़र आती
हैं. माता का पांचवा रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है. जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार
बढ़ता है तब माता संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती
हैं. देवी स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में
भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं. मां
का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है. देवी स्कन्द माता ही हिमालय
की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है. यह
पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने
गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं.
माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है
अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है. जो भक्त
माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं|
सबसे पहले चौकी (बाजोट) पर स्कंदमाता
की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण
करें। चौकी पर चांदी, तांबे
या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर कलश रखें। उसी चौकी पर श्रीगणेश, वरुण, नवग्रह, षोडश मातृका (16
देवी), सप्त घृत मातृका (सात
सिंदूर की बिंदी लगाएं) की स्थापना भी करें।
इसके बाद व्रत, पूजन का संकल्प लें
और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा स्कंदमाता सहित समस्त स्थापित देवताओं की
षोडशोपचार पूजा करें।
इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि
करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।
संतान प्राप्ति हेतु जपें स्कन्द माता
का मंत्र। जिन व्यक्तियों को संतानाभाव हो, वे माता की पूजन-अर्चन तथा मंत्र जप कर लाभ उठा सकते हैं। मंत्र
अत्यंत सरल है -
'ॐ स्कन्दमात्रै
नम:।।'
निश्चित लाभ होगा।
कवच
ऐं बीजालिंकादेवी
पदयुग्मधरापरा।
हृदयंपातुसा देवी
कातिकययुताघ्
श्रींहीं हुं ऐं
देवी पूर्वस्यांपातुसर्वदा।
सर्वाग में सदा
पातुस्कन्धमातापुत्रप्रदाघ्
वाणवाणामृतेहुं फट्
बीज समन्विता।
उत्तरस्यातथाग्नेचवारूणेनेत्रतेअवतुघ्
इन्द्राणी भैरवी
चौवासितांगीचसंहारिणी।
सर्वदापातुमां देवी चान्यान्यासुहि दिक्षवैघ्
नव रात्र
का छटवां दिन - षष्ठम दुर्गा : श्री कात्यायनी
षष्ठम दुर्गा :
श्री कात्यायनी
चंद्र हासोज्ज वलकरा शार्दू लवर वाहना,
कात्यायनी शुभं दद्या देवी दानव घातिनि
मां कात्यानी की पूजा का महत्व
नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा करने का विधान
है. मां कात्यायनी ने महिषासुर नाम के असुर का वध किया था. जिस कारण मां कात्यायनी
को दानवों, असुरों और
पापियों का नाश करने वाली देवी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि मां कात्यायनी की
पूजा करने से व्यक्ति को अपनी इंद्रियों को वश में करने की शक्ति प्राप्त होती है.
मां कात्यायनी का स्वरूप
मां कात्यायनी देवी का रुप बहुत आकर्षक है. इनका शरीर सोने
की तरह चमकीला है. मां कात्यायनी की चार भुजा हैं और इनकी सवारी सिंह है. मां
कात्यायनी के एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कमल का फूल सुशोभित है. साथ ही
दूसरें दोनों हाथों में वरमुद्रा और अभयमुद्रा है.
विवाह में आने वाली बाधाएं दूर करती हैं
विधि पूर्वक पूजा करने से जिन कन्याओं के विवाह में देरी
आती है इस पूजा से लाभ मिलता है. एक कथा के अनुसार कृष्ण को पति रूप में प्राप्त
करने के लिए बृज की गोपियों ने माता कात्यायनी की पूजा की थी. माता कात्यायनी की
पूजा से देवगुरु बृहस्पति प्रसन्न होते हैं और कन्याओं को अच्छे पति का वरदान देते
हैं.
माता कात्यायनी की कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे.
इनके पुत्र ऋषि कात्य थे. इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि
कात्यायन उत्पन्न हुए थे और जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब
भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने मिलकर
महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया. ऋषि कात्यायन के यहां जन्म
लेने के कारण इन्हें कात्यायनी के नाम से जाना जाता है.
गोधुलि बेला में करें पूजा
मां कात्यायनी की पूजा विधि पूर्वक करने से व्यक्ति को
सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है. मां कात्यायनी की पूजा करने से शत्रुओं का नाश
होता है. रोग से मुक्ति मिलती है. मां का ध्यान गोधुलि बेला यानि शाम के समय में
करना चाहिए. ऐसा करने से माता अधिक प्रसन्न होती हैं.
पूजा की विधि
नवरात्रि के छठवें दिन सबसे पहले मां कत्यायनी को लकड़ी की
चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर स्थापित करें. इसके बाद मां की पूजा उसी तरह की जाए जैसे
कि नवरात्रि के बाकि दिनों में अन्य देवियों की जाती है. इस दिन पूजा में दिन शहद
का प्रयोग करें. मां को भोग लगाने के बाद इसी शहद से बने प्रसाद को ग्रहण करना शुभ
माना गया है. छठे दिन देवी कात्यायनी को पीले रंग से सजाना चाहिए.
श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन
की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था।
इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती
है।
मां कात्यायनी का रूप
मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भव्य है. इनकी
चार भुजाएं हैं. मां कात्यायनी के दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में और
नीचे वाला वरमुद्रा में है. बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ
में कमल-पुष्प सुशोभित है. मां कात्यायनी सिंह की सवारी करती हैं.
मां कात्यायनी का पसंदीदा रंग और भोग
मां कात्यायनी को पसंदीदा रंग लाल है. मान्यता है कि शहद
का भोग पाकर वह बेहद प्रसन्न होती हैं. नवरात्रि के छठे दिन पूजा करते वक्त मां
कात्यायनी को शहद का भोग लगाना शुभ माना जाता है.
मां कात्यायनी की पूजा विधि
1. गंगाजल से
छिड़काव कर शुद्धिकरण करें. नवरात्रि के छठे दिन अच्छे से स्नान करके लाल या पीले
रंग का वस्त्र पहने. इसके बाद घर के पूजा स्थान पर देवी कात्यायनी की प्रतिमा स्थापित
करें.
2. अब मां की
प्रतिमा के आगे दिया रखें और हाथों में फूल लेकर मां को प्रणाम करके उनके ध्यान
करें,
3. इसके बाद उन्हें
पीले फूल, कच्ची हल्दी की
गांठ और शहद अर्पित करें. धूप-दीपक से मां की आरती करें उसके बाद प्रसाद वितरित
करें.
मां को शहद का भोग प्रिय है . षष्ठी तिथि के दिन देवी के
पूजन में मधु का महत्व बताया गया है. इस दिन प्रसाद में मधु यानि शहद का प्रयोग
करना चाहिए. इसके प्रभाव से साधक सुंदर रूप प्राप्त करता है.
देवी कात्यायनी का मंत्र
सरलता से अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने वाली मां
कात्यायनी का उपासना मंत्र है:
चंद्र हासोज्ज वलकरा शार्दू लवर वाहना
कात्यायनी शुभं दद्या देवी दानव घातिनि
देवी कात्यायनी की आरती:
जय जय अंबे जय कात्यायनी ।
जय जगमाता जग की महारानी ।।
बैजनाथ स्थान तुम्हारा।
वहां वरदाती नाम पुकारा ।।
कई नाम हैं कई धाम हैं।
यह स्थान भी तो सुखधाम है।।
हर मंदिर में जोत तुम्हारी।
कहीं योगेश्वरी महिमा न्यारी।।
हर जगह उत्सव होते रहते।
हर मंदिर में भक्त हैं कहते।।
कात्यायनी रक्षक काया की।
ग्रंथि काटे मोह माया की ।।
झूठे मोह से छुड़ानेवाली।
अपना नाम जपानेवाली।।
बृहस्पतिवार को पूजा करियो।
ध्यान कात्यायनी का धरियो।।
हर संकट को दूर करेगी।
भंडारे भरपूर करेगी ।।
जो भी मां को भक्त
पुकारे।
कात्यायनी सब कष्ट निवारे।।
कौन हैं मां कात्यायनी
मान्यता है कि महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न
होकर आदिशक्ति ने उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया था. इसलिए उन्हें कात्यायनी
कहा जाता है. मां कात्यायनी को ब्रज की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है. पौराणिक
मान्यताओं के अनुसार गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए यमुना नदी
के तट पर मां कात्यायनी की ही पूजा की थी. कहते हैं कि मां कात्यायनी ने ही अत्याचारी
राक्षस महिषाषुर का वध कर तीनों लोकों को उसके आतंक से मुक्त कराया था.
ध्यान
वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार,
केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल
मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥
स्तोत्र पाठ
कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।
स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां।
सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
नवरात्र का सातवाँ दिन - सप्तम दुर्गा : श्री काल
रात्रि
सप्तम दुर्गा : श्री कालरात्रि
या देवी सर्वभूतेषु
माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
मां दुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का
नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि
कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक
को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए।
चैत्र नवरात्रि का सातवां दिन मां दुर्गा के कालरात्रि
स्वरूप की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होता है। आज चैत्र नवरात्रि का सातवां दिन
है यानी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि। आज के दिन मां कालरात्रि की पूजा
करने से व्यक्ति को शुभ फल की प्राप्ति होती है। इस कारण से मां कालरात्रि को
शुभंकरी के नाम से भी पुकारा जाता है। मां कालरात्रि की पूजा करने से आकस्मिक
संकटों से रक्षा होती है। आज के दिन मां कालरात्रि को रातरानी का पुष्प अर्पित
करने से वह जल्द प्रसन्न होती हैं। आइए जानते हैं नवरात्रि के सातवें दिन मां
कालरात्रि की पूजा विधि, मंत्र, पूजा मुहूर्त और महत्व
क्या है?
मां कात्यायनी पूजा मुहूर्त चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की
सप्तमी तिथि यानी चैत्र नवरात्रि का सातवां दिन 31 मार्च दिन मंगलवार को प्रात:काल 03 बजकर 14 मिनट से प्रारंभ हो गया
है, जो 01 अप्रैल दिन बुधवार को
प्रात:काल 03 बजकर 49 मिनट तक रहेगा। ऐसे में
आज आपको सुबह तक मां कालरात्रि की पूजा कर लेनी चाहिए।
प्रार्थना
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।
वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
स्तुति
या देवी सर्वभूतेषु मां कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
मंत्र
ओम देवी कालरात्र्यै नमः।
नवरात्र के सातवें
दिन मां दुर्गा के सातवें स्वरूप कालरात्रि
की पूजा का विधान है. शक्ति का यह रूप शत्रु और दुष्टों का संहार करने
वाला है. मान्यता है कि मां कालरात्रि ही वह देवी हैं जिन्होंने मधु कैटभ जैसे
असुर का वध किया था. कहते हैं कि महा सप्तमी के दिन पूरे विधि-विधान से
कालरात्रि की पूजा करने पर मां अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं. ऐसा
भी कहा जाता है कि मां कालरात्रि की पूजा करने वाले भक्तों को किसी भूत, प्रेत या बुरी शक्ति का
भय नहीं सताता.
कालरात्रि का स्वरूप
शास्त्रों के अनुसार देवी कालरात्रि का स्वरूप अत्यंत भयंकर
है. देवी कालरात्रि का यह भय उत्पन्न करने वाला स्वरूप केवल पापियों का नाश करने
के लिए है. मां कालरात्रि अपने भक्तों को सदैव शुभ फल प्रदान करने वाली होती हैं.
इस कारण इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है. देवी कालरात्रि का रंग काजल के समान काले
रंग का है जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है. इनका वर्ण अंधकार की भांति
कालिमा लिए हुए है. देवी कालरात्रि का रंग काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत
दिखाई देता है. भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है मां का ये रूप शास्त्रों में देवी
कालरात्रि को त्रिनेत्री कहा गया है. इनके तीन नेत्र ब्रह्मांड की तरह विशाल हैं, जिनमें से बिजली की तरह
किरणें प्रज्वलित हो रही हैं. इनके बाल खुले और बिखरे हुए हैं जो की हवा में लहरा
रहे हैं. गले में विद्युत की चमक वाली माला है. इनकी नाक से आग की भयंकर ज्वालाएं
निकलती रहती हैं. इनकी चार भुजाएं हैं. दाईं ओर की ऊपरी भुजा से महामाया भक्तों को
वरदान दे रही हैं और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं. बाईं
भुजा में मां ने तलवार और खड्ग धारण की है. शास्त्रों के अनुसार देवी कालरात्रि
गधे पर विराजमान हैं.
मां कालरात्रि का पसंदीदा रंग और भोग
नवरात्रि का सातवां दिन मां कालरात्रि को सपमर्पित है.
कालरात्रि को गुड़ बहुत पसंद है इसलिए महासप्तमी के दिन उन्हें इसका भोग लगाना
शुभ माना जाता है. मान्यता है कि मां को गुड़ का भोग चढ़ाने और ब्राह्मणों को दान
करने से वह प्रसन्न होती हैं और सभी विपदाओं का नाश करती हैं. मां कालरात्रि को
लाल रंग प्रिय है.
मां कालरात्रि की पूजा विधि
पूजा शुरू करने के लिए मां कालरात्रि के परिवार के सदस्यों, नवग्रहों, दशदिक्पाल को प्रार्थना
कर आमंत्रित कर लें. सबसे पहले कलश और उसमें
उपस्थित देवी-देवता की पूजा करें.
- अब हाथों में फूल
लेकर कालरात्रि को प्रणाम कर उनके मंत्र का ध्यान किया जाता है. मंत्र है-
"देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्तया, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां, भक्त नता: स्म विपादाधातु शुभानि सा न:".
- पूजा के बाद
कालरात्रि मां को गुड़ का भोग लगाना चाहिए.
- भोग लगाने के बाद
दान करें और एक थाली ब्राह्मण के लिए भी निकाल कर रखनी चाहिए.
बिशेष : मां कालरात्रि की पूजा ब्रह्ममुहूर्त में ही की
जाती है. वहीं तंत्र साधना के लिए तांत्रिक मां की पूजा आधी रात में करते हैं.
इसलिए सूर्योदय से पहले ही उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो जाएं.
मां कालरात्रि के पूजन के लिए विशेष कोई विधान नहीं है. इस
दिन आप एक चौकी पर मां कालरात्रि का चित्र स्थापित करें.
मां कालरात्रि को कुमकुम, लाल पुष्प, रोली आदि चढ़ाएं. माला के रूप में मां को नींबुओं की माला
पहनाएं और उनके आगे तेल का दीपक जलाकर उनका पूजन करें.
मां को लाल फूल अर्पित करें. मां के मंत्रों का जाप करें या
सप्तशती का पाठ करें. मां की कथा सुनें और धूप व दीप से आरती उतारने के बाद मां को
प्रसाद का भोग लगाएं और मां से जाने अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा मांगें.
काले रंग का वस्त्र धारण करके या किसी को नुकसान पंहुचाने
के उद्देश्य से पूजा ना करें. अगर आप शत्रुओं व विरोधियों से घिरे हैं और उनसे
मुक्ति पाना चाहते हैं तो मां कालरात्रि की पूजा विशेष तरीके से भी कर सकते हैं.
मां कालरात्रि को प्रसन्न करने के लिए पूजा में चढ़ाएं ये
खास फूल-
यूं तो मां की अराधना करने के लिए आप किसी भी फूल का
इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन हिंदू धर्म में मां कालरात्रि की पूजा में खास तौर पर
चमेली के फूलों का इस्तेमाल करने का विशेष महत्व बताया गया है।
मां कालरात्रि नवदुर्गा का सातवां स्वरूप हैं. इनका रंग
काला है और ये तीन नेत्रधारी हैं. मां कालरात्रि के गले में विद्युत् की अद्भुत
माला है. इनके हाथों में खड्ग और कांटा है और गधा इनका वाहन है. परन्तु ये भक्तों
का हमेशा कल्याण करती हैं. अतः इन्हें शुभंकरी भी कहते हैं.
मां कालरात्रि की विशेष पूजा
मां कालरात्रि की पूजा करने के लिए श्वेत या लाल वस्त्र
धारण करें और ध्यान रहे कि यह विशेष पूजा आपको रात्रि में ही करनी है.
मां कालरात्रि के समक्ष दीपक जलाएं और उन्हें गुड़ का भोग
लगाएं. 108 बार नवार्ण
मंत्र पढ़ते जाएं और एक एक लौंग चढाते जाएं.
नवार्ण मंत्र है-
"ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे "
उन 108 लौंग को इकठ्ठा
करके अग्नि में डाल दें.
ऐसा करने से आपके विरोधी और शत्रु शांत होंगे और आपकी सारी
परेशानियां मां कालरात्रि स्वयं दूर कर
देंगी.
देवी कालरात्रि का ध्यान
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघ: पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृद्धिदाम्॥
देवी कालरात्रि के मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
एक वेधी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।
देवी कालरात्रि के स्तोत्र पाठ
हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥
देवी कालरात्रि के कवच
ऊँ क्लीं मे हृदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥
कालरात्रि की आरती
कालरात्रि जय-जय-महाकाली।
काल के मुह से बचाने वाली॥
दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा।
महाचंडी तेरा अवतार॥
पृथ्वी और आकाश पे सारा।
महाकाली है तेरा पसारा॥
खडग खप्पर रखने वाली।
दुष्टों का लहू चखने वाली॥
कलकत्ता स्थान तुम्हारा।
सब जगह देखूं तेरा नजारा॥
सभी देवता सब नर-नारी।
गावें स्तुति सभी तुम्हारी॥
रक्तदंता और अन्नपूर्णा।
कृपा करे तो कोई भी दुःख ना॥
ना कोई चिंता रहे बीमारी।
ना कोई गम ना संकट भारी॥
उस पर कभी कष्ट ना आवें।
महाकाली माँ जिसे बचाबे॥
तू भी भक्त प्रेम से कह।
कालरात्रि माँ तेरी जय॥
मां कालरात्रि का बीज मंत्र-
ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ऊं कालरात्रि दैव्ये
नम:
क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं क्रीं क्रीं ह्रीं
ह्रीं हूं हूं स्वाहा .
मां कालरात्रि की
उपासना से लाभ
- शत्रु और
विरोधियों को नियंत्रित करने के लिए इनकी उपासना अत्यंत शुभ होती है
- इनकी उपासना से
भय, दुर्घटना तथा
रोगों का नाश होता है
- इनकी उपासना से
नकारात्मक ऊर्जा का ( तंत्र मंत्र) असर नहीं होता
- ज्योतिष में शनि
नामक ग्रह को नियंत्रित करने के लिए इनकी पूजा करना अदभुत परिणाम देता है
मां कालरात्रि का सम्बन्ध किस चक्र से है?
मां कालरात्रि व्यक्ति के सर्वोच्च चक्र, सहस्त्रार को नियंत्रित
करती हैं
- यह चक्र व्यक्ति
को अत्यंत सात्विक बनाता है और देवत्व तक ले जाता है
- इस चक्र तक पहुच
जाने पर व्यक्ति स्वयं ईश्वर ही हो जाता है
- इस चक्र पर गुरु
का ध्यान किया जाता है
- इस चक्र का दरअसल
कोई मंत्र नहीं होता
- नवरात्रि के
सातवें दिन इस चक्र पर अपने गुरु का ध्यान अवश्य करें
शत्रु और विरोधियों को शांत करने के लिए कैसे करें मां
कालरात्रि की पूजा
- श्वेत या लाल
वस्त्र धारण करके रात्रि में मां कालरात्रि की पूजा करें
- मां के समक्ष
दीपक जलाएं और उन्हें गुड का भोग लगायें
- इसके बाद 108 बार नवार्ण मंत्र पढ़ते
जाएं और एक एक लौंग चढाते जाएं
- नवार्ण मंत्र है
- "ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे "
- उन 108 लौंग को इकठ्ठा करके
अग्नि में डाल दें
- आपके विरोधी और
शत्रु शांत होंगे
मां कालरात्रि को क्या विशेष प्रसाद अर्पित करें?
- मां कालरात्रि को
गुड का भोग अर्पित करें
- इसके बाद सबको
गुड का प्रसाद वितरित करें
- आप सबका
स्वास्थ्य अत्यंत उत्तम होगा
नवरात्रि में महा सप्तमी या सातवां दिन मां दुर्गा के सातवें अवतार मां
कालरात्रि को समर्पित है. ये नाम दो शब्दों के साथ बनाया गया है, काल का अर्थ है मृत्यु और
रत्रि का अर्थ है अंधकार. इसलिए, कालरात्रि का अर्थ है, काल या समय की मृत्यु. कहा जाता है कि मां कालरात्रि अज्ञान
का नाश करती हैं और अंधकार में रोशनी लाती हैं.
आज के दिन नवपत्रिका पूजा भी की जाती है.
मां कालरात्रि को काली मिर्च, कृष्णा तुलसी या काले चने का भोग लगाया जाता
है. वैसे नकारात्मक शक्तियों से बचने के लिए आप गुड़ का भोग लगा सकते हैं. इसके
आलावा नींबू काटकर भी मां को अर्पित कर सकते हैं. मां कालरात्र का स्वरूप अत्यंत भयानक है पर मां का ह्रदय
अत्यंत कोमल है. वह दुष्टों का नाश करके अपने भक्तों को सारी परेशानियों व
समस्याओं से मुक्ति दिलाती है. इनके गले में नरमुंडों की माला होती है.
नवरात्रि के सातवें दिन मां
कालरात्रि की पूजा करने से भूत प्रेत, राक्षस, अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि सभी नष्ट
हो जाते हैं.
कुंडली में सभी ग्रह खराब हो तो करें मां कालरात्रि की पूजा
अगर किसी की कुंडली में सभी ग्रह खराब हो या फिर अशुभ फल दे
रहे हों तो नवरात्रि के सातवें दिन उस व्यक्ति को मां कालरात्रि की पूजा अवश्य ही
करनी चाहिए क्योंकि सभी नौ ग्रह मां कालरात्रि
के अधीन है.
मां कालरात्रि की पूजा का महत्व
नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा की जाती है
जिनका रूप अत्यंत भयानक है. जो दुष्टों के लिए काल का काम करता है और उनके भक्तों
के लिए शुभ फल प्रदान करता है. आज के दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन
मां कालरात्रि के इस भव्य स्वरूप की पूजन-आराधन की जाती है. इस दिन माता के भक्तों
को अत्यंत पवित्र मन से देवी की पूजा-उपासना करनी चाहिए. इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है.
देवी कालात्रि को व्यापक रूप से माता देवी - काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, रुद्रानी, चामुंडा, चंडी और दुर्गा के कई
विनाशकारी रूपों में से एक माना जाता है. रौद्री और धुमोरना देवी कालात्री के ही
नाम हैं.
मां कालरात्रि का भव्य रूप :
इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है.सिर के
बाल बिखरे हुए हैं. गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है. इनके तीन नेत्र हैं.
ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड की तरह गोल हैं. कालरात्रि अंधकारमय स्थितियों का विनाश
करने वाली शक्ति हैं. यह काल से भी रक्षा करने वाली देवी हैं.माँ की नासिका के
श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं. इनका वाहन गर्दभ
(गदहा) है. ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं.
दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है. बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे
का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है. जितना इनका रूप भयंकर है उसके
विपरित ये सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं. इसीलिए इन्हे शुभंकरी कहा गया है. इसलिए
इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत ना होकर उनकी अराधना करके पुण्य का भागी
बनना चाहिए.
मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण
संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में
प्रसिद्ध अम्बे, मैं आपको बारंबार
प्रणाम करता /करती हूं. हे माँ, मुझे पाप से मुक्ति प्रदान करें.
ॐ ऐं ह्रीं क्रीं कालरात्रै नमः .
कालरात्रि के इस श्लोक का भी करें जाप:
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥
नव
रात्र का आठवां दिन : अष्टम दुर्गा : श्री महागौरी
अष्टम दुर्गा : श्री महागौरी
"श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥“
श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं।
इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती
हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य
भी संभव हो जाते हैं। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है।
इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी पाप धुल जाते
हैं और पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी
नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
नवरात्र अष्टमी व्रत कथा
भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी
ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से
प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से
धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा
तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं।
देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और
ऋषिगण कहते हैं
“सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये
त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते।।”
महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी
प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां
पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी
परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में
वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत
दया आई और माँ ने उसे अपना वाहन बना लिया, क्योंकि एक प्रकार से उसने
भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।
माँ दुर्गा के महागौरी स्वरूप की पूजा विधि
अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए
देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। सबसे पहले लकड़ी की चौकी पर या मंदिर में
महागौरी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर
उस पर महागौरी यंत्र रखें और यंत्र की स्थापना करें। मां सौंदर्य प्रदान करने वाली
हैं। हाथ में श्वेत पुष्प लेकर मां का ध्यान करें।
अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ माना
जाता है। कन्याओं की संख्या 9 होनी चाहिए नहीं तो 2 कन्याओं की पूजा करें।
कन्याओं की आयु 2 साल से ऊपर और 10 साल से अधिक न हो। भोजन
कराने के बाद कन्याओं को दक्षिणा देनी चाहिए।
ध्यान
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं
महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां
त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥
स्तोत्र पाठ
सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥
इस दिन माता महागौरी की आराधना करने से
व्यक्ति को सौभाग्य की प्राप्ति होती है, साथ ही सुख-समृद्धि में
कोई कमी नहीं होती है. महाष्टमी के दिन कन्या पूजन का विधान है,हा जाता है कि कन्याएं मां
दुर्गा का साक्षात् स्वरूप होती हैं, इसलिए नवरात्रि के अष्टमी
को कन्या पूजा की जाती है.
कौन हैं महागौरी?
महागौरी को लेकर दो पौराणिक मान्यताएं
प्रचलित हैं. एक मान्यता के अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने
कठोर तपस्या की थी, जिससे इनका शरीर काला पड़
जाता है. देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान उन्हें स्वीकार करते हैं और उनके
शरीर को गंगा-जल से धोते हैं. ऐसा करने से देवी अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो
जाती हैं. तभी से उनका नाम गौरी पड़ गया.
एक
दूसरी कथा के मुताबिक एक सिंह काफी भूखा था. वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां
देवी ऊमा तपस्या कर रही होती हैं. देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार
करते हुए वहीं बैठ गया. इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया. देवी जब तप से उठी
तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई. मां ने उसे अपना वाहन बना लिया
क्योंकि एक तरह से उसने भी तपस्या की थी. माना जाता है कि माता सीता ने श्री राम
की प्राप्ति के लिए महागौरी की पूजा की थी. महागौरी श्वेत वर्ण की हैं और सफेद रंग
मैं इनका ध्यान करना बहुत लाभकारी होता है. विवाह संबंधी तमाम बाधाओं के निवारण
में इनकी पूजा अचूक होती है. ज्योतिष में इनका संबंध शुक्र ग्रह से माना जाता है.
कैसे करें महागौरी की पूजा
महागौरी की पूजा पीले कपड़े पहनकर करें, इसके बाद मां के सामने
दीपक जलाएं और उनका ध्यान करें. इसके बाद सफेद या पीले फूल चढ़ाएं औऱ उनके मंत्रों
का जाप करें, इसके बाद मध्य रात्रि में
इनकी पूजा करें.
अष्टमी पर कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा
नवरात्रि नारी शक्ति के और कन्याओं के सम्मान
का भी पर्व है. इसलिए नवरात्रि में कुंवारी कन्याओं को पूजने और भोजन कराने की
परंपरा भी है. हालांकि नवरात्रि में हर दिन कन्याओं के पूजा की परंपरा है, लेकिन अष्टमी और नवमी को
कन्याओं की पूजा जरूर की जाती है. 2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष
तक की कन्या की पूजा का विधान बताया है. अलग-अलग उम्र की कन्या देवी के अलग-अलग
रूप को दर्शाती है.
मां महागौरी की पूजा का महत्व
जीवन में छाए संकट के बादलों को दूर करने और
पापों से मुक्ति के लिए मां महागौरी की पूजा की जाती है. महागौरी की आराधना से व्यक्ति को सुख-समृद्धि के साथ सौभाग्य भी प्राप्त
होता है.
मां महागौरी बीज मंत्र
श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:।
महागौरी मंत्र
1. माहेश्वरी वृष आरूढ़ कौमारी शिखिवाहना।
श्वेत रूप धरा देवी ईश्वरी वृष वाहना।।
ओम देवी महागौर्यै नमः।
महागौरी का स्वरूप
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार महागौरी का
वर्ण एकदम सफेद है. इनकी आयु आठ साल मानी गई है. महागौरी के सभी आभूषण और वस्त्र
सफेद रंग के हैं इसलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा भी कहा जाता है. इनकी चार भुजाएं
हैं. उनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है और नीचे वाले हाथ में त्रिशूल है.
मां ने ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण किया हुआ है और नीचे वाला हाथ वर मुद्रा
है. मां का वाहन वृषभ है इसीलिए उन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है. मां सिंह की
सवारी भी करती हैं.
महागौरी की पूजा विधि
- सबसे पहले अष्टमी के दिन स्नान कर स्वच्छ
वस्त्र पहनें.
- अब लकड़ी की चौकी या घर के मंदिर में महागौरी
की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें.- अब हाथ में फूल लेकर मां
का ध्यान करें.
- अब मां की प्रतिमा के आगे दीपक चलाएं.
- इसके बाद मां को फल, फूल और नैवेद्य अर्पित
करें.
- अब मां की आरती उतारें.
- अष्टमी के दिन कन्या पूजन श्रेष्ठ माना
जाता है.
- नौ कन्याओं और एक बालक को घर पर आमंत्रित
करें. उन्हें खाना खिलाएं और जय माता दी के जयकारे लगाएं.
- कन्याओं और बाल को यथाशक्ति भेंट और उपहार
दें.
- अब उनके पैर छूकर उनका आशीर्वाद लें और उन्हें
विदा करें.
महागौरी का मनपसंद रंग और भोग
महागौरी की पूजा करते वक्त गुलाबी रंग पहनना
शुभ माना जाता है. अष्टमी की पूजा और कन्या भोज करवाते इसी रंग को पहनें. महागौरी
को नारियल का भोग लगाया जाता है. इस दिन ब्राह्मण को भी नारियल दान में देने का
विधान है. मान्यता है कि मां को नारियल का भोग लगाने से नि:संतानों की मनोकामना
पूरी होती है.
महागौरी की आरती
जय महागौरी जगत की
माया ।
जय उमा भवानी जय
महामाया ॥
हरिद्वार कनखल के
पासा ।
महागौरी तेरा वहा
निवास ॥
चंदेर्काली और ममता
अम्बे
जय शक्ति जय जय मां
जगदम्बे ॥
भीमा देवी विमला माता
कोशकी देवी जग
विखियाता ॥
हिमाचल के घर गोरी
रूप तेरा
महाकाली दुर्गा है
स्वरूप तेरा ॥
सती 'सत' हवं
कुंड मै था जलाया
उसी धुएं ने रूप काली
बनाया ॥
बना धर्म सिंह जो
सवारी मै आया
तो शंकर ने त्रिशूल
अपना दिखाया ॥
तभी मां ने महागौरी
नाम पाया
शरण आने वाले का संकट
मिटाया ॥
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही
विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है।
यह अमोघ फलदायिनी हैं और भक्तों के तमाम
कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी
है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।
स्तुति
या देवी सर्वभूतेषु माँ महागौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
कवच मंत्र
ॐकारः पातु शीर्षो माँ, हीं बीजम् माँ, हृदयो।
क्लीं बीजम् सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
ललाटम् कर्णो हुं बीजम् पातु महागौरी माँ नेत्रम्
घ्राणो।
कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा माँ सर्ववदनो॥
नव रात्र का नवां दिन - नवम दुर्गा - श्री सिद्धिदात्री
नवम् दुर्गा : श्री सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥
श्री
दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये
सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
मां
सिद्धिदात्री का स्वरूप बहुत सौम्य और आकर्षक है. उनकी चार भुजाएं हैं. मां ने अपने
एक हाथ में चक्र, एक
हाथ में गदा, एक
हाथ में कमल का फूल और एक हाथ में शंख धारण किया हुआ है. देवी सिद्धिदात्री का
वाहन सिंह है.
नवरात्रि के नौवें
दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है. इस दिन को नवमी भी कहते हैं. मान्यता है कि मां
दुर्गा का यह स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है. कहते हैं कि
सिद्धिदात्री की आराधना करने से सभी प्रकार का ज्ञान आसानी से मिल जाता है. साथ ही
उनकी उपासना करने वालों को कभी कोई कष्ट नहीं होता है. नवमी के दिन कन्या पूजन करना पुण्यकारी माना गया है. चैत्र
नवरात्र के अंतिम दिन ही राम नवमी भी मनाई जाती है.
कौन
हैं मां सिद्धिदात्री
पौराणिक
मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव ने सिद्धिदात्री की कृपा से ही अनेकों सिद्धियां
प्राप्त की थीं. मां की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था. इसी कारण
शिव 'अर्द्धनारीश्वर' नाम से
प्रसिद्ध हुए. मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व और
वाशित्व ये आठ सिद्धियां हैं. मान्यता है कि अगर भक्त सच्चे मन से मां
सिद्धिदात्री की पूजा करें तो ये सभी सिद्धियां मिल सकती हैं.
मां
सिद्धिदात्री का स्वरूप
मां
सिद्धिदात्री का स्वरूप बहुत सौम्य और आकर्षक है. उनकी चार भुजाएं हैं. मां ने
अपने एक हाथ में चक्र, एक
हाथ में गदा, एक
हाथ में कमल का फूल और एक हाथ में शंख धारण किया हुआ है. देवी सिद्धिदात्री का
वाहन सिंह है.
मां
सिद्धिदात्री का पसंदीदा रंग और भोग
मान्यता
है कि मां सिद्धिदात्री को लाल और पीला रंग पसंद है. उनका मनपसंद भोग नारियल, खीर, नैवेद्य और
पंचामृत हैं.
मां
सिद्धिदात्री की पूजा विधि
- नवरात्रि के
नौवें दिन यानी कि नवमी को सबसे पहले स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें.
- अब घर के मंदिर
में एक चौकी पर कपड़ा बिछाकर मां की फोटो या प्रतिमा स्थापित करें.
- इसके बाद की
प्रतिमा के सामने दीपक जलाएं.
- अब फूल लेकर हाथ
जोड़ें और मां का ध्यान करें.
- मां को माला
पहनाएं, लाल चुनरी चढ़ाएं और
श्रृंगार पिटारी अर्पित करें.
- अब मां को फूल, फूल और नैवेद्य चढ़ाएं.
- अब उनकी आरती
उतारें.
- मां को खीर और
नारियल का भोग लगाएं.
- नवमी के दिन हवन
करना शुभ माना जाता है.
- इस दिन कन्या
पूजन भी किया जाता है.
- अंत में घर के
सदस्यों और पास-पड़ोस में प्रसाद बांटा जाता है.
हवन की विधि
जो
लोग रोज हवन करते है वह केवल सिद्धिदात्री मां का हवन करें अन्यथा अंतिम दिन होने के कारण आज सभी नवरूपों
को हव्य
देनी चाहिए .
हवन से पहले मां सिद्धिदात्री का ध्यान
करें
वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा
त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला
पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि
नितम्बनीम्॥
मां
सिद्धिदात्री का स्तोत्र पाठ करें
कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री
नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भव सागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री
नमोअस्तुते॥
नवरात्र में हवन करने की विधि:
हवन
कुंड को पवित्र करके पूजा करें. लकड़ी रखकर घी और
कर्पूर अर्पण करें. अग्नि देव का आह्वन करें और जब अग्नि
प्रज्वलित हो जाए तो निम्न तरीके से हव्य डालें .
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा
सिद्धिदायिन, नम:
स्वाहा ,
इसके बाद मां के ३२ नामों का स्मरण करते हुए नमस्कार करे और हव्य
दें
1. ओम ॐ दुर्गा
2. ओम दुर्गतिशमनी नम: स्वाह:
3. ओम दुर्गाद्विनिवारिणी नम: स्वाह:
4. ओमदुर्गमच्छेदनी नम: स्वाह:
5. ओम दुर्गसाधिनी नम: स्वाह:
6. ओम दुर्गनाशिनी नम: स्वाह:
7. ओम दुर्गतोद्धारिणी नम: स्वाह:
8. ओम दुर्गनिहन्त्री नम: स्वाह:
9. ओम दुर्गमापहा नम: स्वाह:
10. ओम दुर्गमज्ञानदा नम: स्वाह:
11. ओम दुर्गदैत्यलोकदवानला नम: स्वाह:
12. ओम दुर्गमा नम: स्वाह:
13. ओम दुर्गमालोकानम: स्वाह:
14.ओम दुर्गमात्मस्वरुपिणीनम:
स्वाह:
15. ओम दुर्गमार्गप्रदानम: स्वाह:
16. ओम दुर्गम विद्यानम: स्वाह:
17. ओम दुर्गमाश्रितानम: स्वाह:
18. ॐ दुर्गमज्ञान संस्थानानम: स्वाह:
19. ॐ दुर्गमध्यान भासिनीनम: स्वाह:
20. ॐ दुर्गमोहानम: स्वाह:
21.ॐ दुर्गमगानम: स्वाह:
22. ॐ दुर्गमार्थस्वरुपिणीनम: स्वाह:
23. ॐ दुर्गमासुर संहंत्रिनम: स्वाह:
24. ॐ दुर्गमायुध धारिणीनम: स्वाह:
25.ॐ दुर्गमांगीनम:
स्वाह:
26. ॐ दुर्गमतानम: स्वाह:
27.ॐ दुर्गम्यानम:
स्वाह:
28. ॐ दुर्गमेश्वरीनम: स्वाह:
29. ॐ दुर्गभीमानम: स्वाह:
30. ॐ दुर्गभामानम: स्वाह:
31. ॐ दुर्गमो नम: स्वाह:
32. ॐ दुर्गोद्धारिणी नम: स्वाह:
मां
सिद्धिदात्री के १८ शक्तियों के याद करते हुए उन्हें नमस्कार कर हव्य दें
1.
ॐ अणिमा नम: स्वाह:
2.
ॐ महिमा नम: स्वाह:
3.
ॐ गरिमा नम: स्वाह:
4.
ॐ लघिमा नम: स्वाह:
5.
ॐ प्राप्ति नम: स्वाह:
6.
ॐ प्राकाम्य नम: स्वाह:
7.
ॐ ईशित्व नम: स्वाह:
8.
ॐ वशित्व नम: स्वाह:
9.
ॐ सर्वकामावसायिता नम: स्वाह:
10.
ॐ सर्वज्ञत्व नम: स्वाह:
11.
ॐ दूरश्रवण नम: स्वाह:
12.
ॐ परकायप्रवेशन नम: स्वाह:
13.
ॐ वाक्सिद्धि नम: स्वाह:
14.
ॐ कल्पवृक्षत्व नम: स्वाह:
15.
ॐ सृष्टि नम: स्वाह:
16.
ॐ संहारकरणसामर्थ्य नम: स्वाह:
17.
ॐ अमरत्व नम: स्वाह:
18.
ॐ सर्वन्यायकत्व नम: स्वाह:
1. ॐ सती-नम: स्वाह:
2. ॐ साध्वी-नम: स्वाह:
3. ॐ भवप्रीता-नम: स्वाह:
4. ॐ भवानी-नम: स्वाह:
5. ॐ भवमोचनी-नम: स्वाह:
6. ॐ आर्या-नम: स्वाह:
7. ॐ दुर्गा-नम: स्वाह:
8. ॐ जया-नम: स्वाह:
9. ॐ आद्या-नम: स्वाह:
10. ॐ त्रिनेत्रा-नम: स्वाह:
11. ॐ शूलधारिणी-नम: स्वाह:
12. ॐ पिनाकधारिणी-नम: स्वाह:
13. ॐ चित्रा-नम: स्वाह:
14. ॐ चंद्रघंटा-नम: स्वाह:
15. ॐ महातपा-नम: स्वाह:
16. ॐ मन: नम: स्वाह:
17. ॐ बुद्धि-नम: स्वाह:
18. ॐ अहंकारा-नम: स्वाह:
19. ॐ चित्तरूपा-नम: स्वाह:
20. ॐ चिता-नम: स्वाह:
21. ॐ चिति-नम: स्वाह:
22. ॐ सर्वमंत्रमयी-नम: स्वाह:
23. ॐ सत्ता-नम: स्वाह:
24. ॐ सत्यानंदस्वरुपिणी-नम: स्वाह:
25. ॐ अनंता-नम: स्वाह:
26. ॐ भाविनी-नम: स्वाह:
27. ॐ भव्या-नम: स्वाह:
28. ॐ भाव्या-नम:
स्वाह:
29. ॐ अभव्या-नम: स्वाह:
30. ॐ सदागति-नम: स्वाह:
31. ॐ शाम्भवी-नम: स्वाह:
32. ॐ देवमाता-नम: स्वाह:
33. ॐ चिंता-नम: स्वाह:
34. ॐ रत्नप्रिया-नम: स्वाह:
35. ॐ सर्वविद्या-नम: स्वाह:
36. ॐ दक्षकन्या-नम: स्वाह:
37. ॐ दक्षयज्ञविनाशिनी-नम: स्वाह:
38. ॐ अपर्णा-नम: स्वाह:
39. ॐ अनेकवर्णा-नम: स्वाह:
40. ॐ पाटला-नम: स्वाह:
41. ॐ पाटलावती-नम: स्वाह:
42. ॐ पट्टाम्बरपरिधाना-नम: स्वाह:
43. ॐ कलमंजरीरंजिनी-नम: स्वाह:
44. ॐ अमेयविक्रमा-नम: स्वाह:
45. ॐ क्रूरा-नम: स्वाह:
46. ॐ सुन्दरी-नम: स्वाह:
47. ॐ सुरसुन्दरी-नम: स्वाह:
48. ॐ वनदुर्गा-नम: स्वाह:
49. ॐ मातंगी-नम: स्वाह:
50. ॐ मतंगमुनिपूजिता-नम: स्वाह:
51. ॐ ब्राह्मी-नम: स्वाह:
52. ॐ माहेश्वरी-नम: स्वाह:
53. ॐ एंद्री-नम: स्वाह:
54. ॐ कौमारी-नम: स्वाह:
55. ॐ वैष्णवी-नम: स्वाह:
56. ॐ चामुंडा-नम: स्वाह:
57. ॐ वाराही-नम: स्वाह:
58. ॐ लक्ष्मी-नम: स्वाह:
59. ॐ पुरुषाकृति-नम: स्वाह:
60. ॐ विमला-नम: स्वाह:
61. ॐ उत्कर्षिनी-नम: स्वाह:
62. ॐ ज्ञाना-नम: स्वाह:
63. ॐ क्रिया-नम: स्वाह:
64. ॐ नित्या-नम: स्वाह:
65. ॐ बुद्धिदा-नम: स्वाह:
66. ॐ बहुला-नम: स्वाह:
67. ॐ बहुलप्रिया-नम: स्वाह:
68. ॐ सर्ववाहनवाहना-नम: स्वाह:
69. ॐ निशुंभशुंभहननी-नम: स्वाह:
70. ॐ महिषासुरमर्दिनी-नम: स्वाह:
71. ॐ मधुकैटभहंत्री-नम: स्वाह:
72. ॐ चंडमुंडविनाशिनी-नम: स्वाह:
73. ॐ सर्वसुरविनाशा-नम: स्वाह:
74. ॐ सर्वदानवघातिनी-नम: स्वाह:
75. ॐ सर्वशास्त्रमयी-नम: स्वाह:
76. ॐ सत्या-नम: स्वाह:
77. ॐ सर्वास्त्रधारिनी-नम: स्वाह:
78. ॐ अनेकशस्त्रहस्ता-नम: स्वाह:
79. ॐ अनेकास्त्रधारिनी-नम: स्वाह:
80. ॐ कुमारी-नम: स्वाह:
81. ॐ एककन्या-नम: स्वाह:
82. ॐ कैशोरी-नम: स्वाह:
83. ॐ युवती-नम: स्वाह:
84. ॐ यति-नम: स्वाह:
85. ॐ अप्रौढ़ा-नम: स्वाह:
86. ॐ प्रौढ़ा-नम: स्वाह:
87. ॐ वृद्धमाता-नम: स्वाह:
88. ॐ बलप्रदा-नम: स्वाह:
89. ॐ महोदरी-नम: स्वाह:
90. ॐ मुक्तकेशी-नम: स्वाह:
91. ॐ घोररूपा-नम: स्वाह:
92. ॐ महाबला-नम: स्वाह:
93. ॐ अग्निज्वाला-नम: स्वाह:
94. ॐ रौद्रमुखी-नम: स्वाह:
95. ॐ कालरात्रि-नम: स्वाह:
96. ॐ तपस्विनी-नम: स्वाह:
97. ॐ नारायणी-नम: स्वाह:
98. ॐ भद्रकाली-नम: स्वाह:
99. ॐ विष्णुमाया-नम: स्वाह:
100. ॐ जलोदरी-नम:
स्वाह:
101. ॐ शिवदुती-नम:
स्वाह:
102. ॐ कराली-नम:
स्वाह:
103. ॐ अनंता-नम:
स्वाह:
104. ॐ परमेश्वरी-नम:
स्वाह:
105. ॐ कात्यायनी-नम:
स्वाह:
106. ॐ सावित्री-नम: स्वाह:
107. ॐ प्रत्यक्षा-नम:
स्वाह:
108. ॐ ब्रह्मावादिनी नम: स्वाह:
(1. सामूहिक कल्याण के लिए मन्त्र)
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भकत्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:
।। स्वाहा:
2. विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिए
यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च। सा
चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु।।
3.
विश्व की रक्षा के लिए
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥
4. विश्व के अभ्युदय के लिए
विश्वेश्वरि! त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीह विश्वम्।
विश्वेशवन्धा भवती भवन्ति
विश्वाश्चया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥
5. विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिए
देवि! प्रपन्नार्ति हरे! प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि! पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि! चराऽचरस्य॥2॥
6.
विश्व के पाप ताप निवारण के लिए
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥
7.
विपत्ति नाश के लिए
शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणी नमोऽस्तु ते॥
8.
विपत्ति नाश और सुख की प्राप्ति के लिए
करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:।
9.
भय नाश के लिए
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ ”
10.
पापनाश के लिए
“हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥“
11.
रोग नाश के लिए
“रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥”
12.
महामारी नाश के लिए
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥
13.
आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
14.
सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥
15.
बाधा शांति के लिए
“सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥”
16. सर्व विधि अभ्युदय के लिए
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्ग:।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥
17.
दारिद्र दुखादि नाश के लिए
“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥”
18.
रक्षा पाने के लिए
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥
19.
समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मात्र अभाव की प्राप्ति के लिए
“विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥”
20.
सर्व प्रकार के कल्याण के लिए
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”
21.
शक्ति प्राप्ति के लिए
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥
22.
प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥
23.
विविध उपद्रवों से बचने के लिए
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥
24.
बाधा
मुक्त होकर धन पुत्र आदि की प्राप्ति के लिए
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥”
25.
भुक्ति मुक्ति की प्राप्ति के लिए
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
26.
पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिए
नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि.
27.
स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए
सर्व भूता यदा देवी स्वर्ग मुक्ति प्रदायिनी,
त्वं स्तुता स्तुतये का व़ा भवन्तु पर्मोक्तय:
28.
स्वर्ग और मुक्ति के लिए
सर्वस्य बुद्धि रूपेण जनस्य ह्रदि संस्थिते,
स्वर्गापवगर्दे देवि नारायणिनमोस्तुते
29.
मोक्ष की प्राप्ति के लिए
त्वं वैष्णवी शक्तिर्नन्त्वीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया,
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्ति हेतु:
30.
स्वप्न में सिद्धि असिद्धि जाने के लिए
दुर्गे देवि नमस्तुभ्यम सर्व कामार्थ साधिके
मम सिद्धिम सिद्धिम व़ा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय.
मां दुर्गा के मंत्र
इन
मंत्रों को पढ़ कर प्रत्येक मंत्र के बाद स्वाह: बोलते हुए हवन कुंड में हव्य दें।
१. नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं
नमः .
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता:
प्रणिता:स्मताम ..
२. या देवी सर्व भूतेषु लक्ष्मीरुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ..
३. या देवी सर्व भूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता
.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
४. या देवी
सर्व भूतेषु मातृरुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
५. जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी.
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा
नामेस्तु ते..
६. देहि सौभाग्यमारोग्यम देहि में परम सुख़म .
रुपम देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि
..
७. सर्व
मंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके .
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणि नमोस्तु
ते ..
८. सर्व बाधा विनुर्मुक्तो धन धान्य
सुतान्वित:
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:
..
९. शरणागत
दीनार्त परित्राण परायणे .
सर्वस्यर्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते
..
१०. सर्वबाधाप्रश्मनं त्रिलोक्यस्याखिले श्वरि .
एवमेव त्वया यर्मस्मद्वैरि विनाशनम ..
इस प्रकार हवन को माँ
दुर्गा का नाम लेते हुए अंतिम हवी दें और दुर्गा चालीसा का पाठ करें और / या दुर्गा जी
की आरती करें .
दुर्गा चालीसा
नमो नमो
दुर्गे सुख करनी।
नमो
नमो दुर्गे दुःख हरनी॥
निरंकार
है ज्योति तुम्हारी।
तिहूं
लोक फैली उजियारी॥
शशि
ललाट मुख महाविशाला।
नेत्र
लाल भृकुटि विकराला॥
रूप
मातु को अधिक सुहावे।
दरश
करत जन अति सुख पावे॥
तुम
संसार शक्ति लै कीना।
पालन
हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा
हुई जग पाला।
तुम
ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल
सब नाशन हारी।
तुम
गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव
योगी तुम्हरे गुण गावें।
ब्रह्मा
विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥
रूप
सरस्वती को तुम धारा।
दे
सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥
धरयो
रूप नरसिंह को अम्बा।
परगट
भई फाड़कर खम्बा॥
रक्षा
करि प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष
को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी
रूप धरो जग माहीं।
श्री
नारायण अंग समाहीं॥
क्षीरसिन्धु
में करत विलासा।
दयासिन्धु
दीजै मन आसा॥
हिंगलाज
में तुम्हीं भवानी।
महिमा
अमित न जात बखानी॥
मातंगी
अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी
बगला सुख दाता॥
श्री
भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न
भाल भव दुःख निवारिणी॥
केहरि
वाहन सोह भवानी।
लांगुर
वीर चलत अगवानी॥
कर
में खप्पर खड्ग विराजै।
जाको
देख काल डर भाजै॥
सोहै
अस्त्र और त्रिशूला।
जाते
उठत शत्रु हिय शूला॥
नगरकोट
में तुम्हीं विराजत।
तिहुंलोक
में डंका बाजत॥
शुंभ
निशुंभ दानव तुम मारे।
रक्तबीज
शंखन संहारे॥
महिषासुर
नृप अति अभिमानी।
जेहि
अघ भार मही अकुलानी॥
रूप
कराल कालिका धारा।
सेन
सहित तुम तिहि संहारा॥
परी
गाढ़ संतन पर जब जब।
भई
सहाय मातु तुम तब तब॥
अमरपुरी
अरु बासव लोका।
तब
महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला
में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हें
सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम
भक्ति से जो यश गावें।
दुःख
दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे
तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म-मरण
ताकौ छुटि जाई॥
जोगी
सुर मुनि कहत पुकारी।
योग
न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर
आचारज तप कीनो।
काम
अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन
ध्यान धरो शंकर को।
काहु
काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति
रूप का मरम न पायो।
शक्ति
गई तब मन पछितायो॥
शरणागत
हुई कीर्ति बखानी।
जय
जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई
प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई
शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको
मातु कष्ट अति घेरो।
तुम
बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा
तृष्णा निपट सतावें।
रिपू
मुरख मौही डरपावे॥
शत्रु
नाश कीजै महारानी।
सुमिरौं
इकचित तुम्हें भवानी॥
करो
कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि-सिद्धि
दै करहु निहाला।
जब
लगि जिऊं दया फल पाऊं ।
तुम्हरो
यश मैं सदा सुनाऊं ॥
दुर्गा
चालीसा जो कोई गावै।
सब
सुख भोग परमपद पावै॥
देवीदास
शरण निज जानी।
करहु
कृपा जगदम्ब भवानी॥
*******
मां दुर्गा जी की आरती
जय
अम्बे गौरी मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको
निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ओंम जय अम्बे गौरी ॥
मांग
सिंदूर बिराजत टीको मृगमद को।
उज्ज्वल
से दोउ नैना चंद्रबदन नीको ॥ओंम जय
अम्बे गौरी ॥
कनक
समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्तपुष्प
गल माला कंठन पर साजै ॥ओंम जय अम्बे
गौरी ॥
केहरि
वाहन राजत खड्ग खप्परधारी।
सुर-नर
मुनिजन सेवत तिनके दुःखहारी ॥ओंम
जय अम्बे गौरी ॥
कानन
कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती।
कोटिक
चंद्र दिवाकर राजत समज्योति ॥ओंम
जय अम्बे गौरी ॥
शुम्भ
निशुम्भ बिडारे महिषासुर घाती।
धूम्र
विलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥ओंम
जय अम्बे गौरी ॥
चौंसठ
योगिनि मंगल गावैं नृत्य करत भैरू।
बाजत
ताल मृदंगा अरू बाजत डमरू ॥ओंम जय
अम्बे गौरी ॥
भुजा
चार अति शोभित खड्ग खप्परधारी।
मनवांछित
फल पावत सेवत नर नारी ॥ओंम जय
अम्बे गौरी ॥
कंचन
थाल विराजत अगर कपूर बाती।
श्री
मालकेतु में राजत कोटि रतन ज्योति ॥ओंम जय अम्बे गौरी ॥
श्री
अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै।
कहत
शिवानंद स्वामी सुख-सम्पत्ति पावै ॥ओंम जय अम्बे गौरी ॥
आरती (दो )
जगजननी
जय !जय!! (माँ !जगजननी जय ! जय !! )
भयहारिणी, भवतारिणी ,भवभामिनि
जय ! जय !! माँ जग जननी जय जय …………
तू
ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा ।
सत्य
सनातन सुंदर पर – शिव सुर-भूपा ।। माँ जग जननी जय जय …………
आदि
अनादि अनामय अविचल अविनाशी ।
अमल
अनंत अगोचर अज आनंदराशि।। माँ जग जननी जय जय …………
अविकारी , अघहारी, अकल , कलाधारी
।
कर्ता
विधि , भर्ता
हरि , हर
सँहारकारी ।। माँ जग जननी जय जय …………
तू
विधिवधू , रमा ,तू
उमा , महामाया
।
मूल
प्रकृति विद्या तू , तू।
जननी ,जाया
।। माँ जग जननी जय जय …………
राम , कृष्ण
तू , सीता , व्रजरानी
राधा ।
तू
वाञ्छाकल्पद्रुम , हारिणी
सब बाधा ।। माँ जग जननी जय जय …………
दश
विद्या , नव
दुर्गा , नानाशास्त्रकरा
।
अष्टमात्रका ,योगिनी , नव
नव रूप धरा ।। माँ जग जननी जय जय …………
तू
परधामनिवासिनि , महाविलासिनी
तू ।
तू
ही श्मशानविहारिणि , ताण्डवलासिनि
तू ।। माँ जग जननी जय जय …………
सुर
– मुनि – मोहिनी सौम्या तू शोभा धारा ।
विवसन
विकट -सरूपा , प्रलयमयी
धारा ।। माँ जग जननी जय जय …………
तू
ही स्नेह – सुधामयि, तू अति गरलमना ।
रत्नविभूषित
तू ही , तू ही अस्थि- तना ।। माँ जग जननी जय जय …………
मूलाधारनिवासिनी , इह
– पर – सिद्धिप्रदे ।
कालातीता
काली , कमला
तू वरदे ।। माँ जग जननी जय जय …………
शक्ति
शक्तिधर
तू ही नित्य अभेदमयी ।
भेदप्रदर्शिनि
वाणी
विमले ! वेदत्रयी ।। माँ जग जननी जय जय …………
हम
अति दीन दुखी मा ! विपत – जाल घेरे ।
हैं
कपूत अति कपटी , पर बालक
तेरे ।। माँ जग जननी जय जय …………
निज
स्वभाववश जननी ! दयादृष्टि कीजै ।
करुणा
कर करुणामयि ! चरण – शरण दीजै ।।
माँ
जग जननी जय जय , माँ
जग जननी जय जय
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