बुधवार, 19 मई 2021

हिन्दू गुलाम क्यों हुआ ?

 अब तक का महत्वपूर्ण परन्तु अनुत्तरित प्रश्न: हिंदू गुलाम क्यों हुआ?

यह बहुत ही अच्छा प्रश्न है और इस तरह के प्रश्न प्राय: अनेक संगोष्ठियों में और अन्य अवसरों पर उठाया जाता है . अक्सर लोग लोक कथाओं और अन्य दृष्टांतों के माध्यम से दार्शनिक भाव में बताने की कोशिश करते हैं, जो उचित भी है किंतु उनमें कोई भी इस प्रश्न का सही और सटीक जवाब देकर मुझे संतुष्ट नहीं कर पाया. पहली बार जब मैंने स्वर्गीय राजीव भाई दीक्षित जी का एक भाषण सुना, जिसमें उन्होंने इस पहलू को काफी हद तक छुआ था और उसे मैं बहुत प्रभावित हुआ था.

इस प्रश्न का उत्तर और उसके के पीछे छिपी उत्कंठा और कसमसाहट समझने के लिए हमें सनातन धर्म की मूल भावना को समझना होगा और भारतवर्ष की प्राचीन आध्यात्मिक और धार्मिक विकास यात्रा को भी ध्यान में रखना होगा.

भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता है और इसलिए सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक रूप से आज भी विश्व में सबसे समृद्ध है. सनातन धर्म में साधना / तपस्या सत्कर्म द्वारा मोक्ष प्राप्त करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है. जिस संस्कृति में नदी, समुद्र, पहाड़, वृक्ष, गाय, सिंह, सांप आदि प्रकृति के सभी रूपों की पूजा की जाती हो, अहिंसा धर्म का अभिन्न हिस्सा हो, राह चलते चींटी भी धोखे से न कुचल जाए, इसका ध्यान रखा जाता हो, ऐसी संस्कृति और धर्म में सत्कर्म, शांति, सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों का स्थान कितना ऊंचा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.

लेकिन इसके बाद भी शासक और सम्राट “अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च” का पालन करते थे. इस श्लोक का भावार्थ है कि अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब जब धर्म पर आंच आये तो उस धर्म की रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं।

दुर्भाग्य से कालांतर में विभिन्न कारणों से हमें केवल “ अहिंसा परमो धर्म:” ही याद कराया गया और इस कारण राष्ट्र और धर्म की रक्षा करने के लिए भी हम अहिंसक नहीं हो सके. आधुनिक युग के बदलते परिवेश में ऐसा माना जाता है कि जो जितना बड़ा हिंसक होता है वह उतना ही शक्तिशाली माना जाता है. इसलिए अहिंसक तो कमजोर ही होगा और फिर गुलाम होना उसकी नियति बन जाएगी.

आइए इसे विस्तार से समझते हैं .

त्रेता में अयोध्या के राजा श्री राम का राजधर्म आज तक पूरे विश्व के लिए उदाहरण है, जिसे राम राज्य कहा जाता है और जिसमें उन्होंने अपने मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप का उदाहरण मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत किया था . इतना सब करते हुए भी आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने राक्षसों का संहार किया और धर्म तथा राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा के लिए हिंसा करने से पीछे नहीं हटे.

द्वापर में श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए के लिए युद्ध को उचित भी ठहराया और बेहिचक स्वीकार भी किया. भर के लोगों के लिए यह बहुत बड़ा संदेश था लेकिन यहां के लोगों ने 5 हजार वर्ष बाद ही भूलना शुरु कर दिया.

जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उदय के बाद किसी भी तरह की हिंसा को अनुचित माना जाने लगा. लोगों को सांसारिक सुखों से विरत होकर त्याग और सादगी अपनाने पर जोर दिया गया . इसका व्यापक प्रभाव जनमानस पर हुआ उन्हें शांति और सद्भावना पूर्ण जीवन मिला और लोग अहिंसक होते चले गए.

जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में आकर कई राजाओं ने भी इसे अपना लिया और और वे युद्ध से विरत रहने लगे. इसका परिणाम यह हुआ, कि सैन्य बल भी कमजोर हुआ और रक्षा क्षेत्र में नए हथियारों और उपकरणों का विकास लगभग पूरी तरह से बंद हो गया.

प्राचीन काल में भारत का साम्राज्य पूरे जंबूद्वीप में था, चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में चाणक्य की राष्ट्रनीति के कारण अफगानिस्तान, ईरान और अरब उसके साम्राज्य का हिस्सा था, जो सम्राट अशोक के शासनकाल तक ज्यों का त्यों रहा.

महाराजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। भारत के वामपंथी और इस्लामिक इतिहासकारों ने तो भारत के इतिहास को पूरी तरह से विकृत कर दिया है. इससे अच्छा और विश्वसनीय वर्णन तो विदेशी इतिहासकारों ने किया है. विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है कि उस समय उनका शासन अरब और मिश्र तक तक फैला था। संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है

मगध के प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य अपने अंतिम दिनों में जैन हो गए थे और उन्होंने पूरी तरह से हिंसा का परित्याग कर दिया था. उनके पौत्र अशोक महान भारतीय इतिहास का एकमात्र ऐसा सम्राट था जिस के शासनकाल में किसी भी विदेशी आक्रांता ने भारत की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की थी, लेकिन वह कलिंग युद्ध की भीषण मारकाट और नरसंहार से इतना दुखी हुए कि उन्होंने भी बौद्ध धर्म अपना लिया और राज्य के सैन्य बल और सीमाओं के रक्षण पर ध्यान दिया जाना लगभग बंद हो गया . उनका पूरा ध्यान बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार पर था उन्होंने अपने बेटे और बेटी को भी इसी काम पर लगा दिया और बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए बौद्ध भिक्षु के रूप में उन्हें अनेक देशों में भेजा गया.

कहते हैं कि “यथा राजा तथा प्रजा” . प्रजा भी अपना पौरुष भूलती जा रही थी, सेना में भर्ती न होने के कारण नव युवकों में देशभक्ति की भावना भी कम हो रही थी और शारीरिक सौष्ठव प्राथमिकता में नहीं था. भारत की अहिंसक प्रवृत्ति और कमजोर रक्षा तंत्र पर विदेशियों की नजर थी और इसका फायदा उठाते हुए मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर पहला आक्रमण किया यद्यपि उसका इरादा सिर्फ लूटपाट करना था, सत्ता स्थापित करना नहीं .

अफगानिस्तान सभी लोग बौद्ध धर्मावलंबी थे, उन्हें पराजित करने और लूटने में इन विदेशी आक्रांताओं को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. इसके बाद विदेशी लुटेरों का अनवरत क्रम शुरू हो गया. महमूद गजनवी ने 17 बार सोमनाथ मंदिर को लूटा और यहां के अनेक मंदिरों को तोड़ा संपत्तियां लूटी, भारत के राजघरानों में जमा अकूत धन-दौलत लूटी और वापस चला गया. वह इतनी बार भारत में लूटने के इरादे से आया लेकिन एक बार भी भारतीय राजाओं ने एक होकर उसे मुंह तोड़ जवाब नहीं दिया .

इससे भारत की कमजोरी बुरी तरह से उजागर हो गई थी और इसके बाद तो जैसे विदेशी आक्रमणों का न खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हो गया .

मोहम्मद गोरी ने भी वही किया. पृथ्वीराज चौहान ने उसे कई बार हराया और वह हार कर वापस चला जाता रहा लेकिन पृथ्वीराज चौहान सहित भारत के किसी भी राजा ने उसका पीछा करके उसे सदा सर्वदा के लिए समाप्त करने की कोशिश नहीं की. इसका परिणाम यह हुआ कि तराइन के युद्ध में उसने पृथ्वीराज चौहान को उसके एक रिश्तेदार और कन्नौज के राजा जयचंद की सहायता से पराजित कर दिया.

पृथ्वीराज चौहान की आंखें फोड़ दी गई और उसे बंदी बनाकर घसीटते हुए ले गया. यहां तक कि अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिस की दरगाह पर हजारों हिंदू प्रतिवर्ष चादर चढ़ाने जाते हैं, के आदेश के अनुसार उसकी पत्नी संयोगिता को नग्न करके मोहम्मद गौरी के बहसी सैनिकों को दुष्कर्म के लिए सौंप दिया गया. किसी भी भारतीय राजा ने प्रतिरोध नहीं किया यहां तक कि कन्नौज के राजा जयचंद ने भी नहीं जबकि पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता उसकी बेटी थी. गोरी ने बाद में जयचंद को भी हराया और उसके पुत्र  की भी बहुत निर्मलता से हत्या कर दी थी.

भारतीय राजा आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे और इसके लिए उन्हें अगर शत्रु की सहायता भी करनी पड़ जाए तो करते थे.

भारतीय समाज भी वर्ण और जातियों में बुरी तरह विभाजित था. देश की रक्षा करने का दायित्व केवल क्षत्रिय समुदाय पर था जिसकी जनसंख्या बहुत कम थी . धीरे-धीरे समस्त उत्तर भारत पर आक्रांताओं ने कब्जा किया और यहां पर सत्ता स्थापित कर ली.

बंगाल राज्य के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और बहुत थोड़े से सैनिकों की मदद से बिना किसी प्रतिरोध के मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था . 1757 में इतिहास ने फिर एक बार अपने आप को दोहराया और ईस्ट इंडिया कंपनी के मात्र 300 सैनिकों ने प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की अट्ठारह हजार सैनिकों की विशाल सेना को मीर जाफर की सहायता से हरा दिया. अंग्रेजों के इन 300 सैनिकों ने 18000 हजार भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया और सड़क के रास्ते से बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद ले गए. रास्ते के दोनों ओर भारी भीड़ तमाशा देखने के लिए उमड़ पड़ी, किसी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया .

क्लाइव लायड ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उस समय वहां उपस्थित जनसमूह ने अगर एक छोटा कंकण भी फेंक दिया होता तो अंग्रेजों का भारत से अस्तित्व ही खत्म हो गया होता. इसी कायरता, बुजदिली, समझौता वादी स्वभाव और आपसी मतभेदों के कारण भारत में पहले मुस्लिम आक्रांताओं और लुटेरों ने सत्ता स्थापित की और बाद में भारत पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया .

थोड़े से अंग्रेजों ने भारतीय मूल के सैनिकों और भारतीय मूल के सरकारी कर्मचारियों की मदद से 200 वर्ष तक भारत पर शासन किया. भारतीयों ने ही भारतीयों पर अत्याचार किए. विश्व इतिहास में ऐसा कहीं भी देखने में नहीं आता कि उस देश की बहुसंख्यक जनता ने कभी प्रतिरोध न किया हो.

हांगकांग जैसे छोटे से देश के लोग आज भी भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते क्योंकि कुछ हजार अंग्रेजों ने करोड़ों भारतीयों पर शासन किया और भारतीयों ने ही भारतीयों पर अत्याचार किए, यातनाएं दी. भारत के विपरीत हांगकांग के मूल निवासियों ने अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने से साफ इंकार कर दिया था वहां के मूल निवासी न तो कभी सेना या पुलिस में शामिल हुए और न ही कभी सरकारी कर्मचारी बने क्योंकि वह अपनों पर अत्याचार नहीं कर सकते थे.

अंग्रेजों ने साम दाम दंड भेद की नीति अपनाई और भारतीयों द्वारा किसी भी संभावित प्रतिरोध से बचने के लिए स्वयं ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करवाई जिसका प्रचारित उद्देश्य भारत की जनता को आजादी दिलाना था लेकिन असली उद्देश्य भारत में अगले 100 साल तक और शासन करना था . अपने मिशन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों ने गांधी जी को भी दक्षिण अफ्रीका, से हिंदुस्तान बुला लिया क्योंकि अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा अंग्रेजी सत्ता की सहायता करने से अत्यंत प्रभावित थे.

गांधीजी के आने के बाद भारत में भी अहिंसा का दक्षिण अफ्रीकी प्रयोग शुरू हो गया जिसकी अंग्रेजों को अत्यंत आवश्यकता थी.

1885 में कांग्रेस की स्थापना के 61 वर्ष बाद 1947 में भारत को आजादी नसीब हो सकी, इसलिए नहीं कि कांग्रेस ने बहुत जोरदार आंदोलन चलाएं बल्कि इसलिए कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गई थी, और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय कारणों से वह भारत में शासन जारी रखने की स्थिति में नहीं थे. अगर द्वितीय विश्व युद्ध नहीं हुआ होता तो अंग्रेज कांग्रेस और गांधीजी की सहायता से शायद आज भी शासन कर रहे होते.

निष्कर्ष :

  • हिंदू ही क्यों ? भारत राष्ट्र क्यों गुलाम हुआ ? क्या अब भी यह समझना बहुत मुश्किल है?
  • सनातन धर्म की अति शन्तिप्रियता, नैतिकता, सदाचार, जैन और बौद्ध धर्म की अहिंसा और त्याग की भावना ने हिंदुओं के साहस और वीरता को इतना गहरा आघात पहुंचाया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. आज भी किसी हिंदू के घर में सब्जी काटने वाले चाकू के अलावा शायद ही कोई हथियार मिले.
  • वर्णों और जातियों में विभाजित हिंदू समाज कभी एकजुट होकर आक्रांताओं का मुकाबला नहीं कर सका और आपस की इस फूट ने आक्रांताओं का काम आसान कर दिया.
  • हमने इतिहास से भी कुछ नहीं सीखा. सीखना क्या हमने तो सही इतिहास लिखना भी नहीं सीखा. राष्ट्र विरोधी इतिहासकार रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब के अनुसार भारत केवल अंग्रेजों का गुलाम हुआ था जैसे मुस्लिम आक्रान्ताओं को भारत ने स्वयं आप्मंत्रित करके सत्ता सौपी थी.

  • हिंदू समाज में आज भी वही सब कारक पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक स्थिति में विद्यमान हैं, हमने समाज के रूप में कुछ भी नहीं सीखा है. हम आज भी मानसिक रूप से गुलाम ही हैं और शायद यह गुलामी हमारे खून में आ गयी है. अगर हमने इस बीमारी का उपचार अब भी नहीं किया तो अब हमें गुलामी नहीं मर मिटने के लिए तैयार रहना होगा.

  • शिव मिश्रा

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