शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

काशी सबसे न्यारी, राजनीति की मारी

 

काशी सबसे न्यारी, राजनीति की मारी 




13 दिसंबर 2021  भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम दिन बन गया जब  प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर  राष्ट्र को समर्पित  करके काशी को नव्यता और भव्यता प्रदान की जिससे काशी एक बार फिर पूरे विश्व पटल पर सुर्खियों में छा  गई.

काशी अमर है अविनासी है. काशी   की महिमा का स्कन्दपुराण में  वर्णन  इस प्रकार किया गया  है-

भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया, या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते,  सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥

इसका भावार्थ यह है कि जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।

कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहा जाता है। काशी अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी जन्मों के बंधन से मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है।

बाबा भोलेनाथ का यह मंदिर भारत में सभी ज्ञात मंदिरों में प्राचीनतम है और ऐसा माना जाता है यह भगवान पार्वती और शंकर का आदि स्थान है. ज्ञात इतिहास के अनुसार राजा हरिश्चंद्र ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. इसके पश्चात सम्राट विक्रमादित्य ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार और पुनरुद्धार कराया था.

1194 में मुहम्मद गोरी नाम के एक मुस्लिम लुटेरे आक्रांता ने इसे तोड़ा था. 1447 में सुल्तान महमूद शाह ने एक बार फिर इस मंदिर को तोड़ दिया था. जिस शाहजहां को  तथाकथित  प्यार की निशानी ताजमहल के लिए दुनिया भर में याद किया जाता है उस  क्रूर और राक्षसी प्रवृत्ति के मुस्लिम शासक ने 1632 में इस मंदिर को तोड़ने  के लिए सेना भेजी  थी । 1669 में  औरंगजेब के आदेश पर मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई।

1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था, जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया था । ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी ( सरस्वती देवी )  का मंडप बनवाया था  और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई थी । वर्तमान विस्तारीकरण और जीर्णोद्धार प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी के शासनकाल में हुआ है, वह  भी इतिहास में दर्ज होगा. हमें उस दिन की बेसब्री से  प्रतीक्षा है, जब ज्ञानवापी मस्जिद का अतिक्रमण हटेगा और यह शायद जल्दी ही होगा.                                     

 

आजादी के  समय भारत का धार्मिक आधार पर विभाजन  हुआ  किन्तु   मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान बन जाने के बाद भी भारत से अधिकतर मुस्लिम वहां  नहीं गए और इसका  सबसे बड़ा कारण था जवाहरलाल नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति  जिसे वे आजाद भारत में अपना सबसे बड़ा वोट बैंक बनाना चाहते थे. भेदभाव की इस नीति के कारण ही  केवल हिंदुओं के लिए बचे इस भूभाग को  न केवल धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाया गया बल्कि हिंदुओं के प्रति भेदभाव भरा नकारात्मक रवैया भी  अपनाया गया. इसके चलते  सनातन धर्म के उन  पौराणिक प्राचीन मंदिरों व अन्य पूजा स्थलों का भी ध्यान नहीं रखा गया, जहाँ मुस्लिम आक्रताओं  ने क्षति पहुंचाई थी और उन्हें तोड़कर उनके ऊपर मस्जिद बना दी थी। चाहिए तो यह था कि  आजादी के तुरंत बाद  नेहरू सरकार देश में एक आयोग का गठन करती जो इस तरह के विवादित स्थलों  का हल निकालती  और  सनातन धर्म के आस्था केंद्रों, मंदिरों और अन्य धार्मिक  स्थलों पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े जाने और कब्जा किये जाने  के बारे में तुरंत फैसला करता.  दुर्भाग्य से नेहरु के स्वार्थ और अदूरदर्शिता से  ऐसा नहीं किया गया. इस कारण तीनों प्रमुख धर्म स्थानों मथुरा, काशी और अयोध्या   सहित 50000 से भी अधिक मंदिरों पर आज भी मुस्लिम समुदाय का कब्जा बना हुआ है. कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में एक नया कानून बना कर सभी धर्म स्थानों के लिए 15 अगस्त 1947  के समय की यथा  स्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए. इस संवैधानिक बाध्यता के चलते सनातन धर्म के अनेक अति महत्वपूर्ण स्थानों के संदर्भ में न्यायालय में आज कोई याचिका भी दायर नहीं की जा सकती है.

केंद्र में मोदी व उत्तर प्रदेश में योगी की सरकार आने से लोगों में आशा की नई किरण जाग उठी कि शायद अब सनातन धर्म के प्रति भेदभाव नहीं होगा और  सनातन धर्म के सर्वोच्च तीन  धर्म स्थान काशी, मथुरा और अयोध्या  के मामले में भी हिंदुओं के साथ न्याय किया जाएगा.  मोदी सरकार ने बहुसंख्यक समुदाय को निराश नहीं किया.  सरकार ने तमाम बाधाओं को दूर  किया और सुखद  संयोग से  सर्वोच्च न्यायालय  के निर्णय  ने राम मंदिर बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. अब अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के साथ-साथ प्रदेश की योगी सरकार अयोध्या के चहुमुखी विकास के लिए अन अथक प्रयास कर रही है. आशा है कि अयोध्या अपने प्राचीन गौरव को पूरी नवीनता के साथ पुनः प्राप्त कर सकेगी

काशी से प्रधानमंत्री मोदी के सांसद बनने के बाद विकास के लगातार नए आयाम गढ़े जा रहे हैं और इसी कड़ी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण किया गया है. काशी की इतनी पौराणिक महत्व के बाद बाबा विश्वनाथ का यह द्वादश ज्योतिर्लिंग  लगभग 3500 स्क्वायर फीट के अत्यंत छोटे क्षेत्र में स्थित था और जिसकी पहुंच छोटी-छोटी सकरी गलियों से होती थी. कॉरीडोर बन जाने से श्रद्धालुओं के उपयोग का क्षेत्रफल लगभग दो लाख स्क्वायर फीट हो गया है जहां अब एक साथ लगभग 70 हजार  श्रद्धालु एकत्रित हो सकते हैं.




काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के इस भव्य आयोजन में उपस्थिति देश के  सनातन धर्म के  सभी प्रमुख संत और अन्य गण मान्य  व्यक्तियों के चेहरे पर छाई  प्रसन्नता देख कर  ऐसा लग रहा था कि शायद उन्होंने इस तरह के निर्माण और भव्य  विस्तार की कल्पना भी नहीं की होगी . देश का प्रधान मंत्री गंगा में डुबकी लगाकर  मस्तक पर चन्दन लगाए भगवा वस्त्रों में पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ इस आयोजन का हिस्सा था . सब कुछ  अद्भुत और अकल्पनीय था . काशी का रोम रोम पुलकित हो  रहा था.  लेकिन  बरबस लोगो को सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रसंग याद आ गया जब नेहरु ने खुद जाना तो दूर देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को भी जाने से यह कह कर रोक दिया था  कि भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है. राष्ट्रपति बिना सरकारी खर्चे के इस आयोजन में शामिल हुए थे, जिसके बाद नेहरु ने  उन्हें कितना अपमानित और प्रताड़ित  किया था, जिसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती. देश के प्रथम राष्ट्रपति ने पटना के सदाकत आश्रम की सीलन भरी कोठरी में जीवन के अंतिम दिन बिताएं.

यह कहने में  मुझे कोई संकोच नहीं कि पिछले 7 वर्षों के मोदी सरकार के कार्यकाल में सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का कार्य शुरू हुआ है.  अयोध्या में राम की भव्य मंदिर के निर्माण के साथ ही  उत्तराखंड में चार धाम परियोजना की शुरुआत की थीके अंतर्गत चारों धाम को जोड़ने के लिए 889 किलोमीटर लंबे हाईवे का  चौड़ीकरण  किया गया और ऑल-वेदर यानी हर मौसम में मजबूत रहने वाली सड़क  का निर्माण कराया गया।  इससे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री  की यात्रा काफी शुगम हो गई है.  अयोध्या में राम मंदिर निर्माण  का मार्ग प्रशस्त  होने के बाद सरकार ने  एक न्यास की स्थापना की और मंदिर  के निर्माण कार्य  को पंख लगा दिए.  अगस्त 2020 में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे सनातन रीति-रिवाजों से पूजा अर्चना करते हुए इस मंदिर का शिलान्यास   पूरे भक्ति भाव से करते हुए पूरी दुनिया को  संदेश दिया कि  पंथनिरपेक्षता केवल सनातन धर्म में ही संभव है.   पिछले 500 वर्षों के मंदिर निर्माण के संघर्ष को याद करते हुए हिंदू जनमानस के मन मस्तिष्क में आज भी अयोध्या में  प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए गए शिलान्यास की यादें ताजा है, जब उन्होंने साष्टांग दंडवत होते हुए प्रभु श्री राम का चरण वंदन किया था.

श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का बनना एक अत्यंत साहसिक और समर्पण का  प्रतीक है इसका बन पाना आसान कार्य नहीं था और इसके निर्माण में सैकड़ों व्यवधान उत्पन्न  किए गए  जिनमें  हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय शामिल थे. जहां  विरोध करने वाले  हिंदू विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित  किए गए थे जिन्होंने अपने दलगत राजनीतिक स्वार्थ के कारण प्राचीन मंदिरों को तोड़ने, विग्रह नष्ट करने और काशी का विनाश करने जैसे आरोप लगाए.  स्वाभाविक रूप से विपक्षी दल नहीं चाहते थे कि  श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण पूरा हो पाए और इसका श्रेय भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी को मिले.  यद्यपि इन्होने   गंगा में डुबकी  लगाते हुए और बाबा विश्वनाथ के दरबार में पहुंच कर आराधना करते हुए अपनी तस्वीरें और  वीडियो खूब प्रचारित और प्रसारित किए जिसका केवल और केवल उद्देश्य  अपने आपको हिंदू के रूप में स्थापित करना था.  विपक्ष के इन नेताओं को डर था कि  श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के इतने बड़े  कार्य के संपन्न हो जाने के बाद  उनका हिंदुत्व  बहुत छोटा पड़ जाएगा,  इसलिए निर्माण के इस कार्य का   अभियान चलाकर हर स्तर पर विरोध किया गया.

ज्ञानवापी मस्जिद  की इंतजामियां कमेटी ने भी  कॉरिडोर के निर्माण का  भरसक विरोध किया और सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी  कि इतने बड़े निर्माण  और लोगों की भारी भीड़ जमा होने के कारण  मस्जिद की सुरक्षा को गंभीर खतरा है. लेकिन पूरी दुनिया ने सनातन धर्म की विशालता का उस समय  अनुभव किया कि जिस  समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन कर रहे थे,  ठीक उसी समय नमाजी मस्जिद में नमाज  अदा कर रहे थे.  उद्घाटन के बाद   ज्ञानवापी मस्जिद कमेटी का अब कहना है  कि कॉरिडोर के निर्माण से मस्जिद और भी सुरक्षित हो जाएगी.


कॉरिडोर के उद्घाटन के समय अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने चुटकी लेते हुए कहा था  कि  हो सकता है कोई  नेता कॉरिडोर के निर्माण का श्रेय लेने की भी कोशिश करे कि  यह परियोजना उसने शुरू की थी.  प्रधानमंत्री  के इस व्यंग से बेपरवाह अखिलेश यादव ने सचमुच यह घोषणा कर दी कि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की योजना उनके शासनकाल में बनी थी और कुछ भवनों का अधिग्रहण भी किया गया था. बेहद बचकाने अंदाज में नकारात्मकता का परिचय देते हुए उन्होंने यह भी कह डाला कि प्रधानमंत्री को  काशी में रहना चाहिए क्योंकि आखिरी समय में वही रहा जाता है.  इसके एक दिन पहले  राहुल गांधी हिंदू और हिंदुत्व की व्याख्या कर रहे थे, तो  राज्य सभा में  कांग्रेस के नेता  खड़गे ने प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कह रहे थे  कि उन्हें यह उद्घाटन किसी छुट्टी के दिन करना चाहिए था और उस दिन उन्हें संसद में होना चाहिए था. अन्य नेताओं ने खुल कर आलोचना भले ही न की हो किन्तु किसी ने भी इस पर प्रसन्नता  व्यक्त करते हुए न तो कोई ट्वीट किया और न ही कोई  वक्तव्य दिया.  यह प्रदर्शित  करता है कि न केवल  राजनैतिक दलों का  तुष्टिकरण  मोह अभी भी जस का तस कायम है बल्कि वोट बैंक के साझीदारों की संख्या बढ़ती जा रही है. धार्मिक कट्टरता और  उन्माद बढ़ता जा रहा है. छल - कपट और प्रलोभन  से मतान्तरण करवाकर जनसंख्या विस्फोट करवाया जा रहा है ताकि देश की धार्मिक पहचान को समाप्त कर  और गजवा- ए- हिन्द को अंजाम दिया जा सके. अपने स्वार्थ में अंधे हो चुके राजनैतिक  दल इसके विरुद्ध खड़े होने के बजाय इसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन दे रहें हैं . इसलिए सनातन   संस्कृति   के कर्णधारों को अपनी  हिचक छोड़कर सनातन धर्म की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए और क्षणिक फायदे के लिए  किसी बहकावे में नहीं आना चाहिए. 

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- शिव मिश्रा 





न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी

 न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी

सरकार द्वारा  तीनो कृषि  कानून वापस ले लेने के बाद भी तथा कथित  किसान हट धर्मिता दिखाते हुए अभी घर वापसी के मूड में नहीं है. अब  कई नई मांगे भी  की जा रही  हैं लेकिन सबसे बड़ी मांग है न्यूनतम  समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून. यह कानून देश और किसानों के लिए कितना लाभकारी हो सकता है, आइये इसे बिना इकनोमिक जोर्गन प्रयोग किये बिलकुल साधारण भाषा में समझने  की कोशिश करते हैं.

जरा सोचिये जिस  देश में गुड १०० रूपये प्रति किलो और चीनी ३० रुपये प्रति किलो बिकती हो  इसका क्या कारण हो सकता हैकारण है गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य होता है, लेकिन गुड का नहीं. चीनी मिले ज्यादा कुशन गन्ना खरीदे, इसके लिए आन्दोलन होते हैं.  भुगतान  में विलम्ब करें, भुगतान नहीं करें तो भी आन्दोलन होतें हैं और फिर राज्य सरकारे सक्रिय होती हैं, चीनी मिलो की सहायता करती हैं, तब कहीं जाकर भुगतान हो पाता है. . अक्सर यह चुनावी  मुद्दा भी बनता है. धीरे धीरे गन्ने का वैकल्पिक वाणिज्यिक उपयोग लगभग बंद हो चुका है. बड़ी कंपनिया जैसे रिलायंस फ्रेश, डीमार्ट, बिग बास्केट, स्पेंसर, अमेजन, फ्लिप कार्ट  आदि महाराष्ट्र और गुजरात से अपने रिटेल या ऑनलाइन स्टोर्स पर बेचने के लिए  गुड  तैयार करवाती हैं, जहाँ यह १०० रूपये से १५० रुपये किलो तक बेचा जाता है. सामान्य किसानों को तो शायद यह मालूम भी नहीं होगा. कभी पूरे उत्तर भारत में  पश्चिमी उ.प्र के नए गुड की प्रतीक्षा रहती थी, अब  मेरठ, नोइडा और दिल्ली में भी कोल्हापुर का डिब्बाबंद गुड बिकता है. यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है  कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या प्रभाव  हो रहा है खास तौर से पश्चिम उत्तर प्रदेश हरियाणा और पंजाब में.

न्यूनतम समर्थन मूल्य तो अभी भी लागू है और फसल की  शुरुआत में सरकार इसकी घोषणा कर देती है. इसका उद्देश्य होता है कि सरकार किसानों से इसी मूल्य पर खरीदारी करेगी ताकि किसानों को यह मालूम हो सके कि बाजार मूल्य लगभग इसके आस पास रहेगा और वे  फसल बोने के लिए  अपने सही विकल्प का चुनाव कर सकें. लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के बाद भी सरकार सारी  उपज की खरीदारी नहीं करती. सरकार केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सेना और अर्धसैनिक बलों तथा अन्य जरूरतों का ध्यान रखकर सीमित मात्रा में खरीदारी करती है.  सरकार अगर चाहे भी तो किसानों की सारी उपज की खरीदारी कर भी  नहीं सकती क्योंकि उसके पास ना तो भंडारण की क्षमता है और ना ही बिक्री और वितरण का कोई तंत्र. इसलिए सरकारी खरीदारी के बाद जो उपज बचती है, वह खुले बाजार में बिकती है. इसकी विशेषता यह है कि किसान को मूल्य भले ही कम मिले लेकिन  उपज बिना किसी परेशानी के बिक जाती है. यद्दपि   उपज  का  मूल्य  "डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत" पर निर्भर  होता है इसलिए बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम या ज्यादा हो सकता है. फसल के समय यह सामान्यतय: कम ही होता है और इसलिए यह तुरंत फायदे का सौदा होता  है. इसके अलावा समय के साथ साथ पूरी खरीद प्रक्रिया में पार दर्शिता का अभाव होता  जा रहा है. अक्सर बिचौलियों की भूमिका सवालों के घेरे में आती है क्योंकि खाद्य निगम ज्यादातर खरीदारी राज्य सरकार द्वारा लाइसेंसी कृत बिचौलियों के माध्यम से करती है. साथ ही खाद्य निगम के गोदामों में खाद्यान्न की बर्बादी भी बहुत सामान्य  है यद्दपि  इसमें हाल के वर्षों में काफी सुधार हुआ है. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि  ज्यादातर छोटे किसानों को  न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई  लाभ नहीं मिल पाता और इसलिए किसानों के वर्तमान आन्दोलन में उनकी सहभागिता भी लगभग नहीं के बराबर है.

 

न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का औचित्य

न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने का मतलब है कि उस मूल्य पर ही खरीदारी होगी, या तो सारी खरीदारी सरकार करें, जो संभव नहीं है, इसलिए कानून बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीद-फरोख्त को गैरकानूनी घोषित कर दिया जाय और इसे दंडनीय अपराध घोषित कर दिया, और कानून तोड़ने वालों को  जेल में डाल दिया जाए. ऐसे कानून के अंतर्गत यदि सरकार पूरी खरीदारी नहीं करेगी तो व्यापारी या स्टॉकिस्ट को सरकारी मूल्य पर ही खरीदारी करनी होगी. यदि उपज की मांग नहीं हुई तो व्यापारी और स्टॉकिस्ट इसे नहीं खरीदेंगे. अगर आयात करने पर किसी जिन्स का मूल्य देश के न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होता है तो व्यापारी स्थानीय स्तर पर खरीदने के बजाय इसका आयात करेंगे और यदि सरकार आयात प्रतिबंधित करेगी तो फिर पड़ोसी देशों की सीमाओं से स्मगलिंग और काले धंधे शुरू हो जायेंगे. यदि यह भी नहीं हो सका तो किसानों से चोरी छुपे कम कीमत पर खरीदारी की जाएगी.

 

 

 

इस सब का नतीजा यह होगा कि किसान की उपज कितनी ही अच्छी और कितनी ही ज्यादा क्यों ना हो बाजार में खरीदने वाले नहीं होंगे और किसान रुपयों की अत्यंत आवश्यकता होने पर  भी अपनी फसल नहीं बेच पाएंगे. उन्हें फसल या तो अपने पास रखनी पड़ेगी या फिर इसे जानवरों को खिलाने या फेंकने के लिएके लिए मजबूर हो जाएंगे, जैसा कि हम हर साल मौसमी सब्जी और फलों के बारे में देखते हैं.

फुटकर ग्राहकों के लिए भी बहुत बड़ी समस्या हो जाएगी क्योंकि किसानों के पास उपज तो बहुत होगी लेकिन उन्हें या तो बहुत  महंगी मिलेगी या फिर मिलेगी ही नहीं. ऐसी स्थिति में फसलों की उपज और उनके मूल्यों के बारे में भविष्यवाणी करना असंभव हो जाएगा. सरकार के लिए ऐसी स्थिति में उत्पादन और गुणवत्ता बढ़ाना बेहद मुश्किल हो जाएगा.  इसका एक दुष्परिणाम यह  होगा कि  कमोडिटी मार्केट तो ध्वस्त हो जाएगा.

इस सबका मिलाजुला असर यह होगा कि किसानों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और उनके खर्च करने की शक्ति कम हो जाएगी, चाहे वह पारिवारिक खर्च हो या फसलों में लगने वाली लागत या पूंजी हो. कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी लगभग खत्म हो जाएगी.

संपन्न किसान और किसान वेश में बिचौलिए नए-नए आंदोलन चलाकर सरकार को खरीदारी का कोटा बढ़ाने के लिए दबाव बनाएंगे. आज जो किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए आंदोलन चलाने की बात कर रहे हैं, कल वह सरकारी खरीद का कोटा बढ़ाने के लिए आंदोलन चलाएंगे और यदि सरकार कोटा बढ़ाएगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात होगी.  संपन्न किसान और बिचौलिए तो मालामाल होते जाएंगे लेकिन सामान्य किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जाएगी. साथ-साथ सरकार अत्यधिक वित्तीय दबाव बनेगा क्योंकि सरकार इस तरह से खरीदी गई उपज को ना तो निर्यात कर पाएगी और ना ही देसी बाजार में बेच पाएगी. सरकार के पास भंडारण की पर्याप्त क्षमता भी नहीं है इसलिए उपज का बड़ा हिस्सा बर्बाद होने से नहीं रोका जा सकेगा. इसके बाद उपज को या तो मुफ्त में अपने देश के नागरिकों में बांटना होगा, या फिर ओने पौने निर्यात करना होगा या मुफ्त में जरूरतमंद देशों / संयुक्त राष्ट्र संघ को दान करना होगा.

सरकार द्वारा इस पर किया गया खर्चा इतना ज्यादा होगा की अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाएं और रक्षा सहित विकास के कार्य प्रभावित होंगे, जिसकी भरपाई सरकार करों की दर बढ़ाकर यह नए कर लगाकर करेगी. पूरे घटनाक्रम से सबसे अधिक प्रभावित होंगे आम किसान और खेतिहर मजदूर जो अधिकांशत: आज भी गरीबी में जी रहे हैं.

मैंने अपनी आंखों से देखा है और महसूस किया है कि किसानों की हालत बहुत खराब है . खेती किसानी अब लाभदायक कार्य नहीं रहा. मैं अपने गांव और रिश्तेदारी में ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं,   जिनके पास लगभग 10 एकड़ खेती थी और वे जमीदारों की तरह रहते थे. आजकल उनकी हालत बहुत खराब है. उतनी खेती से घर का खर्चा नहीं चलता. सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि खेती करने के लिए मजदूरों की भारी कमी है. गांव के ज्यादातर युवा वर्ग गांव छोड़कर दिल्ली, गुजरात, मुंबई और पंजाब चले जाते हैं. केवल वही लोग बचते हैं जिनके पास नरेगा कार्ड होते हैं और साल में १००- ५० दिन का काम मिल जाता है.

खेतों की जोत बहुत छोटी है, कई गावों  में घूमिये तो शायद ही किसी के पास बैल मिलेंगे. किराए पर ट्रैक्टर मंगा कर एक आध बार जोत कर खेती की जा रही है. बटाई पर खेती करने वालों की संख्या भी कम होती जा रही हैं. मेरे पास  बहुत थोड़े खेत है, जो कई बार बटाईदार ना मिलने पर खाली पड़े रहते हैं. मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कैसे इस पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करेगी.

इसलिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाने की अन्य योजनाएं बनाने पर विचार करना चाहिए और ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे उनकी आय बढे, उनकी क्रय शक्ति बढे. जिससे किसानों के रहन-सहन में सुधार आएगा और देश की जीडीपी भी बढ़ेगी. पंजाब में अधिकांशत: गेहूं और धान की फसलें उगाई जा रही हैं, जिनमें अत्यधिक सिंचाई के  पानी की आवश्यकता पड़ती है और इस कारण पंजाब में भूगर्भ का जलस्तर गिरकर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक कीटनाशकों और रासायनिक खादों का उपयोग किया जा रहा है. जिसके कारण पंजाब देश में सबसे अधिक कैंसर रोगियों वाला प्रदेश बन गया है. आय के असमान वितरण के दुष्परिणाम स्वरूप नशे का कारोबार भी अपनी जड़ें जमा रहा है. सरकार नकद या अन्य तरह की सहायता पहुंचा कर फसलों का पैटर्न बदल सकती है, और भूगर्भ जलस्तर बचा कर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुरक्षित कर सकती है. जब तक कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं दिया जाता और उसी तरह सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जाती, किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता. सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे किसानों की लागत कम हो सके  और वे देश की आवश्यकता के अनुसार फसलें उगा कर अपने लिए आर्थिक स्रोत उत्पन्न कर सकें. रद्द किए गए  कृषि किसान कानूनों की जगह, किसान संगठनों और विशेषज्ञों से वार्ता कर के नए कानून लाई जानी चाहिए जिससे किसान अपनी कृषि योग्य भूमि का अधिकतम उपयोग करके अधिक से अधिक आय अर्जित कर सकें और स्वयं स्वावलंबी बन सके.

अमेरिका, कनाडा जैसे विकसित देश और यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन भी  भारत पर कृषि क्षेत्रको  तय सीमा से अधिक सब्सिडी देने का आरोप लगाते रहते हैं. मोदी सरकार ने शायद  इससे बचने के लिए किसानों को आर्थिक सहायता देने का नया तरीका निकाला है और वह है  सीधे उनके खाते में धनराशि पहुंचाना, जिसे तकनीकी रूप से  सब्सिडी नहीं सहायता  माना जाता है और इसलिए इस पर कोई आपत्ति भी नहीं की जाती.

अमेरिका और युरोप के  ज्यादातर किसानों की गिनती दनिया के समृद्ध किसानो में होती है लेकिन वहां न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून नहीं है. इसलिए मूल्यों की  गारंटी के ये मांग किसानो की खुशहाली का द्वार नहीं खोल सकती. 

- शिव मिश्रा 

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कृषि कानून – निराशाजनक वापसी

 

कृषि कानूनों की वापसी – एक  निराशाजनक अध्याय

कृषि कानूनों की वापसी को लोग भले ही मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक कहे लेकिन मुझे तो लगता है कि है कि यह मास्टर स्ट्रोक का ब्रेन स्ट्रोक है. इन कानूनों की वापसी बेहद निराशाजनक है किंतु वापसी के इस कदम की आलोचना भी उचित नहीं कही जा सकती.

यद्दपि  संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानून प्रचलन में नहीं थे, क्योंकि इन पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा रखी थी  किन्तु  इसके बाद भी इन कानूनों के विरुद्ध संपूर्ण विपक्ष और तथाकथित किसानों के भेष में देश विरोधी ताकतें भी  सक्रिय थी और मोदी सरकार पर लगातार निशाना साध रही थी. पिछले एक साल से दिल्ली घेरकर बैठे इन चन्द लोगों ने दिल्ली और  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोगों का जीना दूभर कर रखा था और इस क्षेत्र के उद्योगों को माल के आवागमन बाधित होने के कारण भारी क्षति हो रही थी. इस आंदोलन के कारण देश को कितनी आर्थिक क्षति हुई है इसका आकलन करना मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि इस आंदोलन ने अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की छवि को जितनी क्षति पहुंचाई उसकी भरपाई आसानी से नहीं की जा सकती है.

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जो कानून प्रचलन में ही न हो उनका विरोध हो रहा हो  और उसका अंतरराष्ट्रीय करण किया जा रहा है. इसलिए ऐसे कानूनों को वापस लेने से भी कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है. फिर भी सरकार के इस काम से देश हित में काम करने वाले  प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को  बेहद निराशा हुई है क्योंकि इससे देश के अधिसंख्य किसानों का लंबी अवधि में बहुत  नुकसान होगा और इसलिए मैं व्यक्तिगत रूप से सरकार के इस कदम का समर्थन नहीं कर सकता खासतौर से तब जबकि आन्दोलन अपनी मौत मर चुका था.

 

प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इन कानूनों को वापस लेने के  क्या कारण बताये  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मुझे नहीं लगता है कि सरकार ने यह बिल केवल राजनीतिक दबाव में वापस लिए हैं क्योंकि जो लोग विरोध कर रहे थे वे इनके वापस होने के बाद भी बीजेपी को वोट नहीं करेंगे और यह बात बीजेपी भी अच्छी तरीके से समझती होगी.

कानून वापसी के निहातार्थ

इस तथाकथित किसान आंदोलन को हर उस व्यक्ति का समर्थन मिल रहा था जो व्यक्तिगत रूप से प्रबल मोदी विरोधी था. पूरे विपक्ष सहित अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ भी इस आंदोलन को न  केवल समर्थन कर रहे थे बल्कि उन्हें इसके लिए धन भी मुहैया करवा रहे थे. ऐसे समय में जब  क्रिस्चियन मिशनरियों द्वारा  पंजाब में बड़े पैमाने पर सिखों का धर्मांतरण किया जा रहा है, इस आंदोलन के कारण पंजाब और तराई क्षेत्रों में हिंदू और सिख आमने-सामने आ  गए, और यही इस आंदोलन को हवा दे रही  देश विरोधी ताकतों की सबसे बड़ी उपलब्धि है. 

 

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है सर्वोच्च न्यायालय का रवैया जिस पर कोई भी खुलकर नहीं बोल रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाते हुए तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी किंतु इस आंदोलन के समाधान की दिशा में एक भी कदम नहीं उठाया. आन्दोलनकारियों  द्वारा दिल्ली पहुंचने के  रास्तों को अवरुद्ध करने के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में कई जनहित याचिकायें दायर की गई थीं लेकिन कई मामलों में  स्वत: संज्ञान लेने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने इन जनहित याचिकाओं पर कुछ भी नहीं किया. एक समाधान के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई जिसने तय सीमा के अंदर अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इसे देखने के लिए समय नहीं मिल पाया. यह अपने आप में बहुत बड़ा संकेत है कि कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के न्यायिक  समाधान में उसकी कोई रुचि नहीं है, चाहे दिल्ली सहित तीनों राज्यों की असंख्य जनता को कितनी ही परेशानी क्यों न हो और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में चल रहे उद्योगों को कितना ही नुकसान उठाना क्यों न उठाना  पड़े.

इसके पहले पश्चिम बंगाल में हुई वीभत्स हत्याएं बलात्कार लूटपाट और आगजनी ठीक वैसे ही थी जैसे विभाजन के समय हुई थी और इसके कारण हजारों लोग अपना घर बार छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन कर गए  लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वत: संज्ञान लेना तो छोड़ दीजिए जनहित याचिकाओं  पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई. इसके ठीक विपरीत लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा और उसमें मारे गए 4 किसानों के मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने, एक एसआईटी गठित की  है जिसकी निगरानी दैनिक आधार पर करने के लिए उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश नियुक्त किए गए हैं  और यह ध्यान रखा गया है कि उनकी जड़ें उत्तर प्रदेश से ना हो. सर्वोच्च न्यायालय ने एसआईटी में भी सीधे  नियुक्त आईपीएस के  आईजी स्तर के वरिष्ठ अधिकारी शामिल किए हैं, और यह ध्यान रखा है कि वे  उत्तर प्रदेश के निवासी  न हो.

 

सर्वोच्च न्यायालय के ऊपर  कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है, संभवत अवमानना की कार्यवाही के डर से और इसलिए न्यायालय के अत्यंत सम्मान के साथ मुझे यह कहते हुए खेद  है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर उदासीन रवैया अपनाकर न केवल देश को संकट में डाले रखा है वरन सरकार को भी अप्रत्यक्ष रूप से संकट में डालने का काम किया है. न्यायालयों की कार्यप्रणाली की  यह एक नई शुरुआत है. इसके पहले शाहीन बाग के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने आंदोलनकारियों से  सड़क खाली कराने का आदेश देने के  बजाय मध्यस्थ वार्ताकार नियुक्त कर दिए थे, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला था.

 

ऐसे में सरकार के पास इन कानूनों को वापस लेने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचा था. इसलिए सरकार द्वारा इन कानूनों को वापस लेने  की आलोचना करना उचित नहीं है.

 

कृषि कानूनों के वापस होने के बाद भी आंदोलन खत्म नहीं होगा

मेरा मानना है और मैंने कई बार यह  लिखा भी  है कि सरकार द्वारा कृषि कानून वापस लेने के बाद भी आंदोलन समाप्त  नहीं होगा क्योंकि इस आंदोलन का उद्देश्य किसानों का हित तो केवल दिखाव़ा  है असली उद्देश्य राजनीतिक है. इसलिए किसी न किसी बहाने आंदोलन को न केवल  2024 तक जिंदा रखने की कोशिश की जाएगी बल्कि नए नए मुद्दे भी शामिल किए जाते रहेंगे. आंदोलनकारियों के  ताजा रुख से यह बिल्कुल स्पष्ट भी  हो गया है. उन्होंने इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट अक्षरस: लागू करने, किसानों के सभी मुकदमे वापस लेने, आंदोलन के दौरान किसी भी कारणवश मृत किसानों को शहीद का दर्जा  देने और उचित मुआवजा देने की मांगे शामिल कर ली हैं. किसान नेता राकेश टिकैत ने तो यह भी मांग कर डाली है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कृषि क्षेत्र के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार से जो मांगे की थी वे भी लागू की जाए क्योंकि अब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. वास्तव में यह  बेतुकी मांग तो कांग्रेश ने की थी जिसे टिकैत दोहरा रहे हैं.

 

अगर सरकार ये  सभी नई मांगे मान लें तो भी आंदोलन वापस नहीं होगा क्योंकि तब वे  संशोधित नागरिकता कानून की वापसी की मांग करेंगे और अगर वह भी मान ली जाती है तो फिर धारा 370 की वापसी की मांग करेंगे. इस तरह मांगों का  अंतहीन सिलसिला चलता रहेगा.

 

आंदोलन को लंबा खींचने के लिए सरकार भी जिम्मेदार

सरकार ने आवश्यकता से अधिक लचीला रुख अपनाया जिससे आंदोलनकारियों के हौसले बढ़ते गए और उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि वह कुछ भी करें सरकार उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करेगी. इसका परिणाम 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज के अपमान, लाल किले पर एक धर्म विशेष का झंडा फहराने और दिल्ली में अराजकता फैलाने के रूप में सामने आया. जांच में विदेशी साजिश का पर्दाफाश हुआ और सरकार के पास कार्यवाही करने का  पर्याप्त आधार  था. ज्यादातर आंदोलनकारियों ने स्वयं को इस अराजक होते आंदोलन से अलग कर लिया था लेकिन सरकार ने जरूरत से ज्यादा सहिष्णुता का परिचय देकर इस आंदोलन को जीवनदान दे दिया.

 

न्यूनतम समर्थन मूल्य समस्या का हल नहीं

किसान नेताओं द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग मानना किसानों और देश के हित में बिल्कुल भी नहीं है. इससे अर्थव्यवस्था को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा  क्योंकि सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य के नीचे खरीदारी नहीं की जा सकेगी  इसलिए बाजार भाव समर्थन मूल्य से नीचे आने पर खरीदारी बंद हो जाएगी. इससे कमोडिटी बाजार ध्वस्त  हो जाएगा और कोई भी व्यापारी नुकसान होने के डर से स्टॉक नहीं करना चाहेगा.  यह एक ऐसी स्थिति होगी जब कृषि उपज या तो महंगी बिकेगी या फिर बिकेगी ही नहीं. इस सब का  असर किसानों और सामान्य उपभोक्ताओं पर पड़ेगा.  इसलिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य की बजाय किसानों की आय बढ़ाने के अन्य उपाय करने चाहिए.

 

 राजनीतिक नफा नुकसान

किसान आंदोलन से  सबसे अधिक प्रभावित होने वाले राज्य उत्तर प्रदेश और पंजाब हैं. जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है वहीं पंजाब में उसका कोई बहुत बड़ा आधार नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई के कुछ इलाके इससे प्रभावित हैं जहां पिछले चुनाव में भाजपा को भारी सफलता मिली थी.  कृषि कानूनों की वापसी के कारण यहां भाजपा को संभावित नुकसान से कुछ राहत अवश्य मिलेगी. राष्ट्रीय लोक दल जिसका जनाधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक ही सीमित है, का समाजवादी पार्टी के साथ घोषित गठबंधन है किंतु सीटों के बंटवारे को लेकर मतभेद है. अब  इस बात की प्रबल संभावना है कि जयंत चौधरी अपना भविष्य  सुरक्षित करने के उद्देश्य से भाजपा के पाले में जा सकते हैं  . इससे भाजपा को फायदा भले ही न हो लेकिन समाजवादी पार्टी को नुकसान अवश्य होगा.

पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेश छोड़ने  के बाद नई पार्टी बनाने का ऐलान किया था और इस बात की संभावना जताई थी कि यदि  सरकार कृषि कानून वापस लेती है या उनमे  समुचित बदलाव करती है तो वह भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं. कृषि कानून लागू होने के बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए शिरोमणि अकाली दल पंजाब में भाजपा से अलग हो गया था लेकिन उसे न माया मिली न राम तो उन्होंने मायावती से गठबंधन कर लिया.  जिसका बहुत फायदा होता नजर नहीं आता,  इसलिए अब इस बात की भी संभावना  है कि  अकाली दल फिर से भाजपा के साथ गठबंधन  पर विचार करें. यदि भाजपा, कैप्टन अमरिंदर सिंह और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन मिलकर चुनाव लड़ता है तो यह  गठबंधन पंजाब में नई सरकार बना सकता है. कृषि  कानूनों की वापसी ने इसकी जमीन तैयार कर दी है.

कृषि कानूनों की वापसी ने आंदोलनकारी नेताओं के पैरों से जमीन खींच ली है और विपक्ष भी   मुद्दा विहीन हो गया है. गुरु नानक जयंती के अवसर पर इन कानूनों को वापस लेना भी एक बहुत बड़ा संदेश है, जिससे पंजाब में भाजपा के विरुद्ध सिखों का रोष कम होगा  और हरियाणा में भी सरकार के खिलाफ असंतोष कम हो सकेगा.

जहां तक  कृषि सुधारों से  संबंधित नए कानून बनाने का का प्रश्न है, हमें याद रखना चाहिए कि मोदी एक गंभीर राजनेता है और वह देश और किसानों के हित में  किसी  महत्वपूर्ण मुद्दे को यूं ही छोड़ देना पसंद नहीं करेंगे. आशा है कि  कृषि सुधारों से संबंधित नए कानून सभी संबंधित पक्षों से व्यापक विचार-विमर्श के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले जरूर आ जाएंगे.

                                                           - शिव मिश्रा