न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी
सरकार द्वारा
तीनो कृषि कानून वापस ले लेने के
बाद भी तथा कथित किसान हट धर्मिता दिखाते
हुए अभी घर वापसी के मूड में नहीं है. अब
कई नई मांगे भी की जा रही हैं लेकिन सबसे बड़ी मांग है न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून. यह कानून देश
और किसानों के लिए कितना लाभकारी हो सकता है, आइये इसे बिना इकनोमिक जोर्गन प्रयोग किये
बिलकुल साधारण भाषा में समझने की कोशिश
करते हैं.
जरा सोचिये जिस देश में गुड १०० रूपये प्रति किलो और चीनी ३०
रुपये प्रति किलो बिकती हो इसका क्या कारण
हो सकता है? कारण है गन्ने का न्यूनतम
समर्थन मूल्य होता है, लेकिन गुड का नहीं. चीनी मिले ज्यादा कुशन
गन्ना खरीदे, इसके लिए आन्दोलन होते हैं.
भुगतान में विलम्ब करें, भुगतान नहीं करें
तो भी आन्दोलन होतें हैं और फिर राज्य सरकारे सक्रिय होती हैं, चीनी मिलो की
सहायता करती हैं, तब कहीं जाकर भुगतान हो पाता है. . अक्सर यह
चुनावी मुद्दा भी बनता है. धीरे धीरे
गन्ने का वैकल्पिक वाणिज्यिक उपयोग लगभग बंद हो चुका है. बड़ी कंपनिया जैसे रिलायंस
फ्रेश, डीमार्ट, बिग बास्केट, स्पेंसर, अमेजन, फ्लिप कार्ट
आदि महाराष्ट्र और गुजरात से अपने रिटेल या ऑनलाइन स्टोर्स पर बेचने के
लिए गुड
तैयार करवाती हैं, जहाँ यह १०० रूपये से १५० रुपये किलो तक बेचा
जाता है. सामान्य किसानों को तो शायद यह मालूम भी नहीं होगा. कभी पूरे उत्तर भारत
में पश्चिमी उ.प्र के नए गुड की प्रतीक्षा
रहती थी, अब मेरठ, नोइडा और दिल्ली
में भी कोल्हापुर का डिब्बाबंद गुड बिकता है. यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या प्रभाव हो रहा है खास तौर से पश्चिम उत्तर प्रदेश
हरियाणा और पंजाब में.
न्यूनतम समर्थन मूल्य तो अभी भी लागू है और फसल
की शुरुआत में सरकार इसकी घोषणा कर देती
है. इसका उद्देश्य होता है कि सरकार किसानों से इसी मूल्य पर खरीदारी करेगी ताकि
किसानों को यह मालूम हो सके कि बाजार मूल्य लगभग इसके आस पास रहेगा और वे फसल बोने के लिए अपने सही विकल्प का चुनाव कर सकें. लेकिन
न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के बाद भी सरकार सारी उपज की खरीदारी नहीं करती. सरकार केवल
सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सेना और अर्धसैनिक बलों तथा अन्य जरूरतों का
ध्यान रखकर सीमित मात्रा में खरीदारी करती है.
सरकार अगर चाहे भी तो किसानों की सारी उपज की खरीदारी कर भी नहीं सकती क्योंकि उसके पास ना तो भंडारण की
क्षमता है और ना ही बिक्री और वितरण का कोई तंत्र. इसलिए सरकारी खरीदारी के बाद जो
उपज बचती है, वह खुले बाजार में बिकती है. इसकी विशेषता यह है कि किसान को मूल्य भले ही कम
मिले लेकिन उपज बिना किसी परेशानी के बिक
जाती है. यद्दपि उपज का
मूल्य "डिमांड और सप्लाई के
सिद्धांत" पर निर्भर होता है इसलिए
बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम या ज्यादा हो सकता है. फसल के समय यह
सामान्यतय: कम ही होता है और इसलिए यह तुरंत फायदे का सौदा होता है. इसके अलावा समय के साथ साथ पूरी खरीद प्रक्रिया
में पार दर्शिता का अभाव होता जा रहा है.
अक्सर बिचौलियों की भूमिका सवालों के घेरे में आती है क्योंकि खाद्य निगम ज्यादातर
खरीदारी राज्य सरकार द्वारा लाइसेंसी कृत बिचौलियों के माध्यम से करती है. साथ ही
खाद्य निगम के गोदामों में खाद्यान्न की बर्बादी भी बहुत सामान्य है यद्दपि इसमें हाल के वर्षों में काफी सुधार हुआ है.
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि ज्यादातर छोटे
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई लाभ नहीं मिल पाता और इसलिए किसानों के वर्तमान
आन्दोलन में उनकी सहभागिता भी लगभग नहीं के बराबर है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य की
गारंटी का औचित्य
न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने का मतलब
है कि उस मूल्य पर ही खरीदारी होगी, या तो सारी खरीदारी सरकार करें, जो संभव नहीं है, इसलिए कानून
बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीद-फरोख्त को गैरकानूनी घोषित कर दिया जाय और
इसे दंडनीय अपराध घोषित कर दिया, और कानून तोड़ने वालों को जेल में डाल दिया जाए. ऐसे कानून के अंतर्गत
यदि सरकार पूरी खरीदारी नहीं करेगी तो व्यापारी या स्टॉकिस्ट को सरकारी मूल्य पर
ही खरीदारी करनी होगी. यदि उपज की मांग नहीं हुई तो व्यापारी और स्टॉकिस्ट इसे
नहीं खरीदेंगे. अगर आयात करने पर किसी जिन्स का मूल्य देश के न्यूनतम समर्थन मूल्य
से कम होता है तो व्यापारी स्थानीय स्तर पर खरीदने के बजाय इसका आयात करेंगे और
यदि सरकार आयात प्रतिबंधित करेगी तो फिर पड़ोसी देशों की सीमाओं से स्मगलिंग और
काले धंधे शुरू हो जायेंगे. यदि यह भी नहीं हो सका तो किसानों से चोरी छुपे कम
कीमत पर खरीदारी की जाएगी.
इस सब का नतीजा यह होगा कि किसान की उपज कितनी
ही अच्छी और कितनी ही ज्यादा क्यों ना हो बाजार में खरीदने वाले नहीं होंगे और
किसान रुपयों की अत्यंत आवश्यकता होने पर
भी अपनी फसल नहीं बेच पाएंगे. उन्हें फसल या तो अपने पास रखनी पड़ेगी या
फिर इसे जानवरों को खिलाने या फेंकने के लिएके लिए मजबूर हो जाएंगे, जैसा कि हम हर
साल मौसमी सब्जी और फलों के बारे में देखते हैं.
फुटकर ग्राहकों के लिए भी बहुत बड़ी समस्या हो
जाएगी क्योंकि किसानों के पास उपज तो बहुत होगी लेकिन उन्हें या तो बहुत महंगी मिलेगी या फिर मिलेगी ही नहीं. ऐसी
स्थिति में फसलों की उपज और उनके मूल्यों के बारे में भविष्यवाणी करना असंभव हो
जाएगा. सरकार के लिए ऐसी स्थिति में उत्पादन और गुणवत्ता बढ़ाना बेहद मुश्किल हो जाएगा. इसका एक दुष्परिणाम यह होगा कि
कमोडिटी मार्केट तो ध्वस्त हो जाएगा.
इस सबका मिलाजुला असर यह होगा कि किसानों की
आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और उनके खर्च करने की शक्ति कम हो जाएगी, चाहे वह
पारिवारिक खर्च हो या फसलों में लगने वाली लागत या पूंजी हो. कृषि क्षेत्र में
प्रतिस्पर्धा भी लगभग खत्म हो जाएगी.
संपन्न किसान और किसान वेश में बिचौलिए नए-नए
आंदोलन चलाकर सरकार को खरीदारी का कोटा बढ़ाने के लिए दबाव बनाएंगे. आज जो किसान
न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए आंदोलन चलाने की बात कर रहे हैं, कल वह सरकारी
खरीद का कोटा बढ़ाने के लिए आंदोलन चलाएंगे और यदि सरकार कोटा बढ़ाएगी तो न्यूनतम
समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात होगी. संपन्न
किसान और बिचौलिए तो मालामाल होते जाएंगे लेकिन सामान्य किसानों की स्थिति बद से
बदतर होती जाएगी. साथ-साथ सरकार अत्यधिक वित्तीय दबाव बनेगा क्योंकि सरकार इस तरह
से खरीदी गई उपज को ना तो निर्यात कर पाएगी और ना ही देसी बाजार में बेच पाएगी.
सरकार के पास भंडारण की पर्याप्त क्षमता भी नहीं है इसलिए उपज का बड़ा हिस्सा
बर्बाद होने से नहीं रोका जा सकेगा. इसके बाद उपज को या तो मुफ्त में अपने देश के
नागरिकों में बांटना होगा, या फिर ओने पौने निर्यात करना होगा या मुफ्त
में जरूरतमंद देशों / संयुक्त राष्ट्र संघ को दान करना होगा.
सरकार द्वारा इस पर किया गया खर्चा इतना ज्यादा
होगा की अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाएं और रक्षा सहित विकास के कार्य प्रभावित होंगे, जिसकी भरपाई
सरकार करों की दर बढ़ाकर यह नए कर लगाकर करेगी. पूरे घटनाक्रम से सबसे अधिक
प्रभावित होंगे आम किसान और खेतिहर मजदूर जो अधिकांशत: आज भी गरीबी में जी रहे
हैं.
मैंने अपनी आंखों से देखा है और महसूस किया है
कि किसानों की हालत बहुत खराब है . खेती किसानी अब लाभदायक कार्य नहीं रहा. मैं
अपने गांव और रिश्तेदारी में ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जिनके पास लगभग 10 एकड़ खेती थी और वे जमीदारों
की तरह रहते थे. आजकल उनकी हालत बहुत खराब है. उतनी खेती से घर का खर्चा नहीं
चलता. सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि खेती करने के लिए मजदूरों की भारी कमी
है. गांव के ज्यादातर युवा वर्ग गांव छोड़कर दिल्ली, गुजरात, मुंबई और पंजाब
चले जाते हैं. केवल वही लोग बचते हैं जिनके पास नरेगा कार्ड होते हैं और साल में
१००- ५० दिन का काम मिल जाता है.
खेतों की जोत बहुत छोटी है, कई गावों में घूमिये तो शायद ही किसी के पास बैल
मिलेंगे. किराए पर ट्रैक्टर मंगा कर एक आध बार जोत कर खेती की जा रही है. बटाई पर
खेती करने वालों की संख्या भी कम होती जा रही हैं. मेरे पास बहुत थोड़े खेत है, जो कई बार
बटाईदार ना मिलने पर खाली पड़े रहते हैं. मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि न्यूनतम
समर्थन मूल्य की गारंटी कैसे इस पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करेगी.
इसलिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी
देने के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाने की अन्य योजनाएं बनाने पर विचार करना चाहिए
और ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे उनकी आय बढे, उनकी क्रय शक्ति बढे.
जिससे किसानों के रहन-सहन में सुधार आएगा और देश की जीडीपी भी बढ़ेगी. पंजाब में
अधिकांशत: गेहूं और धान की फसलें उगाई जा रही हैं, जिनमें अत्यधिक सिंचाई
के पानी की आवश्यकता पड़ती है और इस कारण
पंजाब में भूगर्भ का जलस्तर गिरकर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. अधिकतम उत्पादन
प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक कीटनाशकों और रासायनिक खादों का उपयोग किया जा रहा
है. जिसके कारण पंजाब देश में सबसे अधिक कैंसर रोगियों वाला प्रदेश बन गया है. आय
के असमान वितरण के दुष्परिणाम स्वरूप नशे का कारोबार भी अपनी जड़ें जमा रहा है.
सरकार नकद या अन्य तरह की सहायता पहुंचा कर फसलों का पैटर्न बदल सकती है, और भूगर्भ जलस्तर
बचा कर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुरक्षित कर सकती है. जब तक कृषि को उद्योग
का दर्जा नहीं दिया जाता और उसी तरह सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जाती, किसानों की
आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता. सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे
किसानों की लागत कम हो सके और वे देश की
आवश्यकता के अनुसार फसलें उगा कर अपने लिए आर्थिक स्रोत उत्पन्न कर सकें. रद्द किए
गए कृषि किसान कानूनों की जगह, किसान संगठनों और
विशेषज्ञों से वार्ता कर के नए कानून लाई जानी चाहिए जिससे किसान अपनी कृषि योग्य
भूमि का अधिकतम उपयोग करके अधिक से अधिक आय अर्जित कर सकें और स्वयं स्वावलंबी बन
सके.
अमेरिका, कनाडा जैसे विकसित देश और यहाँ तक कि विश्व
व्यापार संगठन भी भारत पर कृषि क्षेत्रको तय सीमा से अधिक सब्सिडी देने का आरोप लगाते
रहते हैं. मोदी सरकार ने शायद इससे बचने
के लिए किसानों को आर्थिक सहायता देने का नया तरीका निकाला है और वह है सीधे उनके खाते में धनराशि पहुंचाना, जिसे तकनीकी रूप
से सब्सिडी नहीं सहायता माना जाता है और इसलिए इस पर कोई आपत्ति भी
नहीं की जाती.
अमेरिका और युरोप के ज्यादातर किसानों की गिनती दनिया के समृद्ध
किसानो में होती है लेकिन वहां न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून नहीं है.
इसलिए मूल्यों की गारंटी के ये मांग
किसानो की खुशहाली का द्वार नहीं खोल सकती.
- शिव मिश्रा
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