गुरुवार, 9 मई 2024

भगवान श्री परशुराम

                                                                 भगवान श्री परशुराम




भगवान श्री परशुराम का जन्मोत्सव वैशाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, जिसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है, जो इस बार  10 मई 2024 दिन शुक्रवार को है । उनका जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख शुक्ल तृतीया ( अक्षय तृतीया) के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर प्रदोष काल में पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में 6 उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भृगु ऋषि कुल में हुआ था. ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि और  जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी। भृगुक्षेत्र के शोधकर्ताओं  के अनुसार परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ था। एक अन्य मत के अनुसार मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित जानापाव की पहाड़ी पर उनका जन्म हुआ था। तीसरी मान्यता अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में उनका जन्म हुआ था। एक अन्य मान्यता अनुसार उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के जलालाबाद में  जहाँ जमदग्नि आश्रम है, को परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है।

भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार हैंऔर इन्हें कई विद्वान विष्णु और शिव का संयुक्त आवेशावतार भी  मानते हैं। इनके अवतार का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी से पाप और बुराइयों का नाश करना था। सर्वशक्तिमान विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि ने भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं को दंडित कर पृथ्वी पर सत्यदया तथा शांति युक्त कल्याणमय धर्म की स्थापना की। महर्षि परशुराम सात चिरंजीवियों में से एक हैं. 

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:। कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥ सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

भगवान परशुराम संपूर्ण हिन्दू समाज के आदर्श हैं और चिरंजीवी हैं जो युगों युगों तक हिन्दू समाज का मार्ग दर्शन करते रहेंगे। वे राम के पहले भी थे और बाद में भी. ये  रामकाल (त्रेता)  में भी थे और कृष्ण काल (द्वापर) में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र दिया था। पौराणिक मान्यता है वे महेंद्र गिरि पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं और कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे. वे कलिकाल के अंत में फिर प्रकट  होंगे। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया था। भगवान परशुराम ने सामाजिक न्याय तथा समानता की स्थापना के उद्देश्य से समाज के शोषित तथा पीड़ित वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए शस्त्र उठाया। धर्म की स्थापना के लिए भगवान परशुराम प्रत्येक युग के किसी न किसी कालखंड में अवश्य प्रकट होते रहेंगे। कल्कि पुराण के अनुसार ये भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे और भगवान शिव की तपस्या करके उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करने का निर्देश देंगे। परशुराम नाम दो शब्दों से मिलकर बना है ‘परशु’ अर्थात कुल्हाड़ी और ‘राम’जिसका शाब्दिक अर्थ हैकुल्हाड़ी के साथ राम। विष्णु पुराण के अनुसार परशुराम जी का मूल नाम राम थापरन्तु जब भगवान शिव ने उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान कियातो उनका नाम परशुराम हो गया।

एक बार की बात हैउनकी माता रेणुका गंगा नदी के तट पर पूजा के लिए जल लेने गईं थीं जहाँ वह गंधर्वराज चित्रसेन को अप्सराओं के साथ विहार और मनोरंजन करते देख मंत्रमुग्ध हो गईं और उन्हें आश्रम पहुँचने में  देर हो गई। ऋषि जमदग्नि ने अपनी दिव्य दृष्टि से माता रेणुका के देरी से आने का कारण पता लगा लिया। देर से आने के लिए देवी रेणुका की अनुचित मनोवृत्ति जान  ऋषिश्रेष्ठ ने परीक्षा लेने की ठानी और सभी पुत्रों को बुलाकर माता का वध करने का आदेश दे दिया। चार पुत्र एक एक कर  माँ के प्यार के वशीभूत हो  पिता की आज्ञा का पालन करने से इंकार करते रहे और ऋषि जमदग्नि के कोप से  पत्थर बनते रहे । जब परशुराम जी की बारी आई तो उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन कर माँ का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस पर ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र परशुराम से बहुत प्रसन्न हुए और मनचाहा वर मांगने के लिए कहा। परशुराम जी ने वरदान स्वरूप अपने सभी भाइयों और माता को पुनर्जीवित करने को कहा। ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र के कर्तव्यपरायणता से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने उनकी इच्छा पूरी कर पत्नी रेणुका सहित चारों पुत्रों को जीवित कर दिया। इस कहानी का भाव है कि उन्होंने अपने ज्ञान द्वारा अपनी माता के चित्त से अनुचित मनोवृत्ति दूर की  जो उनके पिता की नाराजगी का कारण थी और जिसे उनके भाई नहीं कर सके थे बल्कि किम्कर्तव्य विमूढ़ हो गए थे. परशुराम जी ने अपने पिता के मन से अपनी माता और भाइयों के प्रति  नाराजगी को दूर कर पारिवारिक रिश्तों को पुनर्जीवित कर दिया.   

एक बार  हैहय  वंश का अधिपति सहस्त्रार्जुन वन में आखेट करते हुए ऋषि जमदग्नि के आश्रम जा पहुँचा। वह वहाँ मिले आदर सत्कार से बहुत प्रफुल्लित हुआ।  जब उसे पता चला कि इन सब का कारण कामधेनु गाय है तो वह कामधेनु को बलपूर्वक ऋषि जमदग्नि के आश्रम से छीनकर ले गया। जब परशुराम जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने सहस्त्रार्जुन का वध करके कामधेनु वापस लाकर पिता को सौंप दी. तत्पश्चात सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदाग्नि की हत्या कर दी। व्यथित परशुराम जी ने प्रतिज्ञा की और उन सभी राजाओं का विनाश कर दिया जो इस तरह के पाप कर्मो में लिप्त थे। एक भ्रान्ति है कि उन्होंने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया. इसे गलत सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जाता है. अगर उन्होंने पहली बार ही प्रथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था तो दोबारा क्यों करना पडा. और उन्होंने एसा 21 बार किया, इससे स्वयंसिद्ध  है कि उन्होंने क्षत्रियों का नहीं उन दुष्ट राजाओं का विनाश किया जो प्रजा पर भांति भांति के अत्याचार करते थे. ऐसा उन्होंने 21 बार अभियान चलाकर किया.

आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त करने के साथ ही परशुराम जी को महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ।  उन्होंने  कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें त्रैलोक्य विजय कवचस्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। वे योगवेद और नीति के साथ ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। त्रैतायुग से द्वापर युग तक परशुराम के लाखों शिष्य थे। महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्मद्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले भी महर्षि परशुराम थे.  उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" लिखा था।

सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोका तोरुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दियाजिससे गणेश का एक दांत टूट गया और वे एकदंत कहलाए। सीता स्वयंवर में उन्होंने  श्रीराम का अभिनंदन किया। द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया. उन्होंने ही श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र दिया था। असत्य वचन के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कुछ लोगों द्वारा भ्रान्ति फैलाई गयी है कि उन्होंने केवल ब्राह्मणों को ही सैन्यशिक्षा दी जो पूरी  तरह से गलत है क्योंकि इनके शिष्यों में भीष्म और कर्ण जैसे गैर ब्राह्मण भी रहे हैं।

भारत के अधिकांश ग्राम और उनकी व्यवस्था उन्हीं के द्वारा बनाई गयी। पौराणिक कथा के अनुसार परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए भूमि निकाली और इसी कारण कोंकणगोवा और केरल के निर्माण का श्रेय भगवान परशुराम को जाता है। वे पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे और उनसे बातें करते थे। कई खूँख्वार हिंसक पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियोंवृक्षोंफल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे।

वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहींउन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। वे केरल की मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु और उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। ये इतनी घातक शैली है कि इसे अंग्रेजो ने प्रतिबंधित कर दिया था.  कोंकण, केरल और गोवा में इस कला के अनेक गुरुकुल आज भी हैं।  

भगवान परशुराम जी के महान पराक्रम से अधर्मी थर-थर कांपते थे। आज भारत में वैदिक धर्म और सनतान संस्कृति की पुनर्स्थापना और अधर्म के नाश के लिए हमें भगवान परशुराम के आदर्शों पर चलना होगा।  उनके जन्मोत्सव पर हम सभी को उनके मार्ग पर चलकर सनातन धर्म और संस्कृति  की रक्षा करने का वचन लेना चाहिए

         ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~