जनाक्रोश है बायकाट बॉलीवुड
योगी
आदित्यनाथ के हाल के मुंबई दौरे में हिंदी फिल्म जगत के लोगों से भी उनकी वार्ता
प्रस्तावित थी जिसका मुख्य विषय उत्तर प्रदेश के नोएडा में बन रही फिल्म सिटी था
किंतु विषय से अलग हटकर सुनील शेट्टी द्वारा योगी से बायकाट बॉलीवुड रोकने का आग्रह किया गया. सुनील शेट्टी ने जितने आत्मविश्वास से यह कहा कि
योगी और मोदी बॉयकॉट रुकवा सकते हैं, उससे न केवल उनकी बुद्धि
विवेक का पता चला, बल्कि यह भी उजागर हुआ कि वह किसी अन्य का मुखौटा बनकर बॉलीवुड
का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. जैसा अपेक्षित था, सुनील शेट्टी
के इस बयान का वीडियो मीडिया में वायरल हो गया, इस
प्रकार एक बार फिर “बायकॉट बॉलीवुड” सुर्खियों में आ गया.
बॉयकॉट
यानी बहिष्कार, विरोध का गांधीवादी तरीका है,
जिसे स्वयं तथाकथित महात्मा ने कई बार आजादी के आंदोलन में प्रयोग
किया था और देशवासियों
को भी उससे जोड़ा था. बहिष्कार से दो प्रभाव होते हैं - एक तो समस्या चर्चा के
केंद्र में आ जाती है और दूसरा इसके समर्थक आपस में जुड़ जाते हैं. इस समूह के लोग
समस्या के पक्ष विपक्ष के विचारों का आदान प्रदान करते हैं. इस
प्रकार जागरूकता का दायरा बड़ा होता जाता है. यही बहिष्कार की सबसे बड़ी शक्ति है.
प्रश्न है कि जिस अहिंसक हथियार का प्रयोग स्वाधीनता संग्राम में किया गया,
उसी अहिंसक हथियार का विरोध आज क्यों किया जा रहा है. यह बहिष्कार
किसी धर्म, संप्रदाय या व्यक्ति विशेष का नहीं है, बल्कि
फिल्मों में सनातन संस्कृति का विकृत चित्रण और हिंदुओं के खिलाफ दिखाई जा रही
आपत्तिजनक सामिग्री के विरोध में है. हिंदी फिल्मों में अश्लीलता स्तर यह हो गया है
कि शायद ही कोई फिल्म अब ऐसी आती हो जो परिवार के साथ बैठकर देखी जा सके.
इसके
विपरीत दक्षिण भारत की फिल्में आज भी भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होती हैं और यही
उनकी सफलता का रहस्य भी है. दर्शक दक्षिण भारत की फिल्मों के नायक नायिकाओं को
देवतुल्य मानते हैं और जब भी कभी उनकी कोई नई फिल्म आती है तो लोग पटाखे फोड़ते
हैं,जश्न मनाते हैं. लोगों में होड़ लग जाती है कि कैसे फिल्म को पहले दिन पहले शो
में देखा जाय. दक्षिण भारत की ज्यादातर फिल्में जो हिंदी में डब की जाती हैं, वह भी सुपरहिट हो जाती हैं. इनमें ऐसा क्या खास होता है, यह हिंदी फिल्म जगत को समझ में क्यों नहीं आता. दक्षिण भारत की फिल्मों के
विरुद्ध कभी बहिष्कार या विरोध प्रदर्शन की नौबत नहीं आई बल्कि इसके नायक - नायिकाओं
के प्रति दर्शकों में सम्मान की भावना का ज्वार इतना अधिक होता है कि जब कभी वे सार्वजनिक
जीवन में आते हैं तो सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले जाते हैं. आंध्र प्रदेश और
तमिलनाडु में ऐसे नायक और नायिकाएं मुख्यमंत्री बने और
जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया. इसके विपरीत हिंदी फिल्म जगत में मदांध नायक स्वयं
अपने को किंग और बादशाह घोषित कर देते हैं.
जहां
तक योगी से की गई अपील का प्रश्न है, तो उसमें गंभीरता का अभाव है. ऐसा लगता है कि सुनील शेट्टी ने निहित
स्वार्थ के कारण योगी की इन्वेस्टर्स मीट में जानबूझकर यह शिकायत उछाली. अगर
उनकी अपील में गंभीरता थी तो इसके पहले उन्होंने योगी से संपर्क क्यों नहीं किया. यदि
उनमें साहस था तो उन्हें अपनी बात बॉयकॉट ट्रेंड चलाने
वालों के समक्ष रखनी चाहिए थी और उनका पक्ष भी समझना चाहिए था. अगर उन्हें यह भी
नहीं मालूम कि बॉलीवुड का बहिष्कार क्यों किया जा रहा है, तो
फिर वह जनता और समाज से पूरी तरह से अलग-थलग है और यही बॉलीवुड की सबसे बड़ी
समस्या भी है. शेटटी ने अप्रत्यक्ष रूप से योगी और मोदी दोनों को बॉलीवुड बॉयकॉट के समर्थक और संरक्षक के रूप
में आरोपित भी कर दिया.
आजादी
के बाद से ही बॉलीवुड में वामपंथ - इस्लामिक गठजोड़ के स्वयंभू उदारवादियों ने
कब्जा कर लिया था. हिंदू देवी देवताओं का अपमान करके हिंदू धर्म को निकृष्ट साबित
करने का कार्य उसी समय से शुरू कर दिया गया था ताकि विश्व की सबसे प्राचीन सनातन
संस्कृति को धीमा जहर दे कर मारा जा सके. हिंदू धर्म और संस्कृति को हिंदुओं की
नजरों में ही इतना विकृत कर दिया जाए कि उनका विश्वास डगमगाने लगे. इसके विपरीत एक
धर्म विशेष को बहुत बड़ा चढ़ाकर आदर्श स्थिति में प्रस्तुत किया जाए कि लोग इसके
प्रति आकर्षित हों. इन दोनों योजनाओं का एक ही उद्देश्य था हिंदुओं को आसान शिकार बनाकर धर्मांतरण को गति प्रदान करना. इसमें फिल्म जगत के छोटे बड़े सभी कलाकार शामिल हैं. इसके
लिए छल कपट का सहारा लिया गया और हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए कई मुस्लिम कलाकारों ने अपने हिन्दू नाम रख लिए. विडंबना है कि ज्यादातर
हिंदू कलाकार भी इसी टोली में शामिल हो गए. आश्चर्यजनक है कि यह तब हो रहा था जब
हिंदी फिल्म उद्योग की कमाई का 95% हिस्सा हिंदुओं से आ रहा था.
इस
दुष्प्रचार का असर यह हुआ है कि आज हिंदुओं में बड़ी संख्या में इसे लोग हैं
जो अपने हिंदू धर्म के विरुद्ध ऊटपटांग टिप्पणियां करते हैं. सामान्य हिंदू वर्ग इतना
सहिष्णु है कि कभी दूसरे धर्मों का अपमान
नहीं करता, इसके विपरीत मुस्लिम समुदाय में ऐसे निम्न मानसिकता वाले तथाकथित बड़े
शायर, गीतकार, टिप्पणीकार, चित्रकार आदि की कमी नहीं है, जिन्होंने हिंदू देवी देवताओं का और सनातन
संस्कृति का घोर अपमान किया और यह कार्य आज भी अनवरत जारी है.
सोशल
मीडिया की सक्रियता के कारण सनातन चेतना का पुनर्जागरण हुआ है इसलिए क्रिया के
विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हो गयी हैं. परिणाम स्वरुप बॉलीवुड उद्योग में कुख्यात
व्यक्तियों का बहिष्कार शुरू हो गया है. इन राष्ट्र वादियों का आक्रोश पूरे हिंदी फिल्म जगत से नहीं है बल्कि उन
लोगों से है जो अपनी फिल्मों में सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म का अपमान करते हैं.
क्या किसी समुदाय की सामाजिक और धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचा कर उनको जबरदस्ती
सिनेमाघरों तक लाकर ऐसी फिल्में दिखाई जा सकती हैं. आखिर कोई घटिया और निम्न
स्तरीय फिल्मों पर अपने पैसे क्यों बर्बाद करें.
आज
जो बॉयकॉट बॉलीवुड से हिंदी फिल्म जगत को बचाने की गुहार लगा रहे हैं, वे तब कहां रहते हैं, जब पीके, काली, लाल सिंह चड्ढा आदि जैसी फ़िल्में बनती हैं. जब फिल्मों में हिंदू साधू, सन्यासियों को ढोंगी, चोर,
ठग और बलात्कारी दिखाया जाता है. जब 786 का बिल्ला लगाने वाले जूते पहनकर मंदिर में
घुसते दिखाये जाते हैं. जब गोमांस खाने और उसे महिमा
मंडित करने वाले कलाकार हिंदू धार्मिक चरित्र निभाते हैं. जब कुछ अभिनेता अपने बच्चों के नाम उन क्रूर अक्रांताओं के नाम पर रखते हैं जिन्होंने
लाखों हिंदुओं को मौत के घाट उतारा था.
इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद के तत्कालीन प्रोफेसर धीरज शर्मा के 2015 में एक अध्ययन में यह बात सामने
आई कि बॉलीवुड की फिल्में हिंदू और सिख धर्म के
विरुद्ध झूठे विमर्श गढ रही हैं और लोगों के दिमाग में धीमा ज़हर भर रही हैं. उनके
अध्ययन के अनुसार बॉलीवुड की फिल्मों में 58% भ्रष्ट नेताओं को ब्राह्मण दिखाया
गया है. 62% फिल्मों में बेईमान कारोबारी को वैश्य दिखाया
गया है. 74% सिख किरदारों को मज़ाक का पात्र बनाया गया है. 78% मामलों में बदचलन
महिलाओं को ईसाई दिखाया गया है. 84 प्रतिशत फिल्मों
में मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला और बेहद ईमानदार दिखाया गया
है, अगर वह घृणित अपराधी है, तो भी उसूलों का पक्का दिखाया जाता है. यह संयोग नहीं, षड़यंत्र है.
दुर्भाग्य से इसके विरुद्ध कोई आवाज बॉलीवुड के अन्दर से आज तक नहीं उठायी गयी.
बहिष्कार
किसी समस्या का समाधान नहीं है, और बॉलीवुड का
बहिष्कार भी किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध नहीं है. जिन फिल्मों में अश्लीलता और हिंदू
धर्म विरोधी काली करतूतें पता चलती हैं, तो विरोध होता है और आपत्तिजनक दृश्यों को हटाने की मांग की जाती
है. जब लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए ऐसा नहीं किया जाता तो लोग बहिष्कार
जैसी रणनीति अपनाते हैं. आखिर ऐसी परिस्थिति पैदा ही क्यों हो कि बहिष्कार करने की
नौबत आए. लगभग 100 वर्ष पुराने हिंदी फिल्म जगत में क्या
अभी तक इतनी समझ नहीं आ पाई है कि समाज को क्या स्वीकार्य नहीं है.
जब दक्षिण भारत की "आरआरआर"
फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सफलता के झंडे गाड़ रही है और उसके
एक लोक गीत नाटू नाटू को गोल्डन ग्लोब अवार्ड 2023 मिल चुका
है, उस समय बॉलीवुड बहिष्कार के संघर्ष से जूझ रहा है. हिंदी
फिल्म जगत को यह समझ लेना चाहिए कि उसकी काली करतूतों का भंडाफोड़ हो चुका है और
यदि वह अपना एजेंडा नहीं छोड़ता और फिल्मों में कलात्मकता, सृजनात्मकता,
राष्ट्रीय भावना, सनातन संस्कृति और सभी
धर्मों के प्रति सम्मान की
भावना अंगीकार नहीं करता, तो उसका विनाश निश्चित है, जिसे न योगी बचा सकते हैं न मोदी. इसे बचाने
के लिए स्वयं बॉलीवुड को आगे आकर आत्म विश्लेषण करना चाहिए और शीघ्रातिशीघ्र सुधारात्मक कदम लागू करना चाहिए.
- शिव मिश्रा (https://www.youtube.com/@hamhindustanee123)