रविवार, 3 मार्च 2024

पतंजलि ने की अवमानना

 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय स्वामी रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद को अवमानना का नोटिस जारी किया है. ये नोटिस सर्वोच्च न्यायालय के पिछले आदेश का उल्लंघन करने को लेकर जारी किया गया है जिससे न्यायालय ने पतंजलि आयुर्वेद को अपने औषधीय उत्पादों के बारे में बड़े बड़े दावे करने वाले विज्ञापन देने से रोका था, जो इंडियन मेडिकल असोसिएशन की याचिका पर सुनवाई के दौरान किया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने औषधियाँ और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के परिपेक्ष में ये आदेश दिया. न्यायालय ने इस बीच पतंजलि आयुर्वेद को अपने उत्पादों का विज्ञापन या ब्रांडिंग करने से भी रोक दिया. न्यायालय ने पतंजलि आयुर्वेद को मेडिकल की किसी भी प्रणाली के प्रतिकूल कोई भी बयान देने से आगाह किया। वास्तव में यह लड़ाई पतंजलि या स्वामी रामदेव से नहीं, लडाई आयुर्वेद से है और ये आयुर्वेद से एलोपैथी को होने वाले नुकशान का भय है.

कोविड19 के समय हमने जाना कि एलोपैथी में इसका कोई इलाज नहीं है. उस समय कोई वैक्सीन भी आविष्कृत नहीं हो पाई थी और संभावनाओं के आधार पर ऐलोपैथिक डॉक्टर उसका इलाज कर रहे थे. बीमारी इतनी भयावह थी कि किसी भी अस्पताल में जगह नहीं थी और ऑक्सीजन की भारी किल्लत थी. लोग मर रहे थे और एलोपैथी असहाय थी. लॉकडाउन के कारण लोग अपने अपने घरों में बंद थे. सरकार और दूसरे माध्यमों द्वारा इस बात का प्रचार किया गया कि इस बीमारी का बचाव प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर किया जा सकता है. इसलिए अधिकांश लोगों ने जमकर योग का प्रयोग और आयुर्वेदिक उत्पादों का उपयोग क्या. इससे बड़ी संख्या में लोग अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल भी हुए. शायद ही कोइ एलोपैथिक चिकित्सक और एलोपैथी से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति हो जिसने योग और आयुर्वेद का प्रयोग न किया हो.

उस समय पतंजलि आयुर्वेद ने कोरोना-रोधी दवा विकसित की जिसका नाम कोरोनिल और श्वासारि बटी रखा गया लेकिन इंडियन मेडिकल असोसिएशन को बर्दाश्त नहीं हुआ और वह न्यायालय पहुँच गया क्योंकि एलोपैथी में कोई दवा नहीं थी. सरकार ने भी दबाव में आकर क्लिनिकल ट्रायल के बाद पतंजलि की कोरोना रोधी दवा अनुमति दी. स्वामी रामदेव ने योग के प्रचार और प्रसार में जितना काम किया है, उसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. उन्होंने शहर शहर घूमकर योग के शिविर आयोजित किये और लोगों को रोज़ योग करने की प्रेरणा दी. टीवी और मीडिया द्वारा योग के प्रसारण से इसका इतना प्रचार और प्रसार हुआ की आज हर गाँव, गली मोहल्ले और पार्को में लोगों को योग और व्यायाम करते देख सकते हैं. योग के साथ साथ आयुर्वेद के प्रचार में भी उनका बहुत बड़ा हाथ है. लोग कहने के लिए स्वतंत्र हैं कि वे आयुर्वेदिक औषधियों का व्यापार करते है और अब किराने का सामान भी बेचने लगे हैं. लेकिन कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि पतंजलि आयुर्वेद से प्रतियोगिता के कारण ही दूसरी आयुर्वेदिक कंपनियों के उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार हुआ है और उनकी कीमतें सामान्य लोगों की पहुँच में आ पायीं. इसके साथ ही औषधीय पौधों की खेती तथा औषधीय गुण वाली शाक सब्जियों (लौकी,करेला आदि) का उपयोग बढ़ने से किसानों का भी फायदा हुआ है. गाय के सभी उत्पादों की खपत कई गुना बढ़ गई है. गौमूत्र से फर्श की सफाई करने वाला पदार्थ व्यापारिक रूप से बनेगा और घरों में पहुंचेगा, सोचना भी मुश्किल था. आज गाय के गोबर, गोमूत्र तथा पंचगव्य से बने अनेक पदार्थ अधिकांश हिंदु अपने घरों में इस्तेमाल करते हैं.

भारत में ऐसे लोगों एक वर्ग है जो सनातन धर्म ही नहीं, भारत की प्राचीन सभ्यता और उपलब्धियों से भी घृणा करता है. इसलिए यदि योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार हो तो भला इन लोगों को कैसे रास आ सकता था. इसलिए दुष्प्रचार किए गए. पतंजलि की आयुर्वेदिक औषधियो से कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई तो पतंजलि के विरुद्ध षडयंत्र शुरू हो गए. वामपंथी नेताओं ने पतंजलि के उत्पादों में तरह तरह की कमियां गिनाईं और उन्हें हिंदू परिवारों से दूर करने के लिए यहाँ तक कहा कि उनके निर्माण में जानवरों की हड्डियों का स्तेमाल किया जा रहा है. भ्रष्टाचार का विरोध करने के कारण स्वामी रामदेव पहले ही एक राजनीतिक दल के निशाने पर रहे हैं. इसलिए पतंजलि के रास्ते में अनेक बाधाएं खड़ी की गयी.

पतंजलि की कोविड19 के लिए कोरोनिल और श्वासारी बटी दवा लांच होने के समय आईएमए ने पतंजलि के साथ ऐसा शत्रुवत व्यवहार किया जैसे उसका भारत से कोई लेना देना नहीं है. पतंजलि के विरुद्ध इस तरह की याचिकाएं आईएमए ही दाखिल करता है, जो प्रथम दृष्टया दवा कंपनियों के हित साधने के साथ आयुर्वेद को ऐलोपैथी से कमतर साबित करने और आयुर्वेद का अपमान करने के लिए की गयी प्रतीत होती हैं.

  1. अंग्रेज जब भारत आये तो यहाँ की प्राचीन उपलब्धियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गये. उन्होंने संस्कृत सीख कर वेद, पुराणों और उपनिषदों का अध्ययन किया और उनमें अनेक वैज्ञानिक शोध और गणनाओं को अपने देश ले गए और उन्हें अपने नाम करके दुनिया में वाहवाही लूटी. ऐसा नहीं है कि आयुर्वेद पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी, लेकिन जिन जड़ी बूटियों और औषधीय पौधों का उपयोग उसमें होता है, वे ब्रिटेन में नहीं होती हैं, इसलिए योग आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांतों को वे अपने देश के नाम कर भी नहीं सकते थे क्योंकि उनकी चोरी पकड़ी जाती. इसलिए उसे सरकारी स्तर पर हतोत्साहित किया. उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास के रूप प्रचारित किया और एलोपैथी को संरक्षण प्रदान किया। आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का भी हर सम्भव प्रयास किया जिसके कारण इसका विकास दब गया. यह उन क्षेत्रों में जीवित रहा जो 'आधुनिक सभ्यता' की पहुँच से दूर थे और परम्परागत चिकत्सा पर पूरी तरह निर्भर थे।  

जिन असाध्य और कठिन से कठिन बीमारियों का इलाज एलोपैथी में आज भी नहीं है, उनकी चिकित्सा योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा प्राचीन समय से होती आ रही है. अंग्रेज चूँकि एलोपैथी को बढ़ावा देना चाहते थे और आयुर्वेद को नष्ट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने 1940 में ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट बनाया. स्वतंत्र भारत में भी इस नीति में कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि अगर जवाहर लाल नेहरू की त्वचा का रंग छोड़ दें तो वह पूरी तरह से अंग्रेज थे. ऐसा अंग्रेज भारत के लिए क्या कर सकता है, जो भारत की हर प्राचीन उपलब्धि से नफरत करता हो, जिसे भारत की सत्ता के अलावा भारत की और कोई भी चीज़ पसंद न हो. उसने अंग्रेजों से भी कड़े कानून बनाए जिससे भारत की प्राचीन सनातन सभ्यता और सनातन धर्म को नष्ट किया जा सके और हिंदू समुदाय को गुलाम बनाए रखा जा सके. संविधान से लेकर भारत के हर कानून में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है और इसीलिए बहुसंख्यक हिंदू अपने ही देश में दुसरे दर्जे के नागरिक बने हुए हैं.

जवाहर लाल नेहरू द्वारा 1954 में बनाया गया औषधियाँ और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1940 अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ड्रग्स ऐंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट का ही परिवर्तित रूप है. इस अधिनियम में 54 ऐसी इलाज बीमारियां चिन्हित की गई जिनके ठीक करने का दावा करने पर प्रतिबंध हैं. इनमें रक्तचाप, हृदय की बीमारी, कैंसर, डायबिटीज़, बांझपन, नपुंसकता, आँतों में घाव, टाइफाइड, टीबी, आदि कई ऐसी बीमारियां हैं जो अब असाध्य नहीं है और जिनका पूरी तरह इलाज संभव है. इसे बदलने की आवश्यकता है. आयुर्वेद में तो इनकी चिकित्सा बहुत पहले से ही उपलब्ध है. आयुर्वेद के मूल ग्रंथों कश्यपसंहिता, चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भेल संहिता तथा भारद्वाज संहिता में इनका विस्तृत वर्णन है. चरक संहिता के रचयिता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल हैं, जो बेहद उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे. महर्षि सुश्रुत शल्य चिकित्सक थे. वह गर्भस्थ शिशु को मां के पेट की शल्य क्रिया करके निकालने और मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा उस समय करते थे जब एलोपैथी का जन्म भी नहीं हुआ था.

सरकार बजट आवंटन में भी पक्षपात करती है वर्ष 2024-25 के बजट में चिकित्सा के लिए कुल 90,171 करोड़ रुपये के आवंटन के सापेक्ष आयुर्वेद को केवल 3712 करोड़ रुपये उपलब्ध कराया गया है जो केवल 3.5 प्रतिशत है. चीन में परंपरागत चिकित्सा सुविधा को 40-50 प्रतिशत बजट आवंटित किया जाता है और परंपरागत चिकित्सा सुविधा का नेटवर्क एलोपथिक चिकित्सा के बराबर है किंतु भारत में ऐसा नहीं है. कारण है दवा कंपनियों का खेल जो विश्व स्वास्थ्य संगठन से शुरू होकर आपके पास के मेडिकल स्टोर तक फैला है

भारत में आयुर्वेद के महर्षियों के नाम कोई बड़ा अस्पताल नहीं? विश्वविद्यालय या आयुर्वेदिक शोध केंद्र नहीं? आयुष्मान कार्ड से आयुष का इलाज नहीं? आयुष मन्त्रालय है लेकिन आयुष के लिए बजट नहीं? आयुष चिकत्सक एलोपैथिक चिकित्सकों के समक्ष भी नहीं माने जाते. आयुर्वेद के विकास पर भी सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही. ये सब अनायास नहीं , वर्षो की म्हणत का परिणाम है.

आज जरूरत है आयुर्वेद के छिपे खजाने को खोलने और उस पर अधिकाधिक निवेश करने की जिसमें भारत के समृद्धि और स्वास्थ्य की कुंजी छिपी है.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~

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