नयनतारा सहगल जो भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु की भांजी है, ने कुछ समय पूर्व साहित्य अकादमी
पुरस्कार यह कहते हुए वापस कर दिया था कि भारत में लिखने की आजादी नहीं बची है और
धर्मनिरपेक्षता के प्रति असम्वेदनशीलता बढ़ती जा रही है. ऐसा उन्होंने हाल ही में
उत्तर प्रदेश के दादरी गाँव में गोमांस के संदेह में एक मुसलमान की हत्या होने के विरुद्ध में किया.
उन्होंने कहा के वर्तमान सरकार के शासन
में लेखकों के प्रति आक्रामकता बढ़ती जा रही है और जिसके विरोध में उन्होंने अपना पुरस्कार वापस करने का फैसला किया
. देखते ही देखते कई कवि और साहित्यकारों ने अपने अपने पुरस्कार वापस कर दिए है. इनमे से कन्नड़ लेखक अरविन्द बलगती का साहित्य
अकादमी आम परिषद से इस्तीफा देना भी शामिल है. पंजाब के तीन तथाकथित सुप्रसिद्ध लेखकों
ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की
घोषणा की है. गुरबचन भुल्लर,औलख, अजमेर सिंह, नयनतारा सहगल आत्मजीत सिंह, उदय
प्रकाश और अशोक बाजपेई जैसे लेखकों ने भी पुरुस्कारों के वापस करने की घोषणा की
है. इस बीच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा साहित्यिक संस्था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष मे है और किसी भी लेखक के
कलाकार पर आक्रमण या हमले की निंदा करती है .
यहां पर यह बात करना समोचित है कि यह
पुरस्कार क्यों वापस किए जा रहे है ? पुरस्कार प्राप्त करने वाले कौन लोग है ?
पुरस्कार किसे दिया जाता है ?और क्यों दिया जाता है ?
साहित्य अकादमी एक स्वायत्तता संस्था है और यह भारत की विभिन्न भाषाओं में उत्कृष्ट लेखन
के लिए मौलिक कार्य (किताब) पर दिया जाता
है. वस्तुतः यह पुरस्कार रचना पर दिया जाता है और रचनाकार को सम्मानित किया जाता
है. इस पुरस्कार की वर्तमान राशि एक लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र है. जिन्होंने ने यह पुरस्कार वापस किया है, अभी तक पता नहीं
चला है कि उंन्होंने पुरस्कार की धनराशि भी
वापस की है या नहीं. अगर पुरस्कार की धनराशि वापस हुई है तो जिस समय यह पुरुस्कार दिया गया था तब से लेकर आज तक इस पर बैंक की ब्याज दर के हिसाब
से पूरा व्याज भी अदा करना चाहिये . लेखकों को यह भी बताना चाहिए कि जिस समय उन्हें यह पुरस्कार दिया गया था, क्या पहले उन्होंने इस बात की सहमति सरकार को दी थी कि अगर इस देश में कभी धार्मिक उन्माद फैलेगा या
लेखकों के प्रति अनादर होगा तो वे पुरस्कार वापस करेंगे. इस तरह के ज्ञानी और बुद्धिमान साहित्यकारों से अब इस तरह
की अपेक्षा नहीं की जा सकती. देश में जब तक सब कुछ आदर्श ढंग से चलेगा तब तक वह
अपना पुरस्कार लिए रहेंगे. किन्तु देश के
सामने अगर कोई चुनौती आएगी तो वह अपना पुरस्कार वापस कर देंगे और केंद्र में जो भी
सरकार होगी उसका विरोध करेंगे. ये कायरता है.
ऐसा लगता है कि इन पुरस्कार और वापस
करने के पीछे एक तुच्छ राजनीति काम कर रही है और उस राजनीति के दुष्प्रभाव के कारण
यह पुरस्कार वापस किए जा रहे है जो किसी
भी साहित्यकार के लिए सर्वथा अनुचित है. कहा तो यह जाता है कि साहित्यकार देश और
समाज के लिए दर्पण का काम करते है ताकि उसमें समाज और देश अपनी छवि देख कर अपने आप को व्यवस्थित
करने की कोशिश करता रहे और साहित्यकार लेखक स्वतंत्र रूप से अपना काम करते हुए सभी कुरीतियों और
आलोकतान्त्रिक गतविधियों के खिलाफ आवाज
उठाते रहेंगे और लोकतंत्र की रक्षा करेंगे.
लेकिन आजकल ऐसे साहित्यकार भी पाए जाते है
जो स्वयं यह घोषणा करते है अगर अमुक व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाएगा तो वह देश छोड़ देंगे, अगर अमुक पार्टी की सरकार बन
जाएगी तो देश छोड़ देंगे. पुरस्कार लौटाने वाले ज्यादातर लेखक देश में भगवा करण से बहुत परेशान है. कितनी विडंबना है कि
इस समाज और देश का मार्गदर्शन करने वाले तथाकथित लेखक और साहित्यकार सिर्फ इस बात
से परेशान है कि इस देश में कौन सा राजनैतिक
दल शासन करें और कौन सत्ता से दूर रहें.
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जितने भी लेखक है उनमे से ज्यादातर को पुरस्कार अपने राजनीतिक संबंधो के कारण दिए गए थे और शायद
यही कारण है कि वह अपने राजनीतिक संबंधो को महत्व देते हुए यह पुरस्कार वापस कर
रहे है. इससे थोड़े समय के लिए ऐसा लग सकता है कि केंद्र सरकार के विरुद्ध एक जनादेश बना है लेकिन
इस बात का बहुत जल्दी पता लग जाएगा कि इसके पीछे कौन सा राजनैतिक दल है. क्या इसमें
कहीं किसी व्यक्ति विशेष के प्रति और किसी राजनीतिक दल विशेष के प्रति उनका
दुराग्रह है ? और इसके पीछे क्या कोई षड्यंत्र काम कर रहा है ? निश्चित रुप से इस
बात की जांच की ही जानी चाहिए. ऐसी क्या बात हो गई है जिनकी वजह से इन ज्ञानियों को त्याग पत्र देना पड़ रहा है. क्या इस तरह के
त्यागपत्र लेखकों को किसी तरह की सुरक्षा
दे पाएंगे ? और क्या उनके यह त्याग पत्र, देश में यदि कोई खराब वातावरण बन रहा है
या साहित्यिक संस्थाओं का भगवा कारण हो रहा है, तो उसे रोकने में मदद मिलेगी ? कई
प्रश्न है और यह जनमानस पूछ रहा है कि अभी कुछ समय पहले केरल मे एक प्रोफेसर के
हाथ काट दिए गए थे और उनके ऊपर आरोप था कि उन्होंने एक धर्म विशेष के खिलाफ लिखा हुआ था, तब ये
महानुभाव कहाँ थे ?
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन, जिन्हें
कट्टरपंथियों के दबाव में अपना देश छोड़ना और
जो कोलकाता को अपना दूसरा घर मानती थी,
लेकिन उन्हें कलकत्ता भी छोड़ कर जाना पड़ा. उनके बीजा न बढ़ाने में तत्कालीन सरकार के ऊपर
अत्यधिक दबाव बनाया गया और उन्हें कुछ समय के लिए भारत भी छोड़ना पडा. पता नहीं उस समय क्रांतिकारी विचारो वाले और लोकतंत्र
के ये महान जननायक कहाँ थे ? और लेखकों के अधिकार के प्रति जागरुक ये साहित्यकार कहां
थे ? जयपुर में हुए एक साहित्यिक सम्मेलन में सलमान रश्दी को प्रवेश नहीं दिया जाता है, सिर्फ इसलिए
प्रवेश नहीं दिया गया कि उन्होंने इस्लाम के विरुद्ध काफी लिखा है. उनकी किताब शैतानिक
वर्सेस पर भारत ने प्रतिबंध लगाया गया. भारत
के किसी भी साहित्यकार ने इस बात का विरोध
नहीं किया. किसी भी लेखक को किसी भी
संस्थान के प्रति विरोध व्यक्त करने का अधिकार है लेकिन इनका प्रथम दायित्व है कि
वह समाज के लिए ऐसा लिखे जिससे समाज और देश में रचनात्मक बदलाव आए और हमारी आने
वाली पीढ़ियां इससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ें. जिससे लोकतंत्र मजबूत हो और देश की विचारधारा
प्रगतिशील बने. बजाय इसके लेखक अपने निजी स्वार्थ में लगे हुए है. इस तरह के कृत्य
से किसी भी सरकार का न तो मनोबल गिराया जा सकता है, ना ही किसी भी देश का वातावरण
समृद्ध किया जा सकता है और ना ही है ही देश में कोई विचारधारा का प्रसार किया जा
सकता है. अगर किसी व्यक्तिगत कारण से किसी किसी व्यक्ति का या किसी विशेष राजनीतिक
दल का विरोध करना है तो अच्छा होगा कि ये साहित्यकार
राजनीति में प्रवेश करें और अगर उनमे इतना आत्मविश्वास है कि वे इस देश की दुर्दशा को दूर कर सकते है. इस देश में
फ़ैली तमाम बुराइयों को दूर कर सकते हैं और
इस देश में बढ़ गई धार्मिक असहिष्णुता को खत्म कर सकते है. लेखको को और अधिक आजादी दिला सकते है तो निश्चित रुप
से उन्हें राजनेति करने चाहिए और सत्ता के शिखर पर पहुंच कर देश के लिए कुछ करना
चाहिए. अगर वे राजनीति में नहीं आते है तो देख ही समझेगा कि वह किसी ने किसी राजनीतिक
दल के इशारे पर यह काम कर रहें हैं जो बेहद शर्मनाक है. जो पुरस्कार उन्हें उनकी रचना पर दिया गया है उसे वह राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल न करें.
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- शिव प्रकाश मिश्रा