बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

लखीमपुर खीरी की घटना के निहितार्थ

 


लखीमपुर खीरी में घटी घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इस घटना ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि भारत में राजनीतिक हित हमेशा  राष्ट्रीय हितों से हमेशा ऊपर रखे जाते हैं और  राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहां तक कि मानवीय संवेदनाएं भी उनके लिए कोई महत्व नहीं रखती।

 

बताया जाता है कि लखीमपुर खीरी में घटी घटना के पीछे केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा का दिया गया एक तथाकथित विवादास्पद बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि किसानों को सुधार देंगे। बस इसी बात को लेकर स्थानीय किसान नेता उनका विरोध करना चाहते थे और उन्हें काले झंडे दिखाना चाहते थे लेकिन बात इतनी बढ़ गई जिसमें चार  किसान, दो भाजपा कार्यकर्ता, एक मंत्री अजय मिश्रा की गाड़ी का ड्राइवर और एक पत्रकार की मौत हो गई। यह बात सुनने में  तो बहुत साधारण लगती है लेकिन  है नहीं।

 

इस घटना में हुई 8 मौतें  बेहद दुखद है और यह  हिसाब-किताब लगाना कि इसमें कितने किसान थे,  कितने भाजपा के कार्यकर्ता थे और कितने पत्रकार थे, बिल्कुल बेमानी है।  दुर्भाग्य से अपने लाभ के लिए सभी राजनीतिक दलों ने लाशों और मानवीय संवेदनाओं का बंटवारा कर लिया, जिसमें राजनीतिक लाभ मिल सकता था उनके लिए तो धरना प्रदर्शन और राजनीतिक पर्यटन बन गया  लेकिन जिन बातों से  राजनीतिक दलों को कोई फायदा नहीं था वह कहीं चर्चा में भी नहीं आई। बताने  की आवश्यकता नहीं कि घटना में मारे गए एक पत्रकार, ड्राइवर और  भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी राजनीतिक दल ने  न तो कोई संवेदना प्रकट की है और न ही कोई इनके घर पर दिखावे के लिए ही पहुंचा। विशुद्ध हाथरस- कांड के आधार  पर लखीमपुर खीरी में भी राजनीतिक पर्यटन शुरू हुआ और सपा, बसपा, कांग्रेस और आप जैसे दलों ने वोटों के लालच में जो कुछ भी संभव था, सब  किया और इसके लिए सभी मर्यादाओं और मानवाधिकारों को तिलांजलि दे दी।

 

 घटना में मारे गए 4 किसानों के ऊपर कथित रूप से केंद्रीय राज्य  मंत्री अजय मिश्रा के पुत्र आशीष मिश्रा ने गाड़ी चढ़ाकर कुचल दिया था, जिसके बाद  गाड़ी में बैठे दो भाजपा कार्यकर्ता और एक ड्राइवर को तथाकथित किसानों की भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। एक पत्रकार भी इन किसानों के हत्थे चढ़ गया उसे  भी बहुत बेरहमी से पिटाई करके मौत के घाट उतार दिया गया।गाड़ियां फूंक दी  गयीं । यह सब बिना पूर्व तैयारी के  नहीं किया सकता था । इस घटना के संबंध में कई वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुए, लेकिन उन्ही  वीडियो का संज्ञान लिया गया और उनका   दुष्प्रचार किया गया जिससे  सरकार को किसान विरोधी ठहराया  जा सके। एक वायरल वीडियो में ड्राइवर से जबरन यह कहलवाने  की कोशिश की जा रही है कि उसे मंत्री ने अपनी गाड़ी से किसानों को कुचलने के लिए भेजा था  लेकिन एक बेहद गरीब परिवार से संबंध रखने वाले इस ड्राइवर ने यह जानते हुए भी कि उसकी न उसकी मौत का कारण बन सकती है, यह झूठ स्वीकार नहीं किया और फिर उसे बेहद बेरहमी से पीट पीट कर मार डाला गया। इस घटना में मृत  ड्राइवर और पत्रकार दोनों  बेहद गरीब परिवार से संबंध रखते हैं लेकिन राजनीतिक फायदे  की लूट के इस युग में किसी भी राजनीतिक दल ने इन दोनों के घर न तो  जाना उचित समझा और ना ही उनकी मौत की निंदा की क्योंकि वोटों का फायदा तथाकथित  किसानों के साथ खड़े होने में  ही है

 

                                           

                                                 ( बेहतरीन अदाकारी के क्षण )

कांग्रेस की  प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी दोनों ने ही लखीमपुर खीरी को हाथरस बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हास्यास्पद नाटकीयता का पर्याय बने सिद्धू ने  दोषियों की गिरफ्तारी न होने तक आमरण अनशन शुरू  कर दिया। कांग्रेस ने यहां दलित कार्ड खेलने की भी भरपूर कोशिश की। राहुल के साथ तो पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भी साथ गए और उन्होंने घटना में मारे गए किसानों के लिए राज्य सरकार की ररफ  ५० लाख रुपये की सहायता राशि की घोषणा की, जो उ.प्र. सरकार द्वारा घोषित ४५ लाख रुपये से ज्यादा है। इसका उद्देश्य पंजाब की राजनीति साधना ज्यादा है ।   उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ में पुलिस द्वारा कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। काग्रेस शासित राजस्थान में भी हनुमानगढ़ जिले में एक दलित की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और नृशंशता की सारी सीमाएं तोड़ते हुए उसके मृत शरीर को उसके घर घर में  परिवार वालों के सामने फेंककर आतंकित किया गया लेकिन इस मामले में हीं कोई राजनीतिक पर्यटन नहीं हुआ और न ही कोई सहयता राशि दी  गयी। स्वाभाविक रूप से यह कार्य स्वयं कांग्रेश स्वयं तो नहीं कर सकती थी, किंतु अन्य विपक्षी दलों ने भी इस मामले में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि वहां निकट भविष्य  में चुनाव नहीं होने हैं। निश्चित रूप से यह भाजपा की राज्य इकाइयों  की कमजोरी है जो इन दोनों ही प्रदेशों की इन घटनाओं को उचित तरीके से जनता के सामने ला भी नहीं सकी। 

 


                                                  ( गिद्ध राजनीति )

लखीमपुर  घटना को सबसे खतरनाक मोड़   देकर   ब्राह्मण ( हिन्दू)  बनाम सिख बनाने की कोशिश की गई क्योंकि इस क्षेत्र में सिखों के साथ  ब्राह्मण भी संख्या में ठीक-ठाक होने के साथ ही राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भी हैं।  अजय मिश्रा के केंद्रीय राज्य मंत्री बनने के बाद से ही उन्हें निशाना बनाना शुरू कर दिया गया था ताकि इस क्षेत्र से उनके मंत्री होने का  राजनीतिक लाभ भाजपा को न मिल सके। चूंकि  उत्तर प्रदेश में चुनाव बहुत नजदीक है, और प्रदेश की जनता योगी आदित्यनाथ की कानून व्यवस्था और माफियाओं के विरुद्ध अपनाई गई नीति से काफी हद तक  संतुष्ट है, इसलिए   सभी राजनीतिक दल योगी की छवि बिगाड़ कर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। इसलिए पिछले काफी समय से लगभग सभी राजनीतिक दलों के निशाने पर योगी और मोदी है। प्रदेश में घटने वाली हर छोटी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को तूल देकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की कोशिश की जाती है ताकि  योगी की छवि को धक्का पहुंचाया जा सके और उनकी सरकार  पर प्रश्न चिन्ह  लगाया जा सके। लगातार  चल रहे किसान आंदोलन का राजनीतिक  उद्देश्य  तो किसी से छिपा नहीं है और उसका लक्ष्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव और बाद में लोकसभा चुनाव ही हैं।

 



                   

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण पूजन का दौर शुरू हुआ था और इसके लिए सभी दलों ने विकरू  कांड में विकास दुबे इन काउंटर  की आड़ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मण विरोधी ठहराने की भरपूर कोशिश की थी। इसके साथ ही सभी दलों ने प्रदेश में  ब्राह्मणों की लगभग 14% जनसंख्या को लुभाने के लिए अनेक वायदों की झड़ी लगा दी है। सपा और बसपा में तो   भगवान परशुराम की मूर्तियां बनवाने में भी आपसी  होड़ है कि कौन कितनी ऊंची मूर्ति बना सकता है और कहां कहां बना सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से भाजपा सहित किसी भी राजनीतिक दल का कोई भी ब्राह्मण और दलित नेता लखीमपुर खीरी कांड में मारे गए शुभम मिश्रा ( ब्राहमण) और श्याम सुंदर (दलित)  के परिवार वालों को सांत्वना देने भी नहीं पहुंचा, मुआबजा तो बहुत दूर की बात है ।

 

 प्रदेश का  प्रबुद्ध वर्ग सबसे ज्यादा इस बात से चिंतित है कि  विधानसभा चुनाव तक उत्तर प्रदेश में होने वाली हर दुर्भाग्यपूर्ण घटना को राजनीतिक रंग दिया जाएगा और अनेक षड्यंत्रकारी घटनाएं भी प्रायोजित की जाएंगी लेकिन इसके बाद भी केंद्र और राज्य सरकार, इस संदर्भ में कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पा रही  हैं।  किसान आंदोलन के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी आंदोलन या विरोध को केवल अनदेखा करने से ही उसका समाधान नहीं हो जाता। इन आंदोलनों को समाप्त करने के लिए कोई न कोई नीतिगत निर्णय लेना होगा और तदनुसार कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी, आखिर कुछ लोगों के संवैधानिक अधिकारों की स्वतंत्रता के नाम पर सामान्य जनता के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। किसान आंदोलन से आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ सामान्य जनता की दैनिक गतिविधियां भी बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। यह बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकता और इससे जनता में सरकार के कमजोर होने का संदेश जा रहा है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा के संदर्भ में न केवल केंद्र सरकार की साख में बट्टा लगा बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के व्यक्तिगत छवि को भी   गहरी चोट पहुंची है।

 

 दुर्भाग्य से  लखीमपुर खीरी में घटी घटना का स्वत संज्ञान लेने वाले और उत्तर प्रदेश सरकार की कार्यप्रणाली पर असंतोष प्रकट करने वाले सर्वोच्च न्यायालय  भी किसान आंदोलन के संबंध में अब तक कोई न्यायोचित  निर्णय नहीं दे सका है और इस कारण आर्थिक नुकसान के अलावा सामान्य जनता के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार भी बाधित हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने संसद द्वारा  पारित तीनों किसान कानूनों पर रोक लगाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं किया है इससे ऐसा लगता है कि न्यायालय सरकार पर तो बड़ी आसानी से चाबुक चला सकता है, तीखी टिप्पणियां कर सकता है लेकिन आंदोलनकारियों के विरुद्ध कोई भी सख्त  निर्णय देने में डरता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसा ही कुछ शाहीनबाग मामले में भी  किया गया था। देश की निचली अदालतों ने  जनता के  एक बहुत बड़े वर्ग का विश्वास पहले ही खो दिया है। उच्च न्यायालय भी उसी रास्ते पर  हैं लकिन  जनता का  विश्वास  अभी भी  सर्वोच्च न्यायालय पर है। अब   यह आशंका बलवती हो रही है कि यह विश्वास भी बहुत जल्दी न टूट जाए। पश्चिम बंगाल में चुनाव उपरांत हुई हिंसा, बलात्कार और आगजनी के मामले लगभग वैसे ही  थे जो देश के विभाजन के समय हुए  थे लेकिन दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय ने इनका स्वत: संज्ञान नहीं लिया इसके विपरीत पश्चिम बंगाल की सरकार से संबंधित कई मुकदमों से  पश्चिम बंगाल से संबंध रखने वाले न्यायाधीशों ने अपने आप को  अलग कर लिया। इसके क्या मायने हो सकते हैं, समझना मुश्किल नहीं । इससे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को अपूरणीय  क्षति पहुंची है और कम से कम प्रबुद्ध वर्ग में न्यायालय के प्रति सम्मान की भावना को गहरा आघात लगा है ।

 

गोरखपुर के मनीष हत्या कांड के बाद लखीमपुर खीरी और उसके बाद कुछ और........। इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का  उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव तक राजनीतिक प्रस्तुतीकरण किया जाता रहेगा। यह भी हो सकता है कि कुछ घटनाओं का मंचन और प्रायोजन भी किया जाए। इस संदर्भ में सरकार को अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है और यह सुनिश्चित करना राज्य सरकार का दायित्व भी है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए प्रदेश  को रंगमंच के रूप में प्रयोग करके प्रदेश की जनता को अनावश्यक परेशान न किया जाए।

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                                        - शिव मिश्रा 

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गोरखपुर हत्याकांड - पुलिस का क्रूर और अमानवीय रूप

 



गोरखपुर एक होटल में तलाशी के दौरान पुलिस की पिटाई के कारण वहां ठहरे एक व्यापारी की  मौके पर हुई मौत ने   पुलिस का वीभत्स चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया है.  व्यापारी गोरखपुर के  रामगढ़ ताल क्षेत्र के एक होटल में ठहरा था और पुलिस  उस होटल में तलाशी के लिए गई हुई थी. तलाशी लेने का कोई वैध कारण अभी तक किसी को समझ में नहीं आया है. कोई इसकी   कल्पना भी नहीं कर सकता है कि तलाशी के दौरान ऐसा क्या हुआ कि पुलिस को इस हद तक व्यापारी की पिटाई करनी पड़ी कि उसकी मौके पर ही मौत हो गई.  

इस घटना ने प्रदेश का राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया और विपक्ष ने हाथो हाथ इस मुद्दे को लपक लिया और फिर सियासी गतिविधियों का दौर शुरू हो गया. यद्यपि मुख्यमंत्री योगी  ने संवेदनशीलता को समझते हुए मामले को गोरखपुर से बाहर कानपुर स्थानांतरित कर दिया जहां व्यापारी का परिवार रहता है. जांच के लिए उच्च स्तरीय पुलिस दल गठित कर दिया गया है और घटना में शामिल सभी पुलिस वालों के विरुद्ध हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया है. मृतक की पत्नी को ₹50 लाख की सहायता राशि के अलावा कानपुर विकास प्राधिकरण में विशेष कार्य अधिकारी की नौकरी भी दी गई है. इस तरह विपक्ष द्वारा पूरे मामले को सियासी रंग देने के प्रयासों की हवा जरूर  निकल गई है लेकिन यक्ष प्रश्न है कि एसा हुआ क्यों?

 

 इस घटना ने जहां पुलिस सुधारों की अत्यंत पुरानी मांग को एक बार फिर से तरोताजा कर दिया है. जब भी कभी पुलिस द्वारा इस तरह की क्रूर, असंवेदनशील और अमानवीय घटनाओं को अंजाम दिया जाता है चारों तरफ पुलिस सुधारों की बातें होने लगती हैं . और फिर ऐसा लगने लगता है कि जैसे पुलिस का यह रवैया सिर्फ पुलिस सुधारों को लागू न होने के कारण है जो बिल्कुल भी सही नहीं है. आज भी पूरे भारत में पुलिस का रवैया वही है जो अंग्रेजों के जमाने में हुआ करता था.  यह भी हो सकता है कि सभी पुलिस वालों के लिए अंग्रेजों की समय वाली पुलिस एक आदर्श और स्वयं सुखदाई स्थिति हो लेकिन आज के लोकतांत्रिक परिदृश्य में इस तरह की पुलिस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता.

 

 


                             (गोरखपुर के गुनाहगार )

आखिर ऐसा क्यों होता है कि पुलिस बल  लुटेरे और हत्यारों के रूप  में सामने आता है. इसके कई कारण स्पष्ट है जिन पर प्रहार करके फौरी तौर पर पुलिस की स्थिति को काफी हद तक सुधारा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक कारणों से कोई भी सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती है और इस तरह पुलिस का भयावह चेहरा जस का तस है. आइए इस पर चर्चा करते हैं कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे पुलिस व्यवस्था में तुरंत कुछ सुधार किया जा सके.

 

 उत्तर प्रदेश सहित किसी भी राज्य की पुलिस अपने काम के प्रति न तो पूरी तरह समर्पित है और न ही दक्ष. इसका सबसे बड़ा कारण है पुलिस में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार और जब कभी इसे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है, यह अपने चरम पर पहुंच जाता है जैसा कि हमने अभी मुंबई पुलिस के संदर्भ में देखा जहां  किसी विशेष व्यक्ति को जेल में डालने के लिए पुलिस राजनीतिक इशारों पर नाचते हुए कुछ भी कर सकती है और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी पुलिस व्यवस्था द्वारा राजनीतिक मांग पर मासिक  लक्ष्य  बनाकर वसूली की जाती है, लोगों की हत्या और अपहरण किए जाते हैं. ऐसी पुलिस व्यवस्था जनता के लिए सहायक नहीं आतंक से भी बदतर  है और इसी कारण सामान्य जनमानस पुलिस से बचकर रहने की हर संभव कोशिश करता है.

 

 जनता में पुलिस की भूमिका आज भी खलनायक की ही है. मजेदार बात यह है कि पुलिस की यह भ्रष्ट व्यवस्था इतनी लचीली है कि वह किसी भी राजनीतिक दल की सरकार के साथ सामंजस्य बना लेती है और उसके अनुरूप कार्य करने लग जाती है, लेकिन ऐसा करने में उसके अपने हित सबसे पहले होते हैं और राजनीतिक दल के साथ साथ उन्हें भी अपनी जेब  भरने की खुली छूट मिल जाती है. शायद इसीलिए कोई भी सरकार न तो पुलिस सुधार की दिशा में कोई कदम उठाती है और न ही पुलिस के विरुद्ध कोई सख्त कार्यवाही करती है. पुलिस सुधार  की बात भी ज्यादातर सेवा निवृत पुलिस अधिकारी ही करते हैं  जिन्होंने अपने कार्यकाल में इस दिशा में कुछ नहीं किया.  कुल मिलाकर आजादी के बाद से अब तक " चलता है" का  राजनीतिक रवैया बना हुआ है और इसी कारण अंग्रेजों की पुलिस और आज की पुलिस में कोई बहुत अंतर नजर नहीं आता जो कुछ सुधार नजर आता भी है वह सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और सक्रियता के कारण ही है. जब कभी कोई सरकार थोड़ी बहुत सख्ती  करती है उसका भी थोड़ा बहुत असर पुलिस की  कार्यप्रणाली पर परलक्षित होता है.

 

पुलिस की  मुख्यतय: दो  समस्याएं हैं - एक पुलिसकर्मियों के व्यक्तिगत आचरण और दूसरा अनवरत  भ्रष्टाचार. इन दोनों के कारण ही  पुलिस  प्रोफेशनल नहीं हो पाती बल्कि स्वयं राजनीतिक गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई जनता के शासक बनने का प्रयास करती रहती है. जब पूरा  तंत्र भ्रष्टाचार से लाभान्वित हो रहा तो   कोई नियंत्रण प्रणाली भी विकसित नहीं हो सकती और जिससे पुलिस की निरंकुशता बढ़ना  बहुत स्वाभाविक है. 

 

पुलिस में कम अवधि में व्यापक सुधार के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की अत्यंत आवश्यकता है और तभी निम्नलिखित परिवर्तन पुलिस व्यवस्था में किया जा सकता है.

 

 अंग्रेजो  के जमाने से लेकर आज भी पुलिस में सिपाही के लिए शैक्षणिक योग्यता केवल हाई स्कूल रखी गई है जो आजकल के वैश्विक परिवेश में लगभग अनपढ़ होने जैसी है. सेना और अर्धसैनिक बलों में  तो यह एक बार फिर भी स्वीकार्य है लेकिन पुलिस बल के लिए जिसका दिन-रात जनता से संपर्क होता हो, यह शैक्षणिक योग्यता बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है. अतः सरकार को सिपाहियों की भर्ती के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता स्नातक कर देना चाहिए, और इस कारण भर्ती की न्यूनतम और अधिकतम आयु में परिवर्तन किया जा सकता है. ट्रेनिंग में व्यवहार विज्ञान का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए और इसके साथ ही सिपाहियों के लिए आकर्षक करियर के लिए वर्तमान प्रमुख व्यवस्था में परिवर्तन करना  होगा. ट्रेनिंग व्यवस्था में शारीरिक दक्षता के अलावा अन्य विषयों की ट्रेनिंग को पूरी तरह से आउट सोर्स किया जाना चाहिए जिससे पूरे तंत्र में नए विचारों का संचार हो सके और उन्हें मालूम हो सके कि समाज के लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं और उनसे क्या अपेक्षा रखते हैं. सक्षम और उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सिपाहियों को सेवा निवृत्ति तक पुलिस अधीक्षक पद तक पहुंचने में कोई भी बाधा नहीं होनी चाहिए. इस कारण उनका मनोबल ऊंचा रहेगा, उनकी सोच का दायरा विस्तारित होगा. उपनिरीक्षक जैसे पद सीधी भर्ती के बजाय प्रोन्नति के आधार पर भरे जाने चाहिए और अगर यह संभव ना हो तो कम से कम 50% पद प्रोन्नति के आधार पर भरने के लिए आरक्षित होने चाहिए. प्रोन्नत की यही व्यवस्था राज्य और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर भी लागू होनी चाहिए. किससे न केवल तंत्र में गति मिलेगी बल्कि पुलिस कर्मियों की कर्तव्य परायणता में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होगी.

-    पुलिस तंत्र का सबसे पुराना और लगभग लाइलाज हो चुका मर्ज है भ्रष्टाचार जो अंग्रेजों के जमाने से आज तक न केवल बरकरार है बल्कि नित  नए आयाम स्थापित कर रहा है. ऐसे पुलिसकर्मी उंगलियों पर गिनने लायक होंगे जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं होगे.  भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाही के दायरे में आए कई पुलिस अधिकारियों से मिले तक चौंकाने वाले हैं. कई अधिकारी केवल पांच से दस  साल सेवाकाल  में हजारों करोड़ की  संपति के मालिक  हैं. उत्तर प्रदेश में ही कई बड़े पुलिस अधिकारी, जिन पर भ्रष्टाचार और संगीन अपराधों के आरोप हैं,  फरार घोषित किए गए हैं, क्योंकि उ.प्र. की  दक्ष पुलिस उन्हें पकड़ने में असहाय है. कई पुलिस अधिकारियों पर आतंकवादियों के साथ सांठगांठ के आरोप प्रमाणित हुए हैं. इस दिशा में भी अत्यंत सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है.

प्रत्येक सीधी भर्ती के पदों पर, समुचित संख्या में कर्मियों की भर्ती करके प्रतीक्षा सूची बना ली जाए. भर्ती के विज्ञापन में स्पष्ट तौर पर इसकी घोषणा की जाए कि यह भर्ती प्रतीक्षा सूची बनाने के लिए है जिसे भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त किए जाने के बाद समायोजित की जाएगी. शुरुआत में यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है क्योंकि मोटे तौर पर एक तिहाई पुलिस तंत्र भ्रष्टाचार में गंभीर रूप से जकड़ा  हुआ है, इनमें से   बड़ी संख्या में ऐसी कर्मी  है जिन्हें तुरंत निकाल बाहर करने की आवश्यकता है . इससे न केवल भ्रष्ट कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा वरन  दूसरे पुलिस कर्मियों को भी उदाहरण पेश किया जा सकेगा. एक बात हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा ऐसा कवच है जो कर्मचारियों की उत्पादकता घटाता है और उन्हें भ्रष्ट रास्ते पर जाने के लिए प्रेरित करता है इसलिए सेवा शर्तों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है ताकि अवांछित और सिफारिश के आधार पर आए अक्षम  कर्मियों को बिना समय गवाएं  निकाल बाहर किया  जा सके.

 

इस तरह पुलिस व्यवस्था में तुरंत परिवर्तन दिखाई पड़ने लगेगा और इसके बाद व्यवस्थित रूप से व्यापक विचार-विमर्श के बाद पुलिस या अन्य तरह के सुधार किए जा सकते हैं.

 

यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि  जैसे खरबूजा  को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, विभिन्न विभाग भी इसी तरह भ्रष्टाचार की चपेट में आते हैं. अन्य विभाग जहां जनता का सबसे अधिक कामकाज पड़ता है वहां के भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए.   उत्तर प्रदेश में इस तरह के  विभागों की पहचान मुश्किल नहीं है, - परिवहन विभाग, रजिस्ट्री ऑफिस, तहसील / कचहरी आदि इसके निकृष्टतम  उदाहरण है.   इन विभागों में पासपोर्ट कार्यालय में अपनाई जाने वाली आउटसोर्सिंग सहित  इस तरह के परिवर्तन तुरंत किए जाने की आवश्यकता है अन्यथा भ्रष्टाचार पर शायद कभी भी लगाम नहीं लगाई जा सकती.

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                             - शिव मिश्रा