आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा और विपक्ष अपनी अपनी तैयारियों में जुटा है. विपक्षी एकता की कवायद जारी है. विपक्ष को एकजुट करने के लिए कई नेताओं ने अलग अलग प्रयास किए जिसमें के चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जीं, अरविन्द केजरीवाल और नितीश कुमार प्रमुख हैं.
विपक्षी एकता की गंभीर शुरुआत नीतीश कुमार ने की और उसके पीछे मुख्य भूमिका लालू यादव की रही जिन्होंने सोनिया गाँधी के अनुरोध पर नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनने का लालच देकर भाजपा से अलग करने में मुख्य भूमिका निभाई. पलटूराम के नाम से कुख्यात नीतीश कुमार शायद इसके लिए मानसिक रूप से पहले से ही तैयार थे क्योंकि भाजपा गठबंधन में वह मुख्यमंत्री जरूर थे लेकिन उनकी भूमिका छोटे भाई की हो गयी थी. उन्हें हमेशा यह खतरा महसूस होता था कि भाजपा उनकी पार्टी को निगल जाएगी. इसलिए उन्होंने बिना समय गंवाए लालू यादव के साथ सरकार बना ली और मुख्यमंत्री बने रहे. तय शर्तों के अनुसार वह लोक सभा चुनाव तक मुख्यमंत्री रहेंगे और केंद्र में प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में अपनी भूमिका तलाशते रहेंगे, ततपश्चात मुख्यमंत्री का पद तेजस्वी यादव को सौंप देंगे.
कांग्रेस से वार्ता में उनके लिए स्वर्गीय देवीलाल वाली भूमिका तय की गई, जिसमे संसदीय दल ने चौधरी देवीलाल को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना नेता चुना था लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता दिखाते हुए अपने को पीछे कर लिया और बी पी सिंह के नाम का प्रस्ताव किया जिस पर नाटकीय अंदाज में तुरंत सहमति बन गई. इस तरह वी पी सिंह ने चंद्रशेखर को किनारे लगा दिया था. नीतीश कुमार को यही काम राहुल गाँधी के लिए करना था. अगर राहुल गाँधी के नाम पर सहमत नहीं बन पाती है, तो कांग्रेस नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बना सकती है. इसलिए नीतीश कुमार ने विपक्ष को संगठित करने का बीड़ा उठाया . उन्होंने विपक्षी एकता के लंबरदारों की पटना में एक बैठक आयोजित की, जिसमे के चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक और वाईएस जगन मोहन रेड्डी शामिल नहीं हुए. बैठक में लालू यादव ने मज़ाकिया लहज़े में राहुल गाँधी को दूल्हा बना दिया. विरोधाभास के चलते संयोजक का नाम तय किये बिना शरद पवार की सहमति से कांग्रेस ने अगली बैठक शिमला में प्रस्तावित कर दी. शरद पवार, लालू यादव और कांग्रेस के मिलेजुले प्रयास ने नीतीश कुमार की भूमिका सीमित कर दी, जो उनके लिए निराशाजनक भी था.
पवार के सुझाव पर शिमला में होने वाली इस बैठक को बैंगलोर स्थानांतरित कर दिया गया. इससे पहले कि बैठक आयोजित होती, शरद पवार की पार्टी उसी तरह टूट गई जैसे शिवसेना टूटी थी. इससे शरद पवार के साथ साथ कांग्रेस व नितीश कुमार का मनोबल भी टूट गया. नीतीश कुमार को एहसास होने लगा कि लालू और कांग्रेस उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. व्यथित नीतीश कुमार ने भाजपा से संपर्क साधा, यद्यपि अमित शाह पहले ही घोषणा कर चुके थे कि भाजपा के दरवाजे नीतीश कुमार के लिए हमेशा हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं. भाजपा ने वापसी के लिए एक शर्त रखी कि बिहार में अब भाजपा का मुख्यमंत्री होगा और नीतीश को केंद्रीय मंत्रिमंडल में समाहित किया जा सकता है. नीतीश ने सुशील मोदी और राज्यसभा उपाध्यक्ष हरिवंश सिंह के माध्यम से भाजपा से मोल तोल करने की कोशिश की लेकिन शायद इसलिए बात नहीं बन सकी क्योंकि उनकी अपनी पार्टी में विभाजन की आशंका प्रबल होती जा रही थी. कुछ विधायक राजद के साथ और बाकी भाजपा के साथ जा सकते थे, जिससे वह बिल्कुल खाली हाथ हो सकते थे. किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में नीतीश कोई निर्णय नहीं कर सके और भाजपा सदन के अंदर और बाहर सरकार का आक्रामक विरोध करती रहीं.
पटना में भाजपा द्वारा आयोजित प्रदर्शन में पुलिस लाठीचार्ज के कारण एक भाजपा नेता की मृत्यु हो गई और कई बुरी तरह से घायल हो गए. इस घटना ने जहाँ भाजपा को अपने दरवाजे पूरी तरह बंद करने पर मजबूर कर दिया, वहीं नीतीश कुमार की राजनैतिक स्थिति अत्यंत दयनीय बना दी. इस तरह दो प्रमुख नेता शरद पवार और नीतीश कुमार विपक्षी एकता के लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं. इस बीच पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में भारी हिंसा में 45 से अधिक व्यक्ति मारे गए और सैकड़ों बेघर हो गए. यहाँ भाजपा मुख्य विपक्षी भूमिका में हैं लेकिन हिंसा में भाजपा के अतिरिक्त कांग्रेस कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में हताहत हुए जिससे कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी तृणमूल कांग्रेस के विरुद्ध बेहद आक्रामक हैं. अब विपक्षी एकता के लिए ममता बनर्जीं का भी उत्साह ठंडा पड़ गया है. संख्या बढ़ाने के लिए कांग्रेस अब मुस्लिम लीग सहित कई छोटे छोटे दलों को विपक्षी कुनबे में शामिल करने का प्रयास कर रही है ताकि सांसदों की संख्या भले न बढ़ें लेकिन दलों की संख्या बढे जिससे कांग्रेस की बढ़ती स्वीकार्यता का संदेश आम जनमानस में दिया जा सके.
इस बीच भारत में जॉर्ज सोरोस समर्थित गैर सरकारी संगठनों ने अपनी गतिविधियों बढ़ा दी है. बड़ी मात्रा में फंडिंग की जा रही है और नए नए विमर्श गढ़े जा रहे हैं. राहुल गाँधी की छवि तराशने का काम तो काफी पहले से चल रहा है. उन्होंने अपनी ब्रिटेन और अमेरिका यात्रा में भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय शक्तियो के सहारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत विरोधी विमर्श बनाने का हर संभव प्रयास किया. अंतर्राष्ट्रीय वामपंथ इस्लामिक गठजोड़ समर्थित कई भारत विरोधी संगठनों के साथ मिलकर राहुल ने यह स्थापित करने की कोशिश की थी, कि भारत में मुस्लिमों पर अत्याचार किया जा रहा है और लोकतंत्र पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है. इस षड्यंत्र में बराक ओबामा जैसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति का शामिल होना यह प्रमाणित करता है कि भारत विरोधी लॉबी कितनी शक्तिशाली है और भारत के विरुद्ध षड्यंत्र कितना बड़ा, गंभीर और घातक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फ्रांस द्वारा बेस्टिल डे परेड में मुख्य अतिथि बनाए जाने से वहां के वामपंथी और मुस्लिम कट्टरपंथी नाराज है. कुछ संसद सदस्यों ने फ्रांस के इस राष्ट्रीय पर्व का बहिष्कार भी किया. वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ समर्थित फ्रांस के कई समाचार पत्रों ने राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की इस बात के लिए आलोचना की है कि उन्होंने सांप्रदायिक दंगों के बीच मोदी को बेस्टिल डे परेड का मुख्य अतिथि बनाया. अंतर्राष्ट्रीय अर्थ में भारत और मोदी विरोध का मतलब सामान्यतय: हिंदू और सनातन धर्मियों का विरोध होता है.
2024 के लोकसभा चुनावों की जितनी तैयारी भारत में चल रही है उससे कहीं ज्यादा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही है. राहुल गाँधी की संसद सदस्यता समाप्त होने पर कई देशों की प्रतिक्रिया, संयुक्त राष्ट्रसंघ के कुछ विभागों / आयोगों द्वारा भारत में अल्पसंख्यकों के लिए चिंता व्यक्त करना, हाल में यूरोपीय संसद द्वारा मणिपुर हिंसा पर कड़े शब्दों में प्रतिक्रिया देना और भारत को अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने की सलाह देना, इसका ज्वलंत उदाहरण है. इस बीच सोशल मीडिया पर नए नए विमर्श गढ़े जा रहे हैं, जो पूरी तरह से भ्रामक और सत्य से परे हैं, लेकिन उन्हें इस तरह प्रचारित और प्रसारित करवाया जा रहा कि इसके पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है. इस पूरे खेल में कुछ गैर सरकारी संगठनों के अलावा भाड़े पर काम करने वाले सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश और सैन्य अधिकारी भी शामिल हैं. ये सभी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को प्रभावित करने की भी कोशिश कर रहे हैं. हाल में फैलाए जा रहे एक नये विमर्श के अनुसार अगले कुछ सप्ताह में सर्वोच्च न्यायालय 2024 के लोकसभा चुनाव की दिशा और दशा तय कर देगा. झूठे और मनगढ़ंत विमर्श के माध्यम से यह भ्रम फैलाने की की कोशिश की जा रही है कि सर्वोच्च न्यायालय राहुल गाँधी की सजा पर रोक लगा कर उनकी संसद सदस्यता बहाल कर देगा, शिवसेना उद्धव ठाकरे ग्रुप को असली शिवसेना की मान्यता प्रदान कर देगा, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ भी ऐसा ही निर्णय आएगा, जिससे महाराष्ट्र सरकार गिर जायेगी, धारा 370 बहाल कर देगा, दिल्ली की केजरीवाल सरकार के विरुद्ध केंद्र के अध्यादेश को निरस्त कर देगा. अगर मोदी सरकार समान नागरिक संहिता कानून बनाती है तो वह भी निरस्त किया जाएगा. ये लोग तर्क देते हैं कि कैसे उन्होंने प्रवर्तन निदेशक की छुट्टी करवाई, सत्येंद्र जैन की तरह मनीष सिसोदिया को भी जमानत मिलेंगी, दिल्ली में केंद्र सरकार के दखल पर रोक लगेगी आदि आदि.
एक ही उद्देश्य है कि हर हालत में 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को सत्ता से बाहर करना है. इस सबके बावजूद, भारत के मतदाता प्रबुद्ध हैं, और वे देशहित में सही फैसला करेंगे. मतदाताओं ने कई बार ऐसा सिद्ध भी किया है जब चुनाव में राज्यों और केंद्र के अलग अलग परिणाम देखने को मिले. भ्रामक और असत्य समाचारों पर समय रहते स्पष्टीकरण देना, अफवाह फैलाने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करना सरकार का दायित्व है. सरकार को राष्ट्रहित में टूलकिट गैंग, अजेंडा धारियों और राष्ट्रविरोधी शक्तियों के विरुद्ध समय रहते सख्त कार्रवाई करने से नहीं हिचकना चाहिए. किसी भी हालत में राष्ट्र की एकता अखंडता और अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों के साथ कोई भी उदारता नहीं की जानी चाहिए और यही दृढ़ निश्चय भाजपा को सत्ता में पुनः प्रतिस्थापित कर सकता है.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~