सोमवार, 26 जुलाई 2021

उत्तर प्रदेश में अचानक ब्राह्मण इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं ?

 

सपा, बसपा, कांग्रेस  और भाजपा सभी ब्राह्मणों के पीछे लगे हैं,उत्तर प्रदेश में अचानक ब्राह्मण इतने  महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं ?


कभी उत्तर प्रदेश में संपन्न समझे जाने वाले ब्रह्मण, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भी अग्रणी भूमिका निभाई और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सत्ता संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन आज यह समुदाय आज बेहद तंगहाल है. मुसलमानों को रिझाने और उनपर तमाम निवेश किये जाने तथा वोटों की बहुत महंगी कीमत चुकाने के बाद भी उ.प्र. के सन्दर्भ में एकआश्चर्य जनक तथ्य यह है कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में जिस पार्टी की भी प्रदेश में सरकार बनी है, वह ब्रह्मण वोटों के कारण ही बनी है और सभी सरकारों में सबसे ज्यादा ब्राहमण विधायक रहे हैं , 2007 में बसपा की सरकार में 41 ब्राम्हण विधायक थे, अखिलेश की सरकार में 21 तथा भाजपा की सरकार में 44 ब्राह्मण विधायक हैं.

आज उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है. हम सभी ने कहानियों में पढ़ा है कि “एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था” लेकिन आज स्थिति अत्यंत भयावह है. आज हर गांव, कस्बे और शहर में गरीब ब्राह्मण रहते हैं. एक मोटे अनुमान के अनुसार इस समुदाय के लगभग 80% लोग गरीबी की श्रेणी में आते हैं और 50% लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. कभी समाज का मार्गदर्शन करने वाले और सनातन धर्म की रक्षा करने वाले ये श्रेष्ठ लोग आज अपनी श्रेष्ठता की रक्षा करने के लिए अपनी गरीबी छुपाने का भरपूर उपक्रम करते रहते हैं. महाभारत युद्ध के बाद जब लोगों का धर्म कर्म और ईश्वर से विश्वास उठ रहा था, तब शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रंथ की स्थापना की गई और ब्राह्मणों को यह दायित्व दिया गया कि वह सनातन धर्म की रक्षा के लिए अपने आप को समर्पित करें और तदनुसार ब्राह्मणों का एक बहुत बड़ा वर्ग इस पुनीत कार्य में लग गया. आज भी बहुत से ऐसे ब्राह्मण परिवार हैं जिनके यहां हल की मूठ पकड़ना, व्यापार और चाकरी आदि वर्जित माना जाता था, उनके लिए केवल एक ही कार्य सौंपा गया था और वह था सनातन धर्म की रक्षा, प्रचार प्रसार, और कर्मकांड. आज इन परिवारों के अधिकतर शिक्षित - अर्ध शिक्षित युवा जीवन यापन के लिए महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और पंजाब की फैक्ट्रियों में मजदूरी करते हैं या रिक्शा चलाते हैं और महिलायें दूसरों के घरों में झाड़ू, पोंछा और वर्तन धोने का काम करती हैं. लोकलाज के कारण ये युवा इस तरह के कार्य दूसरे राज्यों या बड़े शहरों में जाकर करते हैं, जो केवल सामाजिक श्रेष्ठता ढंकने का ही एक प्रयास है.

उ.प्र की राजनीति में आज ब्राह्मण समुदाय केवल वोट बैंक है और इसलिए ब्राहमणों का महत्त्व इन दिनों उत्तर प्रदेश में बहुत बढ़ गया है. लगभग ६० जिलों में ब्राहमण वोटर 10% से अधिक हैं। जिनमें से 30 जिलों में तो यह संख्या 13 फीसदी से अधिक है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, मथुरा, हाथरस, बुलंदशहर, मुरादाबाद, अलीगढ़, औरैया, सहारनपुर में ब्राहमण वोटरों की संख्या अच्छी खासी है। वहीं पूर्वांचल की बात करें तो अयोध्या, प्रतापगढ़, महाराजगंज, गोरखपुर, जौनपुर, सिद्धार्थनगर, वाराणसी, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा, संत कबीर नगर, सोनभद्र, मिर्जापुर, कुशीनगर और देवरिया में ब्राहमण मतदाताओं की मौजूदगी 14 प्रतिशत से भी अधिक है।कुछ विधानसभा क्षेत्रों में ब्राह्मणों की जनसंख्या 20% से भी अधिक है और जो किसी भी उम्मीदवार की जीत हार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. वर्तमान विधानसभा में ब्राह्मण विधायकों की संख्या 46 है जिसमें अकेले 44 भाजपा से हैं.

इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि सभी पार्टियां ब्राह्मणों को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं. आइए देखते हैं मुख्य दल ब्राह्मणों को रिझाने के लिए क्या कर रहे हैं?

बहुजन समाज पार्टी -

“तिलक तराजू और तलवार …..” के नारे से उपजी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दलितों और सवर्णों के बीच एक बड़ी खाई पैदा कर दी थी, फिर भी उत्तर प्रदेश में बसपा इस स्थिति में कभी नहीं आ पाई कि वह अपने बलबूते सरकार बना पाती और सवर्ण विरोध के कारण वह कांग्रेस और भाजपा से चुनावी गठबंधन करने की स्थिति भी सहज नहीं थी. ले दे कर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की ही एक पार्टी थी जिससे समझौता किया जा सकता था लेकिन उस पार्टी का कोर वोटर ही दलितों पर अत्याचार करता था, इसलिए वहां भी बहुत मुश्किल थी.

राजनीति में शायद कुछ भी असंभव नहीं होता और इसलिए अयोध्या में राम मंदिर से बाबरी मस्जिद का अतिक्रमण ढहाये जाने के बाद भाजपा को रोकने या अपना अस्तित्व बचाने के लिए शेर और बकरी ने एक घाट पानी पिया. भाजपा को रोकने की सफलता में दोनों दल इतना खुश हो गए कि एक नारा दिया गया “मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्री राम”. विरोधी धरातल पर खड़े सपा बसपा का यह नया रिश्ता भी बहुत दिन नहीं चल सका और गेस्ट हाउस कांड हो गया जिसमें मायावती की अस्मिता ही नहीं, प्राण भी संकट में पड़ गए और यह भी एक संयोग ही कहा जाएगा कि गेस्ट हाउस में मायावती की जान बचाने वाले विधायक स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी भी एक ब्राम्हण ही थे.

इसके बाद बसपा ने भाजपा से भी गठबंधन किया लेकिन खुद बैटिंग कर लेने के बाद विकेट समेट लेने की मायावती की आदत के कारण किसी भी दल से उनकी पटरी नहीं मिल पाई.

सौभाग्य, संयोग और सुअवसर से 2007 में दलित - ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बसपा ने अपने दम पर उत्तर प्रदेश की सत्ता प्राप्त कर ली. ब्राह्मणों को अपने पक्ष में लामबंद करने का किरदार निभाया था सतीश चंद्र मिश्रा ने जो मायावती के भ्रष्टाचार के मुकदमे लड़ते-लड़ते उनके बेहद करीबी बन गए थे.

मायावती 2007 की अपनी दलित ब्राह्मण की उस सोशल इंजीनियरिंग को दोहराना चाहती हैं, इसलिए हाथी जनेऊ से बंधने के लिए बेकरार है. पिछली बार “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है” के मन मोहक नारे के बाद भी सत्ता पाने के बाद उन्होंने जनेऊ को हाथी की पूंछ से बांध दिया था, और इसी कारण 2012 में जनेऊ धारी चुपचाप निकल लिए और साइकिल पर बैठ गए.

साइकिल पर बैठने का जनेऊ धारियों का अनुभव और भी ज्यादा खराब रहा. जहां मायावती के शासनकाल में ये जनेऊ धारी एससी - एसटी एक्ट के फर्जी मुकदमों में फंसते रहे,अखिलेश यादव के शासनकाल में दंगों और आतंकवादी वारदातों ने बर्बाद कर दिया. मुस्लिमों के लिए तो दोनों सरकारों ने खूब निवेश किया, कब्रिस्तान तक की चारदीवारियां बनवा दी गई, मदरसों को खूब लाभ पहुंचाया गया लेकिन इन जनेऊ धारियों के लिए क्या किया गया? यह बताने के लिए इन दोनों ही पार्टियों के पास कुछ भी नहीं है. एक पार्टी कहती है कि उसने परशुराम जयंती को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया तो दूसरी पार्टी कहती है कि उसने जनेश्वर मिश्र पार्क बनवा दिया. भला ये भी कोई कल्याणकारी योजनाएं हैं, गिनाने के लिए.

बहिनजी ने कहा है कि “तिलक तराजू ….इनको मारो ….” कभी कहा ही नहीं गया. इस नारे की छाया से निकलने क लिए उन्होंने एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसका नाम रखा गया है “पंडित जी प्रणाम” , इस कार्यक्रम के अंतर्गत बसपा के कार्यकर्ता सभी 75 जिलों में और सभी विधानसभा क्षेत्रों में जाकर कार्यक्रम आयोजित करेंगे और स्थानीय ब्राह्मणों का सम्मान करेंगे. हर जिले में ब्राह्मण सम्मलेन करने की योजना बनायी है. इसके लिए उन्होंने अपने सबसे विश्वस्त ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा को कमान सौंपी है, जिन्होंने पिछले बार भी यही सब किया था. भाजपा को जबाब देने के लिए उन्होंने “भाजपा के राम तो बसपा के परुशुराम” नारा भी गढ लिया गया है. अब शायद अल्लाह करेंगे आराम.

उत्तर प्रदेश में राम मंदिर निर्माण भाजपा के लिए यह एक रामबाण हो गया है, और इस लिए बसपा ने भी अपने ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत अयोध्या से ही की.

समाजवादी पार्टी -

2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में भी ब्राह्मणों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी. यद्यपि सपा में अपराधी छवि के लोगों का टिकट वितरण में बोलबाला रहता आया है, जो लोगों को रुचिकर नहीं लगता फिर भी सपा में 21 विधायक ब्राह्मण समुदाय से चुनकर आए थे.

समाजवादी पार्टी का झुकाव हमेशा से मुस्लिम समुदाय की तरफ रहा है और जब से मुलायम सिंह ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाई थी जिसमें सैकड़ों की संख्या में कारसेवक हताहत हुए थे और अयोध्या की धरती रक्तरंजित हो गई थी, पार्टी पर मुस्लिम पार्टी होने का ठप्पा लग चुका है और लोगों उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहने लगे हैं.

अखिलेश की सरकार में भी पार्टी इस छवि से बाहर नहीं आ सकी और ऐसा लगता था कि मुस्लिम वर्ग को कुछ भी करने की छूट मिली हुई थी. इसलिए अखिलेश यादव के कार्यकाल में, जितने दंगे हुए वह अपने आप में एक रिकॉर्ड है. भ्रष्टाचार की फाइलें अभी भी घूम रही है. उनका पूरा कार्यकाल प्रशासनिक अक्षमता का कार्यकाल कहा जाता है क्योंकि उस समय साढ़े चार मुख्यमंत्री हैं ऐसा प्रचलित था, इनमें मुलायम सिंह यादव , शिवपाल सिंह यादव, रामगोपाल यादव और आजम खान को पूर्ण मुख्यमंत्री और अखिलेश यादव को आधा मुख्यमंत्री कहा जाता था. आजम खान ने रामपुर में जौहर विश्वविद्यालय बनाने के लिए जितना भ्रष्टाचार किया और सरकारी तंत्र का जितना दुरुपयोग किया वह अपने आप में एक मिसाल है. आजम खान की भैंस तक पुलिस ढूंढती थी लेकिन आ आम आदमी पर होने वाले अत्याचार की कोई सुनवाई नहीं थी. इस समय वह अपनी पत्नी और बेटे सहित जेल में हैं. इन सब का कारण अखिलेश यादव का अपरिपक्व और अनुभवहीन होना था .

इसलिए ब्राह्मण समुदाय का अखिलेश सरकार से बहुत जल्दी ही मोहभंग हो गया.

था और समय मिलते ही जनता और खासकर ब्राह्मणों ने अखिलेश को धरातल पर ला दिया.

सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने ब्राह्मण समुदाय के लिए कोई काम किया हो ऐसा बताने के लिए उनके पास कुछ नहीं है सिवाय इसके कि उन्होंने जनेश्वर मिश्र के नाम से लखनऊ में एक पार्क का निर्माण करवाया है लेकिन इससे ब्राह्मण समुदाय का क्या भला होगा? यह आसानी से समझा जा सकता है .

बहन जी की हलचल देखते हुए अखिलेश यादव ने भी ब्राह्मणों को लुभाने का पांसा फेंक दिया है और इस संबंध में अपने पार्टी के विधायकों को काम पर लगा दिया है. ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने का काम उन्होंने भी मायावती की तरह एक या दो ब्राह्मणों को ठेके पर दे दिया है. इससे क्या लाभ होगा यह तो समय ही बताएगा.

बहिन जी का मूर्ति प्रेम तो जगजाहिर है लेकिन अबकी बार अखिलेश यादव ने इसमें बाजी मार ली है और उन्होंने घोषणा की है कि लखनऊ में भगवान परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाई जाएगी और 2022 में उनकी सरकार बनने पर सभी जिलों में परशुराम की मूर्तियां लगाई जाएंगी. बहन जी को यह बात नागवार गुजरी, भला उनके रहते मूर्तियों के मामले में कोइ उनसे बाजी मार ले जाय. उन्होंने इसके तुरंत बाद पत्रकार वार्ता करके कहा कि वह भगवान परशुराम की इससे भी ऊंची मूर्ति लखनऊ में लगाएंगी और अस्पतालों और पार्कों का नामकरण भी उनके नाम पर करेंगी.

कांग्रेस -

कुछ समय से कांग्रेस का पूरा जोर गांधी परिवार को सबसे बड़ा ब्राह्मण साबित करने में है, एक बार गांधी परिवार पूरी तरह से ब्राह्मण साबित हो जाए तो फिर किसी और ब्राह्मण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. इसलिए गांधी परिवार के होनहारों का जोर मंदिर परिक्रमा, गंगा स्नान और शंकराचार्य आदि का आशीर्वाद लेने में ही है. वैसे भी कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में ले देकर एक ही ब्राह्मण नेता हैं, प्रमोद तिवारी, जिन्हें कांग्रेस ने कभी उचित अहमियत नहीं दी. अब उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर कहां इस्तेमाल किया जाए, यह कांग्रेस को समझ में नहीं आ रहा है. एक बार वह उम्र दराज शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके फस चुकी है इसलिए दोबारा कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती. अभी तो कांग्रेस चुनावी वैतरणी के लिए किसी गाय स्वरूपी राजनीतिक दल की तलाश में है जिसकी पूंछ पकड़कर शायद कुछ भला हो सके.

भाजपा -

2014 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद प्रदेश में जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में होता रहा है और इसमें बहुत बड़ा बदलाव आएगा इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है. भाजपा ने अपने सामाजिक समीकरण बैठाते हुए मंत्रिमंडल में एक ब्राह्मण दिनेश शर्मा को उपमुख्यमंत्री बनाया है, यद्यपि दिनेश शर्मा न तो ब्राह्मण समुदाय पर और न ही अपने विभाग के आधार पर कोई प्रभावी छाप छोड़ पाए हैं. उनका उपनाम “शर्मा” भी ऐसा है जिससे उनके ब्राह्मण न होने का भी संदेह भी जनता में बना रहता है. अगर उनका नाम दुबे, तिवारी, मिश्रा चतुर्वेदी, पांडे आदि होता तो लोगों को समझने में आसानी रहती.

विकरू कांड के खलनायक विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद विपक्षी दलों द्वारा सोची-समझी रणनीति के तहत इसे योगी का ब्राह्मणों के विरुद्ध षड्यंत्र बताया गया और प्रचारित किया गया कि योगी सरकार में ब्राह्मणों के खूब एनकाउंटर किए जा रहे हैं और उन पर एससी एसटी एक्ट में सबसे ज्यादा मुकदमे लगाए जा रहे हैं जो कि सच्चाई से परे हैं. अगर ऐसा है भी और सभी मामले वास्तविक हैं तो इसमें क्या बुराई है आखिर कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए. क्या अब जातिगत और धार्मिक आधार पर एनकाउंटर किए जाएंगे और मुकदमे दायर किए जाएंगे ?

वर्तमान विधानसभा में भाजपा के 44 ब्राह्मण विधायक हैं जो पिछली तीन सरकारों में सर्वाधिक हैं. आगामी चुनाव के लिए भाजपा की योजना है कि कम से कम 100 ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया जाए. फिलहाल ब्राह्मणों को भाजपा के पाले में बनाए रखने का दायित्व उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के अलावा, रीता बहुगुणा जोशी, श्रीकांत शर्मा और जितिन प्रसाद को सौंपा गया है. जितिन प्रसाद अभी हाल ही में कांग्रेश ओढ़कर भाजपा में शामिल हुए हैं. भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रमुख मंदिरों और हिंदू धर्म गुरुओं के साथ बेहतरीन समन्वय है जिसका फायदा भी उसे ब्राह्मणों को अपने पाले में रखने में होगा .

कुल मिलाकर सभी दलों की कोशिश ब्राह्मणों को लुभाकर सत्ता के संघर्ष में विजयी भव का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें, लेकिन ब्राह्मण वर्ग समाज का प्रबुद्ध वर्ग है और वह अनावश्यक लटको झटको से किसी राजनीतिक दल को विजयी भव का आशीर्वाद देगा इसकी संभावना बहुत ही कम है.


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-- शिव मिश्रा

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