शनिवार, 27 जनवरी 2024

भारतीय गणतंत्र का भविष्य

कल ही हमने अपना 75वां गणतंत्र दिवस मनाया है. 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण के बाद बनाई गई संविधान को 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया था. भारत उत्सवों और त्योहारों का देश है, उसमें स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस भी शामिल हो गये हैं, जिन्हें उतने ही हर्षोल्लास या औपचारिकता के साथ मनाते हैं,जितने अन्य त्यौहार. संभावत: इसलिए हम यह विश्लेषण नहीं करते कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इन 78 वर्षों में राष्ट्र के रूप में हमने क्या खोया और क्या पाया.

क्या हम अपनी प्राचीन संस्कृति की पुनर्स्थापना कर सके, क्या हम राष्ट्र की प्राचीन उपलब्धियों, धरोहरो, पौराणिक ग्रंथों और स्मृतियों को संजो कर रख पाए, क्या हम उन परिस्थितियों का पुनर्निर्माण कर सके जिसके कारण भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. क्या उस कौशल विकास की दिशा में हम कुछ कर सके जो वास्तुकला, हस्तशिल्प, दस्तकारी, कारीगरी के रूप में विश्व विख्यात था. क्या हम वह शैक्षणिक व्यवस्था पुनर्स्थापित कर सके जिसके कारण भारत में साक्षरता दर अंग्रेजों के शासन की शुरुआत के समय 97% थी और जो देश के आर्थिक, सामाजिक आध्यात्मिक और नैतिक विकास का आधार थी. क्या हम ऐसा कोई विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्था बना सके जिसमें पढ़ना विश्व के किसी भी देश के नागरिक के लिए गर्व की बात हो. क्या हम कोई ऐसा विश्वविद्यालय या अनुसंधान केंद्र बना सके जहाँ हम अपने पौराणिक ग्रंथों में वर्णित अनेक गूढ़ रहस्यों पर शोध कर सकते. यद्यपि स्वतंत्रता के बाद देश ने मूलभूत संरचना क्षेत्र में काफी उन्नति की है, आर्थिक आधार पर भी लोगों के जीवन में परिवर्तन आया है किंतु वह सूची बहुत लंबी है जिस पर अभी कार्य शुरू भी नहीं हुआ है. राष्ट्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पार्श्व में चले गए हैं और कम महत्वपूर्ण या महत्वहीन विषय हमारी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति पर भारी पड़ गए हैं. शायद राष्ट्र के रूप में हम जागरूक नहीं हैं और इसलिए रास्ता भटक गए हैं.

भारत दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है, जिसमे जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसमें वैज्ञानिक शोध नहीं हुए वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं हुई. जब आज के युग के सभी विकसित देश जब लगभग हर क्षेत्र में अत्यंत पिछडे थे, उस समय भारत की सभ्यता आर्थिक सामाजिक और आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष पर थी. खगोलशास्त्र, वैमानिकी, वनस्पति, जल, वायु, मृदा, समुद्र, पर्वत, वास्तुकला, चित्रकला, संगीत, दर्शिनिकी के क्षेत्र में भारत उस समय जिस उचाई पर था, आज भी उसकी कल्पना करना शेष दुनिया के लिए मुश्किल है. मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल के कबीलाई और नस्लीय संघर्ष से बहुत ऊपर उठकर भारत ने शांति सद्भावना और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के साथ सामाजिक आर्थिक और आध्यात्मिक पथ पर विश्व का मार्ग दर्शन किया है.

75 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर हमें अवश्य चिंतन करना चाहिये कि वे कौन से अवरोध हैं जो हमारे आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विकास में बाधक है. संयुक्त राष्ट्र संघ के एक शोध के अनुसार पहली शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक भारत 34% हिस्सेदारी के साथ विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था. मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के बाद आर्थिक विकास की दर में कमी आना स्वाभाविक था लेकिन 17वीं शताब्दी में अंग्रेजों का शासन शुरू होने के समयभी 24% हिस्सेदारी के साथ विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रहा. 27% हिस्सेदारी के साथ चीन पहले स्थान पर पहुँच गया था. लेकिन 1947 में जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी लगभग 4% रह गई. स्वतंत्रता के इन 75 वर्षों के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 2023 में 9.4% हो पाई है.

भारत में सभ्यता जैसे जैसे उन्नत हुई हिंसक संघर्ष को तिलांजलि दे दी गयी. दूसरी सभ्यताओं और देशों पर आक्रमण तो सोचा भी नहीं जा सकता था लेकिन ज्ञान विज्ञान के शिखर पर पहुँच कर हमने अपनी सभ्यता समाज और राष्ट्र की सुरक्षा का कोई पुख्ता प्रबंध भी नहीं किया. वसुधैव कुटुंबकम की यह सोच कि जब हम किसी पर आक्रमण नहीं करेंगे तो कोई हम पर आक्रामक क्यों करेगा, गलत साबित हुई.

सुरक्षा व्यवस्था पर समुचित ध्यान न होने के कारण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भारतीय सभ्यता दो बार गुलाम हुई. पहली बार कबीलाई सभ्यता के अनपढ़ जाहिल और धर्मांध जिहादियों की, और दूसरी बार आर्थिक लुटेरों की. हिंसक पशु सरीखे धर्मांध जिहादियों का उद्देश्य था दूसरे धर्म की सभ्यताओं पर आक्रमण करके उनकी धन संपत्ति महिलाओं और बच्चों को लूटना और धर्मान्तरित होने के लिए मजबूर करना. सफल न होने पर नरसंहार करना और उनके ज्ञान विज्ञान को नष्ट कर देना क्योंकि ज्ञान विज्ञान से इन जाहिलों को कोई मतलब नहीं था. आर्थिक लुटेरों का मुख्य उद्देश्य था दूसरी सभ्यताओं, नस्लों के देशों पर बलात् कब्जा करके उनकी धन संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों को लूट कर अपने देश पहुँचाना. इन आर्थिक लुटेरों के लिए धर्मांतरण महत्वपूर्ण तो था लेकिन प्राथमिकता में दूसरे क्रम पर था. भारत की गुलामी की विशेष बात यह रही कि पहली गुलामी (मुस्लिम आक्रांताओं की) खत्म भी नहीं हुई थी कि दूसरी गुलामी (अंग्रेजों की) शुरू हो गई.

15 अगस्त 1947 को मिली आजादी दूसरी गुलामी (अंग्रेजों की) से मुक्ति थी लेकिन पहली गुलामी (मुस्लिम आक्रान्ताओं की) से देश को आज तक मुक्ति नहीं मिल सकी क्योंकि इसके लिए कभी कोशिश ही नहीं की गयी, जो राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक विकास के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है और दुर्भाग्य से कुछ शक्तियां एक बार फिर से राष्ट्र को गुलाम बनाने के सुनियोजित षडयंत्र पर काम कर रही है. देश के राजनीति इन्हीं षडयंत्रकारियों के कब्जे में है. यदि ये षडयंत्रकारी अपनी योजना में सफल होते हैं, जिसकी संभावना धीरे धीरे बढ़ती जा रही है, तो राष्ट्रांतरण हो जाएगा जिससे निकलना संभव नहीं होता. ईरान, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश में अब कौन किससे आजादी मांगेगा क्योंकि इन देशों के मूल निवासियों का जबरन धर्मांतरण किया गया और जो तैयार नहीं हुए उन्हें मार डाला गया. इस तरह विश्व की कई सभ्यताओं का अंत हो चुका है.

अभी हाल में अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा हुई. इस मंदिर के लिए सनातनी पिछले 500 वर्षों से संघर्ष कर रहे थे. जब देश स्वतंत्र नहीं था, उस समय किया गया संघर्ष तो समझ में आता है लेकिन स्वतंत्रता के बाद 75 वर्षों तक देश के मूल निवासियों को अपने इष्टदेव के पूजास्थल के लिए संघर्ष करना पड़े, इससे बड़ा राष्ट्रीय शर्म का विषय और कोई नहीं हो सकता. इसके लिए सरकारे तो दोषी हैं ही, हिंदू भी कम दोषी नहीं जिन्होंने उन सरकारों को वोट दिया. मंदिर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से बना है और फैसला भी एक तरह से समझौता है जिसमें मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए अन्यत्र जमीन उपलब्ध कराई गई और धन दिया गया. इसके बावजूद अधिकांश राजनीतिक दलों ने प्राणप्रतिष्ठा का बहिष्कार किया. एआईएमआईएम जैसे सांप्रदायिक दलों ने पूरे देश में विरोध दिवस मनाया. मुस्लिम वर्ग के अनेक पत्रकारों बुद्धिजीवियों और राजनैतिक हस्तियों द्वारा भिन्न भिन्न तरीके से विरोध कर स्पष्ट रूप से कहा गया कि जब भी कभी मुस्लिम पक्ष सशक्त होगा वह मंदिर तोड़कर फिर मस्जिद तामील कर देगा. इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी ने मंदिर निर्माण का विरोध किया. वामपंथ इस्लामिक गठबंधन के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्रकारियों ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश की कि भारत में मुसलमानों के साथ ज्यादती की जा रही है. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि राम मंदिर विरोध में वही लोग हैं जो गज़वा ए हिंद में शामिल हैं. ये खतरे की घंटी है जिसे मोदी सरकार को कान खोल कर सुनना चाहिए.

धर्मान्ध जिहादी मुस्लिम आक्रांताओं ने मंदिरों को तोड़ा और उन पर मस्जिद खड़ी कर दी ताकि मंदिर के रूप में उसके उपयोग बंद हो जाए. अंग्रेजों ने मंदिरों का अधिग्रहण करके, उनके चढ़ावे को हड़पकर सनातन संस्कृति को ही तोड़ने का काम किया, जो अब तक चल रहा है. मंदिरों में आने वाले चढ़ावे से सनातन संस्कृति के अनेक सामाजिक कार्य किए जाते थे, जिनमें गुरुकुल, विज्ञान, कला, साहित्य से संबंधित शैक्षणिक केंद्र, भोजन और वस्त्र वितरण आदि अनेक पुनीत कार्य किए जाते थे. नेहरू ने मंदिर अधिग्रहण नीति को और अधिक मजबूत और विकेन्द्रीकृत कर दिया. स्वतंत्रता के इन 75 वर्षों के बाद भी आज विश्व की अनमोल धरोहर के रूप में विख्यात ये मंदिर सरकारी नियंत्रण में है. उनके चढ़ावे को सरकार न केवल हड़प रही है बल्कि उन का उपयोग दूसरे धर्मों पर कर रही हैं. केंद्र की कोई भी सरकार न केवल एक कानून बना कर सारे मंदिरों को नियंत्रण से मुक्त कर सकती हैं बल्कि सरकारी नियंत्रण की तिथि से उनके चढ़ावे की राशि को मय ब्याज वापस करने का कानून भी बना सकती हैं लेकिन दुर्भाग्य से मोदी सरकार इसे 10 वर्षों के शासनकाल में नहीं कर सकी.

दुनिया के किसी भी देश में ऐसा नहीं हो रहा है कि देश की 20 प्रतिशत जनसँख्या वाले समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त हो और उन पर अरबों रुपया खर्च किया जा रहा हो लेकिन धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के बाद भी भारत में स्वतंत्रता के बाद से ही लगातार ऐसा किया जा रहा है. इन कथित अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान खोलने और उसमें कुछ भी पढ़ाने का अधिकार प्राप्त है. देवबंद जैसे मदरसा, जो तालिबान जैसे खतरनाक आतंकी संगठन का आदर्श है, में राष्ट्रविरोधी और हिंदू विरोधी पाठ्यक्रम पढ़ाया जा रहे हैं. देश के लाखों मदरसों में भी ऐसी राष्ट्रविरोधी जिहादी शिक्षा दी जा रही है. विडंबना देखिये कि इन मदरसों को केंद्र और राज्य सरकारें वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं, मदरसा बोर्ड की स्थापना करती है, छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करती है और सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए मुफ्त कोचिंग सुविधा भी प्रदान करती है.

दुनिया का इतिहास इस बात प्रमाण है कि गुलामी से मुक्ति पाने वाले सभी देशों ने स्वतंत्रता के पहले दिन से ही गुलामी के अवशेषों, स्मृतियों, और स्मारकों को हटाने का काम किया, जिससे राष्ट्र में स्वतंत्रता की चेतना का नव संचार हुआ और उस राष्ट्र ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर अपने बलबूते अपने लिए सफलता का अप्रतिम अध्याय लिखा. भारत के साथ ही स्वाधीन हुए ऐसे कई देश है जो आर्थिक दृष्टि से भारत से 50 से 100 वर्ष तक आगे निकल चुके है और हम अभी देश के विभाजन के पूर्व पैदा की गयी सांप्रदायिक परस्थितियों से दो चार हो रहे हैं और धर्म निरपेक्षता के छलावे में सनातन राष्ट्र की आहुति देने को आतुर हैं .

आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से अपने आप को मजबूत करें बल्कि राष्ट्र के रूप में अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए पुख्ता इंतजाम भी करें अन्यथा ऐसी आर्थिक महाशक्ति किस काम की जो अपनी प्राचीन संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरो की रक्षा भी ना कर सके और जाने अनजाने में राष्ट्रांतरण के महापाप में भी भागीदार बने.

~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~



शनिवार, 20 जनवरी 2024

राम मंदिर में नेहरु का योगदान

 

ये बात बिलकुल सत्य है कि कांग्रेस का बहुत योगदान है क्योंकि अगर कांग्रेस न होती तो राम मंदिर के लिए आजादी के बाद संघर्ष की जरूरत ही नहीं पड़ती.

कांग्रेस ये तब कह रही है जब अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री द्वारा प्राण प्रतिष्ठा के लिए पूरी तरह से तैयार हो रहा है. पूरे विश्व की निगाहें अयोध्या की तरफ लगी हैं.पूरा देश राममय है, हर जगह राम की चर्चा है इसके बीच में एक वर्ग ऐसा भी है जो राम मंदिर बनने और प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन से खुश नहीं है, कुछ सांप्रदायिकता के कारण, तो कुछ तुष्टिकरण के कारण. आयोजन का सबसे मुखर विरोध कांग्रेस कर रही है. इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं क्योंकि यह गाँधी नेहरु परिवार का प्राकृतिक गुण हैं. उनका विरोध कुछ कुछ नेहरू जैसा है, जो अपने नाम के आगे पंडित लगाने के बाद भी घोर हिंदू विरोधी थे और जीवन पर्यंत सनातन धर्म और संस्कृति को नष्ट करने का कार्य करते रहे. नेहरु का रुख हिन्दुओं के प्रति कैसा था, अयोध्या मामले पर उनके पत्रों से समझा जा सकता है, जो नेहरु वांग्मय में दिए गए हैं.

22/23 दिसंबर 1949 के मध्य की रात्रि राम जन्मस्थान पर रामलला के प्रकट होने की घटना से नेहरू बहुत नाराज थे. उनकी प्रतिक्रिया वैसी थी जैसे किसी इस्लामिक राष्ट्र में गैर इस्लामिक कार्य हो गया हो. धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के बाद हिंदुओं के इस देश में आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट किए गए या कब्जा किए गए धार्मिक स्थलों के लिए कानून बनाकर न केवल उनकी पूर्व स्थिति बहाल की जा सकती थी बल्कि राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना की जा सकती थी. वह मुस्लिम तुष्टीकरण की बैसाखी से देश पर राज करने के बजाय 80% जनसंख्या के दिलों पर राज़ कर सकते थे, लेकिन नेहरू ने मुस्लिम तुष्टीकरण का रास्ता क्यों चुना, ये कोई नहीं जानता ! या बताना नहीं चाहता ! रामलला के प्रकट होने का समाचार सुनकर दूर दराज के लोग सीधे अयोध्या चले आ रहे थे और हजारों लोगों का जमावड़ा लग गया. जिला प्रशासन के लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखने की बड़ी चुनौती थी. जिला कांग्रेस अध्यक्ष अक्षय ब्रह्मचारी के नेतृत्व में स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता धरना प्रदर्शन और आमरण अनशन कर जिला प्रशासन पर मूर्तियां हटाने का दबाव बना रहे थे.

नेहरू ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पंत से बात की और तुरंत मूर्तियां हटवाने का निर्देश दिया. ठोस कार्रवाई होती न देख नेहरू ने सीधे फैज़ाबाद के जिलाधिकारी केकेके नायर से फ़ोन पर बात करके तुरंत गर्भगृह से मूर्तियां हटवाने और 22 दिसंबर 1949 से पहले के स्थिति बहाल करने का निर्देश दिया. जिलाधिकारी नायर ने बताया कि जन्मभूमि पर हजारों की संख्या में लोगों का जमावड़ा है ऐसे में मूर्तियाँ हटाना बहुत मुश्किल है. मुख्यमंत्री पंत ने भी ऐसा करने के लिए कहा. बढ़ते राजनीतिक दबाव का मुकाबला करने के लिए जिलाधिकारी ने 25 दिसंबर 1949 को ज़ाब्ता फौजदारी की धारा 145 के अंतर्गत जन्मभूमि परिसर को कुर्क कर लिया और फैज़ाबाद नगर पालिका के तत्कालीन अध्यक्ष बाबू प्रियादत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर दिया और उन्हें रामलला की विधिवत पूजा अर्चना का उत्तरदायित्व भी सौंपा. उन्होंने पूजा अर्चना की जो विधि अपनाई वहीं आज तक चली आ रही है. गुस्से में आगबबूला नेहरू ने गोविंद बल्लभ पंत से फ़ोन पर लंबी बात की. पंत ने नेहरू को समझाया कि स्थितियां बहुत खराब हैं. मूर्तियां हटाने का प्रयत्न किया गया तो भीड़ नियंत्रित करना कठिन होगा.

क्रोधित नेहरू ने 29 दिसंबर 1949 को पंत को एक टेलीग्राम भेजा

‘‘मैं अयोध्या के घटनाक्रम से चिंतित हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि आप जल्दी से जल्दी इस मामले में खुद दखल देंगे.वहां खतरनाक उदाहरण पेश किए जा रहे हैं. जिनके बुरे परिणाम होंगे.’’

मुख्यमंत्री पंत ने प्रदेश के मुख्य सचिव के माध्यम से जिलाधिकारी को लिखित आदेश दिया कि मूर्तियों को तुरंत गर्भगृह से बाहर रख दिया जाए और इसके लिए जितना भी बल प्रयोग करना पड़े करें. जिलाधिकारी ने बल प्रयोग करने से साफ इनकार करते हुए कहा कि ऐसा करने से जनाक्रोश होगा और बड़ी संख्या में लोग हताहत हो जाएंगे जो प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से बिल्कुल भी उचित नहीं होगा.

7 जनवरी 1950 को नेहरू ने गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को पत्र लिखा

‘‘मैंने पिछली रात पंत जी को अयोध्या के बारे में लिखा और यह पत्र एक आदमी के हाथ से लखनऊ भेजा. बाद में पंडित जी ने मुझे फोन किया. उन्होंने कहा कि वह बहुत चिंतित हैं और वह खुद इस मामले को देख रहे हैं. वह कार्यवाही करना चाहते हैं, लेकिन वह चाहते थे कि कोई प्रतिष्ठित हिंदू पूरे मामले को अयोध्या के लोगों को समझा दे. मैंने उनको आपके पत्र के बारे में बता दिया, जो आपने मुझे सुबह भेजा है.”

इसके बाद राम जन्मभूमि के मामले में 16 जनवरी 1950 को फैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में मुकदमा दायर हो गया और मामला न्यायिक विचाराधीन हो गया.

5 फरवरी 1950 को नेहरू ने फिर पंत को पत्र लिखा:

‘‘मुझे बहुत खुशी होगी, अगर आप मुझे अयोध्या के हालात के बारे में सूचना देते रहें. आप जानते ही हैं कि इस मामले से पूरे भारत और खासकर कश्मीर में जो असर पैदा होगा, उसको लेकर मैं बहुत चिंतित हूं. मैंने आपको सुझाव दिया था कि अगर जरूरत पड़े तो मैं अयोध्या चला जाऊंगा. अगर आपको लगता है कि मुझे जाना चाहिए तो मैं तारीख तय करूं. हालांकि मैं बुरी तरह व्यस्त हूं.’’

पंतजी ने 9 फरवरी 1950 को जवाब दिया कि अयोध्या के हालात में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं है. अगर समय उपयुक्त होता तो मैंने खुद ही आपसे अयोध्या आने का आग्रह किया होता.’’

5 मार्च 1950 को नेहरू ने हरिजन पत्रिका के संपादक केजी मशरूवाला को पत्र लिखा:

“मेरे प्यारे किशोरी भाई, 4 मार्च के आपके पत्र के लिए धन्यवाद. .....आपने अयोध्या की मस्जिद का जिक्र किया. यह वाकया दो या तीन महीने पहले हुआ और मैं इसको लेकर बहुत बुरी तरह चिंतित हूं. संयुक्त प्रांत सरकार ने इस मामले में बड़े-बड़े दावे किए, लेकिन असल में किया बहुत कम. फैजाबाद के जिला अधिकारी ने दुर्व्यवहार किया और इस घटना को होने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. यह सही नहीं है कि बाबा राघवदास ने यह शुरू किया, लेकिन यह सच है कि यह सब होने के बाद उन्होंने इसे अपनी सहमति दे दी. यूपी में कई कांग्रेसियों और पंत ने इस घटना की कई मौकों पर निंदा की, लेकिन वह कोई फैसलाकुन कार्रवाई करने से बचते रहे. संभवत: वह ऐसा बड़े पैमाने पर दंगे फैलने के डर से कर रहे हैं. मैं इससे बुरी तरह अशांत हूं. मैंने बार-बार पंडित जी का ध्यान इस तरफ खींचा है. मैं इस बारे में बिल्कुल आश्वस्त हूं कि अगर हमने अपनी तरफ से उचित व्यवहार किया होता तो पाकिस्तान से निपटना आसान हो गया होता. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो आज बहुत से कांग्रेसी भी सांप्रदायिक हो गए हैं और इसकी प्रतिक्रिया भारत में मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार में दिखती है.”

नेहरू ने एक और पत्र 5 मार्च 1950 को पंत को लिखा जिसे फैज़ाबाद जिला प्रशासन को भेजा गया जिसमें उन्होंने गर्भगृह से मूर्तियां तुरंत हटाने का आदेश दिया था. जिलाधिकारी नायर ने सीधे प्रधानमंत्री से मिले निर्देशों पर कार्य करने में असमर्थता व्यक्त की. मुख्य सचिव को भेजे पत्र में नायर ने लिखा कि अगर सरकार किसी भी कीमत पर मूर्तियां हटाने का फैसला करती है तो उससे पहले उन्हें पद से हटा दिया जाए क्योंकि मूर्तियां हटाने के लिए बल प्रयोग करने के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें जा सकती हैं. इस पृष्ठभूमि में नेहरू ने पंत को एक और पत्र भेजा जिसमें उन्होंने लिखा, जिलाधिकारी आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं. वे अयोध्या जाने के लिए तैयार हैं, लेकिन मुख्यमंत्री पंत, जो स्वयं रामभक्तों के आक्रोश के कारण अयोध्या नहीं जा सके थे, ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया क्योंकि इससे कानून और व्यवस्था की स्थिति और बिगड़ जाने का खतरा था.

17 अप्रैल 1950 नेहरू ने फिर पंत को पत्र लिखा

यूपी में हाल ही में हुई घटनाओं ने मुझे बुरी तरह दुखी किया है. मैं लंबे समय से महसूस कर रहा हूं कि सांप्रदायिकता के लिहाज से यूपी का माहौल बुरी तरह बिगड़ता जा रहा है. मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ और होटल के मामले में फैजाबाद में जो हुआ, वह बहुत बुरा है. लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी सी हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं. मुझे जो रिपोर्ट मिल रही हैं वह बताती हैं कि भले ही कोई बड़ी घटना न हो रही हो, लेकिन सामान्य माहौल वहां के असली हालात को बताता है. एक दिन एक मुसलमान एक शहर में सड़क पर चला जा रहा था, उसको तमाचा मारा गया और कहा गया कि पाकिस्तान चले जाओ या फिर उसको थप्पड़ मारा जाता है या उसकी दाढ़ी खींची जाती है. गलियों में मुसलमान औरतों पर भद्दी टिप्पणियां की जा रही हैं और उन पर ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसे फिकरे कसे जा रहे हैं. हो सकता है कि यह काम कुछ ही लोग कर रहे हों, लेकिन यह बात तो है ही कि हमने एक ऐसे वातावरण का फैलना बर्दाश्त किया, जिसमें इस तरह की चीजें हो रही हैं.”

18 मई 1950 को नेहरू ने बिधान चंद्र रॉय को पत्र लिखा:

16 मई के आपके पत्र के लिए धन्यवाद. .....”अयोध्या में बाबर द्वारा बनाई गई एक पुरानी मस्जिद पर वहां के पंडा और सनातनी लोगों के नेतृत्व वाली भीड़ ने कब्जा कर लिया. मैं बड़े दुख के साथ कहता हूं कि यूपी सरकार ने हालात से निपटने में बहुत कमजोरी दिखाई. आपने गौर किया होगा कि यूपी से बड़े पैमाने पर मुसलमानों का पलायन हुआ है. यूपी, दिल्ली और राजस्थान के कुछ हिस्सों से तकरीबन एक लाख मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान गए हैं. यूपी में घटनाओं की शक्ल में ज्यादा कुछ नहीं हुआ, जो कुछ हुआ वह मार्च में होली के दौरान हुआ. लेकिन इसके बावजूद पलायन हो रहा है और इस बात में कोई शक नहीं है कि यूपी के कई जिलों में मुसलमानों पर जबरदस्त दबाव है और उनके मन में असुरक्षा की भावना बैठ गई है. इससे कोई भी समझ सकता है कि पूर्वी बंगाल के हिंदुओं पर कितना दबाव बढ़ गया होगा.’’

9 जुलाई 1950 को नेहरू ने प्रदेश के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को पत्र लिखा

“अक्षय ब्रह्मचारी (फैजाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष) ने अयोध्या में जो हुआ विस्तार से मुझे बताया. जैसा कि आप जानते हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का मामला हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है. यह ऐसा मुद्दा है जो हमारी संपूर्ण नीति और प्रतिष्ठा पर गहराई से बुरा असर डाल रहा है, लेकिन इसके अलावा मुझे ऐसा लगता है कि अयोध्या में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. इस बात का पूरा अंदेशा है कि इस तरह की समस्याएं मथुरा और दूसरे स्थानों पर फैल जाएंगी. मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही है कि हमारा कांग्रेस संगठन इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा है और राघवदास और विशंभर दयाल त्रिपाठी जैसे कई कद्दावर कांग्रेसी नेता उस तरह का प्रोपोगंडा चला रहे हैं, जिसे हम सिर्फ सांप्रदायिक कह सकते हैं और जो कांग्रेस की नीति के खिलाफ है. मुझे बताया गया कि अयोध्या में मुसलमानों को दफनाया जाना तकरीबन नामुमकिन हो गया है. अहमद अली नाम के किसी व्यक्ति की पत्नी का मामला मेरे सामने आया है, इसमें बताया गया कि किस तरह मैयत को एक कब्रिस्तान से दूसरे कब्रिस्तान ले जाना पड़ा और अंततः दफनाने के लिए शव को अयोध्या से बाहर भेजना पड़ा. बड़ी संख्या में मुसलमानों की कब्र खोदी गई हैं. मुझे डर है कि हम फिर किसी तबाही की तरफ बढ़ रहे हैं”

आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरु का कितना बडा योगदान है. उनकी चलती तो वहां पांच वक्त की अजान बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दी जा रही होती और राम मंदिर होता या नहीं होता कहा नहीं जा सकता और अगर होता भी तो कहाँ होता कुछ पता नहीं.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से राम मंदिर का मामला तो सुलझ गया लेकिन नेहरू की मुस्लिम तुष्टीकरण ने हिंदुस्तान को जैसा उलझाया है उससे निकलना आसान नहीं.

( नेहरु के सभी पत्र नेहरु वांग्मय से उद्धृत किये गए हैं)

~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~

सोमवार, 15 जनवरी 2024

हम भूले नहीं क्योंकि याद ही नहीं था

 हम भूले नहीं  क्योंकि याद ही नहीं था 


ये ऐसा विषय है जिसे हर भारतीय को और कम से कम हर हिन्दू को अवश्य जानना चाहिये. ये सन्दर्भ भी बहुत विशाल है और संक्षेप में भी बताया जाय तो कई खंड और सोपान में बताना पडेगा . पिछले कुछ दिनों से मैंने इस पर लेख लिखे है जिसमें से एक लेख है जिसमें संक्षेप में कुछ प्रमुख नायको का वर्णन है. जिन्हें हम भूले नहीं हैं, क्योंकि हमें याद हे नहीं थे


अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया है और 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी प्राण प्रतिष्ठा के अंतिम आयोजन के बाद श्रद्धालुओं के लिए खुल जाएगा. ऐसे में जब सभी श्रद्धालुओं में हर्षोल्लास हैं और अपने जीवन काल में राम मंदिर बन जाने संतोष भी है, यह जानना उपयुक्त होगा कि मंदिर निर्माण के संघर्ष में लाखों लोगों ने योगदान दिया और अपने जीवन का उत्सर्ग किया. स्वतंत्रता के बाद स्वाभाविक अपेक्षा थी कि उन सभी पूजा स्थलों का, जिन्हें धर्मांध जिहादी आक्रांताओं ने इस्लाम का प्रसार करने और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए ध्वस्त किया था, मूल स्वरूप वापस आ जाएगा लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका क्योंकि स्वतंत्रता मिलने के पहले ही राजनैतिक नेतृत्व ने मुस्लिम तुष्टिकरण का अजेंडा थाम लिया था. इसलिए राममंदिर का निर्माण सरकार के राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना के प्रयास के कारण नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण हो रहा है. ऐसे में उन कम ज्ञात नायकों का स्मरण आवश्यक है, जिनके सहयोग के कारण ही न्यायालय का फैसला संभव हो सका, भले ही यह स्वतंत्रता के 72 साल बाद हो सका.

इनमें एक बड़ा नाम है कदंगालाथिल करुनाकरन नायर या केकेके नायर का जो रामजन्मभूमि में रामलला के प्रकट होने के समय फैज़ाबाद के डिप्टी कमिश्नर और जिलाधिकारी थे. केरल में जन्मे, पले-बढ़े नायर 1930 बैच के आईसीएस अधिकारी थे. 22 और 23 दिसंबर 1949 के मध्य की रात में जन्मभूमि के विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद और गर्भ गृह रामलला के प्रकट होने की चमत्कारी घटना हुई. इस विवादित स्थल की पहरेदारी पुलिस का एक मुस्लिम सिपाही कर रहा था, जिसने बयान दिया था कि उसने रात में गुंबद के नीचे अद्भुत अलौकिक प्रकाश देखा और उसकी आंखें चौंधिया गयीं. जब प्रकाश की तीव्रता कम हुई ओर वह सामान्य हुआ तो उसने देखा कि गुंबद के नीचे भगवान राम की मूर्ति अपने तीनो भाइयों सहित विराजमान है. रामलला के प्रकट होने की यह सूचना जंगल में आग की तरह फैल गई और सुबह तक हजारों रामभक्तों और श्रद्धालुओं का तांता लग गया. मुसलमानों की तरफ से तो कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, लेकिन कांग्रेस परेशान हो गई. इसलिए जो भी प्रतिक्रिया हुई वह कांग्रेस की तरफ से ही हुई. जिला कांग्रेस कमेटी के महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी, जो नेहरू के बेहद करीबी थे, ने आसमान सिर पर उठा लिया और अपने समर्थकों के साथ जिला प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए गदर काट दी. उन्होंने तुरंत प्रधानमंत्री नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को सूचित किया. यद्यपि फैज़ाबाद के तत्कालीन विधायक बाबा राघवदास ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया और प्रशासन से भी अपील की कि वह किसी के दबाव में न आए और नियमानुसार कार्य करें.

सरकार के दबाव में फैज़ाबाद थाना प्रभारी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाई कि 50-60 आदमियों ने रात में बातचीत में दाखिल होकर भगवान की मूर्ति स्थापित कर दी है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ अक्षय ब्रह्मचारी का धरना प्रदर्शन और आमरण अनशन शुरू हो गया. राम जन्मस्थान पर हजारों लोगों की भीड़ थी और जमावड़ा बढ़ता चला जा रहा था. नेहरू के निर्देश पर राज्य सरकार ने मुख्य सचिव भगवान सहाय के माध्यम से फैज़ाबाद के जिलाधिकारी नायर को लिखित आदेश दिया कि वह राम जन्मभूमि की 22 दिसंबर 1949 से पहले की स्थिति बहाल करे और मूर्तियों को तत्काल हटवा दें. इसके लिए जितना भी बल प्रयोग करना पड़ेगा करें. नायर ने राज्य सरकार को पत्र द्वारा सूचित किया कि बल प्रयोग करने से कानून व्यवस्था को भारी नुकसान पहुँच सकता है और जनहानि भी हो सकती है. चूंकि मूर्ति गर्भगृह में स्थापित हो चुकी है इसलिए अगर उसको विस्थापित करना है तो वैदिक रीति से ही करना पड़ेगा जिसके लिए अयोध्या का कोई भी पंडित-पुजारी तैयार नहीं होगा. इस बीच 25 दिसंबर 1949 को जिला प्रशासन ने राम जन्मभूमि के समूचे परिसर को कुर्क कर लिया और उसके लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया जिसको गर्भगृह में प्रकट हुए रामलला की पूजा अर्चना का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया. उस समय शुरू की गयी पूजा अर्चना आज तक चलती आ रही है जिसे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय भी स्थगित नहीं कर सका.

नेहरू ने स्वयं के नायर से फ़ोन पर बात की और तुरंत मूर्तियां हटाने का निर्देश दिया और इस संबंध में एक पत्र भी विशेष दूत द्वारा भिजवाया. नायर ने राज्य सरकार को पत्र भेज दिया कि वर्तमान परिस्थितियों में जन्मस्थान से मूर्तियां हटाना संभव नहीं है. अगर सरकार ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उन्हें स्थानांतरित कर दिया जाए और किसी अन्य व्यक्ति को जिलाधिकारी नियुक्त करके ये कार्य करवा लिया जाए. उन्होंने मुख्यमंत्री से बात करके इतना जरूर करवाया कि जहाँ रामलला की मूर्ति विराजमान थी, उस हिस्से को लोहे की ग्रिल लगाकर अलग कर दिया और उसके दरवाजे पर ताला लगा दिया गया. केवल पुजारी ही पूजा अर्चना के लिए अंदर जा सकते थे. श्रद्धालु केवल दूर से ही दर्शन कर सकते थे. नेहरू आग बबूला हो गए. उन्होंने पूरे घटनाक्रम के लिए जिलाधिकारी को जिम्मेदार ठहराया. सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया लेकिन न्यायलय ने उन्हें बहाल कर दिया गया. नायक के रूप में उभरे नायर ने आइसीएस से त्याग पत्र दे दिया और राम मंदिर निर्माण के लिए अपने आप को समर्पित करते हुए अयोध्या में बस गए. बाद में वह लोकसभा के सदस्य और उनकी पत्नी विधानसभा और लोक सभा की सदस्य चुनी गईं.

रामलला प्राकट्य घटना के समय बाबा राघवदास स्थानीय विधायक थे. वैसे तो उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था लेकिन कर्मभूमि देवरिया थी. शिक्षा और समाजसेवा से जुड़े बाबा राघवदास गाँधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने. वह अनेक संस्कृत कॉलेज, गुरुकुल, कुष्ठाश्रम और सामाजिक सेवा संस्थान चलाते थे. बरहज में उनका आश्रम रामप्रसाद बिस्मिल सहित अन्य क्रांतिकारियों का अड्डा था. नेहरू आचार्य नरेंद्रदेव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन कांग्रेस के अंदर मतभेदों के चलते नरेंद्रदेव ने अपने 11 साथियों के साथ कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. गोविन्द वल्लभ पंथ मुख्यमंत्री बने और उपचुनाव में उन्होंने नरेंद्र देव को हराने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि वाले बाबा राघव दास को फैज़ाबाद से कांग्रेस प्रत्याशी बनाया. बाबा राघव दास ने राम मंदिर निर्माण के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का राजी कर लिया था. कांग्रेस ने इस चुनाव में जमकर राम नाम का इस्तेमाल किया किंतु चुनाव जीतने के बाद राम मंदिर निर्माण की दिशा में बाबा राघवदास बात एक नहीं सुनी जिससे वह काफी व्यथित थे.

अयोध्या पर लिखी गई कुछ पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है कि 22 दिसंबर 1949 की रात सरयू में पांच लोग स्नान कर रहे थे, बाबा राघवदास, गोरक्षपीठाधीश्वर दिग्विजय नाथ, गीताप्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार, महंत अभिराम दास और महंत रामचन्द्र परमहंस और लगभग उसी समय राम जन्मभूमि परिसर से घंटा घड़ियाल और शंख ध्वनि के साथ ‘भय प्रकट कृपाला दीन दयाला’ आवाज़ सुनाई पड़ने लगी और मालूम हुआ कि रामलला प्रकट हुए हैं. इसके बाद बाबा राघव दास ने राम चबूतरे पर रामलला की बरही का आयोजन किया और उसमें अत्यंत मार्मिक भाषण दिया. अपने भाषण में राम चबूतरा पर एक लाख पच्चीस हजार मानस के अखंड पाठ करने की घोषणा की, मानस के एक अखंड पाठ में 24 घंटे का समय लगता है,जिससे सरकार हिल गयी.

एक अन्य अधिकारी हुए हैं फैजाबाद के जिला न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडे जिनका निर्णय राम मंदिर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ. 26 दिसम्बर 1949 में लोहे की जालीदार ग्रिल लगाकर दरवाजे पर ताला डाल दिया गया था ताकि श्रद्धालु बाहर से दर्शन करें. केवल पुजारी ही अन्दर जा सकते थे. श्रद्धालु तभी से ताला खुलवाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. इस संबंध में एक याचिका जिला न्यायाधीश की अदालत में लंबित थी. न्यायाधीश पांडे ने फैसला देने से पहले मामले का बहुत अध्ययन किया. फैसला देने से पहले उन्होंने फैज़ाबाद के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को बुलाकर फैसले के बाद कानून और व्यवस्था को स्थिति पर चर्चा की. उनके लिखित आश्वासन के बाद 1 फरवरी 1986 को न्यायाधीश पांडे ने राम जन्मभूमि का ताला खोलने का ऐतिहासिक आदेश दिया. इस तरह श्रद्धालुओं को गर्भगृह के अंदर जाकर पूजा अर्चना करने की अनुमति मिल गई. न्यायाधीश पांडे को जैसी आशंका थी, उन्हें धमकियां मिलने लगीं, मेडिकल छात्रा उनकी बेटी को परेशान किया गया. मुख्य मंत्री रहते मुलायम सिंह यादव ने व्यक्तिगत टिप्पणी लगाकर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने की उनकी प्रोन्नत्ति रोक दी. बाद में उच्च न्यायालय के एक निर्णय के बाद ही उन्हें प्रोन्नति मिल सकी.

ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो सका. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मंदिर का निर्माण आजादी के 75 साल बाद इतने विलम्ब से होने का मुख्य कारण कुछ राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला मुस्लिम तुष्टीकरण है, तो कुछ राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति और साहस की कमी. हिंदू और सनातन धर्म का पुनरोत्थान प्रारंभ हो चुका है लेकिन धार्मिक अपमान की मानसिक पीड़ा के जिस दौर से पूरा समाज गुजरा है और उससे सनातन संस्कृति का जितना नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई बहुत मुश्किल है. आगे ऐसा न हो इसके लिए तुष्टिकरण में लगे दलों को सबक सिखाया जाना आवश्यक है.

~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~

श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...