शुक्रवार, 29 जुलाई 2022
रंजन विहीन अधीर कांग्रेस - स्वत: समाप्ति की ओर
संवेदनाहीन कांग्रेस का बौद्धिक क्षरण
लंबे समय
से कांग्रेस परिवारवाद की गंभीर बीमारी का शिकार तो है लेकिन अनुशासनहीनता, पलायन,
जड़ता के बाद अब मूढ़ता ने भी कांग्रेस को घेर रखा है. 1885 में एक अंग्रेज ए ओ
ह्यूम द्वारा कांग्रेस का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि इससे भारत
में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए वार्ता करने हेतु एक माध्यम उपलब्ध कराए जा सकेगा और
स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अंग्रेजी शासन के विरोध की धार को भी कुंद किया जा
सके और आंदोलनों के फलस्वरूप सार्वजनिक संपत्तियों को होने वाले नुकसान को रोका जा
सकेगा. शुरुआती दौर में कांग्रेस अंग्रेजों के हाथ का खिलौना थी लेकिन जैसे जैसे
इसमें राष्ट्रवादी नेताओं का जुड़ाव होता गया स्वतंत्रता आंदोलन की धार दिन प्रति
दिन और तेज होती गई.
अंग्रेजों
ने बहुत चतुराई से दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी को स्पीड ब्रेकर के रूप में भारत
बुला लिया. भारत आकर उन्होंने अंग्रेजी सरकार और आंदोलनों के बीच समन्वय बनाना
शुरू कर दिया और धीरे धीरे वह कांग्रेस के निर्विवाद नेता बन गए. कांग्रेस पर एक
तरह से उनका पूरा पूरा आधिपत्य हो गया. उन्होंने कांग्रेस को जैसा चाहा वैसा चलाया
और हमेशा अंग्रेजी सरकार से टकराव का रास्ता टालने का काम किया जो अंग्रेजी सरकार का
उद्देश्य था. इसीलिए कांग्रेस बनने के बाद भी 60 वर्ष तक अंग्रेजी शासन बड़े आराम
से भारत में बना रहा लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब अंग्रेजों को सुभाष चंद
बोस, तथा अन्य क्रांतिकारियों के दबाव तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलती
परिस्थितियों और ब्रिटेन के लिए भारत की सत्ता गैर लाभकारी हो जाने के कारण भारत छोड़ना
पड़ा तो गांधीजी ने कांग्रेस को समाप्त कर देने का प्रस्ताव दिया था. इसका कुछ भी
अर्थ लगाया जा सकता है एक तो अंग्रेजों का
भारत से शासन खत्म हो गया था, इसलिए कांग्रेस का बने रहना अंग्रेजों की आवश्यकता
नहीं थी और दूसरा चूंकि भारत को
स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी थी इसलिए भी कांग्रेस के गठन का उद्देश्य पूरा हो गया
था, इसलिए भी कांग्रेस का समाप्त हो जाना
उचित था.
स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद भी नेहरू ने कांग्रेस को
खत्म नहीं होने दिया और गांधी के निधन के
बाद कांग्रेस पूरी तरह से उनके कब्जे में आ गई थी. तब से लेकर आज तक कांग्रेस पर
नेहरू परिवार का वर्चस्व कायम है. नेहरू की नीतियों के कारण कई बड़े नेता कांग्रेस
छोड़ने लगे थे और ये सिलसिला इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में और बढ़ गया.
यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इंदिरा गाँधी स्वयं कांग्रेस के विभाजन का कारण बनी और उन्होंने विभाजित
कांग्रेस के एक धड़े पर अपना साम्राज्य खड़ा किया. जिसके बाद उनके कब्जे वाली
कांग्रेस पूरी तरह से परिवारवादी पार्टी बन गई.
1975
में आपातकाल लगाने और उसकी ज्यादतियों के विरोध में जनता का गुस्सा चरम पर था और
इसे भांपते हुए कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी थी. ये सिलसिला राजीव
गाँधी के शासनकाल में भी चलता रहा जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में कई बड़े
नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी. कांग्रेस ने 1991 में पीवी नरसिंहा राव और 2004 में
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाई लेकिन दोनों ही बार सरकार जाने
के बाद कई नेताओं ने पार्टी छोड़ी. 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से कांग्रेस से पलायन
का सिलसिला और तेज हो गया जो अब तक जारी है. ऐसा लगता है कि अब कांग्रेस में वही
नेता बचे हैं जिनका कोई विशेष जनाधार नहीं है और जिन्हें गाँधी परिवार से अलग होकर
अपना कोई भविष्य दिखाई नहीं देता. वैसे तो कांग्रेस में कभी भी गाँधी परिवार के कट्टर
समर्थकों की कमी नहीं रही लेकिन इंदिरागांधी के उदय के बाद से लेकर अब तक गाँधी
परिवार के अति विश्वासपात्र ही सत्ता संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं.
कांग्रेस
में होते रहे इस तरह के पलायन से न केवल प्रखर और तेजस्वी नेता कांग्रेस से निकलते
चले गए बल्कि समाज के बौद्धिक वर्ग का जुड़ाव भी कांग्रेस से धीरे धीरे कम होता चला
गया. गाँधी परिवार के नेताओं में भी क्रमिक रूप से बुद्धि, विवेक और राजनीतिक
सूझबूझ की कमी होती चली गयी. सोनिया गाँधी का विदेशी मूल का होना उनके विरुद्ध
जाता है और लगभग 54 साल पहले किसी भारतीय से विवाह करने के बाद भी आज तक ठीक से
हिंदी न बोल पाना भी उनके जनता से जुड़ाव न हो पाने का एक प्रमुख कारण हैं. उनके
बाद कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गाँधी भी अब तक भारत की राजनीति में कोई छाप
नहीं छोड़ सके हैं. अक्सर अपनी अविवेकपूर्ण टिप्पणियों से अपनी और कांग्रेस की जगहंसाई कराते हैं. वह अपने गैर जिम्मेदार वक्तव्यों से अक्सर जनता के
कोपभाजन का शिकार भी बनते हैं. 50 वर्ष की उम्र पार करने के बाद भी उनमें राजनैतिक
परिपक्वता, सूझबूझ और सुलझे हुए नेता के
लक्षण दूर दूर तक नजर नहीं आते.
राहुल
के बाद ट्रम्प कार्ड के तौर पर प्रियंका वॉड्रा पर दांव लगाना भी कांग्रेस के लिए
फायदे का सौदा नहीं हुआ क्योंकि उनकी राजनीति में आने से पहले ही उनके पति रॉबर्ट
वाड्रा अपनी कारगुजारियों से देश में कुख्यात हो चुके थे जिसका भूत कभी प्रियंका
वाड्रा का साथ नहीं छोड़ता. उत्तर प्रदेश में २०१७ और २०२२ में हुए विधान सभा चुनाव
और २०१९ के लोकसभा चुनाव की कमान संभालने
के बाद भी वह प्रदेश में पार्टी का जनाधार भी नहीं बचा सकी. उत्तर प्रदेश से
पार्टी का केवल एक लोकसभा सांसद हैं और वे स्वयं सोनिया गाँधी है, विधानसभा में
पार्टी के केवल दो विधायक हैं और विधान परिषद से पार्टी का सफाया हो चुका है. पार्टी
की आशा के विपरीत उन्होंने प्रदेश में जो कुछ भी किया वह काम कम कारनामे ज्यादा है.
कांग्रेस ने तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पार करने के बाद हिंदुत्व का चोला ओढ़ने की
कोशिश जरूर की और राहुल और प्रियंका खूब मंदिर परिक्रमा करते रहे और अपना गोत्र
बताते रहे लेकिन स्थिति हास्यास्पद होती गयी.
चापलूसो,चाटुकारों
और पारिवारिक निष्ठावान नेताओं पर भरोसा करने वाले गाँधी परिवार ने पार्टी के
बुद्धिमान और तेजस्वी नेताओं की हमेशा से ही उपेक्षा की और देश की राजनीति के
बदलते समीकरणों में ऐसे सभी नेता एक एक करके पार्टी छोड़ते चले जा रहे हैं. शायद अब
केवल ऐसे ही लोग बचे हैं जिन्हें अभी कहीं और ठिकाना नजर नहीं आता. कांग्रेस को
अभी भी इस सबसे कोई चिंता नहीं है और अभी भी अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे नेताओं को ही बैठाया
जा रहा है जो केवल परिवार के प्रति निष्ठावान है.
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी भी इसी श्रेणी के नेता है जो कांग्रेस की प्रतिष्ठा केवल सदन में ही नहीं बल्कि समूचे देश में जनता की नजरों में गिराने का काम बड़ी मेहनत, सिद्दत और निष्ठा से करते चले आ रहे हैं. उन्होंने धारा 370 हटाने का विरोध करते हुए कहा था कि जब मामला संयुक्त राष्ट्र में विचाराधीन है तो इसे कैसे हटाया जा सकता है. उन्होंने यह भी कहा था कि पाकिस्तान को विश्वास में लिए बिना यह काम करना देश हित में नहीं है. उन्होंने लद्दाख और जम्मू कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाने का भी विरोध किया था. नया मामला यह है कि अधीर रंजन चौधरी ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपत्नी कहकर संबोधित किया. उन्होंने पहले राष्ट्रपति शब्द स्तेमाल किया थी बाद में जानबूझ कर राष्ट्रपत्नी कहा जैसे कि पहले जो कहा था वह गलत था, "राष्ट्रपति नहीं राष्ट्रपत्नी... हिन्दुस्तान की राष्ट्रपत्नी जी सभी के लिए है उनके लिए क्यों नहीं है. इस पर लोकसभा में काफ़ी हो हल्ला हुआ, और सोनिया गाँधी और स्मृति इरानी में काफी नोकझोंक भी हुई. यद्यपि अधीर रंजन चौधरी ने यह तो कहा कि उनसे चूक हो गयी लेकिन उन्होंने साफ शब्दों में माफी नहीं मांगी. यही नहीं कांग्रेस के नेता उदयराज और रेणुका चौधरी ने भी कहा कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इससे पहले कांग्रेस के नेता अजय कुमार ने भी द्रोपदी मुर्मू के बारे में विवादास्पद बयान दे चुके हैं.
अधीर रंजन का पिछला रिकॉर्ड बहुत ख़राब है, उनकी जबान नहीं फिसलती बल्कि उनके पास फिसला हुआ दिमाग है. पहले भी इंदिरा और मोदी तुलना करते हुए उन्होंने कहा था कि कहाँ मां गंगा ( इंदिरा जी ) और कहाँ गंदी नाली (मोदी). ये सभी बयान गांधी परिवार के सदस्यों से मिलते जुलते हैं, जैसे जहर की खेती, मौत का सौदागर, नाली का कीड़ा आदि . हो सकता है इसीलिये उन्हें लोकसभा में कांग्रेस का नेता पद दिया गया हो.
आजादी
के 75 साल तक कांग्रेस ने जिस आदिवासी समाज की सुधि नहीं ली, उस समाज की प्रथम
राष्ट्रपति और देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति का चुनाव में विरोध करके कांग्रेस
पहले ही पूरे देश को गलत संदेश दे चुकी है, रही सही कसर अधीर रंजन ने पूरी कर दी.
पता नहीं कभी ऐसा समय आएगा भी या नहीं जब कांग्रेस का ब्रेन ड्रेन रुकेगा और पार्टी
परिवारवाद की छाया से निकलकर वह अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन कर पाएगी
या गांधी की इच्छानुरूप स्वत: समाप्त हो जायेगी.
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- शिव मिश्रा
responsetospm@gmail.com
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