उप्र धर्मान्तरण कानून पर सुप्रीम प्रहार || सांप्रदायिक है भारत का सर्वोच्च न्यायालय ? || प्रयागराज उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में इतना विरोधाभाष क्यों, कौन गलत कौन सही ? ||
सर्वोच्च न्यायालय का हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर सामने आ गया है। वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय का हिंदू विरोध नया नहीं है लेकिन समय-समय पर उसके द्वारा दिए गए निर्णय जब देश के लिए बेहद आत्मघाती होते हैं, तो इसकी पुन: पुष्टि होती है. आश्चर्यजनक रूप से ये निर्णय वामपंथ-इस्लामिक गठजोड़, जो हिन्दू विरोध और भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील है, के षड्यंत्रों को ढंकने और परोक्ष रूप से सहायता पहुँचाने का भी कार्य करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण विरोधी कानून, “उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021” के अंतर्गत दर्ज कई मामलों पर टिप्पणी करते हुए उन्हें निरस्त कर दिया है। विशेष रूप से फतेहपुर जिले में दर्ज पाँच मामलों को अदालत ने निरस्त कर दिया है, जिन्हें ईसाई धर्मांतरण के मामलों में दर्ज किया गया था। यद्धपि प्रयागराज उच्च न्यायालय इस पर विस्तार से विचार कर चुका था और पुलिस कार्यवाही को विधि सम्मत मान चुका था. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अपने 158 पृष्ठों के फैसले में कहा कि इन मामलों में कोई ठोस प्रमाण या कानूनी आधार नहीं था और इस प्रकार अभियोजन "न्याय का उपहास" हैं। अदालत ने कहा कि आपराधिक कानून निर्दोष नागरिकों को परेशान करने का माध्यम नहीं बन सकता। खंडपीठ ने इस कानून की संवैधानिकता पर भी प्रारंभिक तौर पर कई सवाल उठाए, यह कहते हुए कि इसकी प्रक्रियाएँ किसी व्यक्ति की निजता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक भावना के विरुद्ध हैं। अदालत ने यद्धपि पूरे कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं किया है, लेकिन उसने कहा कि धर्म परिवर्तन करने की इच्छा रखने वाले नागरिकों पर अत्यधिक सरकारी नियंत्रण और शर्तें इस कानून का चिंताजनक पहलू हैं। इस टिप्पणी के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने छल कपट और दबाव बना कर धर्मान्तरण कराने की प्रक्रिया को न्याय संगत बना दिया. उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण में इतना विरोधाभाष क्यों? दोनों सही नहीं हो सकते, कोई तो गलत है. सर्वोच्च न्यायालय के सामने तो याचिका केवल प्रथिमिकी रद्द करने की थी लेकिन न्यायाधीशों ने याचिका कर्ताओं को उपहार देकर ससम्मान विदा किया और उनके विरुद्ध कार्यवाही का साहस दिखाने वालों को सबक सिखाने का काम भी कर दिया.
- उत्तर प्रदेश सरकार ने 2021 में धर्म परिवर्तन रोकथाम अधिनियम बनाया था. इसमें प्रावधान है कि अगर किसी व्यक्ति को यूपी में अपना धर्म बदलना है तो उसे 60 दिन पहले मजिस्ट्रेट को घोषणा पत्र देना होता है कि वह बिना किसी दबाव के ऐसा कर रहा है. इसके बाद जो व्यक्ति यह धर्म परिवर्तन करवा रहा है, उसे भी 30 दिन पहले मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होती है. इसके बाद मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस से इसकी जांच कराई जाती है. एक बार धर्म परिवर्तन हो जाने के बाद व्यक्ति को फिर से 60 दिन के अंदर मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होती है. जिसमें उसे अपनी पहचान से जुड़ी जानकारी देनी होती है. इसके बाद यह जानकारी नोटिस बोर्ड पर सार्वजनिक की जाती है. व्यक्ति को फिर 21 दिन के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होकर अपनी पहचान और जानकारी की पुष्टि करनी होती है. जुलाई 2024 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने "उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध (संशोधन) विधेयक, 2024" पारित किया, जिससे कानून के प्रावधानों को और अधिक सख्त बना दिया गया। इन संशोधनों में बलपूर्वक या धोखाधड़ी से धर्मांतरण कराने के लिए उम्रकैद तक की सज़ा का प्रावधान किया गया था। धर्मांतरण के मामलों में कोई भी व्यक्ति एफआईआर दर्ज करा सकता है, जबकि पहले केवल पीड़ित या उनके परिवार ही शिकायत दर्ज करा सकते थे। अगर किसी व्यक्ति को किसी भी तरह का लालच देकर या पहचान छुपाकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो यह संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आएगा और यह गैर जमानती होगा. ऐसे मामले में भारतीय न्याय संहिता की धारा 298 और 302 के तहत कार्रवाई की जाएगी, जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है.
फतेहपुर के इवेंजेलिकल चर्च ऑफ इंडिया में कथित सामूहिक धर्मांतरण के आयोजन से जुड़ा यह मामला, विश्व हिंदू परिषद के एक सदस्य ने दर्ज कराया था, जिसमें 35 नामजद और 20 अज्ञात लोगों को आरोपी बनाया गया था. वहीं एक अन्य मामले में प्रयागराज स्थित सैम हिग्गिन बॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, (पूर्व में इलाहबाद एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट) के कुलपति राजेन्द्र बिहारी लाल और अन्य अधिकारियों के खिलाफ ईसाई धर्म में जबरन सामूहिक धर्मांतरण के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गई थी. लाल के बारे में विश्वविद्यालय का हर बिद्यार्थी और प्रयाग राज का लगभग हर व्यक्ति बता देगा कि वह दशकों से धर्मान्तरण के काम में जुटे हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है. कोर्ट ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना किसी व्यक्ति को धर्म, विचार, आस्था और विश्वास चुनने की स्वतंत्रता देती है. इसके अलावा ने पीठ ने अपनी टिप्पणी में केएस पुट्टस्वामी और शाफिन जहां जैसे मामलों का भी हवाला दिया, जिनमें निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सबसे ऊपर बताया गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्दपि वह कानून की वैधता पर फैसला नहीं ले रहा, लेकिन प्रारंभिक तौर पर धर्मांतरण कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता को प्रभावित करता है.
सभी को याद रखना चाहिए कि भारत तभी तक धर्मनिरपेक्ष हैं जब तक हिन्दू बहुसंख्यक हैं. जहाँ जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हो रहे हैं या योजनावद्ध ढंग से किये जा रहे हैं, वहां वहां साम्प्रदायिकता का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है. धीरे धीरे सात राज्यों में हिंदुओं की संख्या घटकर- लक्षद्वीप में 2.5% मिजोरम में 2.7% नागालैंड में 8.7% मेघालय में 11.5% जम्मू और कश्मीर में 28% अरुणाचल प्रदेश में 29% पंजाब में 38% रह गयी है। केरल में तकनीकी रूप से यद्दपि हिन्दुओं की जनसंख्या 50% से अधिक है लेकिन इसमें नास्तिक और वामपंथी भी शामिल है जो स्वाभाविक रूप से हिंदुओं का विरोध करते हैं, यदि इन्हें निकाल दिया जाय तो हिन्दू लगभग 30% हैं.
बहुत कम लोग जानते होंगे कि क्रूर हिंसक और राक्षसी इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा भारत में भयानक यातनाएं देकर लगभग 10 करोड़ हिंदुओं का नरसंहार किया गया, जो इस पृथ्वी का सबसे बड़ा नरसंहार है, लेकिन इसके बाद भी उनके द्वारा भारत को इस्लामिक राष्ट्र नहीं बनाया जा सका । अब गजवा-ए-हिंद के माध्यम से भारत को दारुल इस्लाम या इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए हिंदुओं के सापेक्ष मुसलमानो की जनसंख्या बढ़ायी जा रही है, जिसमें लव जिहाद, धर्मान्तरण, अवैध घुसपैठ हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे हैं. इसके लिए न्यायपालिका, प्रशासनिक और बुद्धिजीवियों का सहयोग और समर्थन लिया जा रहा है. इस समय ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथियों के बीच अधिक से अधिक धर्मान्तरण कराने की प्रतिस्पर्धा चल रही है. इसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से न्यायपालिका और राजनीतिज्ञों की सहायता और समर्थन प्राप्त होता है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय के राष्ट्र और हिंदू विरोधी स्वरूप का कारण कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया है, जिसमें अधिकांश न्यायाधीश मुख्यतया हिन्दू विरोधी प्रष्ठभूमि के साथ साथ इस्लामिक-वामपंथ विचारधारा के बेहद करीब वाले चयनित होते हैं. इसलिए उनके फैसलों में हिंदू और सनातन विरोध दृष्टिगत ना हो यह संभव नहीं हो सकता। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व संविधान के संरक्षक का है लेकिन देश, संविधान से भी बड़ा होता है, इसलिए पहले देश, बाद में संविधान. जब देश ही नहीं बचेगा तो संविधान कैसे बच सकता है।
विश्व का इतिहास साक्षी है कि जिन-जिन देशों में वामपंथी इस्लामिक गंठजोड़ प्रभावी हुआ और जहाँ कहीं भी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनायी गयी, वे सभी देश इस्लामिक बन गए। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अगर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कट्टरपंथियों का इसी तरह प्रश्रय करते रहे तो भारत में स्थितियां तेजी से बिगड़ सकती हैं। विश्व में कहीं राष्ट्रीय एकता और अखंडता तथा सांस्कृतिक संरक्षण की तुलना में धर्मनिरपेक्षता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान के संरक्षक की भूमिका में पूरी तरह से विफल साबित हो चुका है। मूल संविधान में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द प्रस्तावना में नहीं था. वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोग, पूजा स्थल कानून, आरक्षण, मंदिर अधिग्रहण कानून, आदि नहीं थे, जिन्हें बाद में जोड़ा गया। 1991 बना पूजा स्थल कानून संवैधानिक फ्रॉड है, जिसे 15 अगस्त 1947 से यानी पिछली तारीख से लागू कर दिया गया और जिसका प्रभाव सातवीं शताब्दी से लागू हो गया जब इस्लामिक आक्रांताओं के आक्रमण शुरू हुए थे। आक्रांताओं द्वारा नष्ट किये गए हिंदू धार्मिक स्थलों और मंदिरों का पुनर्निर्माण मुस्लिम शासनकाल में तो संभव ही नहीं था और उसके बाद 200 वर्ष तक रहे अंग्रेजों के शासनकाल में भी संभव नहीं हो सका। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार ने इतने अवरोध खड़े किए कि बमुश्किल सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया जा सका बाकी सभी धर्म स्थल ज्यों के त्यों पड़े रहे। 1991 के पूजा स्थल कानून द्वारा भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए भविष्य में होने वाले सभी कार्यों पर रोक लग गई लेकिन सर्वोच्च न्यायालय मौन रहा क्योंकि यह हिन्दू विरोधी कानून वस्तुत: मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए बनाया गया था और यह सर्वोच्च न्यायालय को भी पसंद है. इसलिए इस कानून की समीक्षा करने के लिए उसने कोई याचिका तक स्वीकार नहीं की।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश धर्मांतरण विरोधी कानून पर की गई सख्त टिप्पणियों के परिपेक्ष्य में इस कानून को समाप्त करने की मांग की जाएगी और तुष्टिकरण में लिप्त सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के नाम पर इसका समर्थन करेंगे. स्वाभाविक रूप से इससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा और धर्मांतरण माफियाओं को प्रत्यक्ष रूप से सहायता मिलगी और उनका मनोबल, बढेगा जिससे धर्मांतरण में बहुत तेजी आएगी। दीर्घकालिक रूप में धर्मांतरण की प्रवृत्ति जनसंख्या की धार्मिक अनुपात को प्रभावित करेगी, विशेष कर ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में. कालांतर में यह भारत के राष्ट्रान्तरण का कारण बनेगी.
चूंकि मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायलय के सामने असहाय और लाचार नजर आ रही है इसलिए हर देशभक्त का कर्तव्य है कि वे सभी राष्ट्रवादियों को जागरूक करे और देशविरोधी निर्णयों का जमकर विरोध करें.
~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~