मंगलवार, 29 जून 2021

जम्मू कश्मीर के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री की बैठक के क्या निहातार्थ है ? सरकार को क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?

 कश्मीरी नेताओं के साथ प्रधानमंत्री की बैठक  के  संदेश और दूरगामी परिणाम

 


कश्यप ऋषि के नाम से बनी कश्मीर घाटी जिसमें  हजारों वर्ष पुरानी सनातन संस्कृति के साथ कश्मीर के मूल निवासी  कश्मीरी पंडितों की लगभग 6000 साल पुरानी सामाजिक, साहित्यिक, और दार्शनिक  संस्कृति समाहित है, जो   आज अपने अस्तित्व के लिए  संघर्ष के अंतिम पड़ाव पर है  और शायद  कुछ वर्षों  बाद उनका संघर्ष  स्वत: समाप्त हो जाएगा और कम से कम कश्मीर के  लिए कश्मीरी पंडित एक इतिहास बन जाने के कगार पर हैं. 


 कैसे नासूर बनी कश्मीर समस्या ? 

आज देश का बच्चा-बच्चा  जानता  है कि कश्मीर की समस्या  जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों की वजह से हुई. १९४६ में  कश्मीर के राजा द्वारा उन्हें  गिरफ्तार किये जाने को वे व्यतिगत दुश्मनी मानते मानते शेख अब्दुल्ला के जिगरी दोस्त बन गए  और अंग्रेजों  के बुने जाल  में फस गए. भारत विभाजन के ठीक 2 महीने बाद पाकिस्तान द्वारा जम्मू कश्मीर पर आक्रमण और एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर पाने के पीछे  भारत सरकार द्वारा समय पर सैन्य सहायता न  पहुंचाना मुख्य कारण और समस्या की जड़  है. सरकार ने सेनाओं को भी खुली छूट नहीं दी थी कि वह पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके को वापस हासिल कर सकें. देश हित के विपरीत  तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर नेहरु  संयुक्त राष्ट्र संघ गए और युद्ध विराम के साथ यथास्थिति स्वीकार कर ली.  नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को  व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर अत्यधिक  महत्व देने  के कारण ही धारा 370 और 35 A  को संविधान में जोड़ा  गया.  प्रारंभ में इसको अस्थाई कहा गया लेकिन  नेहरु स्वयं १९६४ में  अपनी मृत्यु  तक प्रधान मंत्री रहे लेकिन इसे नहीं हटा सके. 5 अगस्त 2019 के पहले कोई भी सरकार इसे हटाने का साहस नहीं जुटा सकी, इस ऐतिहासिक भूल सुधारने   के लिये  मोदी सरकार प्रशंसा की पात्र है. 


1971 के बांग्लादेश युद्ध में भारत की सम्मानजनक विजय के बाद जब पाकिस्तान के हौसले पस्त हो गए थे और शेख अब्दुल्ला को भी समझ में आ गया था  कि अब उनका एजेंडा खत्म हो गया है. उसी समय शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के एक समझौते ने शेख अब्दुल्ला को न केवल नया राजनीतिक जीवन  दे दिया बल्कि  कश्मीर की समस्या को बेहद  जटिल बना दिया.  शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जम्मू कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री   मीर  कासिम ने  अपनी सीट से और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उनकी छोड़ी सीट से विजयी  होकर आए नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्लाह को  कांग्रेस पार्टी के संसदीय दल का  नेता बनाकर मुख्यमंत्री बना दिया गया.   भारत के लोक तांत्रिक इतहास में ये  अपने तरह की अनोखी घटना है और मेरे विचार से देश को आज की स्थिति  के लिए नेहरु की भूल के साथ इसे महां भूल कहना अनुचित नहीं होगा. हो सकता है इसके पीछे धारणा इंदिरा की यह धारणा रही हो  कि शेख  अब्दुल्ला को  सत्ता का सुख देकर  उन्हें भारत के प्रति वफादार बनाया जा सकता है और कश्मीर की समस्या का निदान किया जा सकता है, जो  इंदिरा गांधी की यह भयंकर भूल  घर में जहरीला सांप पालने से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई. 


 5 अगस्त 2019 को धारा 370 और 35A  हटने से  पूरे भारतवर्ष ने   गर्व का अनुभव किया. गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में जो वक्तव्य दिए,उससे  जम्मू कश्मीर की समस्या के समाधान  हेतु आशा की एक नई  किरण जगी. जम्मू कश्मीर को दो  केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने को भी   संपूर्ण  भारत ने  बेहद पसंद किया . इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जितनी तारीफ की जाए कम है. यह कार्य मोदी के दूसरे कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण  उपलब्धि  के रूप में  जाना जाता है.  यद्यपि  लगभग 2 साल के   बाद भी  विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए सरकार द्वारा ठोस रूप से  कुछ भी नहीं किया जा सका है और दुर्भाग्य से  जम्मू कश्मीर पर आयोजित इस बैठक में भी कश्मीरी पंडितों के किसी भी प्रतिनिधि को आमंत्रित नहीं किया गया, जिससे पूरे  देश  में लोग सशंकित हो उठे हैं और यह सवाल कर रहे हैं कि क्या केंद्र की मोदी सरकार  ने एक बार फिर  घाटी के इन  कुख्यात नेताओं को सत्ता सौंपने का मन बना लिया है?


कश्मीरी पंडितों को विश्वास  में ले सरकार

जम्मू कश्मीर  के संबंध में  केंद्र सरकार द्वारा  लिए जाने वाले   किसी भी निर्णय में  जम्मू के निवासियों और कश्मीरी पंडितों को विश्वास में  लिया जाना अत्यंत आवश्यक है. विस्थापित कश्मीरी पंडित  दशकों से  अपने ही देश में  शरणार्थी का जीवन व्यतीत करते हुए विभिन्न  यातनाएँ  सह  रहे हैं, सरकार को उनके घावों पर मरकाम लगाने में भी उतना ध्यान देना चाहिए जितना कश्मीर के विकास का अन्यथा उन लोगों के विकाश का क्या अर्थ जिन्होने कश्मीर और कश्मीरी पंडितों का विनाश किया.  उनका सबसे बड़ा दर्द है कि कि केंद्र की किसी भी सरकार ने   कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को  नरसंहार  की संज्ञा नहीं दी है  और इसलिए  कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ने भी प्रमुखता से नहीं लिया  और इसे मानव अधिकार  के उल्लंघन का मामला भी नहीं माना जबकि अल्गाववादी और आतंकवादी अपने मानव अधिकार का मुद्दा बनाये रहते हैं जिसे पूरा विश्व सहजता से लेता है और इससे भारत के विरुद्ध अनावश्यक दुष्प्रचार होता है .


धारा 370 हटाने  के पश्चात  कश्मीर में स्थानीय निकाय के चुनाव  सफलता पूर्वक  कराए  जा चुके हैं और इन चुनावों में घाटी के सभी राजनीतिक दल एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बाद भी बहुमत हासिल नहीं कर सके.  इससे संकेत साफ़ हैं कि  यह घाटी में माहौल  धीरे-धीरे सामान्य हो रहा है और लोग विकास की मुख्यधारा से जुड़ने के  लिए आतुर हैं  और इन कुख्यात राजनीतिक दलों से छुटकारा भी  पाना चाहते हैं. इसलिए भारत सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी बैठकों के माध्यम से अलगाव वादियों और भारत विरोधी तत्वों का पुनर्वास  होने का पाप न हो .


राजनैतिक दलों  पर पैनी नजर जरूरी

गुपकार गठबंधन  धारा 370 बहाली  की  मांग  भले ही  करें लेकिन   आम  कश्मीरी नागरिक के लिए  इसका  कोई मतलब नहीं है.  धारा 370 का होना शायद जम्मू कश्मीर के अलगाववादी तत्व, स्वार्थी राजनीतिक दलों के अलावा अगर किसी को सबसे ज्यादा फायदेमंद था तो वह था पाकिस्तान,  जो लगातार अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा है  और इसके लिए प्रशिक्षित आतंकवादियों को घाटी में भेजकर अस्थिरता उत्पन्न करता रहता है .   वास्तव में  कश्मीर की समस्या को  सिर्फ अलगाववाद कहना उचित नहीं होगा. कश्मीर  मामलों  और रक्षा   विशेषज्ञों  के अनुसार यह पाकिस्तान  और अन्य   इस्लामिक देशों द्वारा समर्थित  गजवा ए हिंद और हिमालय का इस्लामीकरण  परियोजनाओ का  एक हिस्सा है,  जिसका उद्देश्य  भारत की सनातन सभ्यता को नष्ट कर इसके सम्पूर्ण  भूभाग को कब्जाना है और जिसके लिए  भारत का संविधान, कानून और कुछ बिके हुए हिन्दू भरपूर सहायता कर रहें हैं.  इस उद्देश्य के  लिए जम्मू कश्मीर  को पूरी तरह से  मुस्लिम बाहुल्य  राज्य  बनाकर  भारत से पृथक करना और उसके बाद अन्य राज्यों पर रणनीतिक तौर पर  कब्जा करना शामिल है. अगर जम्मू कश्मीर भारत के हाथ से फिसलता है या लचर सरकारी व्यवस्था का शिकार होता है तो   इस  षड्यंत्र के अनुसार  दिल्ली भी दूर नहीं रह जाएगी भले ही  प्रधानमंत्री मोदी  दिल की दूरी और दिल्ली की दूरी   कम करने की बात  करते रहें, भले ही उनका वक्तव्य  कश्मीर के व्यापक  विकास के लिए हो.


इसलिए धारा 370 हटाने का विरोध सबसे अधिक विरोध अलगाववादी  और ऐसे स्वार्थी तत्वों / राजनीतिक दलों द्वारा ही किया गया जो आजादी के बाद से लगातार जम्मू कश्मीर की सत्ता पर काबिज है और भारत के वित्तीय शोषण से ही भारत के विरुद्ध युद्ध चला रहे हैं. हमें यह बात नहीं भूलने चाहिए  कि  कश्मीर घाटी के इन  राजनीतिक दलों ने  इस बड़े मिशन को कामयाब करने के लिए  किसी ने किसी तरह सत्ता में  बने रहने का  विकल्प  चुना है ताकि इन्हें वित्तीय संसाधन उपलब्ध होते रहें और कानून की छत्रछाया में अलगाववाद के लिए अधिकाधिक  सहयोग और समर्थन करते रहें.  मेरा मत है कश्मीर में इन लोगो के पास जितना अधिक  पैसा जाएगा उतना अधिक अलगाववाद बढेगा.


बैठक की उपलब्धियां  

धारा 370 हटाने के लगभग 2 वर्ष बाद  जम्मू कश्मीर के इन नेताओं को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया जाना और उनका बिना किसी विवादित बयान के शामिल होना, राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू करने की दिशा में एक सकारात्मक  कदम होगा या नहीं यह तो समय ही बताएगा लेकिन इतना जरूर है कि  इससे अंतरराष्ट्रीय जगत को  समुचित संदेश जाएगा कि जम्मू कश्मीर में भारत ने जो कुछ भी किया उसका उद्देश्य  सकारात्मक है.  इस बीच  मीडिया के एक वर्ग में  यह भी कयास लगाया गया है कि शायद  यह बैठक  अमेरिका और सऊदी अरब के दबाव में आयोजित  की जा रही है. जो भी हो इससे पाकिस्तान को तो  उचित संदेश मिला ही  है और पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों को भी उचित संदेश मिल गया है, जहाँ के लोगों को   लग रहा है कि भारतीय कश्मीर में विकास  के कार्यों को प्राथमिकता देकर लोकतंत्र मजबूत किया जा रहा है,  जबकि पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर में हालात बद से बदतर हैं और  पाक अधिकृत कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चीन को सौंप दिया गया है और एक भाग को पुन: बेचने   की तैयारी हो रही है, जिसमें वहां के स्थानीय निवासियों के अधिकार  बुरी तरह प्रभावित होंगे. पता नहीं भारत सरकार इस मुद्दे पर मौन क्यों धारण किये रहती है ? अगर वह पाक अधिकृत कश्मीर को अपना समझती है तो तो इस तरह की गतिविधियों का विरोध क्यों नहीं करती ?


बैठक से परिसीमिन के कार्य को लगभग सभी दलों का मौन समर्थन हासिल हो गया है, जो सरकार की उपलब्धि है  लेकिन परिसीमन का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है जब यह चुनाव प्रक्रिया को मजबूत बनाये तथा  जम्मू  संभाग में विधान सभा सीटों की संख्या बढाकर  हिन्दू आबादी के साथ न्याय करे .  सरकार को पाक अधिकृत कश्मीर में पड़ने वाली  २४ विधान सभा सीटों, जो वस्तुत: जम्मू का ही हिस्सा है, के लिए नामांकन भी जम्मू संभाग के लोगो के बीच से करना शुरू कर देना चाहिए. ये पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लाने की दिशा में एक छोटे से प्रयास के शुरूआत होगी .   


इस बैठक  की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर  मीडिया में बताया गया  कि जम्मू कश्मीर के ये  नेता घाटी में चाहे जितना बोलते हो लेकिन प्रधानमंत्री के समक्ष अनुशासित  मुद्रा में  सिर झुकाए रहे.  मुझे लगता है इसका   गलत अर्थ नहीं निकाला जा रहा है क्योंकि यह  घाटी के नेताओं की  गिरगिट  वाली फितरत  है.  उन्हें जब सत्ता नजदीक आती दिखाई पड़ती  है तो वह  कुछ भी  कहने और करने से परहेज नहीं करते.  इस समय  जीवित चारों पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित  घाटी  के अन्य  सभी मुख्यमंत्रियों ने अपने कार्यकाल में  सत्ता प्राप्ति के लिए  संविधान के नाम पर पद और गोपनीयता की शपथ जरूर ली, भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा भी व्यक्त की लेकिन उन्होंने हमेशा अपने बड़े उद्देश्य के लिए अलगाववादियों और पाकिस्तान की नीतियों का ही समर्थन किया. इन सभी नेताओं के लिए  इनका  मजहब सबसे पहले है और इसलिए अगर मजहब के नाम पर कोई गलत शपथ लेते हैं या छलकपट  करते हैं तो उससे बिल्कुल भी नहीं हिचकते. इसलिए इन नेताओं की बातों पर बहुत अधिक विश्वास करने का कोई कारण नहीं है और  इन नेताओं के हृदय परिवर्तन पर भाजपा को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए अन्यथा इंदिरा गांधी जैसी एक महाभूल की पुनरावृत्ति हो सकती है. 


नेताओं  का  अतीत  याद रखना होगा 

जहां तक भारत सरकार का प्रश्न है,  बैठक में प्रधानमंत्री ने जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की वचनबद्धता दोहराई वही उन्होंने स्पष्ट रूप से यह बता दिया कि फिलहाल  प्राथमिकता  विधानसभा की सीटों का परिसीमन और उसके बाद चुनाव है.  महबूबा मुफ्ती के अलावा किसी भी अन्य नेता ने धारा 370  को बहाल किए जाने के बारे में बैठक में कोई मुद्दा नहीं उठाया लेकिन उमर अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ़्ती ने बैठक के बाद शांतिपूर्ण ढंग से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की बात  दोहराई  है. दिल्ली की  मीडिया  और भाजपा को इससे बहुत अधिक उत्साहित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि इन नेताओं को इस बैठक में शामिल होना और  अनुशासित बने रहना, अपने को प्रासंगिक बनाए रहने के लिए आवश्यक हो गया था.  वैसे भी घाटी के  यह नेता  समय-समय पर  विभिन्न भूमिकाएं  बखूबी अदा करना जानते हैं.  शेख अब्दुल्ला के बारे में कहा जाता था कि वह जब कश्मीर घाटी में होते थे  तो  मजहबी  मुस्लिम शासक की भूमिका में होते थे,  जम्मू आकर प्रगतिशील हो जाते थे  और दिल्ली पहुंच कर  भारत के  संविधान के प्रति पूर्णतया समर्पित हो जाते थे. इस सब के पीछे एक ही कारण होता था  सत्ता  में बने रहना जो  उनका पाक समर्थित इस्लामिक  अजेंडा चलाने के लिए  बेहद जरूरी था.  वही हालात आज भी हैं, कुछ भी नहीं बदला सिवाय इन पाक परस्त नेताओं की पीढ़ियों के. 


सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि परदे  के पीछे    ये सभी  राजनीतिक दल,  अलगाववादी एवं आतंकवादी संगठन और पाकिस्तान की आईएसआई  सभी मिलजुल कर एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं,  जो सुनियोजित तरीके से जम्मू कश्मीर को पूर्ण रूप से  इस्लामिक राज्य  बनाना चाहते हैं .  कश्मीर घाटी में जहां  उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मुस्लिम आबादी 68% ( कुल आबादी ६९ लाख)  है,  वहीं जम्मू  संभाग में हिंदू आबादी भी  लगभग 68% ( कुल आबादी ५३ लाख ) है. इन आंकड़ो पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है और लोगो का मानना है कि कश्मीर में पुस्लिम जनसँख्या को बढा  चढ़ा कर पेश किया गया है, ताकि जम्मू की तुलना में बढ़त दिखाई पड़े और जरूरत पर घुसपैठियों को खपाया जा सके . हाल की राज्य   सरकारों ने, जो वस्तुत: अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों के पास ही रही  है,  जम्मू संभाग को भी  मुस्लिम  बाहुल्य  करने की दिशा में सरकारी संरक्षण में अनेक गैर कानूनी कार्य किए .  रोहिंग्याओं को  वर्मा से बांग्लादेश के रास्ते  लाकर जम्मू में बसाना  इसी योजना का एक हिस्सा था.


 जम्मू के  एडवोकेट  अंकुर शर्मा के अनुसार  महबूबा मुफ्ती ने  मुख्यमंत्री रहते हुए 14 फरवरी 2018 को एक कार्यकारी  आदेश  द्वारा   सभी जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को निर्देश दिया था  कि  रोशनी एक्ट के अंतर्गत  जम्मू संभाग में अगर किसी  मुस्लिम व्यक्ति ने राजकीय,  फॉरेस्ट एरिया  या किसी की निजी जमीन पर कब्जा किया है तो उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही न की जाए.  अगर भूस्वामी  अदालत से जमीन खाली  कराने का आदेश भी ले आता है तो  उसके  लिए पुलिस सहायता उपलब्ध न कराई जाए. किसी भी मुस्लिम के विरुद्ध गौ हत्या या गोवंश की तस्करी से संबंधित  कोई भी  प्राथमिकी दर्ज न की जाए.   


एक रिपोर्ट  के अनुसार जम्मू में  जमीन पर  अवैध कब्जा करने वाले 90% से अधिक  व्यक्ति मुसलमान है. उछ न्यायलय के आदेश के विरुद्ध एक याचिका दायर की गयी जिसके अनुसार अवैध कब्जेदारों को यह भूमि आवंटित करने का मानवीय आधार पर निवेदन किया गया है . 


जम्मू से निकलने वाली तवी नदी जिसे सूर्यपुत्री कहा जाता है और  जिसे देवी का दर्जा प्राप्त है, के किनारों  की जमीन पर   ज्यादातर अवैध कब्जे दार मुस्लिम है. जम्मू कश्मीर  उच्च न्यायलय की डिवीजन बेंच के निर्देश पर  जम्मू नगर निगम की सीमा के अंतर्गत इस तरह के अवैध कब्जों  की जांच करने का जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया गया था . उच्च न्यायालय की बेंच में   सबमिट  की गई रिपोर्ट  अनुसार   हिंदू बहुल जम्मू  नगर सीमा में  तवी  नदी के किनारे की जमीन पर 668 में से 667 अवैध कब्जेदार मुस्लिम हैं,  जो स्थानीय निवासी भी नहीं है.  जम्मू के लोग  इसे  लैंड जिहाद और जम्मू की जनसंख्या परिवर्तित करने  का सरकारी षड्यंत्र बताते हैं और इन लोगों में अत्यंत रोष भी है .


बड़े आश्चर्य की बात है  की महबूबा मुफ्ती  ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और भाजपा के उपमुख्यमंत्री  और कई मंत्री भी सरकार में होने के बाद कैसे इस तरह के गैरकानूनी आदेश दिए जाते रहे. कैसे  जम्मू से सांसद  और  केंद्रीय राज्यमंत्री जीतेन्द्र सिंह, जो प्रधानमंत्री कार्यालय   से सम्बद्ध  हैं,  इन बातों से अनजान रहे रहे ?  सरकार को इस पर मंथन करना चाहिए और घर में हो रही किसी साजिश  से सावधान  रहना चाहिए .


राज्य में धारा 370  की छाया बाकी है

 “एकजुट जम्मू”  के अधिवक्ता  अंकुर शर्मा के अनुसार  सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश दिया था कि   जम्मू कश्मीर राज्य में  अल्पसंख्यकों को  मिलने वाले फायदे मुस्लिमों की बजाय हिंदुओं को दिए जाय, लेकिन सरकार के हलफनामे के बाद भी  2018 से  इस पर कार्यवाही नहीं की गई है और मुस्लिमों को अल्पसंख्यकों का फायदा पूर्ववत मिल रहा है.  इन परिस्थितियों में केंद्र सरकार के लिए  परिसीमन और लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने  के साथ साथ  कानून का राज स्थापित करना  पहली प्राथमिकता होना चाहिए.  


कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और उन्हें घाटी से विस्थापित करके  घाटी का जनसंख्या घनत्व पहले ही परिवर्तित किया जा चुका है और अब जम्मू में  अवैध भू अतिक्रमण कर  अवैध रूप से  रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाया जाना अच्छे संकेत नहीं है. अल्पसंख्यक के रूप में भारी भरकम  सरकारी सहायता का उपयोग पहले भी भारत के विरुद्ध होता रहा है. सरकार को यह पड़ताल करने की आवश्यकता है कि वे कौन लोग हैं जो सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय भी लागू नहीं होने देते ?


राज्य में अनेक मामलों में देखा गया है कि धारा 370 हटाने  और राज्य को केंद्र शासित प्रदेश  बनाये  जाने  के बाद भी बहुत से  सरकारी काम  पहले की तरह ही किए जा रहे हैं,  जिन्हें तुरंत रोका जाना जरूरी है अन्यथा जनता में भ्रम की स्थिति बनी रहेगी.  अभी हाल ही में राज्य में कुछ सरकारी नियुक्तियों के लिए आवेदन मांगे गए थे,  जिसमें  निर्देश था कि कश्मीर संभाग के लिए  केवल उसी संभाग के  लोग आवेदन कर सकते हैं लेकिन जम्मू संभाग के लिए निर्देश था कि उसमें पूरे राज्य के लोग आवेदन कर सकते हैं.  जम्मू के लोगों द्वारा प्रदर्शन और बबाल  किए जाने के बाद  जम्मू के लिए भी यह शर्त  कर दी गई कि केवल जम्मू संभाग के लोग ही आवेदन कर सकते हैं. यह  सब यह रेखांकित करता है  कि न केवल जम्मू  के साथ सौतेला व्यवहार अभी भी कायम है, अलगाववादियों और इन कुख्यात नेताओं के इशारे पर चलने वाली मशीनरी अभी भी पूर्ववत कार्य कर रही है. ऐसे और भी मामले हो सकते हैं. इस  सरकारी मशीनरी  की  पुरानी मानसिकता को  बहुत सख्ती  और प्रभावी ढंग से निपटाया जाना आवश्यक है.  अब जबकि जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है  राज्य के  कैडर और  दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों के  कैडर की अदला बदली तुरंत  आवश्यक है. 


 धारा 370 हटाने के बाद भी सरकार में  अन्य राज्यों से  आए  लोगों को   राज्य में बसने और संपत्ति खरीदने जैसे  कई मामलों में  कुछ  प्रतिबंध लगाये  गए हैं ,  इनका पुनरीक्षण  आवश्यक हो गया है ताकि लोगों को लगे कि कश्मीर भारत का अंग है.


परसीमन में जम्मू के साथ  पारदर्शी न्याय हो 

भौगोलिक क्षेत्रफल  और जनसंख्या के अनुसार  घाटी से बड़ा होने के बाद भी जम्मू में  विधानसभा की 36 और कश्मीर घाटी में 47 सीटें हैं.  प्रथम दृष्टया ऐसा  प्रतीत होता है  कि इसका उद्देश्य था  कि राज्य की सत्ता किसी न किसी तरह घाटी  के लोगों के पास रहे.  स्वतंत्रता के बाद लगातार सत्ता घाटी से संचालित होने के कारण जम्मू के लोग  भेदभाव के शिकार होते रहे हैं. प्रस्तावित परिसीमन में  सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए की जम्मू की बहुत पुरानी मांग जिसमें परिसीमन भौगोलिक क्षेत्रफल और जनसंख्या के आधार पर करने की बात कही गई है उसकी अनदेखी न की जाए, ऐसा करना  पाकिस्तान  और उसके इशारे पर काम करने वाले  अलगाववादी और आतंकवादियों का  एजेंडे  रोकने में भी सहायक होगा. 


जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा देने में जल्दबाजी  न हो 

किसी केंद्र शासित प्रदेश में अगर विधानसभा है, तो जनता द्वारा सीधे चुने हुए प्रतिनिधि शासन प्रशासन में शामिल होते हैं और  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसे राज्य का दर्जा मिला है या वह केंद्र शासित प्रदेश है.  जम्मू के लोग 2011 की जनगणना के अनुसार परिसीमन करने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है की 2011 की जनगणना सिर्फ कार्यालय में बैठकर की गई थी  और इसमें कश्मीर संभाग की जनता को जनगणना को बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया है इस कारण कश्मीर संभाग की जनसंख्या 69 लाख  और जम्मू की जनसंख्या 53 लाख बताई गई है,  जो सही नहीं है.  लोगों का मानना है कि  परिसीमन का आधार जनसंख्या के साथ-साथ क्षेत्रफल भी होना चाहिए और जम्मू के साथ न्याय किया जाना चाहिए.  जम्मू कश्मीर  मामले को दशकों  से देख रहे लोगों का मानना है कि अब जब सरकार इतना आगे पहुंच चुकी है उसे वापस पीछे नहीं  मुड़ना  चाहिए  और पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों के षड्यंत्र को विफल करने के लिए जम्मू को  अलग केंद्र शासित प्रदेश और कश्मीर को 2 केंद्र शासित प्रदेशों में बांट देना चाहिए  कश्मीर के एक हिस्से में विस्थापित कश्मीरी पंडितों को बसाने ने के लिए  शीघ्र  कार्यवाही करनी चाहिए,  क्योंकि कश्मीरी पंडित  कश्मीर घाटी की  वर्तमान भौगोलिक यथास्थिति के  चलते  भय के कारण  अपनी जान जोखिम में डालकर  वहां बसने नहीं जाएंगे. 


केंद्र सरकार को याद रखना चाहिए कि जो कश्मीरी नेता दिल्ली की मीटिंग में पूरी तरह से अनुशासित और संविधान के प्रति समर्पित दिखाई पड़ रहे थे उन्होंने घाटी वापस पहुंचकर धारा 370 की बहाली  सहित   अन्य मांगों के लिए भी बयान देने शुरू कर दिए हैं.  ऐसा करके वह चाहते हैं कि केंद्र सरकार पर ज्यादा से ज्यादा दबाव बनाकर अपनी मांगे मनवा सके ताकि घाटी में लोगो के अगुआ बन सकें और सत्ता में वापसी कर सकें.  


आशा की जानी चाहिए कि वर्तमान सरकार पिछली सरकारों की तरह, मोदी सरकार  घाटी के नेताओं के झांसे में नहीं आयेगी और व्यापक राष्ट्रीय हित में ऐसे कदम उठायेगी जिससे जम्मू को न्याय और कश्मीर को स्थायित्व मिले और पूरे देश को कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय का अहसास हो  सके .

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-शिव मिश्रा

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