ममता गरजती रहीं, कांग्रेस बरसती रही, ओवैसी धमकाते रहे, लेकिन सीएए में मिलने लगी नागरिकता ...
2024 के लोकसभा चुनावों की गहमागहमी के बीच संशोधित नागरिकता कानून के अंतर्गत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ना का शिकार होकर आये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता मिलनी शुरू हो गई है. ये ऐतिहासिक दिन कहा जाएगा जब केंद्रीय गृह सचिव ने 14 ऐसे शरणार्थियों को भारत की नागरिकता का प्रमाण-पत्र सौंपकर औपचारिक रूप से नागरिकता देने की शुरुआत की. 286 लोगों को ईमेल के माध्यम से नागरिकता प्रमाण पत्र भेज दिए गए हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए ये सभी गैर मुस्लिम शरणार्थी दशकों से भारत में नरकीय जीवन जी रहे थे. उन्हें सामान्य नागरिक अधिकार नहीं थे, कानूनन किसी भी सरकारी सहायता के पात्र नहीं थे. इसलिए ये भारतीय नागरिकता की बाट जोह रहे थे. समाज से अलग थलग ये सभी झुग्गी झोपड़ियों में रह कर अमानवीय जीवन व्यतीत कर रहे थे. इसके विपरीत बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के लिए फर्जी कागजात तैयार हो जाते हैं. उन्हें देश के विभिन्न क्षेत्रों में योजनाबद्ध तरीके से बसा दिया जाता है, वोट देने का अधिकार भी मिल जाता है और इसलिये वोटबैंक का हिस्सा बन जाते हैं. फिर हर राजनीतिक दल उन्हें सिर आँखों पर बैठा लेता है. भारत में यह सबसे बड़ा अंतर है मुस्लिम घुसपैठियों और गैर मुस्लिम शरणार्थियों के बीच.
2019 में जब संशोधित नागरिकता कानून संसद में पास हुआ तो पूरे देश में मुस्लिमों द्वारा आंदोलन शुरू किए गए, जिन्हें सभी राजनैतिक दलों का समर्थन मिला. इस कानून को भेदभावपूर्ण करार दिया गया क्योंकि इसके अंतर्गत मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं है जिसका बहुत स्पष्ट कारण है कि जिन पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, वे सभी देश मुस्लिम देश है और मुस्लिम देश में कोई मुस्लिम धार्मिक प्रताड़ना का शिकार नहीं हो सकता. ये तीनों मुस्लिम देश कभी अविभाजित भारत का हिस्सा थे और विभाजन के बाद अपरिहार्य कारणों से वहां से हिंदू, बौद्ध, पारसी और क्रिश्चियन भारत नहीं आ सके थे, इसलिए भारत सरकार का ये नैतिक दायित्व भी था कि उन्हें भारत में नागरिकता दी जाए, जिसका वायदा कभी जवाहर लाल नेहरू ने किया लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण में वह इस वादे को भूल गए.
भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था, जिसमें मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान बना था. स्वाभाविक रूप से दूसरा राष्ट्र हिंदुओं के लिए था लेकिन गाँधी और नेहरू की मुस्लिम परस्त विचारधारा के कारण भारतीय क्षेत्र से सभी मुस्लिम पाकिस्तान नहीं गए. मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण ही देश को धर्मनिरपेक्षता का जामा पहना दिया गया. यद्यपि भारत और पाकिस्तान सरकारों के बीच जनसंख्या की अदला बदली के लिए नेहरू लिआकत समझौता हुआ था. पाकिस्तान से बड़ी संख्या में गैर मुस्लिमों की संपत्तियों पर कब्जा करके उन्हें भागने पर विवश कर दिया गया लेकिन भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को सरकारी सुरक्षा और संरक्षण के अंतर्गत सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए हिंदुओं से कहीं ज्यादा अवसर प्रदान किये गये. नेहरू गाँधी के निमंत्रण पर पाकिस्तान से भी बड़ी संख्या में मुस्लिम भारत में बसने के लिए आ गए. सरकारी भेदभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी तो छत की तलाश में मारे मारे घूमते रहे. जहाँ कहीं उन्होंने खाली पड़ी मस्ज़िदों में शरण ली थी, वहाँ से भी गाँधी के आदेश पर कंपकपाती सर्दी की रातों में पुलिस ने उन्हें जबरन विस्थापित कर दिया. इसके विपरीत पाकिस्तान से आए मुस्लिमों को मौलाना आजाद ने अपने तथा अन्य सरकारी बंगलों में तंबू लगाकर बसाने का कार्य किया तथा उनके खाने पीने की बेहतरीन व्यवस्था की. जिसके लिए उन्हें नेहरू और गाँधी की खूब प्रशंसा भी मिली. हिंदू शरणार्थी गाँधी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बिड़ला भवन के आगे प्रदर्शन करते रहे किंतु उन्हें लाठियां खाने की अतिरिक्त कुछ नहीं मिला.
देश के विभाजन के समय भारत में लगभग 3.5 करोड़ मुसलमान थे, जो आज घुसपैठियों को मिलाकर गैर सरकारी अनुमान के अनुसार 27 करोड़ हो चुके हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री के सलाहकार परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 तक मुसलमानों की आबादी कुल जनसंख्या में 43% से ज्यादा बढ़ चुकी थी जबकि हिंदुओं की आबादी 8% घट गई थी. 2021 की जनगणना कोविड महामारी के कारण नहीं की जा सकी है लेकिन जब भी यह जनगणना होगी, कुल जनसंख्या में हिंदुओं की हिस्सेदारी 70% प्रतिशत से काफी कम हो जाने की आशंका है, जो विभाजन के समय 84% से अधिक थी. इसके विपरीत मुसलमानों की हिस्सेदारी 20% से अधिक हो जाने की संभावना है, जो विभाजन के समय लगभग 9% थी. मुस्लिम जनसंख्या विस्फोट चिंता का कारण है क्योंकि विश्व का इतिहास साक्षी है जहाँ कहीं मुस्लिमों की जनसंख्या असामान्य रूप से बढ़ी है उस राष्ट्र का इस्लामीकरण अवश्य हुआ है. भारत में तो पहली शताब्दी से ही गज़वा-ए-हिंद की धार्मिक अवधारणा के कारण मुस्लिम आक्रांताओं ने आक्रमण किये और भारत के इस्लामीकरण का प्रयास किया लेकिन ये सपना आज भी अधूरा है. इस्लामिक शिक्षा के विवादास्पद केंद्र दारुल उलूम देवबंद ने गजवा-ए-हिन्द (भारत को आक्रमण करके इस्लामिक राष्ट्र बनाने) को मान्यता देने वाला फतवा जारी किया है. ये फतवा उनकी अधकारिक वेबसाईट पर उपलब्ध है. इसमें गजवा ए हिन्द को इस्लामिक दृष्टिकोण से वैध बताते हुए महिमामंडित किया गया है, जिसे स्वयं महमूद मदनी ने उचित ठहराया है. देवबंद के इसी मदरसे ने पाकिस्तान की मांग को अनुचित करार देते हुए विभाजन का विरोध किया था लेकिन इसका कारण भारत भक्ति नहीं था. वास्तव में देवबंदी भारत के एक टुकड़े के रूप में इस्लामिक पाकिस्तान नहीं, पूरे भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहते थे. उनका तर्क था की जनसंख्या बढ़ाकर अगले 50 वर्षों में पूरा भारत अपने आप मुस्लिम राष्ट्र बन जाएगा. अगर भारत का विभाजन नहीं हुआ होता तो आज देश की जनसंख्या लगभग 175 करोड़ होती, जिसमें पाकिस्तान के 20 करोड़, बांग्लादेश के 15 करोड़ मिलाकर भारत में मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 65 करोड़ होती. देश की जनसंख्या में हिंदू 50% और मुस्लिम 40% होते. शेष10% में अन्य सभी धार्मिक समुदाय होते. स्थिति कितनी भयावह होती, सामान्य जन मानस के लिए उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है.
संशोधित नागरिकता कानून का विरोध धार्मिक और राजनैतिक मुस्लिम नेताओं द्वारा सरकार पर दबाव बनाने के लिए किया गया ताकि नागरिकता के लिए मुस्लिमों को भी शामिल किया जाय ताकि अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों को कानूनन भारतीय नागरिकता उपलब्ध कराई जा सके. मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाना भी गज़वा-ए हिंद योजना की टूलकिट का एक कार्य बिंदु है. पश्चिम के अनेक देश जिन्होंने कभी मानवीय आधार पर मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दी थी, गृहयुद्ध का सामना कर रहे हैं. कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि अगले कुछ वर्षों में यूरोप के कई छोटे देश इस्लामिक राष्ट्र बन जाए.
वैसे तो संशोधित नागरिकता कानून 2019 में संसद से पास हो गया था लेकिन कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दलों और मुस्लिम समुदाय के विरोध के कारण यह ठंडे बस्ते में पड़ा रहा और लगभग 4 साल बाद इस वर्ष मार्च में अधिसूचित किया जा सका. इसके बाद भी ममता बनर्जी जैसे राजनेताओं ने किसी भी कीमत पर इसे लागू ना होने देने कसम खाई थी. इंडी गठबंधन के ज्यादातर घटक दल इस कानून में मुस्लिमों को भी शामिल करवाना चाहते हैं, इसीलिए वे सभी वर्तमान कानून का विरोध कर रहे हैं.
वर्तमान संशोधित नागरिकता कानून धार्मिक अल्पसंख्यकों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है लेकिन यह बहुत आसान नहीं है क्योंकि इसमें 31 दिसंबर 2014 से पहले आए शरणार्थी ही नागरिकता पा सकते हैं. इसके बाद में आए शरणार्थियों को अभी कितना इंतजार करना पड़ेगा कहा नहीं जा सकता. आजादी के समय नेहरू ने इन देशों में रह रहे गैर मुस्लिमों के लिए नागरिकता देने सहित बड़े बड़े वादे किए थे जिन्हें वे स्वयं तो भूले ही, बाद की सारी कांग्रेस सरकारे भी भूल गई. आजादी के 75 साल बाद नेहरू का यह वादा मोदी सरकार ने पूरा किया है, वह भी कांग्रेस के विरोध के बाद. इसलिए इसे छोटी उपलब्धि नहीं कहा जा सकता.
नागरिकता प्रमाण पत्र देने की शुरुआत पर गैर मुस्लिम शरणार्थियों और अवैध घुसपैठियों के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से दिल्ली के उस झोपड़ पट्टी क्षेत्र में देखा जा सकता था जहाँ देश भक्ति के गाने गाए जा रहे थे और भारत माता की जय के नारे लगाए जा रहे थे. शरणार्थी खुशी से झूम रहे थे जैसे उनके जीवन की कोई बड़ी मनोकामना पूरी हो गई है. धार्मिक प्रताड़ना के शिकार इन सभी शरणार्थियों के लिए अगर कहा जाए कि भारतीय नागरिक के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
भारत सरकार ने शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए ऑनलाइन पोर्टल की व्यवस्था की है. देश के सभी जिलों के वरिष्ठ डाक अधीक्षकों की अध्यक्षता में जिला स्तरीय समितियां गठित की गई है जो दस्तावेजों का सत्यापन करेंगी और आवेदकों को भारत के प्रति निष्ठा की शपथ दिलाएंगी. तत्पश्चात राज्य स्तर पर निदेशक जनगणना की अध्यक्षता में गठित समिति आवेदनों पर विचार करेगी और नागरिकता प्रमाण पत्र जारी करेगी. नागरिकता प्रमाण पत्र मिलने के बाद ही ये सभी सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकेंगे, स्वतंत्र रूप से कहीं भी आ जा सकेंगे और सबसे बड़ी बात, मतदान कर सकेंगे.
हम सभी को नागरिकता पाने के लिए ऐसे सभी शरणार्थियों की यथासंभव सहायता अवश्य करनी चाहिए ताकि वे सामान्य भारतीय नागरिक की तरह अपना जीवन शुरू कर सके.
~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~