गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

कश्मीर में टारगेट किलिंग का सच

 

कश्मीर में १९९० के दशक की दस्तक


कश्मीर में एक बार फिर वही सब कुछ शुरू हो गया है जो 1990 में हो रहा था . पिछले 15 दिनों में 11 से अधिक व्यक्तियों की हत्यायें  हो चुकी है जिसमें से पांच व्यक्ति  बाहरी  हैं. इसका उदेश्य घटी में दर पैदा कर हिन्दुओं और सीखो का पलायन कराना है.   तब और अब में एक बहुत बड़ा अंतर यह है कि पहले अलगाववादियों और आतंकवादियों को धारा 370 का संवैधानिक कवच प्राप्त था जो अब नहीं है लेकिन इस सच्चाई से भी शायद ही कोई इंकार करें कि धारा 370 हटाने के बाद
, लगातार जो किया जाना चाहिए था उसकी गति अत्यधिक धीमी हो गयी  है. जम्मू कश्मीर के ज्यादातर नेता जिन्होंने अतीत में अलगाववाद को बढ़ावा दिया, राज्य को दिए जा रहे वित्तीय संसाधनों का व्यक्तिगत स्वार्थ में दरुपयोग  और अलगाववादियों को फायदा पहुंचाने के लिए अपहरण किया, उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया है. इनमें से कई  पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ जहर उगल रहें हैं  लेकिन केंद्र और केंद्र शासित प्रदेश की सरकार ने इस पर आंखें बंद कर रखी हैं । महबूबा मुफ्ती जैसे नेता जो पूर्व में मुख्यमंत्री रह चुके हैं प्रत्यक्ष रूप से अलगाववाद और पाकिस्तान की करतूतों का समर्थन कर रहे  हैं. यह समझना मुश्किल नहीं है कि जब पूर्व मुख्यमंत्री और जम्मू कश्मीर के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी विघटनकारी और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले बयान दे रहे हैं तो सरकार के निचले स्तर पर क्या हो रहा होगा. घाटी के कई राष्ट्रवादी नेता सरकार को लगातार असलियत बता रहे हैं और सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि तुरंत उचित कदम उठाए जाएं लेकिन संभवत सरकार वैश्विक बिरादरी के दबाव में महत्व पूर्ण र्और निर्णायक  कदम उठाने में संकोच कर रही है.

 

जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने के बाद राज्य के पहले उप राज्यपाल के नियुक्त एक  एक सलाहकार बसीर अहमद खान को हाल ही में गिरफ्तार किया गया है, उन पर वित्तीय संसाधनों के दुरुपयोग का आरोप है. असलियत यह है कि वह राज्यपाल के सलाहकार के रूप में भी  अलगाववाद और विघटनकारी तत्व को मजबूत करते रहें और उन्होंने राज्य सरकार के एक अंग के रूप में ऐसी नीतियां लागू करने का कार्य किया जिससे धारा 370 खत्म होने के बाद कश्मीरी पंडितों, दलित  हिंदुओं और सिखों को  मिलने वाले लाभ से वंचित किया जा सके. सरकारी भर्तियों, स्कूल कॉलेज और विश्वविद्यालय में प्रवेश में वही सब कुछ हो रहा है जो धारा 370 खत्म होने के पहले हो रहा था. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के करीबियों में गिने जाने वाले बसीर अहमद खान का नाम कई घोटालों में पहले भी नाम आता रहा है। उन पर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के कई आरोप लग चुके हैं। जब उन्हें उपराज्यपाल का सलाहकार बनाया गया था, तो कई लोगों ने इस पर सवाल उठाया था लेकिन केंद्र सरकार ने अनदेखा कर दिया था.

 

बशीर ने न केवल जम्मू कश्मीर के आंतरिक मामलों में पहले की नीतिया  जारी रखी वरन वह अलगाववादियों और पृथकतावादी नेताओं को सरकार की आंतरिक जानकारी भी उपलब्ध कराते रहें. इस सब का परिणाम यह हुआ कि केंद्र सरकार द्वारा घाटी में किए जाने वाले आंतरिक सुधारों की धार कुंद बनी रही. आश्चर्यजनक यह  हैं कि  किसी भी उपराज्यपाल को ऐसे कारनामों की कानों कान खबर भी  नहीं लगी. दुर्भाग्य से ऐसे अनेकों बशीर अहमद खान जम्मू कश्मीर के प्रशासन में अभी भी राष्ट्र विरोधी कार्य कर रहे हैं  है.  ये सभी  केंद्र सरकार के प्रयासों में रोड़ा   बने हुए हैं  और  केंद्र और राज्य सरकारों के  प्रयासों पर पानी फेर रहे हैं जिसके कारण  कश्मीरी पंडित और अन्य विस्थापित लोग आज भी अपने उद्धार  का इंतजार कर रहे हैं.

 

भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्तर प्रदेश  के एक वरिष्ठ अधिकारी मोहम्मद इफ्तिखारुद्दीन ने  कानपुर के मंडलायुक्त रहने के दौरान सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग करके धर्मांतरण को एक नया आयाम दिया.  उन्होंने कई आपत्तिजनक किताबें लिखी और अपने सरकारी आवास में धर्मांतरण के लिए सभाएं आयोजित की और उसमें धर्मांतरण के लिए  तकरीरें की.  सालों तक केंद्र और प्रदेश सरकार को इसकी खबर भी नहीं  लगी. इसका खुलासा तब हुआ जब मंडला आयुक्त आवास में उनके द्वारा की गई तकरीरों के वीडियो वायरल हुए.  एक हिंदूवादी संगठन ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री से की जिन्होंने तुरंत  इसकी जांच के लिए  एसआईटी  गठित की.  एसआईटी ने सरकार को अपनी रिपोर्ट दे दी है और समझा जाता है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम के अध्यक्ष मोहम्मद इफ्तिखारुद्दीन के विरुद्ध ज्यादातर आरोपों की पुष्टि हो चुकी है. जम्मू कश्मीर के एक सामाजिक कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के इस वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की इन काली करतूतों को बेहद मामूली बताया क्योंकि जम्मू कश्मीर में ज्यादातर सरकारी कार्यालयों  में इस तरह की तकरीरें बहुत आम बात है. ज्यादातर  बड़े सरकारी कार्यालयों  में मस्जिदें बनी  हैं और वहां इस तरह के कार्यक्रम प्राय:  होते रहते हैं.

 जम्मू कश्मीर में  शुक्रवार को सरकारी कार्यालयों  में छुट्टी का माहौल रहता है और  दोपहर के बाद तो  सन्नाटा छा जाता है इसलिए शुक्रवार यहाँ अभी भी  अघोषित रूप से हाफ डे होता है. धर्मांतरण और हिंदू व सिख लड़कियों का अपहरण करके जबरन निकाह करना अभी बदस्तूर जारी है. हाल ही में एक सिख लड़की को जबरन उठाकर एक अधेड़ उम्र के पहले से ही विवाहित  मुस्लिम  के साथ निकाह कर दिया गया था और लड़की के मां-बाप के तमाम प्रयासों के बावजूद पुलिस मुस्लिम व्यक्ति को बचाने की हर संभव कोशिश करती रही. जब मामले ने ज्यादा तूल पकड़ा और दिल्ली से भी कई सिख  संगठन के लोग वहां पहुंचे, तब जाकर लड़की को उसके उसके मां-बाप को सौंपा जा सका. आश्चर्य जनक रूप से पुलिस ने ही इस लडकी को छुपा रखा था.   स्वयंसेवी संगठनों की मदद से उस लड़की का तुरंत सिख परंपरा के अनुसार विवाह कर दिया गया ताकि आगे कोई कानूनी अड़चन न रहे. आज भी इस अपराधी के विरुद्ध कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो सकी है. इस तरह की  अनेक घटनाएं पहले की तरह अभी भी हो रही है और केंद्र शासित प्रदेश के उपराज्यपाल को इसकी सूचना भी नहीं हो पाती है क्योंकि पूरा तंत्र पहले की मानसिकता से परिपूर्ण है और उसी तरह काम कर रहा है. जब तक इस तंत्र के षड्यंत्र की कड़ियों को तोड़ा नहीं जाता, राज्य में धरातल पर किसी व्यापक सुधार की आशा नहीं है. जम्मू कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते राज्य सरकार के कर्मचारियों को अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में अदला-बदली की जानी चाहिए ताकि प्रशासन में शुचिता और पारदर्शिता आ सके और धरातल पर हो रहे कार्य की सही सूचनाएं उपराज्यपाल और केंद्र तक पहुंच सके.

 

घाटी में इस समय "टारगेट किलिंग "  का जो अभियान चलाया जा रहा है वह पाकिस्तान पोषित अवश्य है लेकिन इसमें पाकिस्तानी आतंकवादियों की संख्या सीमित और   स्थानीय आतंकवादियों की  संख्या बहुत अधिक है . इस अभियान की  रणनीति भी इस मामले में सर्वथा भिन्न है  और इसे अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक जिहादी तत्वों का वित्तीय समर्थन भी अबाधित रूप से  उपलब्ध हो रहा है जो अधिकांश  हवाला के जरिए पहुंचाया जा रहा है.  यह सही है कि इन सब घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ है लेकिन महबूबा मुफ्ती जैसे कई नेता इन तथाकथित भटके हुए बच्चों से बात शुरू करने की वकालत कर रहे हैं. अनेक  राजनीतिक दल और संगठन पाकिस्तान के साथ भी पुनः बातचीत शुरू करने की  दलीलें दे रहे हैं. 1990 में हिंदुओं के नरसंहार के लिए चलाए गए अभियान से अलग इस बार  फर्जी नामों  से कई संगठन खड़े किए  गए हैं और इन्हें ज्यादातर स्थानीय लोग शामिल हैं, जो आतंकवादी, जिहादी या स्लीपर सेल के रूप में सक्रिय हैं और इन सभी के सम्मिलित प्रयासों से  टारगेट किलिंग की जा रही हैं . इन हत्याओं से घाटी में आतंक  का माहौल बनना शुरू हो गया है और इस कारण  दूसरे राज्यों से काम पर आने वाले कर्मचारियों और मजदूरों का पलायन शुरू हो गया है.

 

भारत में इस समय धर्मांतरण, लव जिहाद और  आक्रामक इस्लामिक  गतिविधियां अपने चरम पर हैं और  शायद ही कोई ऐसा राज्य हो जहां धर्मांतरण, लव जिहाद और जिहादी आतंकवाद के स्लीपर सेल कार्य न कर रहे हो. समूचा विपक्षदेश हित की बातों में भी मोदी विरोध देखता है जो अप्रत्यक्ष रूप से से इन देश विरोधी गतिविधियों को संरक्षण प्रदान करता है. इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि इन गतिविधियों में मुस्लिम वर्ग के पढ़े-लिखे तबके के लोग भी बढ़-चढ़कर शामिल हो रहें  हैं. पूरे देश में एक सुनियोजित और संगठित अभियान के अंतर्गत किसी न किसी रूप में इस्लामिक जिहाद के बीज बोए जा रहे हैं और मुस्लिम समाज के तथाकथित प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति मोदी और भाजपा विरोध के नाम पर प्रत्यक्ष रूप से इनका समर्थन करते हैं. इनमें रंगमंच, फिल्म उद्योग, खेल जगत, उद्योग - व्यापार, कला साहित्य और लगभग हर क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय के लोग शामिल हैं. सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि शायद ही कोई प्रबुद्ध  मुस्लिम वर्ग का व्यक्ति हो जो राष्ट्रहित में इस तरह की गतिविधियों की निंदा करता हो और अगर ऐसे लोग हैं तो उन्हें अंगुलियों पर गिना  जा सकता है. ऐसा क्यों हो रहा है, यह भी किसी से छिपा नहीं है लेकिन इसे रोकने की दिशा में विपक्षी राजनीतिक दल  तो शायद  कभी मुंह नहीं खोलेंगे किन्तु  इस तरह के वातावरण को रोकने के लिए मदरसों द्वारा दी जा रही धार्मिक शिक्षा पर अंकुश लगाने के साथ-साथ धार्मिक गतिविधियों पर भी पैनी नजर रखने की अत्यंत आवश्यकता है  और यह कार्य भाजपा को ही अपने साहस और सामर्थ्य के दम पर करना पड़ेगा. यह कार्य जितनी जल्दी शुरू हो उतना ही देश हित में होगा अन्यथा स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो सकती हैं.

अगर जम्मू कश्मीर में सरकार ने तुरंत कोई कठोर कदम नहीं उठाये  तो उसके किए कराए पर पानी फिर जाएगा. जम्मू-कश्मीर कैडर के एक पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैजल जिन्होंने कभी संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में टॉप किया था यद्यपि यह विवादों से घिरा है, ने कुछ समय पहले त्यागपत्र देकर अपना नया राजनीतिक दल बनाया था. उन्होंने न केवल धारा 370 हटाने का  बल्कि संशोधित नागरिकता कानून का भी जोरदार विरोध किया था. सरकार ने उनका पासपोर्ट जप्त कर हिरासत में रखा था और बाद में रिहा कर दिया था. आज भी भारतीय प्रशासनिक सेवा से उनका त्यागपत्र सरकार ने स्वीकार नहीं किया है. बीच में अफवाह उड़ी कि सरकार उन्हें कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने वाली है इस तरह की बातों से न केवल  जम्मू कश्मीर के राष्ट्रवादी तत्वों की भावनाएं आहत होती  है बल्कि  पूरे भारत में एक गलत संदेश जाता है. अनुत्तरित प्रश्न है कि सरकार ने अब तक उनका इस्तीफा स्वीकार क्यों नहीं किया है. इस पूरे प्रसंग से घाटी में नौकरशाही   में भी गलत संदेश गया है और वह पहले की तरह ही अपने देश विरोधी गतिविधियों में  संलग्न है.

 

1990 में घाटी कश्मीरी पंडितों के नर संहार और पलायन के बाद जनसंख्या घनत्व पूरी तरह जिहादी तत्वों के हाथ में आ चुका है. इसके बाद से घाटी के राजनीतिक दलों ने जम्मू को निशाना बनाना शुरू किया और बंगलादेशी घुसपैठियों को वहां बसाना शुरु कर दिया. महबूबा मुफ्ती के शासनकाल  में बड़ी संख्या में रोहिंग्याओं और बांग्लादेशी घुसपैठियों को  तावी नदी के तटों पर सरकारी भूमि पर अनधिकृत रूप से कब्जा करवाया गया था.  महबूबा मुफ्ती ने  प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देशित किया था की अनधिकृत भूमि पर काबिज मुस्लिम समुदाय के लोगों पर कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी. ऐसा तब हुआ जब भाजपा भी सत्ता में साझीदार थी. केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद और  रोहिंग्याओं  के खिलाफ अभियान चलाने के बावजूद अभी तक सरकारी भूमि को मुक्त नहीं कराया जा सका है.  आश्चर्यजनक बात यह है कि म्यामार से भगाए गए रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश ने अपने यहां शरण देकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की थी. बांग्लादेश की रणनीति थी यह सारे रोहिंग्या धीरे-धीरे करके भारत चले जाएंगे और वैसा ही हुआ. बांग्लादेश आए  ज्यादातर रोहिंग्या शरणार्थी भारत के ज्यादातर शहरों में टुकड़ों टुकड़ों में पहुंचकर बस चुके हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल सीमा पर बरसों से चलने वाला गोरखधंधा. बताया जाता है कि 500 से 5000 रुपया देकर कोई भी बांग्लादेश की तरफ से भारत की सीमा में प्रवेश कर सकता है. कहना अनुचित  नहीं होगा  की बांग्लादेश सीमा पर तैनात  सुरक्षा बल भी भ्रष्टाचार के कारण गजवा ए हिंद को समर्थन कर रहे हैं. भारत-पाकिस्तान सीमा से आतंकवादियों की घुसपैठ पर पूरी तरह से लगाम लगाना मुश्किल काम हो सकता है लेकिन क्या भारत-बांग्लादेश सीमा से अवैध घुसपैठ को रोकना  बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है. दुर्भाग्य  से  इस दिशा में कोई खास प्रगति दिखाई नहीं पड़ती.

 

केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी को यह समझना होगा कि वह चाहे जो भी कर ले उसे "सबका (मुस्लिमों का) विश्वास" प्राप्त नहीं हो सकता लेकिन सबके  विश्वास के चक्कर में उसे बहुसंख्यक वर्ग का विश्वास खोना पड़ सकता है. इससे राष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान होगा. आज 70 साल बाद जब किसी राष्ट्रवादी पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला है तो उसे इस सुअवसर को राष्ट्रीय अखंडता, अस्मिता और  एकता सुनिश्चित करने में  उपयोग करना चाहिए. ऐसा करने से ही पार्टी और सरकार को मजबूती मिलेगी और भविष्य में जनता का अत्यधिक  समर्थन पाकर और ज्यादा  दमखम से सरकार बनाने का मौका  मिलेगा और लगातार मिलता रहेगा. अगर भारतीय जनता पार्टी भी तुष्टिकरण के दुष्चक्र में फंस गई तो इससे बड़ा देश का  दुर्भाग्य और कुछ  नहीं हो सकता.

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- शिव मिश्रा 

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