उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव कई मायनों में बहुत रोमांचकारी रहे. इसमें भाजपा और सपा गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला था. बसपा और कांग्रेसी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे लेकिन एआई एमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश में प्रयोग कर रहे थे कि क्या मुस्लिम मतदाता किसी मुस्लिम पार्टी के पक्ष में लामबंद हो सकते हैं.
जहां भाजपा मोदी और योगी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर दूसरी बार सत्ता पाने के लिए आत्मविश्वास पूर्वक मैदान में थी, वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर योगी को खलनायक के रूप में पेश करते हुए मैदान में ताल ठोक रहे थे. वह 2012 में समाजवादी पार्टी को मिली सफलता को दोहराना चाह रहे थे. उन्होंने छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन किया था और भाजपा से कुछ मंत्रियों और विधायकों को तोड़कर योगी विरोधी लहर बनाने की कोशिश की.
बात करते हैं राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी की जिन्होंने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया था. एक साल तक दिल्ली की सीमाओं पर तंबू कनात लगाए बैठे तथाकथित किसान आंदोलनकारियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बाहुल्य क्षेत्र की भी सहानुभूति हासिल थी और उसके पीछे कारण थे राकेश टिकैत जो जाट होने के साथ साथ भारतीय किसान यूनियन नेता भी थे और इस कारण क्षेत्र में ऐसा माहौल बनाया गया था जिसे लगता था कि इस बार यहां भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा, जहां भाजपा ने पिछले तीन चुनावों, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव, में लगातार शानदार सफलता हासिल की थी. यही जयंत मात खा गए.
वैसे तो जयंत चौधरी चौधरी अजीत सिंह के बेटे और चौधरी चरण सिंह के पौत्र हैं और यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक हैसियत भी है, अन्यथा पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका कोई खास वजन नहीं है. हमेशा जाट पहचान से जुड़े होने के कारण चौधरी चरण सिंह भी सीटों की संख्या में आशातीत बढ़ोतरी नहीं कर सके थे . राजनीतिक विस्तार के लिए उन्होंने पहले अजगर ( AJGR-अहीर,जाट, गुर्जर और राजपूत ) और बाद में मजगर (MAJGR - मुसलमान, जाट, गुर्जर और राजपूत) मतदाताओं को संगठित करने की कोशिश की लेकिन फिर भी अपने दम पर बड़े दल के रूप में नहीं उभर पाए.
चौधरी अजीत सिंह ने अपने पिता चरण सिंह की विरासत को संभाला जरूर लेकिन राजनीतिक विस्तार में उन्हें भी कोई अप्रत्याशित सफलता नहीं मिली और उनका आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुल सीटों तक ही सीमित रहा. उन्हें यह गलतफहमी कभी नहीं रही कि वह अपने राजनीतिक दल के सहारे कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन पाएंगे इसलिए अपने अत्यंत छोटे संख्या बल के सहारे भी अपने राजनीतिक कौशल से लगभग हर राजनीतिक दल की केंद्र सरकार में मंत्री पद प्राप्त करने में सफल रहे और शायद यही उनकी सबसे बड़ी सफलता थी.
जयंत चौधरी अपने पिता के इस राजनैतिक कौशल को ठीक से समझ नहीं पाए. राष्ट्रीय लोक दल के नेता के रूप में वह चाहे जितने भी गठबंधन करें वह कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी प्राप्त नहीं कर सकते हैं, और ना ही केंद्र में कभी किंग मेकर की भूमिका में आ सकते हैं. इसलिए उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखना जिसके लिए उन्हें किसी ऐसे राजनीतिक दल से गठबंधन करने की आवश्यकता हमेशा पड़ेगी जो या तो सत्ता में हो या जिसकी सत्ता में आने की संभावना हो, जिसके सहारे वह सत्ता में भागीदारी कर सकें और अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं को भी पूरा कर सकें. लंबे समय तक विपक्ष में रहकर कोई भी राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचाकर नहीं रख सकता.
जयंत चौधरी के पास गठबंधन करने के लिए दो अच्छे विकल्प थे भाजपा और सपा. उन्होंने सपा से गठबंधन किया जो तभी सार्थक हो सकता था जब सपा सत्ता में आती और उन्हें कुछ मंत्री पद हासिल हो जाते. भाजपा के साथ गठबंधन करने से उन्हें गारंटीड रिटर्न मिल सकता था. यदि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती तो उन्हें यहां सत्ता में भागीदारी मिलती और यदि प्रदेश में भाजपा सरकार नहीं भी बनती तो भी केंद्र में सत्ता में भागीदार बनने की भरपूर संभावना थी. भाजपा ने उनसे गठबंधन करने के संकेत भी दिए थे, अमित शाह ने इसका जिक्र भी किया था, जिसे वह ठीक से समझ नहीं सके. केंद्रीय मंत्रिमंडल में अभी भी जाटों का प्रतिनिधित्व कम है. आज की परिस्थितियों में उनके पास सिवाय असमंजस के कुछ भी नहीं बचा है, यहाँ तक की भाजपा का उनकी फिलहाल जरूरत नहीं है.
अखिलेश यादव जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसके चलते अगर उनका सपा के साथ गठबंधन चलता भी रहा तो भी अगले लोकसभा चुनाव में भी उनके पास बहुत अवसर नहीं है और उसके बाद 2027 के विधानसभा चुनाव में भी कोई अच्छे आसार नजर नहीं आते. उनकी पार्टी भी इतनी बड़ी नहीं है जिससे किसी चमत्कार होने की आशा हो.
हाल ही में उन्होंने सपा के असंतुष्ट नेता आजम खान के परिवार से मुलाकात की और एक नए राजनीतिक गठबंधन के संकेत दिए. अगर ऐसा हो भी जाता है तो वह अखिलेश यादव का तो बहुत नुकसान होगा लेकिन उनका अपना कितना फायदा होता है, यह देखने की बात होगी. वैसे आजम खान भी पुराने नेता है और वह राष्ट्रीय लोक दल जैसे एक छोटे राजनीतिक दल में शामिल होंगे इसकी संभावना नहीं लगती. हां अगर आजम खान अपनी अलग पार्टी बनाते हैं तो राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन कर सकते हैं, लेकिन ऐसा गठबंधन सत्ता में पहुंचेगा इसकी संभावना नहीं लगती.
यद्यपि पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा जयंत चौधरी के विधायकों की संख्या बढ़ गई है फिर भी भाजपा के साथ गठबंधन करने में उनका बहुत फायदा था जिसे नजरअंदाज करके उन्होंने राजनीतिक अदूरदर्शिता का ही परिचय दिया है. इसलिए उनके विधायकों की संख्या तो बढी लेकिन वह जीत कर भी जीत नहीं पाए. हो सकता है कि उन्हें भी इसका मलाल हो लेकिन राजनीति में उचित समय पर उचित निर्णय का बहुत महत्त्व होता है और इस मामले में जितिन प्रसाद और नितिन अग्रवाल इनसे बीस साबित हो गए.
- शिव मिश्रा