रविवार, 15 अगस्त 2010

दो ऑंखें ......

दो ऑंखें
निरंतर,
 मेरा पीछा करती है,
हडबडाहट और बेचैनी में,
 अधजली सिगरेट सी,
 छोड़ देता हूँ,
 अपनी बातें,
रह रह कर
 जो मेरे अन्दर बुझती  है,
सुलगती है,
मसल देता हूँ अकेले में,
 अनजाने में,
 खुद ही जिन्हें
अपलक चाहता हूँ,
 निहारना,
 दिन में कई बार जिन्हें.
धुंए की  तरह खो जाती है,
 उनकी बहमूल्य जवानी,
स्वतन्त्र अस्तित्व
और बिखर जाती है,
 सजी सवरी कहानी,
शब्दों
की  सांत्वना में,
 मिलती है समाज की
भोड़ी सलाखे,
मूक हो,
 निगूड़ खड़ा वहीँ हूँ मै,
 और
मेरे पीछे है वही,
 दो\आँखे.........
      ***
शिव प्रकाश मिश्र
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सिर्फ ...एक बार .......

मर चूका हूँ मै कभी का,
मातम नहीं मनाता कोई.
जिज्ञासु सा खुद रो रहा हूँ,
धाडस नहीं बंधाता कोई .
मेरी लाश भी
 न जाने कब से अकेली पड़ी है,
सुनते सभी है,
 पर गरज क्या पड़ी है ?
जो कोई
 निस्वार्त के पास आये,
मनुष्यत्व, अपनत्व
या
झूठी औपचारिकता ही निभाए,
और मेरी लाश पर
 मेरा ही कफ़न ओडाये,
यद्यपि हमें
कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर हमारा
उनसे कोई योग तो नहीं है,
सोचते होंगे
 कि सिरफिरा हूँ मै ,
यद्यपि
उनके लिए ही मरा हूँ मै,
और फिर मर सकता हूँ,
 कई बार ...
सबके लिए ,
पर
क्या उनके सहारे,
 जीने कि कल्पना कर सकता हूँ?
सिर्फ ......एक बार
अपने लिए ??
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शिव प्रकाश मिश्र
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