शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

न लेबनान ने भारत से सीखा, न भारत लेबनान से सीख रहा

 

न लेबनान ने भारत से सीखा, न भारत लेबनान से सीख रहा | "कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी" कहने वाले खुद मिटेंगे और देश को भी मिटा देंगे


लेबनान को भारत से जो सीखना चाहिए था, उसने नहीं सीखा. परिणाम स्वरूप ईसाइयों का भयानक नरसंहार हुआ और देश पर जिहादियों ने कब्जा जमा लिया. एक ईसाई बाहुल्य राष्ट्र, मुस्लिम बहुल राष्ट्र बन कर सदा सर्वदा के लिए अशांत के दलदल में फंस गया. लंबे समय तक तुर्की के खलीफा के आधीन ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा रहा ये क्षेत्र, प्रथम विश्व युद्ध में मित्र सेनाओं की विजय के बाद फ्रांस के अधीन आ गया. 1920 में फ्रांस ने लेबनान की सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया, जिसके बाद ही आधुनिक लेबनान की नींव पड़ सकी. 1943 में फ्रांसीसियों ने लेबनान को आजादी दे दी. जाते जाते फ्रांसीसियों ने लेबनान की 1932 की अंतिम अधिकारिक जनगणना, जिसमें ईसाई लगभग 60%, सुन्नी 20% और शिया 18% थे, के आधार पर तय कर दिया था कि देश का राष्ट्रपति ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी और संसद का स्पीकर शिया होगा ताकि लेबनान को जेहाद द्वारा इस्लामिक राष्ट्र बनाना संभव न हो सके.

आजादी मिलने के बाद लेबनान में मुस्लिम घुसपैठियों की बाढ़ आ गई. 1947 में इजराइल की स्थापना के पश्चात तो यह देश फिलिस्तीनी शरणार्थियों का गढ़ बना गया. बाद में फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविर आतंकवादियों के अड्डे बन गए. फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (पीएलओ) ने तो यहाँ अपना मुख्यालय स्थापित कर लिया था. आज इसके बड़े भूभाग पर ईरान समर्थित आतंकवादी संगठन हिज़्बुल्ला का कब्जा है, जिसका प्रमुख उद्देश्य लेबनान से ईसाइयों को और इजराइल से यहूदियों को खदेड़कर इस्लाम का परचम लहराना है. गाजा में इजराइल के विरुद्ध एक और आतंकवादी संगठन “हमास” ने मोर्चा खोल रखा है. आसानी से समझा जा सकता है कि लेबनान और फ़िलिस्तीन क्षेत्र में गैर मुस्लिमों की क्या स्थिति होगी. संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में लेबनान में ईसाईयों की आबादी घटकर लगभग 25% रह गई है और मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ कर लगभग 75% हो गयी है.

आजादी के बाद लेबनान की अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय प्रगति हुई और इसे मिडिल ईस्ट का स्विट्जरलैंड कहा जाने लगा, जो विदेशी निवेशको और सैलानियों के साथ साथ खेलकूद, तैराकी, पीने-पिलाने और मौज मस्ती करने वालों के लिए पसंदीदा जगह बन गया. आर्थिक विकास के साथ साथ इस्लामिक जिहाद का पहिया भी बड़ी तेजी के साथ घूमता रहा, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया. मिस्र, सीरिया और इराक की राजनीतिक अस्थिरता के कारण इन इन देशों के मुस्लिम व्यापारी लेबनान में बसने लगे, जिनके साथ अवैध मुस्लिम अप्रवासियों की भीड़ भी आने लगी. छोटे से इस देश में आज कितने आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं इसका आकलन करना मुश्किल है. एक क्विदंती के अनुसार जिस जगह जीसस क्राइस्ट ने अपना पहला चमत्कार दिखाया था, वहाँ अब आतंकी संगठन हिज़्बुल्लाह अपना करिश्मा कर रहा है.

फ्रांस ने लेबनान को आजादी देते समय जनसंख्या के अनुसार सरकार में पदों का निर्धारण किया था लेकिन मुस्लिमों को लगता था कि फ्रांस ने मुस्लिमों के साथ अन्याय किया है, इसलिए सरकार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब से बढ़ाई जानी चाहिए. राजनैतिक वातावरण कुछ कुछ ऐसा ही था जैसा आजकल भारत में है. ईसाई समुदाय में एकता नहीं थी और राजनेता धर्मनिरपेक्ष दिखाई पड़ने के लिए भारत की तरह मुस्लिम तुष्टीकरण का सहारा लेने लगे. शुरू में संसद में ईसाई सांसदों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में 60% होती थी किन्तु तुष्टीकरण के कारण अनेक संविधान संशोधन किये गए जिसके परिणामस्वरूप ईसाई और मुस्लिम सांसदों की संख्या लगभग बराबर होने लगी और सरकार में मुस्लिम हावी हो गए. 1975 आते आते लेबनान में गृह युद्ध शुरू हो गया. उस समय वहीं 29 उग्रवादी संगठनों के लगभग 2 लाख लड़ाके गृह युद्ध में शामिल थे. पहले साल 10 हजार से ज्यादा लोग मारे गए और 40 हजार घायल हुए, और इसके बाद के सालों में क्या हुआ सब कुछ इतिहास बन गया. लेबनान बुरी तरह अशांत हो गया और 15 वर्षों तक गृहयुद्ध की आग में जलता रहा. संपन्न ईसाईयों ने भाग कर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में शरण ले ली. जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में ईसाईयों ने दीन की दावत कबूल कर ली और मुसलमान बन गए. इस तरह लेबनान मुस्लिम बाहुल्य राष्ट्र बन गया और ईसाई अपने ही देश में अल्पसंख्यक होकर अत्यंत दयनीय अवस्था में पहुँच गए.

भारत में इस्लामिक आक्रांताओं का इतिहास पूरी दुनिया के लिए अकल्पनीय उदाहरण है, जहाँ नरपिशाचों ने विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के धर्मस्थलों को तोड़ा, उन पर मस्जिदें खड़ी की, तलवार के ज़ोर पर धर्मांतरण करवाया, लाखों महिलाओं और बच्चों के साथ दुष्कर्म किया, और उन्हें गुलाम बनाया. भारत ऐसा राष्ट्र है, जहाँ 10 करोड़ से भी अधिक हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों का नरसंहार हुआ है. ये पृथ्वी पर मानव सभ्यता का सबसे बड़ा नरसंहार है, जो शायद हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों को भी याद भी नहीं होगा. 1947 में स्वतंत्र होने तक भारत में विभाजन के अतरिक्त और क्या क्या हुआ, पूरी दुनिया के लिए इस्लामिक भाई-चारे की हकीकत है, लेकिन लेबनान ने भारत से कुछ नहीं सीखा और वही ग़लतियाँ कीं जो भारत में हुईं थी. अवैध मुस्लिम घुसपैठियों और शरणार्थियों को बिना रोक टोक आने दिया गया, एकता की कमी के शिकार ईसाइयों के राजनैतिक नेतृत्व ने गाँधी और नेहरू की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण किया, खुद के लिए अहिंसा किन्तु उपद्रवियों को हिंसा करने की छूट दी, वामपंथियों पर विश्वास किया और उन्हें शैक्षणिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दखलंदाजी का अवसर दिया, उनका विश्वासघात करना स्वाभाविक था. इस सब का परिणाम हुआ कि धार्मिक जनसंख्या का बदलता घनत्व नजरंदाज कर दिया गया. विश्व के सारे इस्लामिक देशों का इतिहास साक्षी है कि जहाँ जहाँ धार्मिक संरचना बदली, सब के सब इस्लामिक राष्ट्र बन गये.

भारत को इजराइल और लेबनान दोनों की चुनौतियों पर गंभीर चिंतन कर सीख लेने की आवश्यकता है. लेबनान पहले ईसाई बाहुल्य देश हुआ करता था जहाँ संवैधानिक तौर पर ईसाइयों के लिए संसद में 60% स्थानों का आरक्षण था, ताकि ईसाई बाहुल्य देश में सत्ता का नियंत्रण ईसाइयों के हाथ में रहे और राष्ट्रांतरण की संभावना न बन सके लेकिन राजनेताओं की तुष्टीकरण की नीतियों ने “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” के नाम पर संविधान संशोधनों द्वारा इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया. जब संसद ने मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादा हो गई तो वही हुआ जो आज पूरा विश्व देख रहा है, लेबनान के ईसाई आज शरणार्थी बनकर अमेरिका और पश्चिमी देशों में भटक रहे हैं, जो बच गए हैं वह अपने देश में ही कब तक सुरक्षित रहेंगे कहना मुश्किल है.

हाल के घटनाक्रम में सऊदी अरब ने फलीस्तीन के समर्थन में कोई पोस्टर निकालना या प्रार्थना करना प्रतिबंधित कर दिया है. इजराइल द्वारा हमास और हिज़्बुल्ला के विरुद्ध कार्रवाई करने पर अधिकांश इस्लामिक देश खामोश हैं और ईरान के इजराइल पर आक्रमण के बाद सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, जॉर्डन, इराक आदि इस्लामिक राष्ट्र तो अमेरिका के साथ खड़े हैं, जबकि बांग्लादेश में हिंदू नरसंहार पर चुप रहने वाले भारत के मुसलमान, इजराइल के विरोध में बेचैन हैं. हिज़्बुल्ला कमांडर हसन नसरुल्ला की मौत पर किये गए प्रदर्शनों मे राजनीतिक हस्तियां और मुस्लिम धर्मगुरु भी शामिल हुए. इसके पहले आतंकी संगठन हमास पर इजरायल की कार्रवाई के विरोध में भी प्रदर्शन किए गए थे और फलस्तीन के झंडे लहराए गए थे. भारत माता की जय या भारत की जय से परहेज करने वाले ओवैसी ने तो संसद में शपथ लेते समय ही जय फ़िलिस्तीन का नारा लगाया था. यक्ष प्रश्न है कि भारत के मुसलमानों का इतना असामान्य व्यवहार क्यों है? इसका उत्तर 1919 में भारतीय मुसलमानों द्वारा तुर्की के खलीफा को अपदस्थ किए जाने के विरोध में शुरू किए गए खलीफ़त आंदोलन से मिल सकता है. गाँधी ने इसे भरपूर समर्थन दिया था और हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए इसका नाम खिलाफत आंदोलन कर दिया था ताकि ये स्वतंत्रता आंदोलन की तरह दिखाई पड़े. इस आंदोलन का उद्देश्य प्रथमदृष्टया किसी बड़े उद्देश्य (देश का विभाजन) की प्राप्ति के लिए मुस्लिमों को एकजुट करने और शक्ति प्रदर्शन द्वारा गैर मुस्लिमों को भयभीत करना था. खलीफत आंदोलन के तत्वावधान में देशभर में दंगे हुए. सबसे वीभत्स नरसंहार मोपला में हुआ, जिसे मुस्लिम तुष्टीकरण के धृतराष्ट्र बन चुके गाँधी और गांधारी बन चुकी कांग्रेस ने पूरी तरह अनदेखा कर दिया था.

“कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी” भारत में ऐसा कहने वालों को सच का सामना करना चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान बर्मा थाईलैंड श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया आदि भारत से ही निकलकर बने हैं. भारत के नौ राज्यों जम्मू कश्मीर, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल, पंजाब, लक्ष्यद्वीप और लद्दाख में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुकें हैं. पूरे भारत में 100 से भी अधिक जिलों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं. पीएफआई ने 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की घोषणा कर रखी है. ऐसे में कब तक हस्ती बचेगी, कहना मुश्किल नहीं है.

लेबनान ने भारत से भले ही कुछ न सीखा हो, लेकिन आज भारत को लेबनान से अवश्य सबक लेना चाहिये अन्यथा भारत का राष्ट्रांतरण रोकना किसी के बस में नहीं रह जाएगा.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~

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