बुधवार, 19 अप्रैल 2023

भगवान परशुराम

 


 


 


परशुराम जयन्ती

पर विशेष रूप से अनूदित

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- शिव मिश्रा


                                  भगवान परशुराम

भगवान परशुराम की जयंती वैशाख शुक्ल तृतीया को आती है। इस बार यह जयंती 22 अप्रैल 2023 दिन शनिवार को मनाई जाएगी। परशुराम जयंती का पूरे भारत  के लिए बहुत महत्त्व है खासतौर से ब्राह्मण समुदाय के लिए अत्यंत व्यापक महत्त्व है और  सभी ब्राह्मण इसे बहुत उत्साह से मनाते है. इसलिए भगवान परशुराम ब्राह्मण एकता के केंद्र बिन्दु है.

भगवान परशुराम का जन्म ब्राह्राण कुल में हुआ था, लेकिन उनका स्वभाव और गुण क्षत्रियों जैसा था, उसके पीछे भी एक कथा है।

भगवान परशुराम जी विष्णु के छठे अवतार थे, और इन्हें कई विद्वान विष्णु और शिव का संयुक्त आवेशावतार मानते हैं। इनके अवतार का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी से पाप और बुराइयों का नाश करना है। सर्वशक्तिमान विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं को दंडित कर पृथ्वी पर सत्य, दया तथा शांति युक्त कल्याणमय धर्म की स्थापना की।

वे सात चिरंजीवियों में से एक हैं.

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:। कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

भगवान परशुराम जी ने सामाजिक न्याय तथा समानता की स्थापना के उद्देश्य से तथा समाज के शोषित तथा पीड़ित वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए शस्त्र उठाया। धर्म की स्थापना के लिए भगवान परशुराम प्रत्येक युग के किसी न किसी कालखंड में अवश्य उपस्थिति होंगे. आज भी वे महेन्द्र पर्वत पर समाधिस्थ हैं। कल्कि पुराण के अनुसार ये भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे ही भगवान कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए कहेंगे।

भगवान परशुराम कलियुग में भी एक जीवित देवता हैं, इसलिए इनकी पूजा नहीं की जाती है। उनकी महान पितृ-मातृ भक्ति वन्दनीय है। उन्होंने समस्त पृथ्वी को दान स्वरूप कश्यप ऋषि को प्रदान किया। कमल लोचन जमदग्नि नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मंडल में रहकर वेदों का विस्तार करेंगे।

 

ऋद्धि सिद्धिप्रदाता विधाता

भुवो ज्ञानविज्ञानदाता प्रदाता

सुखम् विश्वधाता सुत्राताऽखिलं विष्टपम्

तत्वज्ञाता सदा पातु माम् निर्बलम्

पूज्यमानं निशानाथभासं विभुम्

रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे॥

 

क्यों पड़ा परशुराम नाम?

परशुराम नाम दो शब्दों से मिलकर बना है ‘परशु’ अर्थात कुल्हाड़ी और ‘राम’, जिसका शाब्दिक अर्थ है, कुल्हाड़ी के साथ राम। महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार परशुराम जी का मूल नाम राम था, परन्तु जब भगवान शिव ने उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान किया, तो उनका नाम परशुराम हो गया। इन्हे वीरता का प्रतीक माना जाता है।

माता पिता के लिए समर्पण की कहानी

वे अपने माता पिता के प्रति बहुत अधिक समर्पित थे। एक बार की बात है, उनकी माता रेणुका गंगा नदी के तट पर हवन के लिए जल लेने गईं थीं। वहाँ पर गंधर्वराज चित्रसेन को अप्सराओं के साथ विहार और मनोरंजन करते देख वे मंत्रमुग्ध हो गईं। इस प्रकार उन्हें आश्रम पहुँचने में बहुत देर हो गई। ऋषि जमदग्नि ने अपनी दिव्य दृष्टि से माता रेणुका के देरी से आने की वजह का पता लगा लिया। देर से आने के लिए देवी रेणुका की अनुचित मनोवृत्ति जान क्रोधवश ऋषिश्रेष्ठ ने सभी पुत्रों को बुलाया और माता का वध करने का आदेश दे दिया। उनके बाकी के पुत्रों ने माँ के प्यार के वशीभूत  पिता की आज्ञा का पालन करने से इंकार कर दिया। जमदग्नि ने  सभी पुत्रों को अवज्ञा करने पर पत्थर बना दिया।

जब परशुराम जी की बारी आई तो उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन कर माँ का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस पर ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र परशुराम से बहुत प्रसन्न हुए और मनचाहा वर मांगने के लिए कहा। परशुराम जी ने वरदान स्वरूप अपने सभी भाइयों और माता को पुनर्जीवित करने को कहा। ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र के कर्तव्यपरायणता से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने उनकी इच्छा पूरी कर पत्नी रेणुका सहित बाकी चारों पुत्रों को जीवित कर दिया। इस प्रकार परशुराम जी ने अपने पिता और माता दोनों के लिए अपने कर्तव्य, प्रेम, और समर्पण का पालन किया।

पिता के वध का प्रतिशोध

 हैहय क्षत्रिय वंश के अधिपति सहस्त्रार्जुन ने भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय को कठिन तपस्या कर प्रसन्न कर लिया था। वह दत्तात्रेय से से सैंकड़ों भुजाओं और कभी पराजित ना होने का वरदान पाकर घमंड में चूर हो गया था। एक बार वह वन में आखेट करते हुए ऋषि जमदग्नि के आश्रम जा पहुँचा। वहाँ मिले आदर सत्कार से बहुत प्रफुल्लित हुआ जब उसे पता चला कि इन सब का कारण कामधेनु गाय है तो वह कामधेनु को बलपूर्वक ऋषि जमदग्नि के आश्रम से छीनकर ले गया। जब परशुराम जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने क्रोधवश फरसा से प्रहार कर सहस्त्रार्जुन की सारी भुजाएं काट दी।

तत्पश्चात सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदाग्नि की हत्या कर दी। तब परशुराम जी ने प्रतिज्ञा ली और 21 बार इस पृथ्वी से हैहय वंशीय क्षत्रियों का विनाश कर दिया। उन्होंने लगभग सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर ली थी। अंत में उन्होंने पूरा साम्राज्य ऋषि कश्यप को सौंप दिया और स्वयं महेन्द्रगिरि पर्वत पर जाकर घोर तप में लीन हो गए। 

जन्म

भगवान परशुराम का जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल में 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर प्रदोष काल में हुआ था। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में 6 उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भृगु ऋषि के कुल में परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था। पराक्रम के प्रतीक भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ, इसलिए वह तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी महापुरुष बने। ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी। परशुराम सहित जमदग्नि के 5 पुत्र थे।

भृगुक्षेत्र के शोधकर्ताओं  के अनुसार परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ था। उन्होंने अपने शोध और खोज में अभिलेखिय और पुरातात्विक साक्ष्यों प्रस्तुत किए हैं। शोध कर्ता श्री कौशिकेय के अनुसार उत्तर प्रदेश के शासकीय बलिया गजेटियर में इसका चित्र सहित संपूर्ण विवरण है. 1981 ई. में बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. केके सिन्हा की देखरेख में हुई पुरातात्विक खुदाई में यहां 900 ईसा पूर्व के समृद्ध नगर होने के प्रमाण मिले थे। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर पाण्डुलिपि संरक्षण के जिला समन्वयक श्रीकौशिकेय द्वारा की गई इस ऐतिहासिक खोज से वैदिक ॠषि परशुराम की प्रामाणिकता सिद्ध होने के साथ-साथ इस कालखण्ड के ॠषि-मुनियों वशिष्ठ, विश्वामित्र, पराशर, वेदव्यास के आदि के इतिहास की कड़ियां भी सुगमता से जुड़ जाती है।

एक अन्य मत के अनुसार मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित है जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म हुआ था।  जिसके अनुसार मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित है जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। यहां पर परशुराम के पिता ऋर्षि जमदग्नि का आश्रम था। कहते हैं कि प्रचीन काल में इंदौर के पास ही मुंडी गांव में स्थित रेणुका पर्वत पर माता रेणुका रहती थीं।

एक तीसरी मान्यता अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में उनका जन्म हुआ था। जिसके अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में स्थित एक ऑर्कियोलॉजिकल साइट है जिसे शतमहला कहा जाता है। मान्यता है कि जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका इसी महल में रहती थीं और भगवान परशुराम को जन्म दिया था। कलचा गांव देवगढ़ धाम से महज दो किलोमीटर दूर है और उस पूरे क्षेत्र में ऋषि-मुनियों के इतिहास से जुड़े कई अवशेष बिखरे पड़े हैं। हरे-भरे जंगलों और पहाड़ों से घिरा छत्तीसगढ़ का सरगुजा क्षेत्र प्राचीन काल के दंडकारण्य का हिस्सा है।

एक अन्य चौथी मान्यता अनुसार उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। जिसके अनुसार जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। महर्षि ऋचीक ने महर्षि अगत्स्य के अनुरोध पर जमदग्नि को महर्षि अगत्स्य के साथ दक्षिण में कोंकण प्रदेश मे धर्म प्रचार का कार्य करने लगे। कोंकण प्रदेश का राजा जमदग्नि की विद्वता पर इतना मोहित हुआ कि उसने अपनी पुत्री रेणुका का विवाह इनसे कर दिया। इन्ही रेणुका के पांचवें गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ। जमदग्नि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद धर्म प्रचार का कार्य बन्द कर दिया और राजा गाधि की स्वीकृति लेकर अपना जमदग्नि आश्रम स्थापित किया और पत्नी रेणुका के साथ वहीं रहने लगे। राजा गाधि ने वर्तमान जलालाबाद के निकट की भूमि जमदग्नि के आश्रम के लिए चुनी थी। जमदग्नि ने आश्रम के निकट ही रेणुका के लिए कुटी बनवाई थी आज उस कुटी के स्थान पर एक अति प्राचीन मन्दिर बना हुआ है जो आज 'ढकियाइन देवी' के नाम से सुप्रसिद्ध है।

 'ढकियाइन' शुद्ध संस्कृत का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है वह देवी जिसका जन्म दक्षिण में हुआ हो। रेणुका कोंकण नरेश की पुत्री थी तथा कोंकण प्रदेश दक्षिण भारत में स्थित है। यह वही पवित्र भूमि है जिस पर भगवान परशुराम पैदा हुए थे। जलालाबाद से पश्चिम करीब दो किलोमीटर दूर माता रेणुका देवी तथा ऋषि जमदग्नि की मूर्तियों वाला अति प्राचीन मन्दिर इस आश्रम में आज भी मौजूद है तथा पास में ही कई एकड़ मे फैली जमदग्नि नाम की बह रही झील भगवान परशुराम के जन्म इसी स्थान पर होने की प्रामाणिकता को और भी सिद्ध करती है।

परशुराम के गुरु :

परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की।

परशुराम के शिष्य :

त्रैतायुग से द्वापर युग तक परशुराम के लाखों शिष्य थे। महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष से भरा रहा है।

हैहयवंशी राजाओं से युद्ध :

आम धारणा यह है कि परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियविहीन कर दिया था। यह धारणा गलत है। भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार जिन राजाओं से इनका युद्ध हुआ उनमें से हैहयवंशी राजा सहस्त्रार्जुन इनके सगे मौसा थे। जिनके साथ इनके पिता जमदग्नि ॠषि कई बातों को लेकर विवाद था जिसमें दो बड़े कारण थे। पहला कामधेनु और दूसरा रेणुका।

परशुराम राम के समय में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। भार्गव और हैहयवंशियों की पुरानी दुश्मनी चली आ रही थी। हैहयवंशियों का राजा सहस्रबाहु अर्जुन भार्गव आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। एक समय सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम की कामधेनु गाय को लेने तथा परशुराम से बदला लेने की भावना से परशुराम के पिता का वध कर दिया। परशुराम की मां रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया- मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा।

हैहयवंशियों के राज्य की राजधानी महिष्मती नगरी थी जिसे आज महेश्वर कहते हैं जबकि परशुराम और उनके वंशज गुजरात के भड़ौच क्षे‍त्र में रहते थे। परशुराम ने अपने पिता के वध के बाद भार्गवों को संगठित किया और सरस्वती नदी के तट पर भूतेश्‍वर शिव तथा महर्षि अगस्त्य मुनि की तपस्या कर अजेय 41 आयुध दिव्य रथ प्राप्त किए और शिव द्वारा प्राप्त परशु को अभिमंत्रित किया।

इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भड़ौच से भार्गव सैन्य लेकर हैहयों की नर्मदा तट की बसी महिष्मती नगरी को घेर लिया तथा उसे जीतकर व जलाकर ध्वस्त कर उन्होंने नगर के सभी हैहयवंशियों का भी वध कर दिया। अपने इस प्रथम आक्रमण में उन्होंने राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में ही वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया।

 इसके बाद उन्होंने देशभर में घूमकर अपने 21 अभियानों में हैहयवंशी 64 राजवंशों का नाश किया। इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक थे। इस तरह उन्होंने क्षत्रियों के हैहयवंशी राजाओं का समूल नाश कर दिया जिसे समाज ने क्षत्रियों का नाश माना जबकि ऐसा नहीं है। अपने इस 21 अभियानों के बाद भी बहुत से हैहयवंशी छुपकर बच गए होंगे।

चारों युग में परशुराम :

सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए।

त्रेतायुग में  जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया और इससे पहले उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। द्वापर में उन्होंने ही असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।

मान्यता है कि पराक्रम के प्रतीक भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ, इसलिए वह तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी महापुरुष बने।

 चिरंजीवी हैं परशुराम :

कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं और वे चिरंजीवी हैं। उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे।

भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं।  उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे।

आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा।

इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-

"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नः परशुराम: प्रचोदयात्।"

वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था।

अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

पौराणिक परिचय

परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं[2]। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल ते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना।

वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।

उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी, सही नहीं है क्योंकि इनके शिष्यों में भीष्म और कर्ण भी हैं।

कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय है। वह सदैव ही स्वयं को शुद्र समझता रहा लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा न रह सका। उन्होन परशुराम को यह बात नहीं बताई की वह शुद्र वर्ण के है। और भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त कर ली। किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते है तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।

क्यों हुआ क्षत्रिय स्वभाव

प्राचीन काल में कन्नौज में (ये कोंकण भी हो सकता है) गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें  और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।

क्या है  21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने की कहानी

हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्रार्जुन की मति मारी गई थी।

कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से हैहय क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।

इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

अन्य कथाएँ

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।

उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला।

तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।

जाते जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।

महाभारत काल

भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके। परशुराम को जब  भीष्म की प्रतिज्ञा  के बारे में पता चल तब उन्होंने युद्ध रोक दिया।   

परशुराम अपने जीवन भर की कमाई दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु तब तक वह सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।

परशुराम कर्ण के भी गुरु थे। उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी थी और ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया था। लेकिन कर्ण एक क्षत्रिय पुत्र था जिसका पालन पोषण सारथी के घर गया था इसलिए सूत का पुत्र समझा जाता थाकर्ण ने छल करके झूठ बोलकर परशुराम से विधा प्राप्त की । परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी विद्यायें सिखायीं, लेकिन एक दिन जब परशुराम एक वृक्ष के नीचे कर्ण की गोदी में सर रखके सो रहे थे, तब एक भौंरा आकर कर्ण के पैर पर काटने लगा, अपने गुरुजी की नींद में कोई अवरोध न आये इसलिये कर्ण भौंरे को सहता रहा, भौंरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काटे जा रहा था, भौरे के काटने के कारण कर्ण का खून बहने लगा। वो खून बहता हुआ परशुराम के पैरों तक जा पहुँचा। परशुराम की नींद खुल गयी और वे इस खून को तुरन्त पहचान गये कि यह खून तो किसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी देर तक बगैर उफ़ किये बहता रहा। ये जानकर की एक ब्राम्हण पुत्र में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती कर्ण के मिथ्याचरण  पर उन्होंने उसे ये श्राप दे दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, तब वह उसके काम नहीं आयेगी।

 जो भौरा  कर्ण की जांघ पर बैठ कर  काट रहा था  वह इंद्रदेव थे जो  पता लगाने आए थे क्योंकि कर्ण ने अपनी धनुर विद्या और दिव्य शक्ति से इंद्रदेव को भी परास्त कर दिया था. कर्ण  को श्रापित कराने में इन्द्र की भी बड़ी भूमिका थी।   

मार्शल आर्ट में योगदान

भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं।  वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है। वे स्वयं अत्यंत वीर और बृहद शरीर के थे।  तुलसीदास जी भगवान परशुराम जी की पावन छवि का वर्णन करते हुए कहते हैं-

बृषभ कंध उर बाहु बिसाला।  चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनिबसन तून दुइ बांधें। धनु सर कर कुठारु कल कांधें॥

बृषभ के समान ऊंचे और पुष्ट कंधे हैं, छाती और भुजाएं विशाल हैं। सुंदर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकश बांधे हैं। हाथ में धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण किए हैं। जब क्रोधित हुए भगवान परशुराम जी सभा में पधारे तो सभा में सभी उपस्थित राजा उनके क्रोधित रूप को देखकर भय से व्याकुल हो गए थे।

भगवान परशुराम जी के महान पराक्रम से अधर्मी राजा थर-थर कांपते थे। भगवान शिव से उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए।        

भगवान परशुराम के जीवन से संबंधित विडिओ के 8 एपिसोड  भी बनाए गए हैं जिन्हे यू ट्यूब पर नीचे दिए गए लिंक से सुना और देखा जा सकता है।  

विडिओ -

Parashu Ram EP1- Is he still alive?| Where is he and what is he doing?जिन्दा हैं परशुराम? हैं कहाँ?

https://www.youtube.com/watch?v=k4rj8-sv8jU&t=360s

 

EP2-राम से कैसे बने परशुराम? | विश्वामित्र मित्र जैसे गुरु और भीष्म जैसे शिष्य | कृष्ण को दिया चक्र

https://www.youtube.com/watch?v=ZJ4qqFfeLmQ&t=86s

 

EP3- कितना सच है परशुराम का 21 बार भूमंडल को क्षत्रिय विहीन करना |

https://www.youtube.com/watch?v=mGcn5SDlnU8&t=464s

 

EP4- ब्राह्मण और ऋषि कुल में जन्में परशुराम स्वभाव से क्षत्रिय क्यों थे?

https://www.youtube.com/watch?v=gMI18kHXMlY&t=25s

 

EP5-क्या परशुराम ने अपनी मां का सिर धड़ से अलग कर दिया था | Did Parashu Ram killed his mother ?

https://www.youtube.com/watch?v=cI-wEnoj2PQ

 

परशुराम EP6:क्यों तोडा था गणेश का दांत |क्या सीता स्वयंबर में लक्ष्मण ने परशुराम को हरा दिया था

https://www.youtube.com/watch?v=lI4qMTJT06s&t=9s

 

परशुराम EP7 : क्या परशुराम ने कर्ण को केवल इसलिए श्राप दिया था कि वह सूत पुत्र या गैर ब्राह्मण था ?

https://www.youtube.com/watch?v=4-0S8T-qtnc

 

परशुराम EP8 : भीष्म और परशुराम युद्ध | मार्शल आर्ट के जनक | कोंकण, गोवा और केरल के निर्माता

https://www.youtube.com/watch?v=mnE6lQh2OnE

 

 






                            संकलन कर्ता – शिव मिश्रा

                          https://www.bakjhak.com   

                 

श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...