रविवार, 28 अगस्त 2022

 

भारत छोड़ो, भारत तोड़ो और भारत जोड़ों







कांग्रेस पार्टी एक लंबे अरसे बाद किसी जन संपर्क की शुरुआत करने जा रही है, जिसे नाम दिया गया है भारत जोड़ों यात्रा जो 7 सितंबर 2022 से शुरू होकर कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3570 किलोमीटर की दूरी तय करेगी. इसमें 12 राज्य और दो केंद्र शासित प्रदेश शामिल होंगे. मज़े की बात यह है कि यह पद यात्रा होगी और राहुल गाँधी के नेतृत्व में होगी जबकि वह न तो कांग्रेस के अध्यक्ष और न ही इस समय  कांग्रेस का कोई अध्यक्ष हैं. प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि यह यात्रा 1942 में भारत छोड़ो यात्रा से मिलती जुलती बनाई गई होगी लेकिन वास्तविकता में ऐसा बिलकुल भी नहीं है क्योंकि भारत छोड़ो यात्रा ऐसे  समय की गई थी जब  देशभक्ति का ज्वार चरम पर था, उसके बाद “भारत तोड़ो” यात्रा हुई जिसमें कांग्रेस ने देश का विभाजन स्वीकार किया और जिस कारण सांप्रदायिक दंगों में लाखों लोगो  की दर्दनाक हत्या की गई.



स्वतंत्रता के बाद देश में अधिकांश समय कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित सरकार ही थी जो भारत के आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन जैसी मूलभूत समस्याएं तो नहीं हल कर सकीं  लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए वोटबैंक की राजनीति के अंतर्गत मुस्लिम तुष्टीकरण को बढ़ावा देकर विभाजन की पहले वाली स्थितियां जरूर उत्पन्न कर दीं गईं. इस अभियान का नाम “भारत जोड़ो” किसी के गले नहीं उतर रहा. आखिर भारत कहाँ  टूट रहा है, कहाँ अलगाववादी गतिविधियों चल रही है. पूर्वोत्तर में जहाँ कांग्रेस के समय तमाम अलगाववादी आंदोलन चलते थे वहाँ भी सबकुछ सामान्य है. कांग्रेस शासन में रेडियो, टीवी, बस स्टैंड एअरपोर्ट और हर रेलवे स्टेशन पर उद्घोषणा होती थी कि किसी भी अनजान वस्तु को हाथ न लगाए यह बम हो सकता है, वह स्थिति भी अब नहीं रही. कश्मीर में छुटपुट घटनाएं जरूर हो रही है लेकिन पहले जैसी भयानक स्थिति अब नहीं है. धारा 370 और 35 ए खत्म हो चुकी है. पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक हो चुकी है और अब वह पूरी तरह दबाव  और बेहद खस्ताहाल में है. तो फिर भारत में  क्या जोड़ा  जा रहा है ?  जब राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह कहते हैं कि नफरत का माहौल है, और नफरत के माहौल के विरुद्ध यात्रा निकाली जा रही है, तो इसका निहितार्थ है कि वे भारत का वातावरण विषाक्त करने जा रहे हैं. भारत जोड़ो की परिणति तुष्टीकरण के रूप में निकलने की पूरी संभावना है तब राहुल गाँधी की मंदिर परिक्रमा, जनेऊधारी अवतार और दत्तात्रेय गोत्र का क्या होगा ?

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत जोड़ों अभियान के संयोजक  मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह हैं जो कांग्रेस के उन चुनिंदा नेताओं में से है जो पार्टी को फायदा कम नुकसान ज्यादा पहुंचाते हैं. इस यात्रा में उनके साथ मणिशंकर अय्यर, और सलमान खुर्शीद जैसे नेता भी जुड़ गए तो सोने में सुहागा हो जाएगा. दिग्विजय सिंह ने कहा है कि यह यात्रा नफरत के माहौल में, नफरत के खिलाफ़ की जा रही है. सरकार संविधान विरोधी  कार्य कर रही है, महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, रुपए का अवमल्यून हो रहा है, बड़े उद्योपतितियों का कर्ज माफ हो रहा है, इसलिए देश बचाने के लिए यह यात्रा आयोजित की गई है. कांग्रेस अध्यक्ष चाहती है कि  एक ऐसी यात्रा हो जिसमे सभी धर्म और वर्ग के लोग शामिल हों और देश तथा संविधान बचाया जा सके.

कांग्रेस की इस भारत जोड़ो यात्रा में  योगेन्द्र यादव, मेधा पाटेकर सहित लगभग 150 सिविल सोसायटी के नेता और कार्यकर्ता भी भाग लेंगे, उन्हें  राहुल ने अपनी यात्रा को तपस्या बताते हुए  कहा है कि नफरत फैलाने वालों के अलावा इस यात्रा में सभी का स्वागत किया जाएगा यानी इसमें भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए कोई स्थान नहीं होगा. योगेंद्र यादव और मेधा पाटेकर जैसे नेताओं के बारे में पूरा देश जानता है कि ये पेशेवर आंदोलनकारी हैं और कहीं भी, कभी भी, किसी के भी साथ आंदोलन कर सकते हैं बशर्ते इनका इनका स्वार्थ पूरा हो. यह सभी आंदोलनकारी शाहीन बाग और किसान आंदोलन में  भी थे. मेधा पाटेकर ने तो वर्षों तक नर्मदा बचाओ आंदोलन की आड़ में सिंचाई और अन्य जरूरतों के लिए नर्मदा पर  बनाए जाने वाले बांध को रोके रखा. योगेन्द्र यादव तो यूपीए सरकार के खिलाफ़ अन्ना आंदोलन में भी थे.

कांग्रेस की भारत जोड़ों यात्रा ऐसे समय शुरू हो रही है जब उस उसके पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है. सिकुड़ते सिमटते जनाधार के बीच कांग्रेस के दिग्गज नेता कांग्रेस छोड़ते जा रहे हैं और ऐसे में ये सवाल खड़ा होना बहुत लाजिमी है कि जो पार्टी अपने नेताओं को ही नहीं जोड़ पा रही है वह देश को कैसे जोड़ पाएगी. ये आशंका सही साबित होती जा रही है कि कांग्रेस पार्टी केवल गाँधी परिवार की पार्टी बनकर रह गई है जिसमें केवल परिवार के वफादारों के लिए जगह है और कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति कांग्रेस में नहीं बचेगा.

इस समय विभिन्न क्षेत्रीय नेता प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए अपना दावा ठोक रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव पहले से  ही मैदान में हैं, और बिहार में नीतीश कुमार के पलटी मारने के बाद एक और प्रधानमंत्री मटेरियल दावेदारों में शामिल हो गया है. दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सतेंद्र जैन के भ्रष्टाचार और हवाला मामले में जेल जाने के बाद शराब घोटाला सुर्खियों में है और उसके बाद उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के जेल जाने के हालात बन गए हैं. अपने ऊपर लगे आरोपों को भी अपना हथियार बनाकर विरोधियो पर झूठे आरोप प्रत्यारोप करने में माहिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने लोगों का ध्यान उनके भ्रष्टाचार से ध्यान  हटाने के उद्देश्य से ही सही, यह घोषणा कर दी है कि 2024 में उनका  सीधा मुकाबला भाजपा से होगा और अरविंद केजरीवाल अगले प्रधानमंत्री बनेंगे. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने में असफल रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने भी प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा ठोंक दिया है. ऐसे में कांग्रेस की भारत जोड़ों यात्रा  राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री पद के दावे को मजबूत कर पाएगी, इसमें भी संदेह है.

समझा जाता है कि पांच महीने तक चलने वाली इस यात्रा के बीच में ही कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिल जाएगा जो राहुल गाँधी की इस यात्रा के बाद उनके कद और महत्त्व के सामने  बौना और लुंज पुंज नजर आएगा और उसकी स्थिति मनमोहन सिंह से भिन्न नहीं हो पाएगी. गाँधी परिवार भी यही चाहेगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष गाँधी परिवार के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान हो लेकिन ऐसी स्थिति में वह न तो स्वतंत्र रूप से कार्य कर पाएगा और न ही पार्टी को मजबूत कर पाएगा. इसके परिणाम स्वरूप  गाँधी परिवार हमेशा अपरिहार्य बना रहेगा और यही गाँधी परिवार का लक्ष्य भी है.

2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर अभी से यह सवाल किए जा रहे हैं कि इस लड़ाई में विपक्षी दलों में आपसी सहयोग और सामंजस्य कैसे बनेगा। यदि  कोई गठबंधन बनता भी  है तो उसका नेतृत्व कौन करेगा। भारत जोड़ो यात्रा परोक्ष रूप से गठबंधन के नेतृत्व करने की कांग्रेस क्षमता को रेखांकित करेगी जिसे कितने  विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त होगा, यह भी यक्ष प्रश्न है, क्योंकि इससे न केवल कांग्रेस की राजनैतिक शक्ति का संदेश पूरे देश में जाएगा बल्कि  विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के बारे में भी स्पष्ट धारणा बनती नजर आएगी, यद्यपि क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण ऐसा होना बेहद मुश्किल है.

भारत जोड़ों यात्रा के समक्ष एक सबसे बड़ी चुनौती राहुल गाँधी की देश में उपलब्धता को लेकर भी है क्योंकि वह हर एक दो महीने के अंतराल पर विदेश भ्रमण करते हैं इसलिए कहीं ऐसा न हो कि भारत जोड़ों यात्रा में भारत छोड़ों यात्रा भी शामिल हो जाए. सोनिया, राहुल और यात्रा के संयोजक और संचालकों के वक्तव्यों  से यह धारणा भी बनती जा रही है की यात्रा के दौरान जहर की खेती, मौत के सौदागर जैसी राहुल सोनिया की परंपरागत शैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत के भाव भी व्यक्त किए जा सकते हैं जिससे यह यात्रा सद्भावना की जगह दुर्भावना यात्रा बन सकती है क्योंकि राहुल गाँधी पर किसी का भी नियंत्रण नहीं है और राहुल गाँधी का अपनी भाषा और संवाद शैली पर कोई नियंत्रण नहीं है. इसलिए इस बात की प्रबल संभावना है कि इस यात्रा का लाभ कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को मिल सकता है.

एक और अबूझ पहेली यह है कि इस यात्रा से प्रियंका वाड्रा को एकदम दूर रखा गया है. सोनिया की नजरों में क्या राहुल प्रियंका वाड्रा के तुलना में कमजोर पड़ते जा रहे हैं जो प्रियंका की छाया से राहुल को बचाते हुए “रि-लांच” किया जा रहा है.  

इस यात्रा से कांग्रेस यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि नरेंद्र मोदी का विकल्प राहुल हैं, किंतु इसकी त्वरित प्रतिक्रिया स्वरूप विपक्षी एकता खंडित हो जाएगी क्योंकि प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार कभी राहुल गाँधी को विकल्प स्वीकार नहीं कर सकते. इसलिए इस यात्रा से थोड़े समय के लिए कांग्रेस अपने आंतरिक मुद्दों से जनता का ध्यान तो बंटा सकती है लेकिन लंबी अवधि में इस यात्रा का उसे कोई फायदा होगा यह कहना बहुत मुश्किल है.

-    शिव मिश्रा responsetospm@gmail.com







 

 

 

बॉलीवुड में बायकॉट का ट्रेंड

 

बॉलीवुड और बायकॉट



हाल में आमिर खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के बायकॉट की अपील सोशल मीडिया में सुर्खियों में थी लेकिन आमिर ने इसे हल्के में लिया. जिन कारणों से बायकॉट किया जा रहा था उसके लिए क्षमा याचना तो दूर, खेद भी प्रकट नहीं किया और इसका परिणाम यह हुआ कि फ़िल्म बुरी तरह से फ्लॉप हो गई. इसके पहले भी कई फिल्मों के बायकॉट की अपील की गई थी जिनका प्रभावी असर देखने को मिला था. भारत जैसे देश में जहाँ फ़िल्म सेंसर बोर्ड भी अपना काम निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ न कर पा रहा हो तो बायकॉट प्रगतिशील न होते हुए भी एक अच्छा कार्य है जो समाज को फिल्मी कृतियों से बचाने के लिए फ़िल्म निर्माताओं को अनुशासित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.



स्वतंत्रता प्राप्ति के समय धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे के बावजूद यहां के बहुसंख्यक समुदाय ने उदारता दिखाते हुए भारत में सभी धर्मों के अनुयायियों को समान अधिकार दिए जिसमें इस्लाम के मतावलंबी भी शामिल थे जो अपने लिए पाकिस्तान बना चुके थे।  इस बात में किसी को संदेह नहीं हो सकता कि इस देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुओं की उदारता और सहृदयता के कारण ही बचा हुआ है।  दुर्भाग्य से विभाजन  के बाद  हिंदी फ़िल्म जगत को ऐसे लोगों ने ही  अपने कब्जे में कर लिया जिन्होंने भारत को  विभाजित करने   और पाकिस्तान बनाने में  महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा की थी. विभाजन के बाद ऐसे सांप्रदायिक और जिहादी मानसिकता के तत्व भारत में ही रहे  और कुछ प्रगतिशील लेखक मंच में शामिल हो गए और कुछ वामपंथी दलों में लेकिन बड़ी संख्या में लोग तुष्टीकरण के  लाभार्थी बनने के लिए कांग्रेस से जुड़ गए. इन सभी ने मिलकर हिंदी फ़िल्म जगत का  हिंददुओं  और सनातन संस्कृति के प्रति घातक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. इस गिरोह ने पटकथा, गीत, संगीत, संवाद और अभिनय  के माध्यम से सनातन संस्कृति को लांछित और अपमानित करने का जितना घृणित कार्य किया उतना  विदेशी आक्रांता भी नहीं कर सके थे.

दुर्भाग्य से फ़िल्म जगत से जुड़े हिंदू और सनातनी लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया और न हीं दर्शकों की तरफ से ही  कोई प्रतिवाद किया गया. दर्शकों के डर से पहले मुस्लिम कलाकार हिंदू नाम रखकर कार्य करते थे. कालान्तर में  यह सभी मुखर होकर  मुस्लिम नाम  से न केवल कार्य करने लगे बल्कि  हिंदू और सनातन संस्कृति पर प्रहार करके पूरे सनातन समाज को विकृत और दिग्भ्रमित करने का कार्य  करने लगे. ऐसे लोगो में नामचीन पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार, संवाद लेखक ओर नायक नायिकाओं तथा अतिरिक्त भूमिकाएं निभाने वाले लोग भी शामिल हैं.

सनातन धर्म दुनिया का है एक मात्र धर्मनिरपेक्ष और सर्वाधिक  उदार धर्म है जिसकी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित है और जिसमें सभी धर्मावलंबियों के लिये सम्मान  एवं सामानता की अवधारणा का मूल तत्व है. शुरुआत में हिंदी फ़िल्म जगत में  ऐसी फ़िल्में बनती थी जिसमें कोई न कोई धार्मिक गीत भजन आदि अवश्य होता था और उनके कथानक में हिंदू धर्म के प्रति आदर और ईश्वर के प्रति गहरी आस्था होती थी. संभवत: दर्शकों में फ़िल्म की स्वीकार्यता बनाना और पैसे कमाना इसका उद्देश्य रहा होगा. दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म की उदारता को मूर्खता और कायरता मानकर सनातन के प्रति घृणा का भाव रखने वाले कट्टरपंथियों  द्वारा  सुनियोजित षड़यंत्र के अंतर्गत हिन्दुओं में  हीनभावना भरने और उनके धर्मग्रंथों के विरुद्ध भ्रामक प्रचार करने के लिए फिल्मों को माध्यम बनाने लगे.

आज ऐसी अनगिनत फ़िल्में हैं जिनमें हिंदू देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया है तथा हिंदू संस्कृति को दकियानूस, अंधविश्वासी और पिछड़ा साबित करने का कार्य किया गया है. सेंसर बोर्ड  भी प्रगतिशीलता के नाम पर खामोश रहा और आज भी यह घृणित कार्य बदस्तूर जारी है. फ़िल्में केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं होती बल्कि ये इतिहास का हिस्सा  भी होती  हैं जिनका प्रत्यक्ष रूप से मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है, ये  किसी देश की संस्कृति को प्रदुषित और संक्रमित करने में वायरस सी भी अधिक तेज गति से कार्य करती है. इसलिए हिंदी फ़िल्म जगत में किया गया यह घृणित कार्य, गलत इतिहास लिखे जाने से भी ज्यादा बड़ा संगीन अपराध है .

भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद के तत्कालीन प्रोफेसर धीरज शर्मा ने हिंदी फ़िल्म जगत के इस चलन पर शोध किया था जिसके नतीजे आश्चर्यजनक है, जिसके अनुसार बॉलीवुड की फिल्मों में 58% भ्रष्ट नेताओं को ब्राह्मण दिखाया गया है. 62% फिल्मों में बेइमान कारोबारी को वैश्य दिखाया गया है. फिल्मों में 74% फीसदी सिख किरदार मज़ाक का पात्र बनाया गया. जब किसी महिला को बदचलन दिखाने की बात आती है तो 78 % उनके नाम ईसाई होते हैं. 84% फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला, बेहद ईमानदार दिखाया गया है, यहां तक कि अगर कोई मुसलमान खलनायक हो तो वो भी उसूलों का पक्का हे दिखाया जाता है और उसे गरीबों के मसीहा और रॉबिनहुड की तरह दर्शाया जाता है.

सरकारी संरक्षण में पल रहे इन कट्टरपंथियो का गिरोह इतना शातिर है कि  फ़िल्म सेंसर बोर्ड पर भी इनका कब्जा है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कलात्मकता हे की आड़ में न जाने कितने घृणित कारनामे फिल्मों के माध्यम से किए गए.  2014 में आमिर की फिल्म पीके में हिंदू देवी देवताओं जितना अपमान किया गया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. हिंदू संगठनों ने इसके विरुद्ध आवाज तो उठाई लेकिन आमिर खान ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि  जिसे अच्छी लगे वह देखें और जिसे  अच्छी न लगे वह न देखें.  इससे आमिर जैसे एजेंडा धारी कट्टरपंथियों का हौसला पता चलता है. हिंदू संगठनों के बहिष्कार की अपील के बाद भी फ़िल्म ने 340 करोड़ से अधिक की कमाई की थी. पीके फ़िल्म की सफलता से यह बात भी रेखांकित होती है  कि दशकों तक बॉलीवुड द्वारा हिंदू धर्म के विरुद्ध किए जा रहे दुष्प्रचार ने  हिंदुओं का मन मस्तिष्क कितना दूषित कर दिया है .

सोशल मीडिया क्रांति ने हिंदू जन जागरण के  अभियान में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसके कारण हिंदू समाज अब इन कट्टरपंथियों का सफलता पूर्वक सामना करने के लिए तैयार हो गया है. यही कारण है कि द कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म के विरुद्ध इस गिरोह के घृणित दुष्प्रचार के बाद भी जनता ने उसे हाथों हाथ लिया और कई ऐसी फिल्मों का सफलतापूर्वक बायकॉट भी किया जिनमें कट्टरपंथियों का एजेंडा शामिल था.

हाल में राष्ट्रवादियों द्वारा आमिर खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के बहिष्कार की अपील की गई थी जिसका कारण आमिर का हिंदू देवी देवताओं और सनातन संस्कृति के प्रति अनादर का भाव और अतीत में किए गए दुष्कृत्य हैं. लाल सिंह चड्ढा बुरी तरह से फ्लॉप हो गयी. यद्द्यपि फिल्म फोरेस्ट गंप के की नक़ल है लेकिन इसमें शातिराना तरीके से बहुत सी आपत्तिजनक् बातें डाली गयी हैं, जैसे मुंबई का आतंकवादी हमला, अयोध्या बाबरी विवाद, कारगिल युद्ध आदि. भारतीय सेना का भी अपमान किया गया है. यह भी समझ से परे है कि फ़िल्म का नाम लाल सिंह चड्ढा ही क्यों रखा गया है? मोहम्मद जमालउद्दीन सिद्दिकी या ताहिर हुसैन कुरेशी आदि क्यों नहीं? इसलिए क्योंकि भारत में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में आमिर जैसा कट्टरपंथी व्यक्ति, हिंदुओं ओर सिखों का अपमान बड़े आराम से कर सकता है. आमिर की ज्यादातर फिल्मों की तरह इसमें भी पाकिस्तान को बहुत अच्छा बताने की कोशिश की गई है.

इस फ़िल्म से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि आमिर खान जैसे लोग न सुधरे हैं न सुधरेंगे. आमिर खान कट्टर पंथी मुसलमान है, इससे कोई समस्या लेकिन अगर वह कहें कि उनकी बीवी तो हिंदू होगी लेकिन बच्चे मुसलमान होंगे, तो ये  अपमान जनक है. लव जिहाद से उन्होंने अभी तक दो शादियां की हैं और वह भी दोनों हिंदू लड़कियों से, जिनके बच्चों को मुसलमान बनाकर उन्हें  तलाक दे दिया. उन्होंने नरेन्द्र मोदी की  जमकर भर्त्सना करते हुए उन्हें मुस्लिम नरसंहार का जिम्मेदार ठहराया था, जबकि गोधरा नरसंहार के बारे में उन्होंने जबान भी नहीं खोली थी. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दूसरे कट्टरपंथियों के साथ  उन्हें भी  हिंदुस्तान में डर लगा था. लाल सिंह चड्ढा  की एक पात्र करीना खान का परिवार विभाजन के समय पाकिस्तान से मार कर भगाया गया था लेकिन उसने उन्ही अफगान लुटेरों के वंशज से शादी की ओर बेटे का नाम रखा तैमूर, जो सभी हिंदुओं के लिए अपमानजनक है और  लोग इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं.

किसी भी फ़िल्म या वस्तु का सांप्रदायिक आधार पर बायकाट नहीं होना चाहिए लेकिन जो व्यक्ति या संस्थाये हिंदू देवी देवताओं का अपमान करें, सनातन संस्कृति का उपहास उड़ा कर उसके विरुद्ध अभियान चलाएं,  और  देश विरोधी गतिविधियों में शामिल हों, उनके विरुद्ध लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से विरोध स्वरूप जो भी करना पड़े, अनुचित नहीं कहा जा सकता. सनातन संस्कृति को बचाने, सुरक्षित और सरंक्षित करने के लिए, सरकार की भरोसे न बैठ कर समूचे  हिन्दू समाज को स्वयं आगे आकर आवश्यक कदम उठाने पड़ेंगे.

-    शिव मिश्रा




मंगलवार, 23 अगस्त 2022

आप और भाजपा के बीच सीधी टक्कर - केजरीवाल होंगे प्रधान मंत्री

 



कहते हैं कि जब तक दुनिया में मूर्ख लोग हैं तब तक चालाक और शातिर लोगों की दुकानदारी बड़े मज़े से चलती रहेंगी. ये बात अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के गठन के समय ही सिद्ध कर दी थी.

इस पार्टी का गठन ही छल, कपट, धोखाधड़ी और विश्वासघात की नीति पर हुआ है, इसमें कपटपूर्ण बयानबाजी की महत्वपूर्ण भूमिका है. इसलिए आम आदमी पार्टी के नेता क्या कहते हैं? क्या करते हैं? यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है, समझदार लोगों को इसके पीछे की सच्चाई को स्वयं समझना और सावधान रहना पड़ेगा, लेकिन लालची और मूर्ख लोगों को फंसते रहना होगा.

भारत के संविधान में बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली के रूप में की गई बहुत बड़ी भूल का आम आदमी पार्टी और उनके जैसी पार्टियों के शातिर नेता हमेशा दोहन करते रहेंगे, देश बचे न बचे इनकी बला से.

वामपंथियों ने पूरी दुनिया में यह सफल प्रयोग किया है कि एक झूठ को अगर 100 बार दोहराया जाए तो वह सही जैसा लगने लगता है, जिसके द्वारा लोगों को भ्रमित किया जा सकता है. आदमी पार्टी और उसके सुप्रीमों अरविंद केजरीवाल इस फार्मूले का भरपूर प्रयोग करते हैं.

उनका दूसरा प्रयोग है कि अपनी किसी भी गलती को महिमामंडित करके लोगों की नजरों से दूर किया जा सके. इन दोनों सूत्रों से ही आम आदमी पार्टी वर्तमान परिस्थितियों से लड़ने की कोशिश कर रही है.

जब बात शराब घोटाले की होती है तो वहाँ पर ये लोग शिक्षा नीति की बात करते हैं, जब बात मनी लॉन्ड्रिंग की होती है तो यह मोहल्ला क्लीनिक की बात करते हैं, जब बात अरविंद केजरीवाल के घोटाले में शामिल होने की होती है तो वह 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी से सीधा मुकाबला करने की बात करते हैं.

इसे अति आत्मविश्वास कहा जाए, बेशर्मी या बेहयाई कहा जाए, आम आदमी पार्टी हमेशा ऐसे वक्तव्य देती है जैसे नाटक के मंच पर कोई किरदार अपने डायलॉग बोलता है.

कई बार खराब डायलॉग भी लोगों के दिमाग में बहुत अधिक असर डालते हैं. “ये हाथ हमको दे दे ठाकुर” शोले फ़िल्म के इस डायलॉग की पृष्ठभूमि बहुत अमानवीय, हिंसात्मक, विकृत मानसिकता और राक्षसी प्रवृति की है, लेकिन इसके बाद भी न जाने कितने लोग इस डायलॉग को अपने जीवन में बिना किसी हिचकिचाहट के दोहराते हैं. आम आदमी पार्टी भी अपनी निम्नस्तरीय और विकृति परिस्थितियों को आकर्षक ढंग से पेश करके इसी मानसिकता को भुनाने की विशेषज्ञ है.

आम आदमी पार्टी के लोकसभा में सदस्य संख्या लगभग नगण्य है, और 2024 के चुनावों में भी यह पार्टी चमत्कार करके बहुमत प्राप्त कर लेगी इसकी कल्पना हैरी पॉटर भी नहीं कर सकता. इसलिए इस तरह के वक्तव्य से समझदार व्यक्ति तो आम आदमी पार्टी से और अधिक दूर हो जाते हैं लेकिन दिल्ली घेरकर बैठे रोहिंग्या, बांग्लादेशी और एक वर्ग विशेष के लोग शायद खुशी से उछलने लगते होंगे.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

वीर सावरकर नायक या खलनायक

 

वीर सावरकर नायक या खलनायक  


                     (अंडमान सेलुलर जेल फोटो स्वयं )

                  ( सेलुलर जेल में वीर सावरकर की कोठारी) 

वीर सावरकर का नाम एक बार फिर विवादों में घसीटा जा रहा है, जिसकी  शुरुआत “अंतिम जन पत्रिका” में उनकी प्रशंसा में छपे लेखों के बाद शुरू हुई जिसके संपादक भाजपा नेता विजय गोयल हैं. अमृत महोत्सव में हर घर तिरंगा अभियान के दौरान कर्नाटक के सिमोगा में वीर सावरकर के पोस्टर लगाने पर उन्हें सांप्रदायिक विवाद का केंद्र बिंदु बनाने की कोशिश की गयी. मुस्लिम उग्रवादी तत्वों द्वारा सावरकर के पोस्टरों को हटाकर टीपू सुल्तान के पोस्टर लगाए गए, जिससे इस विवाद ने सांप्रदायिक मोड़ ले लिया. वीर सावरकर और टीपू सुल्तान के बीच कोई तुलना नहीं हो सकती क्योंकि जहाँ वीर सावरकर प्रखर  राष्ट्रवादी, महान विचारक, लेखक तथा महान स्वतंत्रता सेनानी थे, वही टीपू सुल्तान घोर सांप्रदायिक और कट्टर मुसलमान था जिसने लाखों हिंदुओं की हत्याएं की और जबरन धर्मांतरण करवाया तथा आतंक का राज्य कायम किया.

कर्नाटक में पिछले काफी दिनों से किसी न किसी कारण साम्प्रदायिक वातावरण बनाने की कोशिश हो  रही है.यहाँ कई क्षेत्र पीएफआई जैसे कट्टर वादी संगठनों की प्रयोगशाला बन गये हैं, जो हर समय  सांप्रदायिक हिंसा फैलाने की कोशिश में लगे रहते हैं. इसके लिए एआईएमआईएम जैसी सांप्रदायिक पार्टियों का समर्थन मिलना तो बहुत स्वाभाविक है लेकिन कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल का इसे राजनीतिक समर्थन देना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. शायद कांग्रेस को नहीं मालूम कि अब वह दिन नहीं रहे जब वह एक वर्ग विशेष का तुष्टीकरण करके, हिंदू और हिंदुत्व की बात करने वाले को लांछित कर, हिंदू समाज को बांटकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध कर लेती थी लेकिन  कांग्रेस है कि मानती नहीं.





सेलुलर जेल में प्रदर्शन हेतु रखा कोल्हू)





विश्व के इतिहास में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं  मिलता जो कवि हो, लेखक हो, महान चिन्तक हो, और  क्रांतिकारी भी हो लेकिन विनायक दामोदर सावरकर में यह सब कुछ था, जो उन्हें अन्य सभी समकालीन राजनेताओं से बिल्कुल अलग व्यक्तित्व बनाता है. यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वह विश्व के अत्यंत  प्रतिभावान दुर्लभ राजनेताओं में से एक है, जिनकी राष्ट्रसेवा और विचारधारा को कलंकित करने का महापाप किया गया. भारत की स्वतंत्रता में वीर सावरकर का योगदान अमूल्य है. उन्होंने देश के भीतर और बाहर रहते हुए आज़ादी के लिए क्रांतिकारी गति विधियां चलाई और अंग्रेज़ों के विरुद्ध अभियान छेड़कर, ब्रिटिश सरकार की नाक में दम कर दिया. सावरकर से  घबराकर अंग्रेज़ी सरकार ने 1910 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी. 1911 में उन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया. विश्व इतिहास में ये पहली घटना है जब किसी व्यक्ति को दो-दो बार आजीवन कारावास की सज़ा दी गई हो.


      ( वीर सावरकर की कोठारी के के अन्दर का द्रश्य  फोटो स्वयं )


स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में जवाहरलाल नेहरू राजनीतिक रूप से शक्तिशाली कभी नहीं रहे लेकिन चूंकि उनका शक्तिपुंज गाँधी और एडविना माउंटबेटन थे, वह अपने समकालीन सभी स्वतंत्रता सेनानियों और राजनेताओं पर भारी पड़ते थे और उन्हें सत्ता हथियाने और सत्ता का केंद्र बनने में कभी  कोई मुश्किल सामने नहीं आई. बावजूद इसके राजनीतिक रूप से वह  सदैव अपने आप को असुरक्षित महसूस करते थे और हर उस व्यक्ति को किसी न किसी तरह निपटाने का काम करते थे जिससे उन्हें राजनीतिक खतरा होता था. वीर सावरकर के व्यक्तित्व को भी इसी तरह कलंकित करने का कार्य किया गया ताकि हिंदू समाज उनकी विचारधारा से प्रभावित होकर नेहरू को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग थलग न कर दें. नेहरू के संरक्षण में चाटुकार इतिहासकारों ने भारतीय सनातन संस्कृति को कलंकित करने के साथ साथ भारत के महान विचारको और मनीषियों को लांछित करने का कार्य किया ताकि हिंदू समाज कभी एक न हो सके और अंग्रेजों की तरह नेहरू परिवार निर्बाध रूप से भारत की सत्ता पर कब्जा जमाए रख सके, चाहे भारत राष्ट्र नष्ट ही क्यों न हो जाए.

1910 में  वीर सावरकर को नासिक के कलेक्टर की हत्या के आरोप में लंदन से गिरफ्तार किया गया था और  पहले उनके भाई को भी इसी मामले में गिरफ्तार किया जा चुका था. उन पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से अपने भाई को एक पिस्टल भेजी थी, जिसका हत्या में इस्तेमाल किया गया था. उन्हें दो दो बार आजीवन कारावास दिया गया था जिसके लिए उन्हें  अंडमान की सेल्युलर जेल की काल कोठरी में डाल दिया गया. नौ वर्ष से अधिक समय तक वह जिस 7x13 फिट की कोठरी में रहे  उसी में उन्हें लघु शंका और कभी कभी दीर्घशंका भी करनी होती थी. उसी कोठरी में कंकड़ की सहायता से उन्होंने दीवारों पर 66 कविताएं लिखीं और कंठस्थ की, जिन्हें जेल से छूटने के बाद ही कागज पर उतारा जा सका. जेल के सभी कैदियों को जानवर की तरह कोल्हू में कंधा देकर तेल निकालना होता था और नारियल तोड़कर उनकी रेसे निकालने का काम दिया जाता था. काम में देर होने या पूरा न होने पर कैदियों को भयानक अमानवीय यातनाएं दी जाती थी. सावरकर की कोठरी के नीचे ही फांसीघर था, जहाँ दो तीन कैदियों को रोज़ फांसी दी जाती थी, जिससे उनके व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा था. इस स्थिति में उन्होंने अपने और अन्य कैदियों को जेल से मुक्त करने के लिए लिए अंग्रेजी शासन को कई बार पत्र लिखा, जिसे आज कांग्रेस द्वारा उनके माफीनामे के तौर पर प्रचारित किया जाता है और उनकी राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं.  

वीर सावरकर और जवाहरलाल नेहरू के कैदी जीवन की तुलना नहीं की जा सकती है. नेहरू बहुत कम समय जेल में रहे जहाँ उनसे  नाश्ते और खाने का मीनू पूछा जाता था, उन्हें जरूरत की सभी सुविधाएं मिलती थी. जब सावरकर कोल्हू से तेल निकाल रहे होते थे, नेहरू जेल में मनपसंद स्वादिष्ट भोजन करते थे, समाचार पत्र, पत्रकायें पढ़ते थे और आगंतुकों से मुलाकात करते थे. अपनी बेटी इंदिरा और अन्य नेताओं को पत्र लिखते थे,किताबें लिखते थे. जेल के कई संतरी उनकी सेवा में हमेशा उपस्थित रहते थे. अगर ऐसी जेल मिले तो आज भी भारत की बड़ी संख्या स्वेच्छा से पूरा जीवन जेल में ही व्यतीत करने के लिए तैयार हो जाएगी.

नेहरू के इशारे पर 1948 में गांधी की हत्या के छठवें दिन वीर सावरकर को गाँधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था. आज यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि तत्कालीन सरकार ने गाँधी की हत्या के षड्यंत्र को विफल करने का प्रयास नहीं किया जबकि षडयंत्र की सूचनाएं सरकार तक लोगों ने स्वयं पहुंचाई थी. आज तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि गांधी पर जान लेवा हमले के बाद भी उन्हें यथाशीघ्र अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया गया और उन्हें मृत घोषित करने के बाद पोस्टमॉर्टम क्यों नहीं कराया गया. घटनास्थल पर भी पुलिस ने किसी को भी पकड़ने का प्रयास नहीं किया, नाथूराम गोडसे स्वयं जाकर पुलिस के हवाले हुआ था, अगर वह चाहता तो सफलतापूर्वक भाग सकता था.

गाँधी की हत्या के बाद सरकार ने हत्या की गुत्थी सुलझाने में कम, हिंदूवादी शक्तियां को फंसाने का प्रयास ज्यादा किया. वीर सावरकर को गिरफ्तार करने में भी सरकार के इरादे नेक नहीं दिखाई पड़ते क्योंकि कोई साक्ष्य न होने के कारण उन्हें फरवरी 1949 में रिहा कर दिया गया. ऐसा लगता है कि सरकार ने यह सब वीर सावरकर की  छवि खराब करने और गाँधी हत्या का दोष हिंदू समुदाय के मत्थे मढने ले लिए किया जिसका उद्देश्य समझना मुश्किल नहीं है.  

सावरकर के विरुद्ध दुष्प्रचार में कांग्रेस को स्वाभाविक रूप से वामपंथियों और मुस्लिम समुदाय का समर्थन प्राप्त होता है, क्योंकि सनातन संस्कृति को विकृत रूप में प्रस्तुत करना, हिन्दुत्ववादी शक्तियां को लांछित कर कमजोर करना, हिंदू समाज को बांटकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना, इन सब का पुराना अजेंडा है. अब स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी है, बदलते भारत में अब इस तरह के दुष्प्रचार और स्वार्थ सिद्धि के प्रयास सफल नहीं हो पाएंगे.

देश के सभी प्रमुख नेताओं ने कभी भी उनकी देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाएं और उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी बताया. स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के कारण ही संसद भवन में गांधी के ठीक सामने उनकी तस्वीर लगाई गई है. अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें भारत रत्न देने की तैयारी की थी जिसपर तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायण ने राजनीतिक कारणों से सहमति नहीं दी. अब समय आ गया है कि वर्तमान सरकार देर से ही सही स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका और राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को रेखांकित करने के लिए उन्हें यथाशीघ्र भारत रत्न प्रदान करें.

हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्व सरमा  ने राज्य के एक हजार छात्रों को अंडमान की सेल्युलर जेल का अध्ययन करने के लिए भेजने की घोषणा की है, जो अत्यंत सराहनीय है. निश्चित रूप से इस से वीर सावरकर सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की राष्ट्रभक्ति और  स्वतंत्रता के लिए किए गए अप्रतिम बलिदान की कहानी रेखांकित हो सकेगी. अच्छा तो यह होगा कि अन्य राज्य सरकारे भी इस तरह के कदम उठाए ताकि वीर सावरकर सहित कांग्रेस सरकार के प्रतिशोध और उपेक्षा का शिकार हुए अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में छात्रों और देश को जानकारी उपलब्ध हो.

-             -    शिव मिश्रा

 

रविवार, 14 अगस्त 2022

क्या सुशील मोदी को उप मुख्य मंत्री न बनाना , भाजपा को भारी पडा ?

 


लोग कहते हैं कि भाजपा ने सुशील मोदी को किनारे लगा कर बहुत बड़ी गलती की लेकिन ये सही नहीं है लोगों को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि बिहार में नीतीश और सुशील मोदी की जोड़ी जय और वीरू की तरह जानी जाती थी. सुशील मोदी 2013 में भी नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री थे और उस समय भी नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर जंगलराज  का दामन थाम लिया था, जिसके खिलाफ़ वह भाजपा के साथ मिलकर पिछले 10 वर्षों से लड़ रहे थे. इसलिए अगर आपकी बार भी नीतीश ने भाजपा का साथ छोड़ने का मन बना लिया था तो सुशील मोदी कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं कर सकते थे.

अगर कांग्रेस को छोड़ दें तो बिहार की दुर्दशा के लिए तीन बड़े गुनहगार है और वे है लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी. ये तीनों विश्वविद्यालय के समय से ही बड़े अच्छे दोस्त हैं. ये तीनों ही जेपी आंदोलन की उपज है.  सुशील मोदी विद्यार्थी परिषद के माध्यम से भाजपा पहुंचे और नीतीश लालू एक ही दल में एक साथ थे वे जनता पार्टी के विघटन के बाद अलग हुए और धुर विरोधी बन गए. लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री का पद हथियाने में कामयाब हो गए और लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोककर उन्होंने  वर्ग विशेष में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था और उसके बाद एम् वाई  फैक्टर लालू की जीत की गारंटी बन गया था. दुर्भाग्य से नीतीश कुमार भी तुष्टीकरण के माध्यम से एम सेक्टर को हथियाने की कोशिश करते रहे लेकिन लालू यादव जैसे घाघ  नेता के समक्ष सफल नहीं हो सके.

नितीश बेहद मजबूरी में ही भाजपा के साथ सिर्फ इसलिए थे क्योंकि भाजपा के कंधे पर बैठकर वे बिहार के मुख्यमंत्री बन सकते थे. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वह केंद्रीय मंत्री थे और विधानसभा के चुनाव में भाजपा जेडीयू गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन साबित हुआ. नीतीश ने वाजपेयी जी को आश्वस्त किया था कि वे बहुमत का जुगाड़ कर लेंगे और इसलिए मुख्यमंत्री बन गए लेकिन 7 दिन के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और उनका जलवा यह था कि वह पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए.

2005 के विधानसभा चुनाव में भाजपा जदयू गठबंधन को जबरदस्त सफलता मिली और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए. उस समय तक उनकी अभिलाषा सिर्फ मुख्यमंत्री बनने की थी लेकिन 2010 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा के ही कुछ नेताओं ने उन्हें इमली के पत्तों पर यह कह कर बैठा दिया कि वह प्रधानमंत्री मैटीरियल है. गलतफहमी का शिकार हुए नीतीश ने राजनीतिक शुचिता और नैतिकता का तो कभी भी पालन नहीं किया था पर पाखंड जरूर करते थे. 2013 में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया तो उनके अंदर बैठा हुआ प्रधानमंत्री मैटीरियल मचल उठा और उसने नैतिकता के सारे मापदंड ध्वस्त करते हुए भाजपा से किनारा कर लिया और जंगलराज का साथ पकड़ लिया. सभी आवक रह गयी लेकिन नीतीश को मनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया. लोकसभा में भाजपा की जबरदस्त सफलता के बाद उन्हें एहसास हुआ कि बहुत बड़ी गलती हो गई है इसलिए 2015 में विधानसभा चुनाव लालू के साथ लड़ते हुए उन्होंने बहुमत जरूर हासिल किया लेकिन उन्हें संतोष नहीं हुआ और कुछ ज्यादा पाने  के लालच में उन्होंने फिर पाला बदल लिया और भाजपा के साथ चले गए. इस समय भी उनके लिए माध्यम बनने का कार्य किया सुशील मोदी ने. अगर उस समय भाजपा ने उनको साथ नहीं लिया होता तो 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी हो सकती थी. इन चुनावों में नीतीश के साथ मिलकर भाजपा ने अपना परचम फहराया और सशक्त सीटें विधानसभा में प्राप्त की लेकिन अपने बलबूते पर बहुमत प्राप्त करने से बहुत दूर रही.

2020 के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा को नीतीश को कंधे पर बैठाकर चलना अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वे उसी समय फिर जंगलराज के साथ मिलकर सरकार बना लेते क्योंकि चालाकी, और विश्वासघात नीतीश की फितरत में शामिल हैं. इसलिए लालू ने उन्हें पलटूराम और सांप बताया था जो हर 2 साल में केंचुल बदल लेता है.

भाजपा जनता दल यू गठबंधन के पिछले 22 साल का विश्लेषण यह बताता है किस गठबंधन का सबसे अधिक फायदा जनता दल यू और खासतौर से नीतीश कुमार ने उठाया और भाजपा को छोटा भाई बने रहने देने की हरसंभव कोशिश की. एक राष्ट्रीय दल होने के नाते भाजपा ने बिहार में विस्तार के लिए योजना बनाई थी और उस योजना के तहत उन्होंने डॉक्टर और दवा दोनों बदल दी यानी सुशील मोदी को बिहार से निकालकर राज्यसभा भेज दिया और एक नई टीम का प्रयोग किया. दो उपमुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और मंत्री सब मिलकर बिहार की सामाजिक और जातिगत ढांचे में पूरी तरह से फिट बैठते थे. नितीश इस सब से बहुत खुश नहीं थे और उनको लगता था कि अगले चुनावों तक भाजपा अपने दम पर बहुमत प्राप्त कर लेगी और फिर उनको दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर करेगी. भाजपा की नई टीम उनको उस तरह से काम भी नहीं करने दे रही थी जैसा सुशील मोदी के जमाने में हो जाता था और इसलिए उनकी छटपटाहट बढ़ती गयी. बहाना चाहिए आरसीपी सिंह का हो, या जनता दल यू तोड़ने का हो लेकिन असलियत यह थी कि वह अपने अस्तित्व को लेकर बहुत बेचैन थे. राष्ट्रपति बनने के लिए भी उन्होंने संदेश दिया लेकिन नरेंद्र मोदी के मन में द्रोपदी मुर्मू की योजना बहुत पहले से थी. राष्ट्रपति के बाद उपराष्ट्रपति के लिए भी संदेश दिया और इसे भी भाजपा ने सुना अनसुना कर दिया क्योंकि भाजपा को धनखड़ के जरिए जो राजनैतिक फायदा हो सकता था वह नीतीश कुमार को उप राष्ट्रपति बनाने से नहीं मिलता. इसलिए बात यह भी नहीं बनी और इसलिए बड़ी हताशा और निराशा में उन्होंने भाजपा गठबंधन तोड़ दिया और फिर उसी जंगल राज में शामिल हो गए जिससे लड़कर ही उन्होंने अपना कद बड़ा किया था.

इसलिए इस पूरे घटनाक्रम से सुशील मोदी अगर कुछ कर सकते थे तो वह समझौतावादी राजनीति होती है जो केवल नीतीश कुमार के लिए सुविधाजनक होती लेकिन भाजपा को आगे बढ़ने से रोकती. अबकी बार भी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को बहुत पहले से मालूम था कि नीतीश कुमार पलटी मारेंगे और इसलिए भाजपा ने जनता के सामने उनके कद को इतना छोटा कर दिया था जिसे सामान्य करने में उन्हें बहुत समय लगेगा. यह भी बिल्कुल सही है कि अगर बिहार की नीतीश सरकार पूरे पांच वर्ष चलती तो नीतीश कुमार बिहार के राजनैतिक परिदृश्य में खासी पर पहुँच जाते. इसलिए राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश ने अपने जीवन का आखिरी दांव लगाया है और इस बात की पूरी संभावना है कि भाजपा से वह अपनी जो राजनैतिक पूंजी बचाकर लाए हैं वह आरजेडी उनसे छीन लेगी और इसके बाद नीतीश कुमार न घर के रहेंगे न घाट के. नीतीश ने ऐसा अपने दल के कई नेताओं के साथ किया है उनमें जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव जैसे नेता भी शामिल है, इसलिए इतिहास अपने आप को दोहराने के कगार पर खड़ा है.

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने यह फैसला किया कि उन्हें बैसाखी से छुटकारा पाना ही होगा इसलिए नीतीश कुमार को मनाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि सबका ध्यान इस पर था कि बिहार में पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को नए सिरे से बनाया जाए, मजबूत किया जाए और अपने दम पर सरकार बनाने का प्रयास किया जाए.

इसलिए भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के इस नए विश्वासघात से बिल्कुल भी चिंतित दिखाई नहीं पड़ता और सुशील मोदी भी नीतीश कुमार के विरुद्ध जमकर खड़े हो गए हैं.

इसलिए भाजपा का सुशील मोदी को बिहार से दूर करने का आशय देखिए राज्य संगठन का नए सिरे से पुनर्गठन करके जनाधार बढ़ाना था जिसपर भाजपा ने बहुत तेजी के साथ कार्य भी किया है पर पार्टी लोक सभा और विधानसभा के चुनावों की तैयारी सभी सीटों पर  पूरे जोरशोर कर रही थी, जिससे नीतीश कुमार  सशंकित थे. वर्तमान घटनाक्रम का लाभ निश्चित रूप से भाजपा को मिलेगा.  

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क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे?

  मोदी के तेवर बदल गयें हैं और भाषण भी, क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे? लोकसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के तुरंत बाद मोदी की भाषा और ...