बॉलीवुड
और बायकॉट
हाल
में आमिर खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के बायकॉट की अपील सोशल मीडिया में
सुर्खियों में थी लेकिन आमिर ने इसे हल्के में लिया. जिन कारणों से बायकॉट किया जा
रहा था उसके लिए क्षमा याचना तो दूर, खेद भी प्रकट नहीं किया और इसका परिणाम यह
हुआ कि फ़िल्म बुरी तरह से फ्लॉप हो गई. इसके पहले भी कई फिल्मों के बायकॉट की अपील
की गई थी जिनका प्रभावी असर देखने को मिला था. भारत जैसे देश में जहाँ फ़िल्म सेंसर
बोर्ड भी अपना काम निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ न कर पा रहा हो तो बायकॉट
प्रगतिशील न होते हुए भी एक अच्छा कार्य है जो समाज को फिल्मी कृतियों से बचाने के
लिए फ़िल्म निर्माताओं को अनुशासित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय धार्मिक
आधार पर देश के बंटवारे के बावजूद यहां के बहुसंख्यक समुदाय ने उदारता दिखाते हुए
भारत में सभी धर्मों के अनुयायियों को समान अधिकार दिए जिसमें इस्लाम के मतावलंबी
भी शामिल थे जो अपने लिए पाकिस्तान बना चुके थे। इस बात में किसी को संदेह नहीं हो सकता कि इस
देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुओं की उदारता और सहृदयता के
कारण ही बचा हुआ है। दुर्भाग्य से विभाजन के बाद हिंदी फ़िल्म जगत को ऐसे लोगों ने ही अपने कब्जे में कर लिया जिन्होंने भारत को विभाजित करने और
पाकिस्तान बनाने में महत्त्व पूर्ण भूमिका
अदा की थी. विभाजन के बाद ऐसे सांप्रदायिक और जिहादी मानसिकता के तत्व भारत में ही
रहे और कुछ प्रगतिशील लेखक मंच में शामिल
हो गए और कुछ वामपंथी दलों में लेकिन बड़ी संख्या में लोग तुष्टीकरण के लाभार्थी बनने के लिए कांग्रेस से जुड़ गए. इन
सभी ने मिलकर हिंदी फ़िल्म जगत का हिंददुओं और सनातन संस्कृति के प्रति घातक हथियार के रूप
में इस्तेमाल किया. इस गिरोह ने पटकथा, गीत, संगीत, संवाद और अभिनय के माध्यम से सनातन संस्कृति को लांछित और
अपमानित करने का जितना घृणित कार्य किया उतना
विदेशी आक्रांता भी नहीं कर सके थे.
दुर्भाग्य
से फ़िल्म जगत से जुड़े हिंदू और सनातनी लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया और न हीं
दर्शकों की तरफ से ही कोई प्रतिवाद किया
गया. दर्शकों
के डर से पहले मुस्लिम कलाकार हिंदू नाम रखकर
कार्य करते थे. कालान्तर में यह सभी मुखर
होकर मुस्लिम नाम से न केवल कार्य करने लगे बल्कि हिंदू और सनातन संस्कृति पर प्रहार करके पूरे
सनातन समाज को विकृत और दिग्भ्रमित करने का कार्य करने लगे. ऐसे लोगो में नामचीन पटकथा लेखक,
गीतकार, संगीतकार, संवाद लेखक ओर नायक नायिकाओं तथा अतिरिक्त भूमिकाएं निभाने वाले
लोग भी शामिल हैं.
सनातन धर्म दुनिया का है एक मात्र
धर्मनिरपेक्ष और सर्वाधिक उदार धर्म है जिसकी
संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित है और जिसमें सभी धर्मावलंबियों के लिये
सम्मान एवं सामानता की अवधारणा का मूल
तत्व है. शुरुआत में हिंदी फ़िल्म जगत में ऐसी फ़िल्में बनती थी जिसमें कोई न कोई धार्मिक
गीत भजन आदि अवश्य होता था और उनके कथानक में हिंदू धर्म के प्रति आदर और ईश्वर के
प्रति गहरी आस्था होती थी. संभवत: दर्शकों में फ़िल्म की स्वीकार्यता बनाना और पैसे
कमाना इसका उद्देश्य रहा होगा. दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म की उदारता को मूर्खता
और कायरता मानकर सनातन के प्रति घृणा का भाव रखने वाले कट्टरपंथियों द्वारा
सुनियोजित षड़यंत्र के अंतर्गत हिन्दुओं में हीनभावना भरने और उनके धर्मग्रंथों के विरुद्ध
भ्रामक प्रचार करने के लिए फिल्मों को माध्यम बनाने लगे.
आज ऐसी
अनगिनत फ़िल्में हैं जिनमें हिंदू देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया है तथा हिंदू
संस्कृति को दकियानूस, अंधविश्वासी और पिछड़ा साबित करने का कार्य किया गया है.
सेंसर बोर्ड भी प्रगतिशीलता के नाम पर खामोश
रहा और आज भी यह घृणित कार्य बदस्तूर जारी है. फ़िल्में केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं
होती बल्कि ये इतिहास का हिस्सा भी होती हैं जिनका प्रत्यक्ष रूप से मन मस्तिष्क पर गहरा
प्रभाव पड़ता है, ये किसी देश की संस्कृति को
प्रदुषित और संक्रमित करने में वायरस सी भी अधिक तेज गति से कार्य करती है. इसलिए हिंदी
फ़िल्म जगत में किया गया यह घृणित कार्य, गलत इतिहास लिखे जाने से भी ज्यादा बड़ा
संगीन अपराध है .
भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद के
तत्कालीन प्रोफेसर धीरज शर्मा ने हिंदी फ़िल्म जगत के इस चलन पर शोध किया था जिसके
नतीजे आश्चर्यजनक है, जिसके अनुसार बॉलीवुड की फिल्मों में 58% भ्रष्ट नेताओं को
ब्राह्मण दिखाया गया है. 62% फिल्मों में बेइमान कारोबारी को वैश्य दिखाया गया है.
फिल्मों में 74% फीसदी सिख किरदार मज़ाक का पात्र बनाया गया. जब किसी महिला को
बदचलन दिखाने की बात आती है तो 78 % उनके नाम ईसाई होते हैं. 84% फिल्मों में
मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला, बेहद ईमानदार दिखाया गया है,
यहां तक कि अगर कोई मुसलमान खलनायक हो तो वो भी उसूलों का पक्का हे
दिखाया जाता है और उसे गरीबों के मसीहा और रॉबिनहुड की तरह दर्शाया जाता है.
सरकारी संरक्षण में पल रहे इन
कट्टरपंथियो का गिरोह इतना शातिर है कि
फ़िल्म सेंसर बोर्ड पर भी इनका कब्जा है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और
कलात्मकता हे की आड़ में न जाने कितने घृणित कारनामे फिल्मों के माध्यम से किए गए. 2014 में आमिर की फिल्म पीके में हिंदू देवी
देवताओं जितना अपमान किया गया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. हिंदू
संगठनों ने इसके विरुद्ध आवाज तो उठाई लेकिन आमिर खान ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि
जिसे अच्छी लगे वह देखें और जिसे अच्छी न लगे वह न देखें. इससे आमिर जैसे एजेंडा धारी कट्टरपंथियों का हौसला
पता चलता है. हिंदू संगठनों के बहिष्कार की अपील के बाद भी
फ़िल्म ने ₹340 करोड़ से अधिक की कमाई की थी. पीके फ़िल्म की
सफलता से यह बात भी रेखांकित होती है कि
दशकों तक बॉलीवुड द्वारा हिंदू धर्म के विरुद्ध किए जा रहे दुष्प्रचार ने हिंदुओं का मन मस्तिष्क कितना दूषित कर दिया है
.
सोशल मीडिया क्रांति ने हिंदू जन
जागरण के अभियान में बहुत ही महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है, जिसके कारण हिंदू समाज अब इन कट्टरपंथियों का सफलता पूर्वक सामना
करने के लिए तैयार हो गया है. यही कारण है कि द कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म के
विरुद्ध इस गिरोह के घृणित दुष्प्रचार के बाद भी जनता ने उसे हाथों हाथ लिया और कई
ऐसी फिल्मों का सफलतापूर्वक बायकॉट भी किया जिनमें कट्टरपंथियों का एजेंडा शामिल
था.
हाल में राष्ट्रवादियों द्वारा आमिर
खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के बहिष्कार की अपील की गई थी जिसका कारण आमिर का हिंदू
देवी देवताओं और सनातन संस्कृति के प्रति अनादर का भाव और अतीत में किए गए
दुष्कृत्य हैं. लाल सिंह चड्ढा बुरी तरह से फ्लॉप हो
गयी. यद्द्यपि फिल्म फोरेस्ट गंप के की नक़ल है लेकिन इसमें शातिराना तरीके से बहुत
सी आपत्तिजनक् बातें डाली गयी हैं, जैसे मुंबई का आतंकवादी हमला, अयोध्या बाबरी विवाद, कारगिल युद्ध आदि. भारतीय सेना
का भी अपमान किया गया है. यह भी समझ से परे है कि फ़िल्म का नाम लाल सिंह चड्ढा ही
क्यों रखा गया है? मोहम्मद जमालउद्दीन सिद्दिकी या ताहिर
हुसैन कुरेशी आदि क्यों नहीं? इसलिए क्योंकि भारत में धर्मनिरपेक्षता
की आड़ में आमिर जैसा कट्टरपंथी व्यक्ति, हिंदुओं ओर सिखों का अपमान बड़े आराम से कर
सकता है. आमिर की ज्यादातर फिल्मों की तरह इसमें भी पाकिस्तान को बहुत अच्छा बताने
की कोशिश की गई है.
इस फ़िल्म से एक
बार फिर यह साबित हो गया है कि आमिर खान जैसे लोग न सुधरे हैं न सुधरेंगे. आमिर
खान कट्टर पंथी मुसलमान है, इससे कोई समस्या लेकिन अगर वह कहें कि उनकी बीवी तो
हिंदू होगी लेकिन बच्चे मुसलमान होंगे, तो ये अपमान जनक है. लव जिहाद से उन्होंने अभी तक दो
शादियां की हैं और वह भी दोनों हिंदू लड़कियों से, जिनके बच्चों को मुसलमान बनाकर उन्हें
तलाक दे दिया. उन्होंने नरेन्द्र मोदी
की जमकर भर्त्सना करते हुए उन्हें मुस्लिम
नरसंहार का जिम्मेदार ठहराया था, जबकि गोधरा नरसंहार
के बारे में उन्होंने जबान भी नहीं खोली थी. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद
दूसरे कट्टरपंथियों के साथ उन्हें भी हिंदुस्तान में डर लगा था. लाल सिंह चड्ढा की एक पात्र करीना खान का परिवार विभाजन के समय
पाकिस्तान से मार कर भगाया गया था लेकिन उसने उन्ही अफगान लुटेरों के वंशज से शादी
की ओर बेटे का नाम रखा तैमूर, जो सभी हिंदुओं के लिए अपमानजनक है और लोग इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं.
किसी भी फ़िल्म या वस्तु का सांप्रदायिक आधार पर बायकाट नहीं होना
चाहिए लेकिन जो व्यक्ति या संस्थाये हिंदू देवी देवताओं का अपमान करें, सनातन संस्कृति
का उपहास उड़ा कर उसके विरुद्ध अभियान चलाएं,
और देश विरोधी गतिविधियों में
शामिल हों, उनके विरुद्ध लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से विरोध स्वरूप जो भी करना पड़े,
अनुचित नहीं कहा जा सकता. सनातन संस्कृति को बचाने, सुरक्षित और सरंक्षित करने के
लिए, सरकार की भरोसे न बैठ कर समूचे हिन्दू समाज को स्वयं आगे आकर आवश्यक कदम उठाने
पड़ेंगे.
-
शिव मिश्रा
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