रविवार, 13 अक्टूबर 2013

धन्यवाद


बहुत कृतघता

और विनम्रता से,

मन की ऊंचाइयों और

दिल की गहराइयों से,

मेरा प्रथम धन्यवाद,  

उन व्यक्तियों को,

जिन्होंने मुझे जीवन दिया

और दायित्व ग्रहण किया,

मेरे माता-पिता बनने का,

सौभाग्य मुझे दिया,

संतान बनने का,

रिश्तों का बोध दिलाया,

माँ की महानता और

बाप की विशालता

का अहसास कराया,

पालन पोषण किया,

और वह सब कुछ दिया ,

मेरे विचार मे,

जो चाहिए था,

एक अबोध अजनबी अनजान को,

इस संसार मे॰  

ममता, प्यार, दुलार,

भाषा और संस्कार,

मानव मूल्य, शिक्षा और सुविचार,

और दिया पूरा घर संसार ॰   

 

धन्यवाद !

मेरे पितामहों, प्रपितामहों और पूर्वजों को भी,

जिनके अंश है मुझमे

और  मेरी संरचना में भी,

और रोम रोम मे हैं साकार,

उनके  

वैज्ञानिक आविष्कार ,

विकाश के प्रयासों की आधारशिला,

जीवन के सूत्र और जीने की कला,

शक्ति, सामर्थ्य और ईश्वर मे आस्था,

प्रकृति से संबंध और धार्मिक व्यवस्था ,

उनकी

सनातन परंपरा अक्षुण्ण और ज्वलंत है,

और आज भी


हम सब के अंदर जीवंत है ॰॰

 

धन्यवाद !

परमात्मा का,

ईश्वर का,

या उस अदृश्य शक्ति का, 

जिसने हमें वह सब कुछ दिया,

जो कल्पना से परे है,

ये गंगा सी निर्मल, पावन नदियां,

मनमोहक, मनोरम, स्वर्गसम वादियाँ, 

ये बादल, ये झरने,

ये असीमित आसमान,

ये हिमालय से पर्वत,

ये मरुस्थल और रेगिस्तान

ये सर्दी, ये गर्मी, ये वर्षा और बसंत,

ये फल, ये फूल, ये पत्ते और अनंत,

ये सूर्य की रोशनी

और चन्दा की चाँदनी,

ये सितारों का उपवन

जैसे  झिलमिल छावनी,

ये मनमोहक छटाये,  

मलयागिरि से आती 

सुंदर सुरभि हवाएँ,

और सावन की घटाएँ,   

ये फूलों से पटी घाटियां,  

फलों से लदी डालियाँ

ये संजीवनी वनस्पतियाँ,

ये अनोखे दुर्लभ जीव जन्तु

अनगिनत खनिज, अनमोल रत्न,

और ये लहलहाती फसलें,

कहने को हम कुछ भी कह लें,

पर  माँ की तरह

सबका पालन करती है

ये अपनी पृथ्वी,

धारण करती है

अपने आँचल में   

पर्वत  की ऊंचाई

और

सागर की गहराई

मेरे लिए ,

हम सब के लिए,

और समूची मानवता के लिए,

बहुत बहुत धन्यवाद !

इसके लिए ॰॰॰  

 

काश !

सब को हो इसका अहसास ,

कि

कितना कुछ है खास,

हम सबके पास,

पर हम भटकते है मृग की तरह,

उन कामनाओं के लिए

जीवन मे जिंनका कोई अंत नहीं,

खोजते हैं तृष्णा के रास्ते ,

और होते संतुष्ट नहीं ॰

शोक करते हैं, उसके लिए,

जो होता नहीं हमारे लिए,

निर्धारित,     

क्यों बनते हैं हम ?

इतने कृतघ्न, अशिष्ट और अमर्यादित


कि

धन्यवाद !

भी नहीं देते उसको,

जिसने इतना कुछ दिया है,

और बदले में कुछ भी नहीं लिया है ॰

भूख का महत्व हो सकता है,

जीवन के लिए,

पर जीवन क्यों अपरिहार्य हो ?

भूख के लिए ॰

हमें खुश रहना सीखना चाहिए,

जो मिला है, पर्याप्त भले न हो,

पर कम नहीं है, जानना चाहिए,

हम पूर्ण संतुष्ट भले न हों,    

पर जो कुछ भी मिला है हमें

उसके लिए,

ईश्वर को  

धन्यवाद !

तो देना चाहिए ॰ ॰ ॰ ॰


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- शिव प्रकाश मिश्रा
 

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