शनिवार, 11 सितंबर 2021

भ्रष्टाचार, विकाश और राजनीति - उ.प्र के आयने में

 

 


 

भ्रष्टाचार भारत में बिल्कुल भी नया नहीं है लेकिन यह कब शुरू हुआ इसके लिए कोई सटीक उत्तर नहीं मिलता. फिर भी भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप में शुरू करने का श्रेय अंग्रेजी शासन को देना अनुचित नहीं होगा.  अंग्रेजों की सरकार  में भारतीय कर्मचारियों के वेतन और भत्ते इतने  कम होते थे कि जिनसे उनका गुजारा होना भी संभव नहीं था, लेकिन अंग्रेजों ने एक रास्ता खुला छोड़ रखा था  कि कर्मचारी चाहे तो अपने लिए स्वयं जनता से व्यवस्था कर सकते हैं बशर्ते सरकार का कोई नुकसान न हो. उस जमाने में सरकारी विभागों के नाम पर पुलिस  और राजस्व विभाग प्रमुख थे, और ऐसा माना जाता है कि इन विभागों में भ्रष्टाचार था जो आज तक बदस्तूर कायम है.

आजादी के बाद भी इसमें कुछ भी नहीं बदला क्योंकि आजादी सत्ता का हस्तांतरण मात्र थी कर्मचारी भी वही और जनता भी वही  केवल शासक बदल गए थे जिनकी मानसिकता भी अंग्रेजों वाली ही थी. समय के साथ जैसे-जैसे नई विभाग बनते गए भ्रष्टाचार भी अपना दायरा बढ़ाता चला गया. धीरे धीरे भ्रष्टाचार ने पूरे देश को जकड़ लिया और  सरकार में सर्वोच्च स्तरों पर भी भ्रष्टाचार शुरू हो गया, यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों में भी भ्रष्टाचार होने लगा और हथियारों की खरीद  भी इससे अछूती नहीं रही. न्याय के मंदिर कहे जाने वाले न्यायालय में भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें जमा ली. राज्यों के  मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों और यहां तक कि प्रधानमंत्रियों के ऊपर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं और कई  मामलों में यह साबित भी हो गए. कई मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और केंद्र केंद्रीय मंत्रियों को सजा भी हुई लेकिन भ्रष्टाचार अनवरत कायम रहा. हां यह जरूर है कि सरकारें बदलने के साथ उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले कम ज्यादा होते रहे  लेकिन विभागों  और कर्मचारियों के स्तर पर भ्रष्टाचार में कोई उल्लेखनीय सुधार अभी तक नहीं हुआ है. यह बात किसी से भी छिपी नहीं है, मुख्यमंत्री,  प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी इस से अवगत हैं और उनके प्रयासों से उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार में तो कमी जरूर आई है लेकिन निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की गति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है जो निश्चित रूप से बहुत चिंता का विषय है.

 

ऐसा लगता है जैसे भ्रष्टाचार भारतीय परिवेश का एक हिस्सा बन गया और इसलिए ज्यादातर लोगों ने इससे समझौता कर लिया है . ऐसा भी नहीं है कि भ्रष्टाचार का कभी विरोध नहीं हुआ लेकिन विरोध करने वाले चंद लोग होते हैं और उन्हें भी अपने काम कराने के लिए कहीं न कहीं झुकना पड़ता है या समझौता करना पड़ता है. सवाल यह है

 

·       क्या भ्रष्टाचार लाइलाज मर्ज है ? या

·       सत्तासीन राजनीतिक दल किसी न किसी कारणवश इसे नजरअंदाज करते हैं?

मुझे लगता है कि सत्ता में बैठे ज्यादातर राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मामले में इसलिए गंभीर नहीं हो पाते हैं क्योंक वे  स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं और इसलिए नैतिक रूप से कर्मचारियों की लगाम कसने का साहस नहीं दिखा पाते. सत्तापरिवर्तन होते ही पुरानी सरकार के भ्रष्टाचार की कहानियां सतह पर आ जाती  हैं और फिर राजनीतिक फायदा लेने की कवायद भी शुरू हो जाती है. भ्रष्टाचार करने वाला दल इसे बदले की कार्यवाही बताता है और फिर मामला पूरी तरह से राजनीतिक होकर खत्म हो जाता है. फिर भी ज्यादातर सरकारे विभिन्न विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए  दृढ़ इच्छा शक्ति  नहीं दिखा पाती. इसके विपरीत कुछ सरकारे इस तरह के भ्रष्टाचार में साझीदार बन जाती  हैं.

उत्तर प्रदेश के संदर्भ में अगर बात की जाए तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकांश मामलों में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया है और उसका लाभ प्रदेश की जनता के साथ साथ देश को भी हुआ है. पूरे देश में आज उनकी छवि एक शख्त और कुशल प्रशासक के रूप में और भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति रखने वाले मुख्यमंत्री के रूप में   चर्चित है. मैं  व्यक्तिगत रूप से योगी जी को तब से जानता हूं जब उन्होंने शायद  मुख्यमंत्री बनने की कल्पना भी नहीं की होगी. इसलिए मैं इस बात को विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि अगर योगी भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगा सकते हैं तो फिर प्रदेश में  भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाना बहुत ही मुश्किल है.  इक्का-दुक्का संदिग्ध मामलों को छोड़ कर योगी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई  मामला अभी तक मंत्री या अन्य उच्च स्तर पर सुनने को नहीं मिला है. इस सब के बावजूद  भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात  विभागों और पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार में कोई बहुत  उल्लेखनीय सुधार नजर नहीं आता जिससे  कम से कम जनता के नजरिए में तो सुधार की कोई अनुभूति नहीं हुई है.

 

मैं एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना चाहूंगा.  कुछ दिन पहले  मैं प्रदेश के एक शहर में सुबह टहलने के लिए निकला. एक पार्क में कई लोग योग और व्यायाम कर रहे थे. उनकी  आपस में हो रही बातचीत में  एक व्यक्ति ने बहुत जोर देकर कहा कि आज भी बिना पैसा दिए सरकार में कोई काम नहीं हो रहा.  उसका इशारा इन्हीं विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर था. हो सकता है  कि उसकी  बात में कुछ राजनीतिक पुट हो लेकिन यह जनता का दृष्टिकोण है. अगर सरकार के प्रयासों से  सुधार हो रहा है और भ्रष्टाचार में कमी आ रही है तो वह जनता को दिखाई भी पडनी चाहिए. जब तक जनता को महसूस  नहीं होता,  किसी भी सुधार का कोई बहुत महत्व नहीं.

 

समस्या की जड़

प्रायः उत्पादकता और कार्यकुशलता में प्राइवेट और सरकारी क्षेत्रों की तुलना की जाती है और यह समझना मुश्किल नहीं है कि उत्पादकता, कार्यकुशलता और इमानदारी में प्राइवेट क्षेत्र के कर्मचारी आगे क्यों हैं. एक बड़ा कारण है कि इन तीन चीजो में कमी के कारण उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड सकता है.  सरकार द्वारा  सिर्फ भ्रष्टाचार निरोधक कानून और विभाग बनाने से सरकारी तंत्र का  भ्रष्टाचार दूर नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत  गहरी हैं जिसको राजनीतिक मान्यता ही नहीं संरक्षण भी  प्राप्त है. भ्रष्टाचार से पैसा कमाने की बड़ी जगहों पर स्थानांतरण कराने के लिए कर्मचारी मोटी रकम अदा कर रहे हैं, यह पता करना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है कि वे  कौन लोग हैं जो पैसा लेकर स्थानांतरण कर रहे हैं. स्वाभाविक है कि जब कोई कर्मचारी मोटी रकम चुकाने के बाद  किसी जगह पहुंचता है तो उसका उद्देश्य केवल और केवल पैसा कमाना ही होता है जो बिना भ्रष्टाचार के नहीं हो सकता. एक समय था जब समाचार पत्रों में पुलिस विभाग की जिले की पोस्टिंग और थाने नीलाम होने की सुर्खियां प्रकाशित होती थी. आज ये  सुनाई नहीं पड़ती और यह भी सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है. फिर भी थानों में एफ आई आर लिखने, खत्म करने, अंतिम रिपोर्ट लगाने के लिए पैसे लिए जाना आज भी चर्चा का विषय बनता है. ट्रैफिक पुलिस में  भ्रष्टाचार की खबरें बहुत आम बात है.

 

सरकार को भ्रष्टाचार के विरुद्ध  शुरुआत तो करनी ही होगी और यह जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है. शुरुआत भी कुछ उन चुनिंदा विभागों से करनी चाहिए जिनसे जनता का संपर्क बहुत ज्यादा होता है क्योंकि यही विभाग जनता में सरकार की छवि बिगाड़ने / बनाने  का कार्य करते हैं. इनमें प्रमुख विभाग हैं- पुलिस, तहसील/ ब्लॉक, रजिस्ट्री कार्यालय, संभागीय परिवहन कार्यालय, नगर निगम / नगर पालिका, जिलाधिकारी और उसके संबंधित  कार्यालय आदि .

 

रोकथाम हेतु कुछ सुझाव

  • ·       नीतिगत उपदेश देने और कर्मचारियों को चेतावनी देने भरसे भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता, इसलिए आज ऐसे उपायों की जरूरत है जिसमें कर्मचारी के विरुद्ध त्वरित कार्यवाही की जा सके और उसे नौकरी से बर्खास्त किया जा सके. बेरोजगारी के इस युग में इस तरह की कार्यवाही से नए ईमानदार युवाओं को नौकरी भी दी जा सकती है. 
  • ·        संबंधित विभागों भ्रष्ट कर्मचारियों के विरुद्ध नई भर्ती करने के उद्देश्य से प्रतीक्षा सूची तैयार की जाए. भ्रष्ट कर्मचारियों पर त्वरित कार्यवाही करते हुए उन्हें  बर्खास्त किया जाए और  उनकी जगह प्रतीक्षा सूची से लोगों को तुरंत नौकरी पर रखा जाए. पुलिस जैसे विभाग के लिए सिपाही और उप निरीक्षकों की उपयुक्त संख्या में प्रतीक्षा सूची बनाई जाए और दोषी कर्मचारियों को बर्खास्त करने के बाद प्रतीक्षा सूची से लोगों को रखा जाए. इस तरह की प्रतीक्षा सूची बनने मात्र से ही कर्मचारियों में असर होगा.
  • ·       कर्मचारियों के नियमित स्थानांतरण किए जाएं कोई  भी कर्मचारी अधिक दिनों तक एक ही सीट और एक ही स्थान पर न रहे. 
  • ·       संवेदनशील पदों पर बैठे  कर्मचारी को प्रति वर्ष 10 से 15 दिन के लिए अनिवार्य छुट्टी की व्यवस्था की जाए ताकि उनके जाने पर उनके गोरखधंधे की  अपने आप पड़ताल हो सके.
  • ·       परिवहन, रजिस्ट्री विभाग जैसे अन्य विभागों में पासपोर्ट कार्यालय जैसी आउटसोर्सिंग व्यवस्था की जाए और तकनीक आधारित कंपनियों से कर्मचारियों को लिया जाए और पारदर्शिता के लिए  इन विभागों को पूरी तरह से तकनीक चालित  बनाया जाए.
  • ·       पुलिस थानों में एफ आई आर दर्ज कराने की प्रक्रिया को ऑनलाइन उपलब्ध करा दिया जाए और थानों के सभी रिकॉर्ड  डिजिटल बनाकर ऑनलाइन कर दिया जाए ताकि उच्चाधिकारी नियमित अंतराल पर अवलोकन कर सकें.
  • ·       वर्तमान संविदा कर्मियों की व्यवस्था  कारगर साबित नहीं हो रही है इसलिए उसके स्थान पर आउटसोर्सिंग की व्यवस्था की जाए ताकि इन कर्मचारियों की उत्पादकता और अनुशासन की  जिम्मेदारी आपूर्तिकर्ता कंपनी की हो.
  • ·       जनता के कार्यों से जुड़े सभी विभागों के कर्मचारियों को सप्ताह में 1 दिन अपने कार्य क्षेत्र में गांव और कस्बों में जाकर लोगों से व्यक्तिगत और समूह में मिलने की अनिवार्यता  की जाए और इसका डिजिटल रिकॉर्ड तैयार किया जाए ताकि कर्मचारियों और जनता के बीच की दूरी कम हो सके, जिससे भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है.
  • ·       राज्य सरकार की वर्तमान जनसुनवाई पोर्टल व्यवस्था एक महत्वाकांक्षी एवं   नवोन्मेषी विचार जरूर है लेकिन संबंधित विभाग में वही कर्मचारी इसका जवाब देता  है जिसके विरुद्ध शिकायत होती है इसलिए स्वाभाविक रूप से शिकायतों का निपटारा नहीं होता बल्कि केवल शिकायतों का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार होता है. इससे  पोर्टल बनाने के विचार और उस पर की गई मेहनत पर पानी फिर रहा है.  इसलिए अच्छा यह होगा की शिकायत का जवाब वह कर्मचारी जिस से शिकायत जुड़ी है वह नहीं दे और जवाब पर हस्ताक्षर भी कोई अन्य अधिकारी जो शिकायत के संबंध ना हो करे.   प्रत्येक विभाग की शिकायतों में से कुछ को  अनिवार्य रूप से अन्य विभाग द्वारा जांच कराई जाए और दोषी पाए जाने पर  संबंधित कर्मचारियों के विरुद्ध सख्त और प्रभावी कार्यवाही की जाए, तभी इस पोर्टल का औचित्य पूरा हो सकेगा.
  • ·       स्पेशल टास्क फोर्स  जैसी कोई भ्रष्टाचार निरोधक टीम बनाई जाए और उसमें तेजतर्रार युवा अधिकारियों की पोस्टिंग की जाए जो भ्रष्टाचार से संबंधित प्राप्त सूचनाओं और शिकायतों की न केवल जांच करें बल्कि औचक निरीक्षण करके भी भ्रष्ट अधिकारियों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध भय पैदा करने का काम करें.

 

विकास और राजनीति

उत्तर प्रदेश मैं वैसे तो अतीत में कई राजनीतिक व्यक्तियों  को विकास पुरुष की संज्ञा दी जा चुकी है, लेकिन उनके द्वारा किए गए विकास के कार्य शायद ही कहीं दिखाई पड़े और प्रदेश कई अन्य प्रदेशों के मुकाबले आज भी पिछड़ा हुआ है. यह सही है  कि योगी सरकार में प्रदेश में सकल घरेलू उत्पाद बढा  है, निवेश के लिए अनुकूल वातावरण तैयार हुआ है और मूलभूत संरचना के क्षेत्र जैसे नए हवाई अड्डे, नए रोड /  एक्सप्रेस वे,  पुल और फ्लाईओवर आदि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुआ है फिर भी प्रदेश में योजनाबद्ध तरीके से विकास की एक रूपरेखा तैयार किये  जाने की अत्यंत  आवश्यकता है.

चिकित्सा और चिकित्सा शिक्षा

कोरोना महामारी की विभीषिका और चिकित्सा  संसाधनों की उपलब्धता की चुनौती को देखते हुए सरकार को चाहिए कि वह प्रदेश के सभी जिलों में मेडिकल कॉलेज और उससे संबंधित सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल की योजना तैयार करें. मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस या मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा अनुमोदन प्राप्त न होने की स्थिति में राज्य सरकार स्वयं अपना डिग्री कोर्स बना सकती है और उसके साथ साथ नर्सिंग  और फार्मेसी के भी नए कोर्स शुरू किए जा सकते हैं. वित्तीय संसाधनों की कमी को देखते हुए इन्हें पब्लिक प्राइवेट पार्टिसिपेशन के आधार पर तैयार किया जा सकता है. चिकित्सा और चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाले उद्यमियों की कमी नहीं है और इस कारण सरकार को आर्थिक संसाधनों से नहीं जूझना पड़ेगा.

इनमें प्रवेश जिले के निवासियों और उनके लिए आरक्षित किये  जा सकते है जिन्होंने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा है संबंधित जिले से पास की हैं. ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए प्रवेश में प्रोत्साहन के लिए विशेष अंक की व्यवस्था भी की जा सकती है. इन कॉलेजों से डिग्री प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए उन्हीं जिलों में नौकरी या व्यवसाय करना अनिवार्य कर दिया जाए. इससे गांव और शहर में उपलब्ध संसाधनों के अंतर को कम किया जा सकेगा. जहां तक इन कॉलेजों में पढ़ाई के लिए शिक्षकों की उपलब्धता का का प्रश्न है तो उसके लिए केंद्रीकृत वीडियो आधारित ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था की जा सकती है. मेडिकल कॉलेज में बिल्डिंग की न्यूनतम व्यवस्था की जा सकती है और छात्रावास उपलब्ध नहीं भी  कराया जा सकता है क्योंकि इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी गति मिलने के साथ-साथ भावी डॉक्टर, नर्स और फार्मेसिस्ट का  जनता में सामंजस्य भी बना रहेगा.

प्राथमिक शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा एक अन्य ऐसा क्षेत्र है जिसमें परिवर्तन की तुरंत आवश्यकता है. प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक नियुक्त करने की वर्तमान प्रणाली न केवल राज्य सरकार के संसाधनों पर भारी भरकम बोझ बन रही है बल्कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने में पूरी तरह से असफल सिद्ध हो रही है. ऐसा लगता है कि प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र शिक्षकों के रूप में लोगों को केवल रोजगार देने का एक बहुत बड़ा साधन मात्र  बन गया है. इस क्षेत्र की सोशल ऑडिट करने की  आवश्यकता है और तदनुसार भविष्य के निर्णय किए जाने चाहिए अन्यथा यह विभाग शिक्षकों को आकर्षक रोजगार देने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकेगा. यहां भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप  या आउटसोर्सिंग मॉडल की आवश्यकता है जहां पर वर्तमान शिक्षक नियुक्ति व्यवस्था के स्थान पर  शिक्षा क्षेत्र की विशेषज्ञ कंपनियों से शिक्षकों को लिया जा सकता है  ताकि न केवल शिक्षकों की उत्पादकता बढ़ सके बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों के बच्चे भी नामी-गिरामी स्कूलों की तरह बेहतरीन  शिक्षा पा सकें और गांव से शहरों की भागमभाग रुक सके.

 

 

परियोजना प्रबन्धन

इसके अलावा एक और ऐसा क्षेत्र है जिस पर  उत्तर प्रदेश सहित ज्यादातर राज्यों में ध्यान नहीं दिया गया और वह है विभिन्न  परियोजनाओं का समय से पूरा न  होना. आज इस बात की तुरंत आवश्यकता है कि राज्य सरकार द्वारा संचालित सभी नए प्रोजेक्ट तकनीक आधारित टूल से नियमित रूप से मॉनिटर किये  जाए. इस तरह की परियोजनाओं को समय से पूरा करने के उद्देश्य पूरे विश्व में तमाम प्रोजेक्ट मैनेजमेंट टूल्स इस्तेमाल किए जाते हैं और परियोजना में काम करने वाले कर्मचारियों को समय से प्रोजेक्ट पूरा करने की ट्रेनिंग भी दी जाती है. एजाइल प्रोजेक्ट मैनेजमेंट में  पूरी परियोजना को कई हिस्सों में बांटकर माइलस्टोन तैयार किए जाते हैं और उन्हें निश्चित अवधि में पूरा किया जाता  है और इसके आधार पर न केवल परियोजना में होने वाली देरी से बचा जा सकता है बल्कि परियोजना की लागत बढ़ने से भी रोका जा सकता है.   प्रोजेक्ट की लागत के हिसाब से इन्हें जिले और राज्य  स्तर पर मॉनिटर किया जा सकता है.  बड़ी परियोजनाओं को संबंधित मंत्री और मुख्यमंत्री नियमित  मासिक या त्रैमासिक अंतराल पर मॉनिटर कर सकते हैं. इस तरह  सरकार अपनी विकास पूरक छवि बनाकर  न केवल राज्य में विकास की गति तेज कर सकती है बल्कि लोगों के दिलों में अमिट छाप  भी छोड़ सकती है.

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- शिव मिश्रा 

( लेखक  आर्थिक और सूचना एवं प्रौद्योगिकी विषयो के जानकार हैं )

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