सोमवार, 15 जनवरी 2024

हम भूले नहीं क्योंकि याद ही नहीं था

 हम भूले नहीं  क्योंकि याद ही नहीं था 


ये ऐसा विषय है जिसे हर भारतीय को और कम से कम हर हिन्दू को अवश्य जानना चाहिये. ये सन्दर्भ भी बहुत विशाल है और संक्षेप में भी बताया जाय तो कई खंड और सोपान में बताना पडेगा . पिछले कुछ दिनों से मैंने इस पर लेख लिखे है जिसमें से एक लेख है जिसमें संक्षेप में कुछ प्रमुख नायको का वर्णन है. जिन्हें हम भूले नहीं हैं, क्योंकि हमें याद हे नहीं थे


अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया है और 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी प्राण प्रतिष्ठा के अंतिम आयोजन के बाद श्रद्धालुओं के लिए खुल जाएगा. ऐसे में जब सभी श्रद्धालुओं में हर्षोल्लास हैं और अपने जीवन काल में राम मंदिर बन जाने संतोष भी है, यह जानना उपयुक्त होगा कि मंदिर निर्माण के संघर्ष में लाखों लोगों ने योगदान दिया और अपने जीवन का उत्सर्ग किया. स्वतंत्रता के बाद स्वाभाविक अपेक्षा थी कि उन सभी पूजा स्थलों का, जिन्हें धर्मांध जिहादी आक्रांताओं ने इस्लाम का प्रसार करने और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए ध्वस्त किया था, मूल स्वरूप वापस आ जाएगा लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका क्योंकि स्वतंत्रता मिलने के पहले ही राजनैतिक नेतृत्व ने मुस्लिम तुष्टिकरण का अजेंडा थाम लिया था. इसलिए राममंदिर का निर्माण सरकार के राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना के प्रयास के कारण नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण हो रहा है. ऐसे में उन कम ज्ञात नायकों का स्मरण आवश्यक है, जिनके सहयोग के कारण ही न्यायालय का फैसला संभव हो सका, भले ही यह स्वतंत्रता के 72 साल बाद हो सका.

इनमें एक बड़ा नाम है कदंगालाथिल करुनाकरन नायर या केकेके नायर का जो रामजन्मभूमि में रामलला के प्रकट होने के समय फैज़ाबाद के डिप्टी कमिश्नर और जिलाधिकारी थे. केरल में जन्मे, पले-बढ़े नायर 1930 बैच के आईसीएस अधिकारी थे. 22 और 23 दिसंबर 1949 के मध्य की रात में जन्मभूमि के विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद और गर्भ गृह रामलला के प्रकट होने की चमत्कारी घटना हुई. इस विवादित स्थल की पहरेदारी पुलिस का एक मुस्लिम सिपाही कर रहा था, जिसने बयान दिया था कि उसने रात में गुंबद के नीचे अद्भुत अलौकिक प्रकाश देखा और उसकी आंखें चौंधिया गयीं. जब प्रकाश की तीव्रता कम हुई ओर वह सामान्य हुआ तो उसने देखा कि गुंबद के नीचे भगवान राम की मूर्ति अपने तीनो भाइयों सहित विराजमान है. रामलला के प्रकट होने की यह सूचना जंगल में आग की तरह फैल गई और सुबह तक हजारों रामभक्तों और श्रद्धालुओं का तांता लग गया. मुसलमानों की तरफ से तो कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, लेकिन कांग्रेस परेशान हो गई. इसलिए जो भी प्रतिक्रिया हुई वह कांग्रेस की तरफ से ही हुई. जिला कांग्रेस कमेटी के महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी, जो नेहरू के बेहद करीबी थे, ने आसमान सिर पर उठा लिया और अपने समर्थकों के साथ जिला प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए गदर काट दी. उन्होंने तुरंत प्रधानमंत्री नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को सूचित किया. यद्यपि फैज़ाबाद के तत्कालीन विधायक बाबा राघवदास ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया और प्रशासन से भी अपील की कि वह किसी के दबाव में न आए और नियमानुसार कार्य करें.

सरकार के दबाव में फैज़ाबाद थाना प्रभारी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाई कि 50-60 आदमियों ने रात में बातचीत में दाखिल होकर भगवान की मूर्ति स्थापित कर दी है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ अक्षय ब्रह्मचारी का धरना प्रदर्शन और आमरण अनशन शुरू हो गया. राम जन्मस्थान पर हजारों लोगों की भीड़ थी और जमावड़ा बढ़ता चला जा रहा था. नेहरू के निर्देश पर राज्य सरकार ने मुख्य सचिव भगवान सहाय के माध्यम से फैज़ाबाद के जिलाधिकारी नायर को लिखित आदेश दिया कि वह राम जन्मभूमि की 22 दिसंबर 1949 से पहले की स्थिति बहाल करे और मूर्तियों को तत्काल हटवा दें. इसके लिए जितना भी बल प्रयोग करना पड़ेगा करें. नायर ने राज्य सरकार को पत्र द्वारा सूचित किया कि बल प्रयोग करने से कानून व्यवस्था को भारी नुकसान पहुँच सकता है और जनहानि भी हो सकती है. चूंकि मूर्ति गर्भगृह में स्थापित हो चुकी है इसलिए अगर उसको विस्थापित करना है तो वैदिक रीति से ही करना पड़ेगा जिसके लिए अयोध्या का कोई भी पंडित-पुजारी तैयार नहीं होगा. इस बीच 25 दिसंबर 1949 को जिला प्रशासन ने राम जन्मभूमि के समूचे परिसर को कुर्क कर लिया और उसके लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया जिसको गर्भगृह में प्रकट हुए रामलला की पूजा अर्चना का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया. उस समय शुरू की गयी पूजा अर्चना आज तक चलती आ रही है जिसे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय भी स्थगित नहीं कर सका.

नेहरू ने स्वयं के नायर से फ़ोन पर बात की और तुरंत मूर्तियां हटाने का निर्देश दिया और इस संबंध में एक पत्र भी विशेष दूत द्वारा भिजवाया. नायर ने राज्य सरकार को पत्र भेज दिया कि वर्तमान परिस्थितियों में जन्मस्थान से मूर्तियां हटाना संभव नहीं है. अगर सरकार ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उन्हें स्थानांतरित कर दिया जाए और किसी अन्य व्यक्ति को जिलाधिकारी नियुक्त करके ये कार्य करवा लिया जाए. उन्होंने मुख्यमंत्री से बात करके इतना जरूर करवाया कि जहाँ रामलला की मूर्ति विराजमान थी, उस हिस्से को लोहे की ग्रिल लगाकर अलग कर दिया और उसके दरवाजे पर ताला लगा दिया गया. केवल पुजारी ही पूजा अर्चना के लिए अंदर जा सकते थे. श्रद्धालु केवल दूर से ही दर्शन कर सकते थे. नेहरू आग बबूला हो गए. उन्होंने पूरे घटनाक्रम के लिए जिलाधिकारी को जिम्मेदार ठहराया. सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया लेकिन न्यायलय ने उन्हें बहाल कर दिया गया. नायक के रूप में उभरे नायर ने आइसीएस से त्याग पत्र दे दिया और राम मंदिर निर्माण के लिए अपने आप को समर्पित करते हुए अयोध्या में बस गए. बाद में वह लोकसभा के सदस्य और उनकी पत्नी विधानसभा और लोक सभा की सदस्य चुनी गईं.

रामलला प्राकट्य घटना के समय बाबा राघवदास स्थानीय विधायक थे. वैसे तो उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था लेकिन कर्मभूमि देवरिया थी. शिक्षा और समाजसेवा से जुड़े बाबा राघवदास गाँधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने. वह अनेक संस्कृत कॉलेज, गुरुकुल, कुष्ठाश्रम और सामाजिक सेवा संस्थान चलाते थे. बरहज में उनका आश्रम रामप्रसाद बिस्मिल सहित अन्य क्रांतिकारियों का अड्डा था. नेहरू आचार्य नरेंद्रदेव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन कांग्रेस के अंदर मतभेदों के चलते नरेंद्रदेव ने अपने 11 साथियों के साथ कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. गोविन्द वल्लभ पंथ मुख्यमंत्री बने और उपचुनाव में उन्होंने नरेंद्र देव को हराने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि वाले बाबा राघव दास को फैज़ाबाद से कांग्रेस प्रत्याशी बनाया. बाबा राघव दास ने राम मंदिर निर्माण के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का राजी कर लिया था. कांग्रेस ने इस चुनाव में जमकर राम नाम का इस्तेमाल किया किंतु चुनाव जीतने के बाद राम मंदिर निर्माण की दिशा में बाबा राघवदास बात एक नहीं सुनी जिससे वह काफी व्यथित थे.

अयोध्या पर लिखी गई कुछ पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है कि 22 दिसंबर 1949 की रात सरयू में पांच लोग स्नान कर रहे थे, बाबा राघवदास, गोरक्षपीठाधीश्वर दिग्विजय नाथ, गीताप्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार, महंत अभिराम दास और महंत रामचन्द्र परमहंस और लगभग उसी समय राम जन्मभूमि परिसर से घंटा घड़ियाल और शंख ध्वनि के साथ ‘भय प्रकट कृपाला दीन दयाला’ आवाज़ सुनाई पड़ने लगी और मालूम हुआ कि रामलला प्रकट हुए हैं. इसके बाद बाबा राघव दास ने राम चबूतरे पर रामलला की बरही का आयोजन किया और उसमें अत्यंत मार्मिक भाषण दिया. अपने भाषण में राम चबूतरा पर एक लाख पच्चीस हजार मानस के अखंड पाठ करने की घोषणा की, मानस के एक अखंड पाठ में 24 घंटे का समय लगता है,जिससे सरकार हिल गयी.

एक अन्य अधिकारी हुए हैं फैजाबाद के जिला न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडे जिनका निर्णय राम मंदिर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ. 26 दिसम्बर 1949 में लोहे की जालीदार ग्रिल लगाकर दरवाजे पर ताला डाल दिया गया था ताकि श्रद्धालु बाहर से दर्शन करें. केवल पुजारी ही अन्दर जा सकते थे. श्रद्धालु तभी से ताला खुलवाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. इस संबंध में एक याचिका जिला न्यायाधीश की अदालत में लंबित थी. न्यायाधीश पांडे ने फैसला देने से पहले मामले का बहुत अध्ययन किया. फैसला देने से पहले उन्होंने फैज़ाबाद के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को बुलाकर फैसले के बाद कानून और व्यवस्था को स्थिति पर चर्चा की. उनके लिखित आश्वासन के बाद 1 फरवरी 1986 को न्यायाधीश पांडे ने राम जन्मभूमि का ताला खोलने का ऐतिहासिक आदेश दिया. इस तरह श्रद्धालुओं को गर्भगृह के अंदर जाकर पूजा अर्चना करने की अनुमति मिल गई. न्यायाधीश पांडे को जैसी आशंका थी, उन्हें धमकियां मिलने लगीं, मेडिकल छात्रा उनकी बेटी को परेशान किया गया. मुख्य मंत्री रहते मुलायम सिंह यादव ने व्यक्तिगत टिप्पणी लगाकर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने की उनकी प्रोन्नत्ति रोक दी. बाद में उच्च न्यायालय के एक निर्णय के बाद ही उन्हें प्रोन्नति मिल सकी.

ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो सका. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मंदिर का निर्माण आजादी के 75 साल बाद इतने विलम्ब से होने का मुख्य कारण कुछ राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला मुस्लिम तुष्टीकरण है, तो कुछ राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति और साहस की कमी. हिंदू और सनातन धर्म का पुनरोत्थान प्रारंभ हो चुका है लेकिन धार्मिक अपमान की मानसिक पीड़ा के जिस दौर से पूरा समाज गुजरा है और उससे सनातन संस्कृति का जितना नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई बहुत मुश्किल है. आगे ऐसा न हो इसके लिए तुष्टिकरण में लगे दलों को सबक सिखाया जाना आवश्यक है.

~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~