शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

उच्चतम न्यायलय के निर्णय होते हैं तुष्टिकरण से प्रेरित

 

सर्वोच्च अन्याय :: उच्चतम न्यायलय के अधिकांश निर्णय होते हैं देश और हिन्दू हितों के विरुद्ध || तुष्टिकरण की बीमारी से ग्रसित है न्याय पालिका || क्या है इस बीमारी इलाज


उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की उस सिफारिश पर रोक लगा दी है जिसमें राज्यों से गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों के छात्रों को सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने का अनुरोध किया गया है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मुस्लिम संगठन जमियत उलेमा-ए-हिंद की याचिका पर उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा सहित सभी राज्यों की कार्यवाही पर रोक लगा दी है. न्यायलय ने केंद्र सरकार, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है.

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि जब तक मदरसे शिक्षा के अधिकार अधिनियम का अनुपालन नहीं करते, तब तक उन्हें दी जाने वाली आर्थिक सहायता बंद कर देना चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार मदरसों का पूरा ध्यान केवल धार्मिक शिक्षा पर ही रहता है, जिससे बच्चों को जरूरी शिक्षा नहीं मिल पाती और वे बाकी बच्चों पिछड़ जाते है. मदरसे, बच्चों के अधिकारों को लेकर सजग नही हैं. वे न तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे रहे हैं और न ही उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार कई मदरसों में बड़ी संख्या में हिंदू बच्चों को भी दाखिल किया जा रहा है और उन्हें भी इस्लामिक शिक्षा दी जा रही है, जो पूर्णतया गलत है. इसलिए आयोग ने राज्यों को सुझाव दिया था कि गैर मान्यता प्राप्त मदरसों के छात्रों को सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित कर दिया जाए. प्रथम दृष्टया एनसीपीसीआर के सुझाव पूरी तरह उचित हैं लेकिन जमीयत उलेमा ए हिन्द के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने याचिका में कहा कि संविधान में अनुच्छेद 25, 26 और अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत देश के अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गयी है, इसलिए एनसीपीसीआर के सुझाव तथा त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा संभावित कार्रवाई असंवैधानिक है.

एनसीपीसीआर का सुझाव केवल गैर मान्यता प्राप्त मदरसों के लिए है लेकिन आतंकवादियों की पैरवी करने वाले और भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की गज़वा-ए-हिंद योजना को फतवे के रूप में अपने मदरसे “देवबंद दारुल उलूम” की वेबसाइट पर डालने वाले अरशद मदनी तथा हलाल सर्टिफिकेशन का कारोबार करने वाले उनके संगठन जमीयत उलेमा ए हिंद ने इसके विरुद्ध याचिका दायर की थी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सुने बिना तुरत फुरत रोक लगाने का फैसला दे दिया. उच्चतम न्यायालय ने जमीयत उलेमा ए हिंद को उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा के अलावा अन्य राज्यों के मुकदमें में भी पक्षकार बनाने की अनुमति दे दी. गंभीर चिंतन की बात यह है कि मदरसों में ऐसा क्या पढ़ाया जाता है जो सरकारी स्कूलों में नहीं नहीं पढ़ाया जाता और कैसे मदरसा शिक्षा सरकारी स्कूलों से बेहतर है. क्या मदरसे देश विरोधी हिन्दू विरोधी शिक्षा देने के लिए भी स्वतन्त्र हैं. बेहद आश्चर्य की बात है कि राष्ट्रीय हित के अनेक मामलों को ठंडे बस्ते में डालने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने जमीयत उलेमा ए हिंद की दलीलें स्वीकार कर राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगा दिया और केंद्र और राज्य सरकार को सुने बिना हड़बड़ी में रोक लगा दी. राम मंदिर फैसले के बयान पर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों की आलोचनाओं से घिरे मुख्य न्यायाधीश ने दबाव में आकर यह फैसला दिया होगा, यह मानना उचित नहीं होगा, फिर भी इस फैसले की सराहना नहीं की जा सकती.

कांवड़ यात्रा के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने यात्रा मार्ग में पड़ने वाले सभी होटलों, ढाबों और दुकानदारों को अपनी पहचान उजागर करने का आदेश दिया था, जिस पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाते हुए कहा था कि किसी को भी अपनी पहचान उजागर करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. श्रावण का पूरा महा समाप्त हो गया, कांवड़ यात्रा समाप्त हो गयी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इतने महत्वपूर्ण मामले पर सुनवाई का मौका नहीं मिल पाया जबकि खाने पीने की वस्तुओं को अपवित्र कर बेचने के हजारों मामले सामने आ रहे हैं. इसके तुरंत बाद एक विपरीत फैसला आया. मुंबई के एक विद्यालय द्वारा हिजाब और बुर्के पर प्रतिबंध लगाते हुए केवल स्कूल यूनिफॉर्म पहनने का आदेश दिया था, जिसपर न्यायालय ने रोक लगाते हुए कहा कि किसी को उसकी धार्मिक पहचान छिपाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. क्या यह विरोधभास मात्र संयोग है.

कुछ समय पहले हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर कब्जा जमाये घुसपैठियों से जब जमीन खाली करवाई जा रही थी तो भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश दे दिया था जिसकी सुनवाई अब तक नहीं हो सकी है. यानी उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद अब सरकारी जमीन पर स्थायी रूप से अनाधिकृत और गैरकानूनी कब्जा बना रहेगा, यही सन्देश है. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सरकारी जमीन पर कब्जा करके अनाधिकृत रूप से किए गए निर्माण पर बुलडोजर कार्रवाई पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर रोक लगाई है कि वह पूरे देश के लिए एक सामान नियम बनाएगा. पता नहीं वह दिन कभी आएगा भी या नहीं लेकिन इससे अधिकृत कब्जा करने वालों के हौसले बुलंद हैं. ऐसे अनेक मामले हैं जिनमे सर्वोच्च न्यायालय का फैसले, उसके प्रति निष्ठा और सर्वोच्च सम्मान रखने वालों को भी कतई उचित नहीं लगते. देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों के प्रति सर्वोच्च न्यायालय की असंवेदनशीलता से लगता है कि न्याय की देवी की आँखों से पट्टी हटाकर न्यायाधीशों ने अपनी आँखों पर बांध ली है. आज राष्ट्रविरोधी, उन्मादी और जेहादी शक्तियां संविधान और सर्वोच्च न्यायलय को ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में गज़वा ए हिंद द्वारा भारत का राष्ट्रांतरण लगभग निश्चित होता जा रहा है. इन परस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय के प्रति लोगों में नाराज़गी बढ़ती जा रही है, जिसका कारण है राष्ट्र की एकता अखंडता से जुड़े हुए मामलों में भी देश के विरुद्ध फैसला देना.

भारत में कई राष्ट्रविरोधी संस्थाएँ और व्यक्ति है जो विश्व की सबसे प्राचीन सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म के विरुद्ध काम करते हैं. देवबंद के दारुल उलूम का बहुत स्पष्ट उद्देश्य है गज़वा ए हिंद के माध्यम से भारत का इस्लामीकरण करना और इसे वे छिपाते भी नहीं है. उनकी वेबसाइट पर गज़वा ए हिंद करने के लिए फतवा डाला गया है, जिसका विरोध होने पर अरशद मदनी ने कहा कि यह उनका धार्मिक कृत्य हैं जिसकी स्वतंत्रता संविधान ने उन्हें दी है. इसलिए वह गज़वा ए हिंद यानी भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के कार्य को धार्मिक कृत्य मानते है जो पूरी तरह से उचित, कानूनी और संवैधानिक है. इस धार्मिक कृत्य से उन्हें कोई नहीं रोक सकता. इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेना तो छोड़िए, जो याचिकाएं भी दायर हुई उनको भी कोई महत्त्व नहीं दिया गया.

1991 में बना पूजा स्थल कानून, 15 अगस्त 1947 यानी 45 वर्ष पहले स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन से लागू किया. उसके पहले देश पर अंग्रेजों का और मुस्लिम आक्रान्ताओं का शासन रहा था. 7वीं से 17 वीं शताब्दी के बीच भारत के लाखों मंदिरों, गुरुद्वारों, बौद्ध और जैन धार्मिक स्थलों को तोड़ा गया, जिनका पुनर्निर्माण स्वतंत्रता के बाद किया जाना था लेकिन इस कानून से हिंदू सिख, बौद्ध और जैनों को न्यायालय जाने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. इस प्रकार यह कानून सातवीं शताब्दी से लागू कर दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में कई कानूनों को निरस्त किया लेकिन पूजा स्थल कानून का संज्ञान नहीं लिया जो प्रथम दृष्टया असंवैधानिक, अनैतिक और गैरमुस्लिमो के मौलिक अधिकारों का हनन है. देश में ऐसी धारणा बन गई है कि प्रायः सर्वोच्च न्यायालय वर्ग विशेष से संबंधित मामलों में न केवल त्वरित सुनवाई करता है बल्कि उनके पक्ष में फैसला देने से भी नहीं हिचकता है. आतंकवादी मामले को रात में 12:00 बजे सुनना, तीस्ता सीतलवाड़ जैसे घोर सांप्रदायिक को जमानत देने के लिए एक ही दिन एक के बाद एक कई बेंच बनाकर देर रात्रि तक जमानत सुनिश्चित करना, ज्ञानवापी मामले में अनावश्यक दखलंदाजी कर निचली अदालतों को मामले को ठंडे बस्ते में डालने का संकेत देना, रेखांकित करता है कि सर्वोच्च न्यायालय कब, कहाँ और कैसा न्याय करता है.

एक विशेष चयन प्रक्रिया से आने वाले न्यायाधीशों की हिंदुओं के प्रति बेरुखी तो समझी जा सकती है लेकिन देश की एकता और अखंडता के प्रति बेरुखी राष्ट्र के विनाश का कारण बन सकती है. बांग्लादेश में सबने देखा जहाँ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से जबरन त्यागपत्र लिया गया. पाकिस्तान में भी स्थिति ऐसी है. केवल भारत ही ऐसा देश है, जहाँ अभी भी जनता में पंच परमेश्वर के प्रति बेहद सम्मान है, जिसे न्यायाधीश अपना संवैधानिक अधिकार समझने की भूल कर रहे हैं. शायद इसी कारण वे वास्तविकता समझने में असमर्थ हैं और देश के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख हैं.