रविवार, 5 सितंबर 2021

क्या कारण है कि 3 लाख संख्या वाली अफगानिस्तान की सेना केवल 75,000 की संख्या वाले तालिबानियों के सामने हार गयी?

 प्रश्न : क्या कारण है कि 3 लाख संख्या वाली अफगानिस्तान की सेना केवल 75,000 की संख्या वाले तालिबानियों के सामने हार गयी?

तालिबान का अफगानिस्तान पर इस तरह कब्जा किया जाना पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है परंतु भारत में इस चर्चा में गर्माहट इसलिए है क्योंकि यहां भी तालिबान के हमदर्द , समर्थक और मानसिकता के काफी लोग हैं जो तालिबान का समर्थन भी कर रहे हैं उनके अफगानिस्तान पर कब्जा करने का जश्न भी मना रहे हैं और इसे अफगानिस्तान की आजादी तक कह रहे हैं.

एक कुख्यात शायर मुनव्वर राणा ने तो तालिबान की महर्षि बाल्मीकि से तुलना कर दी. जावेद अख्तर ने तो आर एस एस और भाजपा को भी तालिबानी मानसिकता वाला करार दे दिया. ओवैसी, महबूबा सहित कई सांसदों ने भी तालिबान को समर्थन दे दिया और भारत की लगे हांथों लानत मलामत दी कर दी.

इस सबके बाद भी इस विषय में भारत का राष्ट्रीय निष्कर्ष लगभग वही है जो अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया की मुख्य धारा की मीडिया और लोगों का निष्कर्ष है. यानी-

  • चीन ने तालिबान को पैसा दिया और तालिबान ने अफगान सेना को रिश्वत दी और अफगान सेना तालिबान से मिल गई
  • भ्रष्टाचार, कुशासन, महंगाई, बेरोजगारी और अफगान सेना को वेतन न मिलना आदि
  • अधिसंख्य अफगान लोगों का तालिबान मानसिकता का होना या इस मानसिकता का समर्थन करना
  • एक प्रमुख विचार यह भी उभर कर आया है कि अमेरिका और तालिबान के बीच सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हुआ था जिसके अनुसार अफगान सेना और अफ़ग़ान राष्ट्रपति को ऐसा करना ही था.

उपरोक्त सभी कारण सही हो सकते हैं लेकिन फिर भी इनमें से कोई भी कारण यह स्पष्टीकरण नहीं दे सकता कि

-तालिबान के कब्जा करते समय पूरी जनता मूकदर्शक क्यों बनी रही ?

-अफगान सेना भी नहीं लड़ी और जनता ने भी किसी तालिबान आतंकवादी का कोई प्रतिरोध क्यों नहीं किया?

इन प्रश्नों का का उत्तर ही पूछे गए प्रश्न का सबसे सही उत्तर हो सकता है.

  • यह तालिबान की विजय नहीं अमेरिकी समझौते के अनुसार सत्ता का हस्तांतरण ही है.
  • 90 के दशक में जब पहली बार तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था तो वहां के राष्ट्रपति नजीब को सार्वजनिक स्थान पर फांसी पर लटका दिया गया था और इस कारण अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के पास भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं था क्योंकि वह जानते थे कि उनका भी वही हश्र होगा.
  • अफगान सेना कहीं भी नहीं लड़ी उसने बिना संघर्ष किए आत्मसमर्पण कर दिया और अमेरिका से मिले अत्याधुनिक हथियार भी तालिबान को सौंप दिए.
  • जनता ने प्रतिरोध क्यों नहीं किया, यह भी बहुत अजीब नहीं क्योंकि अफगानिस्तान का पिछले 2000 वर्षों का इतिहास यही है कि यहां की जनता या तो आत्मसमर्पण कर देती है और या फिर भारत की तरह इस मुगालते में रहती है कि कोई नृप होय हमें क्या हानि?

अफगान जनता का यह चरित्र बहुत विचित्र नहीं है और इसमें हिंदुओं की गुलामी की दास्तान छिपी हुई है.

1204 में मोहम्मद बख्तियार खिलजी ने आक्रमण किया और चूंकि हिंदू राजा आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे, इस आक्रमण का सभी ने सामूहिक सामना नहीं किया और परिणाम स्वरूप बंगाल मुस्लिम आक्रांताओं के कब्जे में आ गया. बख्तियार खिलजी ने न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया बल्कि तलवार की नोक पर बड़ी संख्या में धर्मांतरण करवाया जिसके कारण बंगाल मुस्लिम बाहुल्य राज्य हो गया.

1204 में भारत के बौद्ध बाहुल्य बंगाल राज्य में मोहम्मद बख्तियार खिलजी का भी मुस्लिम शासन ऐसे ही बिना किसी प्रतिरोध के स्थापित हुआ था और फिर क्लाइव लायड ने भी प्लासी की लड़ाई में इसी तरह विजय प्राप्त की थी.

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अफगानिस्तान प्राचीन काल में हिंदू शासित हिंदुस्तान का क्षेत्र हुआ करता था और इसके आखिरी हिंदू राजा दाहिर थे जो सिंध के राजा थे और अफगानिस्तान सिंध का ही एक हिस्सा हुआ करता था.

वास्तव में कलिंग युद्ध के बाद जब अशोक ने शोकाकुल होकर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और उसने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. अफगानिस्तान के ज्यादातर लोग भी बौद्ध हो गए थे और बौद्ध धर्म वह धर्म है जहां हिंसा की तो बात ही नहीं हो सकती और इतिहास गवाह है कि जहां जहां बौद्ध धर्म था वहां वहां पराजय और गुलामी अवश्य मिली क्योंकि बौद्ध लोग शांत प्रिय होते हैं और युद्ध से दूर रहते हैं इसलिए कालांतर में उनमें वीरता का ह्रास हुआ और प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो गई.

अफगानिस्तान जो भारत में घुसने के लिए पश्चिमी द्वार कहा जाता था, वहां से कितने ही आक्रमणकारी भारत में घुसे लेकिन उन्हें अफगानिस्तान में कभी भी किसी भी तरह के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा और आक्रमणकारी सीधे सिंध, पंजाब, दिल्ली और गुजरात तक पहुंच जाते थे.

भारत पर आक्रमण करने वाले आतंकी और लुटेरे मोहम्मद गौरी, महमूद गजनवी, बाबर तैमूर आदि अफगान नहीं थे. यह सभी बेहद हिंसक बर्बर कबीलाई संस्कृत से निकली हुए लोग थे और तालिबान भी वही है.

यह सही है कि अफगानिस्तान में भी बहुत बड़ी आबादी तालिबान को पसन्द करती है। जो मन से चाहते हैं कि उनके देश में तालिबानी कानून चले लेकिन भारत में भी बड़ी संख्या में तालिबानी मानसिकता के लोग हैं . तालिबान यह देखकर बहुत खुश हुआ कि हिंदुस्तान में इतनी बड़ी संख्या में उसके समर्थक हैं. इसी कारण वह तालिबान जो भारत से अफगानिस्तान मैं अपना दूतावास बंद न करने का अनुरोध कर रहा था और दोहा में भारतीय राजदूत से मिलकर भारतीय निवेश की सुरक्षा का आश्वासन दे रहा था, उसने पैंतरा बदलते हुए कहा वह कश्मीर के मुसलमानों के लिए आवाज उठाएगा और उन्हें समर्थन देगा क्योंकि वह उनके भाई हैं.

इसलिए यह मत समझिए कि तालिबान की संख्या 70 हजार थी, यह तो सिर्फ तालिबान आतंकी थे अफगानिस्तान की कुल चार करोड़ जनसंख्या में लगभग 70 लाख तो उनके कट्टर समर्थक हैं , उनका भी साथ मिला इसलिए उनका पूरा कब्जा करना तो स्वाभाविक है. अगर प्रतिरोध होता तो कब जा होना इतना आसान नहीं होता जैसा कि पंजशीर घाटी में हो रहा है.

बौद्ध और जैन धर्म का उद्भव सनातन धर्म से ही हुआ है और जब यह दोनों धर्म इतने अहिंसक और शांतिप्रिय हैं तो आप सनातन धर्म के बारे में सहज अंदाजा लगा सकते हैं. अफगानिस्तान का सच हमें यही बताता है कि “ अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च” (अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब जब धर्म पर आंच आये तो उस धर्म की रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं।)


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- शिव मिश्रा 

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