गुरुवार, 11 अगस्त 2022

पल्टूराम ने केंचुल बदला डाला

 पल्टूराम ने केंचुल बदला डाला 

पलटूराम ने फिर बदला केंचुल 

लालू यादव ने नीतीश कुमार को राजनीति का पलटूराम कहते हुए बताया था कि वह कभी भी पलटी मार जाते हैं. उन्होंने नितीश को ऐसा सांप बताया था जो हर 2 साल में केंचुल बदलता है. जब खुद लालू के साथ धोखा हुआ था तो उन्होंने ये बातें कहीं थीं, लेकिन नितीश जब पाला बदलकर फिर उनके साथ आ गए तो यह सब बातें गौण हो गयी. यही देश में स्वार्थपूर्ण राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है.

नीतीश कुमार  भाजपा से दूसरी बार संबंध तोड़ कर आरजेडी के नेतृत्व में 7 पार्टियों के गठबंधन में शामिल होकर 164 विधेयकों के समर्थन के साथ दोबारा मुख्यमंत्री बन गए हैं. इसके बाद बिहार की राजनीति के भी दो फाड़ हो गए हैं, एक वर्ग वह है जो भाजपा के साथ है और दूसरा वह जो भाजपा के विरोध में है, जिसमे सारे दल शामिल हैं. नीतीश कुमार जैसे शातिर राजनेताओं ने संवैधानिक व्यवस्था को भी बच्चों का खेल बना दिया है. उन्होंने राज्यपाल को इस्तीफा सौंपा, और थोड़ी देर बाद दोबारा राज्यपाल के पास पहुंच कर सात दलों के समर्थन का पत्र सौंपा और स्वयं को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का आग्रह किया. क्या इस  असामान्य घटना पर राज्यपाल को कोई प्रश्न नहीं करना चाहिए था और संविधान विशेषज्ञों से परामर्श नहीं करना चाहिए था? लेकिन इस पर किसी भी राजनीतिज्ञ ने प्रश्न  नहीं किया है जिससे लगता है कि राजनीतिक सुचिता का अब कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

नीतीश कुमार प्रेस कांफ्रेंस में मुस्कुराते हुए बिल्कुल सामान्य दिखाई पड़ रहे थे. ऐसा लग रहा था कि उन्हें आरजेडी के साथ जाने  की खुशी ज्यादा और भाजपा छोड़ने का कोई गम नहीं है. तेजस्वी यादव की खुशी छलक रही थी और उन्हें शायद यह याद करने की आवश्यकता भी नहीं थी कि 2 साल पहले नीतीश ने उनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर नाता तोड़कर भाजपा के पाले में चले गए थे. तेजस्वी की खुशी लालू परिवार की सत्ता पाने की छटपटाहट साफ देखी जा सकती थी.

नीतीश का पाला बदलना अवश्यंभावी था इसलिए किसी को कोई हैरानी नहीं है, भाजपा को भी नहीं. शायद इसीलिये उन्हें मनाने का कोई प्रयास भी नहीं किया. उनकी पाला बदल योजना काफी पहले से काम कर रही थी और और ये उस समय और अधिक स्पष्ट हो गया था जब वह राबड़ी देवी की रोजा अफ्तार दावत में शामिल हुए और इसके बाद नीतीश कुमार की रोजा इफ्तार पार्टी में तेजस्वी और राबड़ी शामिल हुए. यह ऐसा मौका था जब नीतीश कुमार और लालू यादव के परिवार में आमने सामने बैठकर बहुत सारी बातों पर चर्चा हुई और डील फाइनल हो गयी. सेना की अग्निवीर भर्ती योजना का बिहार में बहुत हिंसक विरोध हुआ क्योंकि यह आरजेडी सहित विपक्षी दलों द्वारा समर्थित था जिस कारण बड़ी संख्या में असामाजिक तत्वों ने भी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेकर न केवल रेलवे की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया बल्कि राजनीतिक बदले की भावना से कई जगह भाजपा के कार्यालयों को भी आग के हवाले कर दिया. खुफिया एजेसियों को इसमें पीएफआई की संलिप्तता के सुराग मिले. नीतीश कुमार आश्चर्यजनक रूप से चुप रहे और उतनी ही चुप बिहार की पुलिस भी रही क्योंकि गृह मंत्रालय हमेशा की तरह  नीतीश कुमार के पास था. मैंने जून के अपने एक  लेख में लिखा था कि नीतीश कुमार फिर पलटी मारने वाले हैं.

बिहार की जनता अभी भी यह नहीं समझ पा रही है कि भाजपा के साथ केंद्र सरकार का हिस्सा होने के कारण बिहार के आर्थिक विकास के लिए नई नई योजनाएं और  अधिकतम बजटीय आवंटन मिल रहा था फिर  नीतीश कुमार को भाजपा में ऐसा क्या नहीं मिल रहा था जो आरजेडी के साथ जाने से मिलने लगेगा. स्पष्ट है कि आरजेडी के साथ जाने में बिहार जनता  की तुलना में उन्होंने व्यक्तिगत एजेंडे को ज्यादा महत्त्व दिया.

चुनाव पूर्व घोषणा के अनुसार भाजपा ने 77 विधायक होने के बाद भी कि 43 विधायको वाले जेडीयू नेता नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया. अगर भाजपा ने ऐसा नहीं किया होता तो या तो नितीश उसी समय आरजेडी के साथ चले गए होते, या जेडीयू टूट गया होता और फिर बिहार में आरजेडी की सरकार बन जाती. किसी भी सूरत में भाजपा की सरकार बनने की दूर दूर तक संभावना नहीं थी. नीतीश कुमार भाजपा की इस स्थिति को भुनाते हुए मुख्यमंत्री बने लेकिन सुशील मोदी को सरकार से बाहर रखने और दो दो उपमुख्यमंत्री बनाने तथा विधानसभा अध्यक्ष का पद भी अपने पास रखने के कारण, वह भाजपा के साथ सहज नहीं थे. वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में जेडीयू से भी उतने मंत्री बनाना चाहते थे जितने भाजपा ने बिहार से बनाये थे. भाजपा द्वारा यह मांग स्वीकार नहीं की गयी इसलिए बहुत प्रतीक्षा के बाद उन्हें केंद्र में एक मंत्री पद से संतोष करना पड़ा, और उन्होंने अपने बेहद करीबी आरसीपी सिंह को मंत्री बनाया, बाद में जिनसे  नीतीश के रिश्ते बेहद खराब हो गए और उन्होंने पार्टी से त्यागपत्र भी दे दिया.

बिहार में अभी भी जातिवादी राजनीति बहुत अधिक प्रभावी है और जीत के लिए दलित और पिछड़े मतदाताओं के अलावा मुस्लिम मतदाता बहुत महत्वपूर्ण है. आरजेडी का  राजनैतिक सफर तो मुस्लिम-यादव (एम वाई फैक्टर) पर ही आधारित है. मोदी और भाजपा के प्रति ज्यादातर भारतीय मुसलमानों का व्यवहार जगजाहिर है इसलिए भाजपा के साथ रहने के कारण नीतीश को मुस्लिम मतों का समर्थन कम होता जा रहा था. वैसे भी  उनकी लोकप्रियता में लगातार गिरावट होती रही है और  इस समय उनकी साख धरातल पर हैं. उनकी पार्टी का प्रदर्शन भी चुनाव दर चुनाव खराब होता जा रहा है.  2005 में 88, 2010 में 115, 2015 में 71 के बाद 2020 में उनकी पार्टी 43 सीटों पर सिमट गई. मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्हें अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के मतदाताओं को आकर्षित करने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था, इसलिए उन्होंने भाजपा छोड़ कर आरजेडी के साथ जाने का फैसला किया ताकि मुस्लिम और पिछड़ो के मत मिल सकें.

भाजपा नीतीश के गेमप्लान से पूरी तरह अवगत थी, इसलिए उसने नितीश को मनाने का कोई प्रयास नहीं किया. इसका एक और बड़ा कारण है कि हाल में खुफिया एजेंसियों के इनपुट के आधार पर बिहार के फुलवारी   शरीफ छापा मारकर पीएफआई के देश विरोधी एक बड़े षड्यंत्र का पर्दाफाश किया गया था जिसमें पीएफआई का एक गोपनीय दस्तावेज “मिशन 2047” मिला था जिसमें  2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की पूरी कार्ययोजना लिखी है. अन्य राज्यों से आकर लोग पीएफआई के बैनर तले बिहार में मुस्लिम नवयुवकों को अस्त्र शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग देते थे. इस खुलासे से हड़कंप मच गया और चूँकि नीतीश कुमार हमेशा गृह मंत्रालय अपने पास रखते आए हैं इसलिए  शर्मिंदगी के कारण वह  चुप रहे लेकिन आरजेडी के नेताओं ने खुलकर पीएफआई और मुसलमानों का पक्ष लिया उन्होंने कहा कि जैसे आरएसएस अपने कैंप में शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग देता है वैसे ये लोग देते हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. कई नेताओं ने तो यहाँ तक कहा कि अगर भाजपा और आरएसएस हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं, जिसके जवाब में अगर मुस्लिम भी इस्लामिक राष्ट्र बनाने की बात करते हैं तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है.

पिछले विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के भी चार  विधायक चुने गए थे जिससे समझा जा सकता है कि राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किस हद तक हो चुका है. यह छिपी बात नहीं है कि भारत में जेहादी गतिविधियां चलाने के लिए विदेशी समर्थन और बड़ी मात्रा में पैसा मिलता है. इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ सरकारों को अस्थिर करने का अभियान चलाता है और  मोदी और भाजपा भी इनके निशाने पर रहते हैं. शाहीन बाग, और किसान आंदोलन इसके ताजा उदाहरण है.पीएफआई की 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की कार्ययोजना का पर्दाफाश होने के बाद देशभर में ताबड़तोड़ छापे डाले गए. इसके बाद  विदेशी पैसे का खेल शुरू हो गया. राजनैतिक दलों और उनके विधायको पर दबाव बनाया गया. पीएफआई के शुभचिंतक और समर्थक  जेडीयू और आरजेडी विधेयकों पर भाजपा को सरकार से बाहर करने हेतु लगातार हर संभव दबाव बना रहे थे और सत्ता पलट हो गया.

अब जब नीतीश कुमार ने पलटी मार ही दी है तो पीएफआई मॉड्यूल की  राज्य पुलिस द्वारा की जाने वाली जांच प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती. इसलिए इसमें किसी को भी कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि इस तरह की सत्तापलट में पीएफआई का कनेक्शन भी हो सकता है क्योंकि पीएफआई को वर्ग विशेष के बड़े नेताओं और राजनैतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्त है.

-    शिव मिश्रा ( responsetospm@gmail.com)