आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी और संभावना भी, तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में कर लिया है. ताजा समाचार यह है कि तालिबान ने बिना किसी विशेष विरोध के समूचे अफगानिस्तान पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया है. तालिबान के सूत्रों ने बताया है कि शीघ्र ही अफगानिस्तान को “इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान” घोषित कर दिया जाएगा.
मैं वैश्विक राजनीति मामलों का विशेषज्ञ तो नहीं हूं लेकिन मुझे यह बड़ा हास्यास्पद लगा कि एक तरफ समझौता वार्ता चलती रही, दुनिया की तमाम तथाकथित शक्तियां वार्ता करती रही और दूसरी तरफ तालिबान अफगानिस्तान के राज्यों पर कब्जा करते हुए काबुल पहुंच गया और और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करके पूरे अफगानिस्तान पर अपना परचम फहरा दिया. इसके बाद वार्ता ख़त्म. ऐसा लगता है कि यह वार्ता शायद तालिबान को अफगानिस्तान पर विजय सुनिश्चित करने के लिए ही आयोजित की गई थी. किसी भी मुस्लिम देश ने इस पर कोई भी विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी है, तो क्या यह समझा जाए कि पूरा इस्लामिक जगत तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे का समर्थन करता है?
जैसा कि हमेशा होता आया है, संयुक्त राष्ट्र संघ जो पूरे विश्व का मुखिया है वह देखता ही रह गया और देखता ही रहेगा.
- क्या संयुक्त राष्ट्र संघ केवल भाषण देने की जगह भर रह गया है?
- यदि कोई आतंकवादी संगठन किसी देश पर आक्रमण करके कब्जा कर ले तो क्या संयुक्त राष्ट्र संघ तमाशा देखता रहेगा?
- उस राष्ट्र के नागरिकों के मानवाधिकार का क्या होगा जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ बार-बार दुहाई देता रहता है?
- जो भी हो संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी भूमिका का सही सही निर्वहन नहीं कर रहा है और न ही मानवता के प्रति कोई सदाशयता ही दिखा रहा है? फिर क्या औचित्य है ऐसे वैश्विक संगठन का?
ज्यादातर शक्तिशाली देश अपने राजनयिकों और नागरिकों को अफगानिस्तान से निकालने में जुट गए हैं,जिससे स्पष्ट है कि अपने देश के नागरिकों के लिए तो वह अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं लेकिन अफगान नागरिकों के लिए उनके मन में कोई दर्द और पीड़ा नहीं है जिसका मतलब साफ़ है कि उनका मानवता से कोई लेना देना नहीं है.
अफगानिस्तान के समृद्ध और सक्षम लोग पहले ही भाग चुके थे और बचे हुए लोगों में जो लोग देश छोड़ सकते हैं, वह जहां कहीं संभव है भाग रहे हैं. जिनके पास कोई विकल्प नहीं है वह तालिबान का स्वागत कर रहे हैं और उनके समर्थन में तालियां बजा रहे हैं.
https://twitter.com/i/status/1427204278695997442
एक सवाल यह भी उठता है कि केवल 70 हजार आतंकवादियों के दम पर तालिबान ने अमेरिका और नाटो सैनिकों द्वारा प्रशिक्षित लाखों सैनिको वाली अफगान सेना को बिना लडे ही आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कैसे कर दिया?
क्या अफगान सेना और सरकार में तालिबान समर्थित लोग थे?
क्या अफगानिस्तान का एक बहुत बड़ा वर्ग तालिबान की मानसिकता के अत्यंत नजदीक है?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर हम सभी को ढूंढना होगा.
पूरा घटनाक्रम ऐसा लग रहा है जो शायद 1000 वर्ष पहले भारत में हुआ होगा , आक्रमणकारी आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह विजयी हो जाते थे, कुछ भारतीय राजा लड़ते थे और कुछ बिना लडे ही पराजय स्वीकार कर लेते थे और बड़ी संख्या में लोग तमाशबीन होते थे या आक्रमणकारियों का स्वागत करते थे.
तालिबान का दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा लगभग 20 साल बाद हुआ है और इन 20 सालों में अमेरिका के नेतृत्व में नाटो की सेनाएं अफगानिस्तान में रहीं और उन्होंने तालिबान को रोके भी रखा और अफगान सेनाओं को भविष्य मैं तालिबान की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित भी किया. सबसे आश्चर्यजनक घटना क्रम यह रहा कि तालिबान को पूरे अफगानिस्तान में कहीं भी बहुत ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा और उसकी सबसे आसान विजय काबुल पर रही जहां अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी स्वयं भाग खड़े हुए . उनके जहाज को तजाकिस्तान ने तालिबान के दबाव में ने अपने यहां उतरने की अनुमति नहीं दी. बताया जा रहा है कि वह अब अमेरिका जाएंगे.
तालिबान वस्तुत: एक आतंकवादी संगठन है, जिसने 20 वर्ष पहले भी अफगानिस्तान पर कब्जा करके अमानुषिक कानून लागू कर लोगों पर भयानक अत्याचार किए थे. आज इतने साल बाद भी तालिबान न केवल मौजूद है बल्कि पहले से ज्यादा शक्तिशाली भी है.
कौन हैं इसके पीछे ?
कौन इन्हें टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां और अत्याधुनिक हथियार देता है?
कौन इनकी फंडिंग करता है?
यह समझना मुश्किल नहीं
सबसे बड़ी बात अमेरिका ने तालिबान से वार्ता की थी और उसके बाद ही अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला किया था.
क्या तालिबान का कब्जा अमेरिका की डील का एक हिस्सा है?
हो सकता है कि इसके बारे में अफगान सेना के उच्चाधिकारियों को मालूम था इसीलिए तालिबान आतंकवादियों का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ और सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया.
यह सही है कि अफगानिस्तान में बने रहना अमेरिका के लिए आर्थिक रूप से बहुत बड़ा बोझ था, लेकिन अचानक अफगानिस्तान की जनता को उसके हाल पर छोड़ देना क्या धोखा देने जैसा नहीं है? क्या अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के लिए नैतिक रूप से यह सही कदम है?
काफी समय तक अमेरिका के राष्ट्रपति बिडेन इस पर मौन रहे जिससे संदेह गहरा गया किन्तु जब उन्होंने मुह खोला तो ऐसा लगा कि किसी छोटे गरीब देश का स्वार्थी राजनयिक बोल रहा हो. उन्होंने कहा कि अमेरिका का उद्देश्य अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण करना कभी नहीं था और न ही अमेरिका वहां जबाबी कार्यवाही के लिए था. हम वहां आतंकवाद के मुकाबले के लिए थे और वह पूरा हो गया था. उन्होंने यह भी जोड़ा कि सैनिको को वापस बुलाने का फैसला भी ट्रम्प का था. इससे अमेरिका की अफगानिस्तान में हुई हार, १९७५ में विएतनाम में हुई हार से भी ज्यादा अपमान जनक और शर्मनाक बन गयी.
ऐसी हालत में बेचारे अफगान नागरिक जो तालिबान के समर्थक नहीं हैं, मजबूरी में यदि तालिबान का समर्थन करें तो इसमें क्या आश्चर्य होगा?
जहां तक भारत का प्रश्न है, उसने अफगानिस्तान की पुनर्रचना में लगभग तीन अरब डॉलर का निवेश किया है और और इस समय ४०० से अधिक बड़ी परियोजनाओं पर भारत काम कर रहा है. अब उसके न केवल इस निवेश पर संकट के बादल गहरा गए हैं, बल्कि चाबहार पोर्ट से अफगानिस्तान को जोड़ने और अफगानिस्तान के माध्यम से पश्चिम एशिया में व्यापारिक सामान की पहुंच बनाने का सपना अधर में लटक गया है. यद्यपि तालिबान ने कहा है कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने बहुत अच्छा काम किया है और उसे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है लेकिन यदि उसने सैन्य मामलों में हस्तक्षेप किया तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा.
भारत ने कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी और तालिबान ने कभी इसके लिए प्रयास भी नहीं किया बल्कि इसके विपरीत वह आतंक का पर्याय बनने के लिए मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ता रहा. उसके पाकिस्तान की सरकारों से बेहद मधुर संबंध रहे और उनकी आड़ में भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय देता रहा.
बदले माहौल में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए नई सरकार को हर संभव सहायता देने का बिना मांगे वचन दे दिया है और उसके एक अन्य दोस्त टर्की ने भी कहा है कि वे पाकिस्तान के साथ मिलकर अफगानिस्तान को हर संभव सहायता देगा. तालिबान खान के नाम से मशहूर हो रहे इमरान ने तालिबान कब्जे करने को अफगानिस्तान का स्वतन्त्र होना बताया. रूस और चीन ने ने भी कहा है कि काबुल पहले से बेहतर है. ये सब तालिबान को सकारात्मक संदेश
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे समय में तालिबान रूस और चीन को भरोसे में लेकर कदम बढ़ा रहा है लेकिन भारत से अभी तक कोई भी ऐसी पहल नहीं की है.
निवेश के अलावा भारत के लिए दूसरा सबसे बड़ा चिंता का कारण है शरणार्थियों की समस्या जो पाकिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश कर सकते हैं. भारत में पहले ही बड़ी संख्या में अफगान लोग हैं इनमें विद्यार्थी व्यापारी और अन्य लोग शामिल है जिन्होंने वीजा बढ़ाने के लिए आवेदन कर रखा है. अफरातफरी के माहौल में भारत सरकार पर अफगानिस्तान से हिंदू और सिखों को वापस लाने का नैतिक दबाव भी बढ़ता जा रहा है.
एक तीसरा कारण है कि यदि नई तालिबान सरकार और पाकिस्तान चीन के मधुर संबंध बनते हैं तो भारत न केवल सामरिक दृष्टि से पिछड़ जाएगा बल्कि उस पर तालिबान आतंकियों का दबाव भी बढ़ सकता है क्योंकि तालिबान आतंकवादी अफगानिस्तान पर कब्जा करने का टारगेट पूरा करने के बाद खाली नहीं बैठेंगे और वह दूसरा टारगेट बनाएंगे जो गजवा ए हिंद भी हो सकता है.
आज जब भारत में काफी लोग लोग तालिबान के समर्थन में खड़े हो गए हैं तो कल्पना करिए कि यदि महमूद गजनवी की तरह तालिबान भारत पर आक्रमण कर देता है तो कितने लोग तालिबान के समर्थन में खड़े हो जायेंगे?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
- शिव मिश्रा