अयोध्या में राम मंदिर की धर्म–ध्वजा का संदेश || मोदी ऐसे हैं, या केवल दिखते हैं? || क्यों विपक्ष राष्ट्र के साथ नहीं?
25 नवंबर 2025 का ऐतिहासिक दिन केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व और केवल हिंदुओं के लिए नहीं, समस्त मानवता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया—जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर के शिखर पर भगवा धर्म–ध्वजा फहराते हुए कहा कि
“500 वर्षों की प्रतीक्षा समाप्त हो गई; वह यज्ञ पूरा हुआ जो कभी आस्था से डिगा नहीं, कभी विश्वास से टूटा नहीं।”
सदियों की प्रतीक्षा, संघर्ष, भरोसे और आशा की किरणों के बाद जब राम मंदिर के शिखर पर धर्म–ध्वजा लहराई, तब यह क्षण मात्र धार्मिक अनुष्ठान न रहकर भारत की आत्मा के पुनर्जागरण का उषाकाल बन गया—एक ऐसा क्षण जिसने पूरे विश्व को अपने दिव्य स्पंदन से प्रभावित किया। राम मंदिर पर धर्म–ध्वजा का आरोहण सनातन धर्म के लिए गहन प्रतीकात्मक एवं प्रेरणादायी महत्व रखता है—यह धर्म की निरंतरता, पारिवारिक संस्कारों की पुष्टि और आने वाली पीढ़ियों को आदर्श जीवन–मूल्यों की याद दिलाने वाला ध्रुव क्षण है। जैसा कि महाभारत में कहा गया है:
“न धर्मो हि अंशुभिः साध्यः ”
— धर्म का प्रकाश स्वयं मार्ग प्रशस्त करता है, यह घटना इसलिए भी असाधारण है कि यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक नए राष्ट्रीय प्रतिमान की घोषणा है। एक ऐसा प्रतिमान, जिसकी परिभाषा स्पष्ट शब्दों में इस तरह परिभाषित कर सकते हैं —
“राम राष्ट्र की आत्मा हैं, और आत्मा के जागरण से ही राष्ट्र का उत्थान संभव है।”
मनुस्मृति का वाक्य आज नए अर्थ में गूंज रहा है इसे सभी हिन्दुओ को आत्मसात कर लेना चाहिए :
“धर्मो रक्षति रक्षितः।”
राम मंदिर पर धर्म–ध्वजा का फहराया जाना केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि भारत के सामूहिक मानस, उसकी सांस्कृतिक यात्रा और वर्तमान राष्ट्रीय विमर्श से जुड़ी ऐतिहासिक घटना है। स्वतंत्रता के बाद यह पहला अवसर था जब दुनिया ने सनातन भारत की सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में प्रतिष्ठित होते देखा और जब पूरा भारत राम मय हो गया.
“राम का नाम कोई नारा नहीं, राष्ट्र की ऊर्जा है।”
इसलिए यह ध्वजा–रोहण “केवल राम मंदिर के शिखर पर धर्म ध्वजा का आरोहण नहीं, बल्कि युग-परिवर्तन है”.
सही अर्थों में यह भारत की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित करता है। अब तक हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति से दूरी बनाना ही धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण माना जाता रहा। स्वतंत्रता के बाद जब राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक पुनर्स्थापन की आवश्यकता थी, तब नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर दुर्भावनापूर्ण राजनीति की और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उद्घाटन में शामिल होने से रोका। अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया गया कि इस्लामी आक्रांताओं द्वारा नष्ट की गई सनातन धरोहरों की यथास्थिति ही उचित है। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति के प्रति उनकी कोई निष्ठा नहीं थी और राष्ट्र के बहुसंख्यक हिंदुओं के प्रति कोई दायित्व नहीं। यद्यपि नेहरू और इंदिरा से लेकर राहुल तक—गांधी परिवार का लगभग हर सदस्य अफगानिस्तान में बाबर की मजार पर श्रद्धांजलि अर्पित कर चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं राम मंदिर के शिखर पर धर्म–ध्वजा फहराना इस व्यापक परिवर्तन का संकेत है कि भारत अब उस दौर में प्रवेश कर चुका है, जहाँ राष्ट्रीय अस्मिता की सांस्कृतिक स्मृतियाँ केवल इतिहास या परंपरा नहीं, बल्कि राष्ट्र–निर्माण की सक्रिय शक्ति बन चुकी हैं। राम मंदिर के शिखर पर लहराती धर्म–ध्वजा इस उभरती सांस्कृतिक चेतना की उद्घोषणा है कि भारत अब अपनी प्राचीन गौरवमयी सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र–निर्माण के केंद्र में स्थापित कर रहा है।
महाभारत महाकाव्य में अनेक बार उद्धृत है - “यतो धर्मस्ततो जयः।”
अर्थात जहाँ धर्म है, वहीं विजय है — और यही आज का भारत विश्व से यही कह रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने आस्था को राष्ट्र–निर्माण और सामाजिक कल्याण से जोड़ने का संदेश दिया और इस ऐतिहासिक क्षण को एक व्यापक, समावेशी और कल्याणकारी दृष्टि का प्रेरक बताया जो सामयिक भी है।
कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्ष द्वारा समारोह का बहिष्कार विशुद्ध मुस्लिम तुष्टिकरण पर आधारित था—वही पुरानी, थोक वोट–बैंक साधने की सरल राजनीति। परंतु हिंदू जागरूकता और एकजुटता के कारण अब यह राजनीति उतनी फलदायी नहीं रही। यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि राम मंदिर और अयोध्या आधुनिक भारतीय राजनीति का केंद्रीय बिंदु बन चुके हैं, और इस ध्वजारोहण ने इसे और मजबूत किया है।
इस समारोह में आस्था और सत्ता का अद्भुत प्रतीकात्मक मिलन दिखाई दिया—यह स्पष्ट संकेत कि आने वाले वर्षों में भारत की दिशा केवल आर्थिक विकास से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विमर्शों से भी निर्धारित होगी। सांस्कृतिक प्रतीकों की यह पुनर्स्थापना भारत की बहुलतावादी संरचना को सुदृढ़ करेगी और साथ ही भारत अपनी पहचान को वैश्विक मंच पर अब स्पष्टता और गर्व के साथ प्रस्तुत करेगा।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह कदम भारत की सॉफ्ट पावर के विस्तार की नई दिशा प्रदान करेगा । योग, आयुर्वेद और भारतीय दर्शन पहले ही भारत की सांस्कृतिक छवि को विश्व में स्थापित कर चुके हैं। अब राम मंदिर और उससे जुड़े प्रतीक इस छवि को नया आयाम देंगे। विश्व–राजनीति में सांस्कृतिक संकेतों का अपना महत्व होता है। अयोध्या का दृश्य कई देशों के लिए यह स्पष्ट संदेश था कि भारत अपनी जड़ों से कटे बिना आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है।
अयोध्या में राम मंदिर का धर्म–ध्वजारोहण केवल आस्था का राष्ट्रीय उत्सव नहीं, बल्कि रामायण की वैश्विक परंपरा और सांस्कृतिक कूटनीति का भी प्रतीक है। यह आयोजन भारत को उन देशों से जोड़ता है जहाँ राम और रामायण आज भी जीवंत हैं, जोड़ेगा।
इंडोनेशिया में रामायण लोकप्रिय है; थाईलैंड में रामाकियन राष्ट्रीय महाकाव्य है; कंबोडिया में रीमके नाम से रामायण का शाही नृत्य–नाटक प्रसिद्ध है; नेपाल में जनकपुर को सीता का जन्मस्थान माना जाता है; लाओस और म्यांमार में रामायण के स्थानीय संस्करण लोक–संस्कृति का हिस्सा हैं। अतः राम मंदिर भविष्य में पर्यटन और आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण इंजन भी सिद्ध होगा। लाखों श्रद्धालु और पर्यटक प्रतिवर्ष यहाँ आएँगे, जिससे धार्मिक पर्यटन में स्थायी वृद्धि होगी।
राम मंदिर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्तार किया है और भविष्य की राजनीति में इसकी भूमिका और गहराने की संभावना है। यही राष्ट्र की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह राष्ट्रीय हित में होगा यदि सनातन के धार्मिक प्रतीक और सांस्कृतिक आयोजन राजनीति में प्रमुख विमर्श बनें—जिससे सांप्रदायिक तुष्टिकरण समाप्त हो सके। रामराज्य को आधुनिक शासन–व्यवस्था से यदि जोड़ा जा सका, तो राजनीति, धर्म और विकास दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ सकती है।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि बाहरी तौर पर ही सही— कम से कम प्रधानमंत्री मोदी हिंदुत्व–आधारित राजनीति को आगे बढ़ाने का संकेत दे रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अब उन्हें चुनावी राजनीति की परवाह नहीं, या वे अत्यधिक राजनैतिक दबाव में हैं। परंतु वे जिस तरह बार–बार “500 वर्षों” का उल्लेख कर रहे हैं—ठीक उसी तरह, जैसे आडवाणी की रथयात्रा के दौरान करते थे—यह स्पष्ट संकेत है कि वे पुनः रेखांकित करना चाहते हैं कि हिंदू पहले कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना आज है, और कि हिंदू उनके लिए विशेष महत्व रखता है।
परंतु प्रश्न उठते हैं —
- फिर हिंदू मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों नहीं हुए?
- हिंदुओं को गुरुकुल संचालित करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं?
- गजवा–ए–हिंद की साजिशों पर प्रभावी नियंत्रण क्यों नहीं?
- समान नागरिक संहिता और धर्मांतरण–निरोधक केंद्रीय कानून क्यों नहीं?
हिंदू समाज मोदी के हिंदू हितैषी वक्तव्यों और सार्वजनिक रूप से पूजा–अर्चना देखकर ही संतोष कर लेता है—क्योंकि इससे पहले ऐसा करने का साहस भी कोई प्रधानमंत्री नहीं कर सका। भारत के हिंदू–विरोधी दूषित राजनीतिक वातावरण में यह भी बड़ा कदम है, परंतु यह पेड़ की पत्तियों पर पानी डालने जैसा काम है।
लंबे समय तक प्रतीकात्मक कार्यों से न तो किसी समुदाय को संतुष्ट रखा जा सकता है और न ही किसी देश की संस्कृति को सुरक्षित रखा जा सकता है, यह बात मोदी और भाजपा को समझनी होगी और हम सभी को भी, — कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दल तो कभी समझेंगे नहीं।
~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~