मंगलवार, 27 सितंबर 2022

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया या इस्लामिक फ्रंट ऑफ इंडिया ?

 


पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया या इस्लामिक फ्रंट ऑफ इंडिया ?

राष्‍ट्रीय अन्‍वेषण अभिकरण (एनआईए), और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी)  ने कई राज्यों की पुलिस के साथ मिलकर पूरे देश में  अनेक स्थानों पर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के ठिकानों पर छापेमारी करके 100 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है और बड़ी संख्या  में भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का प्रमाण और भारत में वादी गतिविधियाँ फैलाने के लिए विदेशों से चंदा एकत्रित करने संबंधित दस्तावेज बरामद किए हैं. छापेमारी मुख्यत: दक्षिण भारत में की गयी जिसे  एनआईए ने  ‘अब तक का सबसे बड़ा जांच अभियान’ बताया  है.

सरकार द्वारा की गयी यह कार्रवाई बहुत देर से उठाया गया सही कदम है. पिछले पांच सालों में इस संगठन ने देश के लगभग हर  उस इलाके में अपनी पैठ बना ली है जहाँ मुस्लिम जनसंख्या है. स्वयंसेवी और राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा सरकार से लगातार इस संगठन को प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही है लेकिन मोदी सरकार ने “सबका विश्वास” हासिल करने के लालच में इस कार्यवाही में आवश्यकता से अधिक विलंब कर दिया है, अब जब पानी सिर के ऊपर निकल गया है तब सरकार की नींद खुली है. इस बीच इस संगठन ने शाहीन बाग से लेकर पूर्वोत्तर तक आतंक और साम्प्रदायिकता का जाल बुन रखा है. दक्षिण भारत में इसकी गतिविधियों बेरोकटोक चल रही है. इसके कारण तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में  सांप्रदायिक और भारत गतिविधियों में  आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है.

पीएफआइ का उद्देश्य भारत में तालिबान जैसी शासन व्यवस्था कायम करना है जिसके लिए उसने अपनी लंबी अवधि की योजना तैयार कर रखी है. जिसके अंतर्गत कई राज्यों में राज्य सरकारों की जानकारी में होते हुए भी सैनिक प्रशिक्षण और भारत विरोधी गतिविधियों के अड्डे स्थापित कर रखे है. बिहार और पूर्वोत्तर राज्यों पर खासा ध्यान दिया गया है जहाँ मदरसों में आतंकी संगठनों से संबंध रखने वाले लोगों को अन्य राज्यों से लाकर मौलाना और मौलवी के रूप में रखा गया है. असम सरकार ने ऐसे मदरसों के विरुद्ध कार्रवाई करनी शुरू कर दी है लेकिन बिहार में जहाँ पीएफआई  गतिविधियों अपने चरम पर है किन्तु सरकार ने अब तक उसके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई नहीं की है. फुलवारी शरीफ की जांच भी लगभग ठन्डे बस्ते में चली  गयी है.

प्रतिबंधित आतंकी संगठन पूर्व के  कुख्यात सिमी का ही परिवर्तित रूप है लेकिन इसकी गतिविधियां  और पूरे भारत मे नेटवर्क सिमी से भी बहुत बड़ा है. इसका परिचालन विदेशी कार्यालयों से भी किया जाता है जिसमें खाड़ी देशों के अलावा तुर्की  स्थित कार्यालय बहुत अधिक सक्रिय है.  इन सभी जगहों से इस संगठन को बड़ी मात्रा में है धन उपलब्ध कराया जाता है. भारत में धन भेजने के इसने  कुछ अनेक अनोखे तरीके तैयार कर रखे हैं जो अभी भी सरकार की पकड़ से बाहर है. इनमें हवाला के अतिरिक्त विदेशों से बड़ी धनराशि को छोटी छोटी राशियों  में बांटकर अनेक लोगों के खाते में प्रेषित की जाती है जिसे जकात और अन्य माध्यम से संबंधित संगठनों, मस्जिदों  और यहाँ तक कि पीएफआई के खातों में भी पहुंचा दिया जाता है. एंटी मनी लॉन्ड्रिंग की भाषा में इसे “वन टू मेनी” एंड “मैनी टू वन” कहा जाता है.  इस तरह प्राप्त धन का उपयोग टेरर फंडिंग और  सांप्रदायिक आंदोलन चलाने के लिए किया जाता है.

हाल के दिनों में हिजाब के पक्ष में कर्नाटक से शुरू हुए  आंदोलन हे पीछे भी पीएफआई का ही हाथ है और सिर तन से जुदा मामले भी इसी संगठन से जुड़ते हैं. इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पीएफआई की गतिविधियों को ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरुओं राजनेताओं और संगठनों का समर्थन प्राप्त है. सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पीएफआई के कार्यों को उचित ठहराते हैं और जब भी कभी पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने या कार्रवाई करने की बात की जाती है तो यह सभी  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं, जिससे  पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि इनका समर्थन  पी ऍफ़ आई गैरकानूनी गतिविधियों के साथ है. 

पिछले दिनों बिहार के फुलवारी शरीफ में बिहार पुलिस द्वारा की गई छापेमारी में पीएफआइ की उस कार्ययोजना का खुलासा हुआ था जिसके अंतर्गत उसका लक्ष्य 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाना है. इन गतिविधियों को चाहे देशद्रोही कहा जाए या  नहीं  लेकिन इस तरह की गतिविधियाँ और उन्हें समर्थन करने वाले  भारत के  ज्यादातर मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों का उद्देश्य गज़वा ए हिंद योजना को आगे बढ़ाना  है.  इसे मुस्लिम  राजनीतिज्ञों का समर्थन तो प्राप्त है ही, अप्रत्यक्ष रूप से इसे तुष्टीकरण करने वाले राजनीतिक दलों का भी समर्थन  प्राप्त हो जाता है.

एनआईए ने जिन  लोगों को गिरफ्तार किया है उन पर आतंकवाद के लिए धन मुहैया कराने, हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने और प्रतिबंधित संगठनों में शामिल होने के लिए लोगों को उकसाने का आरोप है। पिछले कुछ वर्ष के दौरान देश के विभिन्‍न राज्‍यों में पी.एफ.आई. और इसके सदस्‍यों के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं। भारत सरकार ने एक मिशन के तहत जिस तरह गिरफ़्तारी की है वह साधारण नहीं है, क्योंकि  पीएफआई  तालिबान की तर्ज पर भारत को इस्लामिक स्टेट बनाना चाहती है.  यह लोग बम  बनाने में दक्ष है, और सिर तन से जुदा, टेरर फंडिंग और आतंकी गतिविधियों में भी शामिल हैं। इस देश में कई जगहों पर पीएफआई द्वारा हथियार चलाने के लिए ट्रेनिंग कैंप चलाये जा  रहे हैं और युवाओं को कट्टर बनाकर प्रतिबंधित संगठनों में शामिल होने के लिए उकसाया जा  रहा है। मदरसों में भी इनकी पैठ हो गई है जिन्हें  आतंक की फैक्टरी के रूप में विकसित  करने का काम शुरू कर दिया गया है. इसलिए मदरसों के सर्वे पर एतराज जताया जा रहा है.  

एनआईए की छापे की कार्रवाई का विरोध करने के लिए शुक्रवार को पीएफआई ने केरल में बंद बुलाया गया था जहाँ  जगह-जगह सड़क जाम करने की कोशिश की गयी, सरकारी बसों में तोड़फोड़ की गई, बस ड्राइवर हेलमेट पहनकर बस चलाते देखे गये. दुकानदारों से जबरदस्ती दुकानें बंद करने के लिए कहा गया और जिन्होंने दुकानें बंद नहीं की उनसे मारपीट भी की गई. पीएफआइ द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक के कार्यालयों पर बम फेंकने  की घटनाएं भी सामने आयी है. कई जगहों पर पुलिस से प्राप्त हुई और पूरे केरल में उत्पात मचाया गया. पीएफआई के उत्पात के कारण  राहुल गाँधी ने भारत जोड़ों यात्रा भी प्रभावित हुई है. केरल हाई कोर्ट ने इसका स्वत: संज्ञान  लिया है क्योंकि केरल में बिना 7 दिन की सूचना दिए हड़ताल या बंद  का आह्वान करने पर उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगायी जा चुकी है. उच्च न्यायालय ने पीएफआई द्वारा प्रयोजित बंद के विरुद्ध अवमानना कार्रवाई शुरू कर दी है  और न्यायालय ने टीवी चैनलों पर भी फ्लैश हड़ताल का जोरशोर से प्रचार किए जाने पर भी आपत्ति जताई है. 

विश्वस्त सूत्रों के अनुसार पीएफआई ने प्रशिक्षित स्वयं सैनिकों  की फौज भी  तैयार कर ली है जो जरूरत पड़ने पर उसकी कार्रवाइयों को अंजाम दे सकें और भारत को हे 2047 तक इस्लामिक राष्ट्र बनाने का उसका सपना साकार कर सकें. इन छापों में पीएफआई के अलकायदा और आईएसआईएस से संबंधों की भी पुष्टि हुई है, जो वर्तमान परिस्थिति में भारत के लिए गंभीर खतरा है. भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की कार्ययोजना के लिए  वैश्विक मुस्लिम समुदाय से हर संभव मदद की जा रही है. दुर्भाग्य से भारत का जो राजनीतिक माहौल है उसमें  तुष्टीकरण  की नीति पर चल कर सत्ता पाने वाले  वाले ज्यादातर राजनैतिक दल इस खतरे को जानते हुए भी सत्ता पाने के स्वार्थ में इतने अंधे हो चूके हैं कि उन्हें भारत की इस्लामिक राष्ट्र बनने से भी कोई  चिंता नहीं है.

2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता बनाने  और एकीकृत विपक्ष का नेता बनने के लिए प्रधानमंत्री पद के चेहरे के सभी  दावेदार  पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के हमदर्द बनकर उभर आए हैं और उन सभी ने पीएफआई पर हो रही  कार्रवाई का विरोध किया है उसमें कांग्रेस भी शामिल है. कांग्रेस के नेता तारिक अनवर ने तो यहाँ तक कहा कि सरकार की कार्रवाई को तभी उचित ठहराया जा सकता था जब सरकार पीएफआई के साथ साथ आरएसएस के ठिकानों पर भी छापा मारती.

जो भी हो सरकार कार्रवाई बहुप्रतीक्षित थी है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन तब तक अधूरी रहेंगी जब तक पीएफआई जैसे संगठनों शीघ्रता से  प्रतिबंध नहीं लगाया जाता. पीएफआइ के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे इस्लामिक और मुस्लिम संगठन है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से  मिशन गज़वा ए हिंद में शामिल हैं, जिन पर तुरंत कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है. सरकार द्वारा किये जाने वाला विलम्ब  राष्ट्र के प्रति बड़ा  अन्याय होगा. 

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- शिव मिश्रा 

 

 


 

 



 

 



 

 

रविवार, 18 सितंबर 2022

कुर्सी के आसपास घूमती विपक्षी एकता

 

कुर्सी के आसपास घूमती विपक्षी एकता

कांग्रेस का पराभव तो बहुत लंबे समय से हो रहा है. उसके नेता एक एक करके पार्टी छोड़ते जा रहे हैं और इस कारण कांग्रेस बिल्कुल कृषकाय हो गई है, जिसका उपचार गाँधी परिवार से मुक्ति है, जो संभव नहीं है. इसलिए  बिना उपचार के कांग्रेस कितने दिन तक जिंदा रहेगी, कह पाना बहुत मुश्किल है. विपक्ष में कोई भी ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं है जो संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व कर सके लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रप अपने सीमित राजनैतिक दायरे से निकलकर प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े हैं. प्रत्येक दल का नेता  यही चाहता है कि अन्य दल  नेतृत्व करने की जिम्मेदारी उसे सौंप दें ताकि यदि कभी बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे तो  येन केन प्रकारेण प्रधानमंत्री की कुर्सी हथिया सकें.

कांग्रेस में पार्टी  अध्यक्ष का पद पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गाँधी द्वारा इस्तीफा देने के कारण रिक्त हो गया था और तब से इसे भरा नहीं जा सका है. राहुल गाँधी ने घोषणा की थी कि नया अध्यक्ष गाँधी परिवार से नहीं होगा लेकिन शायद सोनिया गाँधी को ये मंजूर नहीं था  क्योंकि वह पार्टी से अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए तैयार नहीं है और इस कारण उन्होंने स्वयं अपने आप को कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत करवा लिया और चुनाव  टाल दिए गए. इस्तीफा देने के बाद भी पार्टी पर पूरी पकड़ राहुल गाँधी की है, जो गंभीर राजनीति के लिए नहीं जाने जाते और ऐसे में इस अस्थायी व्यवस्था से पार्टी का भला नहीं  हो सकता है, लेकिन परिवार के प्रति निष्ठावान नेता वर्तमान व्यवस्था को चलाते रहने के पक्ष में है. पार्टी के वरीष्ठ नेताओं ने मांग की  थी कि अध्यक्ष पद पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा किसी व्यक्ति की स्थायी नियुक्ति की जाए. जी 23 आपके नाम से मशहूर हो गए इन नेताओं के विरुद्ध परिवार के निष्ठावान नेताओं ने  इतने प्रहार किये कि अपमान से आहत कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है और कई छोड़ने की कतार में हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव तक इस बात की संभावना ज्यादा है कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेता पार्टी छोड़ देंगे और उनकी पहली पसंद भाजपा होगी, फिर भी आज कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती. यह प्रश्न तो हमेशा उठाया जाता रहेगा कि जो  पार्टी स्वयं एकजुट नहीं रह सकती, वह पूरे विपक्ष को कैसे एकजुट कर पाएगी.  

राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो गयी है लेकिन अपनी धुन में वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध वही पुराने और घिसे पिटे आरोप लगा रहे हैं जिन्हें जनता कभी का खारिज कर चुकी है. कांग्रेस ने कभी भारत छोड़ो का नारा दिया था और इसके बाद भारत तोड़ने का भी काम किया और अब अगर भारत जोड़ों यात्रा का अभियान चलाया जा रहा है तो असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्व शर्मा का कहना बिल्कुल उचित है कि कांग्रेस को अपनी यह यात्रा पाकिस्तान में शुरू करनी चाहिए. ऐसा लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य सोनिया गाँधी द्वारा राहुल गाँधी का रीलांच करना है ताकि पार्टी में उनके विरुद्ध उठ रहे बगावती स्वरों को ठंडा किया जा सके और साथ ही साथ संयुक्त विपक्ष की नेतृत्व की जिम्मेदारी और परिस्थितियां आने पर प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी को भी मजबूत  जा सके .

 देश में विपक्षी एकता का आवाहन नई बात नहीं है. केंद्र में हर सत्ताधारी दल के विरुद्ध इस तरह की कोशिशे होती आई है. भाजपा की  केंद्र में दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद विपक्ष काफी हद “पराजित होने का भय”  की हीन  ग्रंथि से ग्रसित है, यह विपक्षी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों से भी स्पष्ट हो जाता है. विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए कई क्षेत्रीय राजनेता मैदान में हैं, जिनकी विश्वसनीयता पर भी बड़े  प्रश्न  चिन्ह लगे हैं लेकिन उनका दिल है कि मानता नहीं. विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच अंतर्विरोध भी विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा है.  उदाहरण के लिए तेलंगाना के  मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव उस गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते जिसमें कांग्रेस हो, मायावती की बसपा उस गठबंधन का हिस्सा नहीं हो सकती  जिसमें समाजवादी पार्टी हो, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी उस गठबंधन का हिस्सा नहीं हो सकती  जिसमें जगनमोहन रेड्डी  हों. ओडिशा के नवीन पटनायक ही  केवल ऐसे नेता  होंगे जो किसी भी गठबंधन का हिस्सा न होते हुए भी केंद्र में सरकार बनाने वाले  दल या गठबंधन को बाहर से समर्थन देते रहेंगे.

हाल में एक  नाटकीय घटनाक्रम में बिहार में  पलटूराम यानी  नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ कर एक बार फिर उनका साथ पकड़ लिया जिन्हें  वह जंगलराज कह कर धिक्कारते रहे थे. अपनी राजनैतिक कलाबाजी के लिए कुख्यात हो चुके  नीतीश कुमार ने दो दो बार भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन तोड़ा है और अपनी पार्टी के जार्ज फेर्नान्डीज़, शरद यादव जैसे अनेक नेताओं को ठिकाने लगाया है. राज्य में अब उनकी विश्वसनीयता धरातल पर हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी सिमटकर 43 विधेयकों तक सीमित रह गई थी. उनके निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि 2025 के अगले विधानसभा चुनाव से पहले 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे जिसमें वह अपनी बढ़ती उम्र के कारण अंतिम बार सक्रिय रूप से हिस्सा लें सकेंगे.  इसलिए वह अपने प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को साकार करने के आखिरी अवसर को गंवाना नहीं चाहते. चूंकि भाजपा के साथ गठबंधन में यह संभव नहीं था. इसलिए मुख्यमंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना साकार करने के लिए पलटी मारना  ज़रूरी था ताकि विपक्षी खेमे में शामिल होकर जोड़ तोड़ शुरू करने का मौका मिल सके. यद्यपि उनकी पार्टी जेडीयू उन्हें प्रधानमंत्री मटेरियल बताकर आगे बढ़ा रही है जबकि  स्वयं नीतीश कुमार कहते हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं है. जिससे स्पष्ट है कि उन्होंने अघोषित रूप से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर दी है और दिल्ली आकर विभिन्न दलों के राजनेताओं से मुलाकात कर अपने लिए समर्थन हासिल करने की कोशिश भी की है.

इससे पहले ममता बेनर्जी भी  प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक चुकी है और उन्होंने कह भी दिया है  कि भाजपा का खेला पश्चिम बंगाल से शुरू होगा. प्रधानमंत्री पद के  एक अन्य उम्मीदवार हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव जो तेलंगाना बनने के बाद लगातार उसके  मुख्यमंत्री रहते के कारण अपने आपको बेहद लोकप्रिय नेता मानने लगे हैं. उनको लगता है कि वह राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने के लिए तैयार है.

अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के अत्यंत धनी  आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी प्रधानमंत्री बनने के लिए लंबे समय से अपने आप को प्रस्तुत कर रहे हैं. प्रिंट और डिजिटल मीडिया में छाये रहने  के लिए विज्ञापनों  पर अंधाधुंध सरकारी पैसा खर्च करने वाले और मुफ्त रेवड़ियां बांटने के उस्ताद अरविंद केजरीवाल, जिन्हें समाज और देश बांटने से भी परहेज नहीं है, अब देश की सीमाओं से बाहर जाकर भी सुर्खियां बटोरने में  लगे हैं. स्वाभाविक है कि वह  प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी से  पीछे हटने वाले नहीं.  उनकी महत्वाकांक्षा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक छोटे से राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए मेक इंडिया नंबर वन का अभियान शुरू किया  है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 100 से अधिक विधायकों वाली पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी मैदान में हैं लेकिन उनकी मजबूत दावेदारी इस  पर निर्भर करेगी कि उन्हें  लोकसभा चुनाव में कितनी सफलता मिलती है. स्ट्रॉन्ग या रॉन्ग मराठा नेता  शरद पवार  की महत्वाकांक्षा किसी से भी छिपी नहीं है. यह अलग बात है कि महाराष्ट्र में उनके बड़े राजनैतिक सफ़र  के अनुसार उनका कद उतना बड़ा नहीं है और आज भी वह अपने दम पर राज्य में मुख्यमंत्री भी नहीं बन सकते लेकिन संयुक्त विपक्ष के कंधे पर चढ़कर वे भी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में पीछे नहीं रहेंगे.

इसलिए यह कहना बहुत मुश्किल है की विपक्षी एकता बन पाएंगी या नहीं और अगर बन गयी  तो कब तक बनी रहेंगी.

-    शिव मिश्रा  

शनिवार, 17 सितंबर 2022

साधुओं पर हमले का रहस्य

 

साधुओं पर हमले सनातन विरोधी साजिश










ज़रा गंभीरता से सोचिए कि अगर आपकी सुरक्षा करने वाले ही सुरक्षित न रहे, षडयंत्र पूर्वक उनकी हत्याये की जाने लगे, और खतरा आप पर भी हो, तो आप कैसे सुरक्षित रह सकते हैं और कब तक बचे रह सकते हैं?

देश में इस समय अनेक ऐसी घटनाएं हो रही है जो  आपस में जुड़ी हुई दिखाई तो नहीं पड़ती लेकिन उनमें बहुत गहरा संबंध है. एक नया और महत्वपूर्ण घटनाक्रम है, साधु सन्यासियों की हत्याएं और उन पर जानलेवा हमले, जो देखने में तो सामान्य कानून व्यवस्था  और अफवाह आधारित स्वतःस्फूर्त मामले  दिखाई पड़ते हैं लेकिन अगर गंभीरता से विचार करें तो ये हिंदुओं और उनकी प्राचीन सनातन संस्कृति के विरुद्ध बहुत बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है.

हाल में बच्चा चोरी की अफवाह आधारित आरोप में देश के विभिन्न भागों में साधुओं की हत्याएं हुई हैं और कई जगह उन पर जानलेवा हमले किए गए और उन्हें मारने की कोशिश की गई. इस तरह की घटनाओं से हिंदुओं और सनातन संस्कृति पर अप्रत्यक्ष रूप से हमला किया गया है. इस षड्यंत्र के कारण साधुओं के रूप में सनातन संस्कृति के निस्वार्थ कार्यकर्ताओं की हत्याएं जितनी गंभीर है उससे भी अधिक गंभीर यह है कि इसका उद्देश्य  सनातन संस्कृति के ध्वज वाहको के प्रति समाज में असम्मान और अविश्वास पैदा करना है जो हजारों वर्षों से घर परिवार छोड़ कर, माया मोह के बंधन त्यागकर सनातन संस्कृति के प्रति कृत संकल्पित होकर उसकी रक्षा करते आए हैं. इन हत्याओं को अफवाहों के आधार पर स्वाभाविक आक्रोश नहीं माना जा सकता है. अफवाह फैलाना भी एक बड़े षड्यंत्र का एक हिस्सा है. हिन्दी फिल्मों में तो लम्बे समय से साधू सन्यासियों का विकृत रूप पेश किया जा रहा है.   

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक जिले के पुलिस अधिकारी के एक वीडियो में छेड़छाड़ करके उसे इस ढंग से बना दिया गया कि यह लोगों को पुलिस विभाग की तरफ से सावधान रहने की चेतावनी जैसा लगने लगे. इसमें कहा गया है कि “500 से अधिक अपराधी प्रवृत्ति के लोग साधु सन्यासियों के भेष में देश के विभिन्न भागों में घूम रहे हैं जो बच्चा चोरी करके उनके शरीर के अंग बेचने का काम करते हैं, इनसे सावधान रहें”  इस वीडियो को सोशल मीडिया पर वायरल किया गया और इसके कारण अफवाहों का बाजार गर्म हुआ, और  इस कारण देश के कई भागों में साधु सन्यासियों पर बिना सोचे समझे हमले होने लगे, यह सही है कि अफवाहें बहुत तेजी से फैलती है, लेकिन इनके पीछे कौन है, इसकी तह में जाना अत्यंत आवश्यक है.

कुछ समय पहले महाराष्ट्र के पाल घर में साधुओं  की निर्मम हत्यायें  की गई थी और मौके पर उपलब्ध पुलिस मूकदर्शक बनी रही थी. उस समय उद्धव ठाकरे की सरकार थी जो एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार थी, पर अब  महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हिंदूवादी सरकार है लेकिन साधु सन्यासियों के विरुद्ध षडयंत्र अनवरत जारी है. सांगली में चार साधुओं की बच्चा चुराने के शक  में निर्मम पिटाई की गई और यह घटना भी पालघर की घटना की तरह होते होते बची. एक प्रतिष्ठित अखाड़े से सम्बद्ध यह सन्यासी कर्नाटक के बीजापुर से महाराष्ट्र के पंढरपुर जा रहे थे और पिछली  रात उसी गांव के मंदिर में ही ठहरे थे. फिर अचानक दूसरे दिन ऐसा क्या हो गया कि  कुछ ग्रामीणों ने उन्हें गाड़ी से खींच कर बेरहमी से पीट कर ह्त्या का प्रयास किया. बिहार के मधुबनी में एक मंदिर में  दो साधुओं की हत्या कर दी गई, पुलिस द्वारा यह कारनामा चोरों का बताया गया है, जो विश्वसनीय नहीं है.

बिहार के हाजीपुर की एक घटना पूरे हिंदू समाज की आँखें खोलने वाली है, जहाँ कुछ साधू  नंदी लेकर गांव में घूम कर लोगों से दान व भिक्षा मांगते देखा गया. ये लोग भी एक मंदिर में ठहरे लेकिन भगवान के प्रति कोई आस्था प्रदर्शित न करने  के कारण गांव वालों को शक हुआ,  तो पता चला कि यह सभी मुस्लिम हैं. पुलिस के समक्ष इन लोगों ने जो बयान दिया कि नंदी लेकर भिक्षा मांगने का यह काम उनके परिवार में कई पीढ़ियों से होता आया है, इसलिए वे भी ऐसा करते हैं, विश्वसनीय नहीं लगती. हो सकता है कि उनका इरादा साधुओं को बदनाम करने के उद्देश्य से साधु भेष में किसी बड़ी घटना को अंजाम देना हो. मथुरा वृंदावन सहित किसी भी तीर्थ स्थल पर मंदिर के आसपास बड़ी संख्या में लड़के लड़कियां और युवक श्रद्धालुओं को तिलक लगाकर पैसे मांगने के लिए खड़े रहते हैं,जिनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम होते हैं.

इनसे सावधान रहने की जरूरत तो है, लेकिन किसी भगवाधारी साधू की मोब लिंचिंग प्रदर्शित करता है कि ऐसे लोग सनातन धर्म से विमुख होकर पथ भ्रष्ट हो रहें हैं. यह सब हिंदुओं की गिरती आस्था और चारित्रिक पतन को रेखांकित करता है, भले ही इसके पीछे कितनी भी बड़ी साजिश और षड्यंत्र क्यों न हो. चूंकि  सनातन धर्म दुनिया का सबसे सहिष्णु  ऐसा धर्म है, जिसमे कोई धार्मिक पाबंदियां नहीं है और सभी को स्वतंत्र रूप से सोचने ओर समीक्षा करने का धार्मिक अधिकार भी प्राप्त है. संभवतः इस कारण ही सनातन धर्मावलंबियों का धर्म से बहुत गहरा रिश्ता नहीं जुड़ पाता है. जिसका फायदा उठाकर क्रिश्चियन और इस्लाम से जुड़ें  लोगों और संस्थाओं ने धर्मांतरण का कुचक्र रचा और बड़ी संख्या में हिंदुओं को क्रिश्चियन या मुसलमान बनाने में सफल भी हुए.

हिन्दुओं के विरुद्ध षड़यंत्र में पिछली सरकारों  ने प्रत्यक्ष रूप से सहयोग भले ही न किया हो लेकिन धर्मांतरण का धंधा बिना किसी रुकावट के चलता रहा. राजनीति के सौदागरों ने वोटों  के लालच में धर्मांतरण, लव जिहाद, अराजकता और धार्मिक उन्माद फैलाने वाली संस्थाओं के कार्य में यथा संभव सहयोग किया और उनके दुष्कृत्य को उचित भी ठहराया, जो ज्यादातर राजनीतिक दल आज भी कर रहे हैं. धर्मांतरण के लिए इन संस्थाओं ने सनातन समाज में विघटन के बीज बोने का कार्य भी किया जिसके अंतर्गत समाज में विभिन्न जातियों के बीच मतभेद पैदा करके उन्हें जातियों उपजातियों, अगड़े पिछड़े, दलित आदिवासी के रूप में रेखांकित करने का कार्य भी किया. इसका उद्देश्य इन सभी सनातनियों को धर्म से विमुख करके समाज की मुख्यधारा से अलग थलग करना था.

हिन्दुओं के विरुद्ध इस तरह के षडयंत्र अंग्रेजी शासन में ही शुरू हो गए थे और इसमें वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ ने प्रमुख भूमिका निभाई. इतिहास को विकृत रूप में पेश किया गया. मनुस्मृति सहित कई पौराणिक ग्रंथों में हेरफेर करके उन्हें परिवर्तित रूप में प्रकाशित किया गया और हिंदू समाज को विभाजित करने के उद्देश्य से इसे कपटपूर्ण ढंग से प्रचारित और प्रसारित किया गया. आर्यों को बाहरी और भारत पर आक्रमणकारी बताया गया. मनुस्मृति  में छेड़छाड़ करके इसे  दलित और आदिवासी विरोधी बना दिया गया और दलितों में आक्रोश पैदा करके उन्हें ब्राह्मणों और सवर्ण जातियों के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिए प्रेरित किया गया. षड्यंत्रकारी वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल भी हो गए और  उन्होंने बड़ी संख्या में दलित और आदिवासियों को धर्मांतरित करने में सफलता प्राप्त की थी.

बिहार और उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर साधुओं पर हमले हो रहे हैं जिसमें कई साधूओं की मृत्यु हो चुकी है, और कई गंभीर रूप से घायल हुए हैं. इन अफवाहों के पीछे के षड्यंत्र की जांच अत्यंत आवश्यक है, वरना यह सिलसिला रुकने वाला नहीं. सोशल मीडिया पर छद्म हिन्दू  नामों से सनातन धर्म के विरुद्ध विष वमन किया जा रहा है. अभी तक केवल लव जिहाद ही था अब तो इनकार करने पर ज़िंदा जलाने जैसे मामले भी आ रहे हैं. मुस्लिम समुदाय के युवक हिन्दू लड़कियों के अपहरण और बलात्कार में लिप्त हो रहे हैं. मदरसों में आतंकवादी संगठनो की संलिप्तता सामने आ रही है. मिशन 2047 प्रकाश में आ चुका है. इन्हें अलग अलग करके देखना भारी भूल होगी. इसलिए  “सबका साथ, सबका विकाश, और सबका विश्वास” में लगी मोदी सरकार को चाहिए कि सनातन संस्कृत के खिलाफ हो रहे षड्यंत्रों को विफल करने और भारत पर गजव़ा-ए-हिन्द के खतरे को देखते हुए प्रभावी कार्यवाही करे. विकाश तो तभी होगा जब देश बचेगा. ***    

  




गुरुवार, 8 सितंबर 2022

लंका दहन के बीच भारत में विपक्षी चिंगारी

 

लंका दहन के बीच भारत में विपक्षी चिंगारी



आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे श्रीलंका ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का 51 अरब डॉलर का कर्ज चुकाने में असमर्थता के कारण अपने आप को दिवालिया घोषित कर दिया था. इस समय श्रीलंका में स्थिति बहुत नाजुक और हालात काबू से बाहर हो गए लगते हैं. राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे श्रीलंका से मालदीप और वहाँ से सिंगापुर  भाग चुके हैं. देश में व्यापक विरोध प्रदर्शनों के कारण कर्फ्यू लगा दिया गया है, वहाँ आपात स्थिति पहले से ही लागू है, लेकिन प्रदर्शनकारी फिर भी राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय घेरे हुए हैं. आजादी के बाद से श्री लंका के ये अब तक के सबसे खराब और खतरनाक हालात हैं.

श्रीलंका की आर्थिक संकट का मुख्य कारण सत्ता पर एक परिवार का कब्जा और राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करना है. एक ही परिवार के पास देश के सभी प्रमुख पद थे और इसलिए आर्थिक और प्रशासनिक फैसलों में बौद्धिक विमर्श और प्रभावी नियंत्रण की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. इस कारण परिवार के एक या कुछ सदस्यों की सोच बिना किसी विशेषज्ञ अनुशंसा के ही पूरे देश पर लागू की जाती रही जिससे देश के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ते गए. कोरोना की महामारी ने पर्यटन आधारित इस देश के पर्यटन उद्योग को लगभग ठप कर दिया था जिसके कारण श्री लंका की आर्थिक स्थिति काफी डांवाडोल हो गई थी और सामान्य जनजीवन अत्यधिक प्रभावित हो गया था. जनता को आर्थिक तंगी से मुक्ति दिलाने के नाम पर वाहवाही लूटने के लिए सत्ताधारी परिवार ने लोगों में मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा दिया. मुफ्त में लोगों को पैसे बांटने और कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज लेने से हालात बद से बदतर होने लगे.

लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में सरकार ने कर की दरों में भी भारी कटौती की थी. इससे हुई राजस्व की क्षति तथा भुगतान असंतुलन उत्पन्न हुई के कारण वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने श्रीलंका की साख पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए, जिससे उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से सस्ते दर पर कर्ज मिलना मुश्किल होता चला गया और इस कारण श्रीलंका वैश्विक पठान चीन की शरण में गया जहाँ से उसने ऊंची दरों पर बड़ी मात्रा में कर्ज लिया और कर्ज के जाल में फंस गया.  

इससे पहले कृषि मंत्रालय का कामकाज देख रहे परिवार के एक इस सदस्य ने एक गैर सरकारी संगठन की सिफारिश पर देश में ओर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के अनेक कार्य किये क्योंकि उसका मानना था कि ऑर्गेनिक खेती से देश बहुत शीघ्र ही समृद्धि प्राप्त कर सकेगा. जल्दी समृद्धशाली देश बनने का सपना पूरा करने के लिए खेती में प्रयुक्त होने वाले केमिकल्स और फर्टिलाइजर्स का आयात बंद कर दिया गया ताकि सभी किसान अनिवार्य रूप ऑर्गेनिक खेती करने लगे. इस कारण अनाज के उत्पादन में भारी गिरावट आई और देश के आंतरिक उपयोग के लिए खाद्यान्न की भारी कमी हो गई और आर्थिक संकट के इस दौर में खाद्यान्न आयात करने के लिए भी श्री लंका के पास पैसे नहीं थे. अनाज की कमी के कारण भूखी श्रीलंका की जनता को सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर कर दिया.

विदेशी मुद्रा की कमी और आयात बंद हो जाने के कारण उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगे और महंगाई अपने चरम पहुँच गयी जिसके कारण सरकार के खिलाफ़ लोगों का गुस्सा बढ़ता चला गया. श्रीलंका अपनी रोज़मर्रा की जरूरत के बहुत सम्मान के लिए आयात पर निर्भर है, जिसमे खाद्यान्न, पेट्रोलियम पदार्थ और दवाइयां प्रमुख हैं. विदेशी मुद्रा संकट के कारण न केवल आयात बंद करना पड़ा बल्कि विदेशी कर्ज का भुगतान भी रुक गया. श्री लंका इसके पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 51 अरब डॉलर का कर्ज ले चुका है और उस पर चीन का भी बहुत बड़ा कर्ज है. इसके अलावा श्रीलंका ने एशियन डेवलपमेंट बैंक, जापान सरकार और भारत से भी कर्ज ले रखा है. भारत ने इस वर्ष श्रीलंका में गंभीर आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का अभूतपूर्व समर्थन दिया है. श्रीलंका सरकार ने स्थानीय बाजार से भी बहुत बड़ी मात्रा में कर्ज ले रखा है. इन सब कारणों से श्रीलंका के गले में आर्थिक संकट का फंदा कसता चला गया. सरकार द्वारा किए गए तमाम प्रयासों  का कोई नतीजा नहीं निकला और इसके बाद सरकार ने श्री लंका को दिवालिया घोषित कर दिया.

श्रीलंका में संकट की आहट इस वर्ष के शुरू से ही मिलने लग गई थी और मार्च आते आते इसकी स्पष्ट संकेत मिल चुके थे और जनता का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था. इसे देखते हुए मंत्रिमंडल के  सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था. दुनिया के किसी देश में जो नहीं हुआ था वह श्रीलंका में हुआ,  जहाँ छोटा भाई राष्ट्रपति था और उसने अपने बड़े भाई को प्रधानमंत्री मनोनीत कर लिया था. सरकार के सभी प्रमुख मंत्रालय परिवार के सदस्यों के पास थे. आसानी से समझा जाता है कि देश में संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन कैसे किया जा रहा था. सही अर्थों में अगर देखा जाए तो परिवारवादी राजनीति के स्वार्थ ने श्रीलंका को चौपट कर दिया और ये भारत की जनता के लिए बहुत बड़ा संदेश है.

  श्री लंका के संकट से विश्व के उन तमाम संगठनों की असलियत भी उजागर हो गई है जो तरह तरह की रिपोर्ट जारी करके भारत जैसे  देशों को कटघरे में खड़ा करने का स्वार्थ आधारित काम करते हैं. 2020 की मानव विकास दर में  श्री लंका भारत से बेहतर था. श्रीलंका की स्थान  72 वां और भारत का 132 वां था. विश्व हैपिनेस इंडेक्स में भी भारत से  श्रीलंका बहुत आगे था और प्रति व्यक्ति आय में भी भारत से बेहतर था. इन आंकड़ों को लेकर भारत में मोदी सरकार की बहुत आलोचना होती थी जिसमें कांग्रेस और वामपंथी सबसे आगे थे.

कोरोना संकट के समय राहुल गाँधी विश्व के अनेक अर्थशास्त्रियों से बात कर रहे थे और मोदी सरकार पर दबाव बना रहे थे कि प्रत्येक जरुरतमंद व्यक्ति के खाते में 7500 प्रति माह डाले जाएं जिससे विस्थापित और बेरोजगार हुए लोगों का जीवन यापन भी हो सके और बाजार में मांग भी बढ़ सके. रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी उनकी इस मांग का समर्थन किया था. इसके पहले भी 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस न्याय नाम की एक योजना अपने घोषणापत्र में लाई थी जिसके अनुसार देश के सर्वाधिक 20% गरीब परिवारों को72,000 प्रति परिवार सालाना दिया जाना था  यद्यपि कांग्रेस यह नहीं बता सकी थी कि इतना पैसा कहाँ से लाएगी. सौभाग्य या दुर्भाग्य से कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी अन्यथा न्याय योजना और कोरोना संकट के समय हर जेब में 7500 डालने की योजना से भारत को भी श्रीलंका जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ सकता था यद्यपि अभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था संकट के साये में है  और भारतीय रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले गिरती जा रही है. आने वाले समय में भारत को वैश्विक कर्ज का भुगतान करना है जिससे रुपये की कीमत और गिर जाने का खतरा है.

श्रीलंका के राजनीतिक और आर्थिक हालात से वहाँ गृह युद्ध की आशंका बढ़ती जा रही है और इससे भारत की चिंता बढ़ गई है। खस्ताहाल आर्थिक स्थिति वाले देशों से नागरिक पड़ोसी देश की तरफ भागते हैं और अगर ऐसा हुआ तो श्रीलंकाई नागरिको का पलायन भारत में शरणार्थियों की समस्या के साथ साथ देश की सुरक्षा को भी गंभीर खतरा पैदा करेगा. इसलिए भारत की चिंता बढ़ती जा रही है यद्यपि भारत के लिए यह श्री लंका से अपने संबंध को पुन प्रगाढ़ बनाने का अवसर है जिससे उसकी स्थिति हिंद महासागर में और मजबूत हो सकती है जिससे चीन के इस क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव को रोका जा सकता है. श्रीलंका में हो रहे प्रदर्शन में भी इस बात की झलक मिलती है कि वहाँ के लोग भारत से अभिभूत हैं और चीन से खासे नाराज हैं, जिसने श्रीलंका की आर्थिक स्थिति खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

श्रीलंका की इस विकट स्थिति के बीच भारत में विपक्ष समर्थित एक अफवाह फैलाई जा रही है कि भारत की स्थिति भी श्रीलंका जैसी होने वाली है और अब टीवी चैनलों पर इस बात पर बहस भी लगातार ज़ोर पकड़ती जा रही है. शायद विपक्ष का एक बड़ा वर्ग यह चाहता है कि भारत की स्थिति श्रीलंका जैसी हो और उस संकट की स्थिति का वह राजनीतिक फायदा उठा सके. देश ने देखा है कि कोरोना के संकट के समय भी विपक्ष के एक बड़े वर्ग ने अफवाहों के माध्यम से पूरे देश में असंतोष और अराजकता फैलाने की कोशिश की थी और अस्पतालों की बदइंतजामी और मरने वालों की संख्या बढ़ा चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश की गई थी जिससे भारत की छवि को काफी धक्का लगा था.

जहाँ तक भारत में श्रीलंका जैसी स्थिति का प्रश्न है तो फिलहाल ऐसी किसी स्थिति की संभावना नहीं लगती है क्योंकि भारत और श्रीलंका की परिस्थितियों में बहुत अंतर है. श्रीलंका एक छोटा सा देश है और उसकी तुलना में भारत की अर्थ व्यवस्था विविधतापूर्ण है इसलिए किसी एक क्षेत्र में खराब आर्थिक स्थितियों से पूरे देश की आर्थिक स्थिति खराब नहीं हो सकती. कहावत भी  हैं “साइज मैटर्स” यद्यपि एक बात बिल्कुल सच है कि भारत के कई राज्य जैसे पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, झारखंड, राजस्थान और कर्नाटक, आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं और इसका मुख्य कारण खराब वित्तीय प्रबंधन और मुफ्त की संस्कृति है, जिससे हर हालत में छुटकारा पाया जाना चाहिए. फिर भी भारत की आर्थिक स्थिति की किसी भी हालत में श्रीलंका से तुलना नहीं की जा सकती और निकट भविष्य में भारत ने श्रीलंका जैसी स्थिति बनने की दूर दूर तक कोई भी आशंका नजर नहीं आती.

-    शिव मिश्रा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

बाल बाल बचे योगी

 

बाल बाल बचे योगी

सर्वोच्च न्यायालय नी अपनी 26 अगस्त 2022 के फैसले ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बड़ी राहत देते हुए उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उनके विरुद्ध 2007 में गोरखपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों के संबंध में मुकदमा चलाए जाने का आदेश देने का अनुरोध किया गया था. 15 साल पुराना यह मामला अब सदा सर्वदा के लिए बंद हो गया है लेकिन जहाँ इस मुकदमे द्वारा योगी को फंसाने की बड़ी साजिश रची गई थी वहीं इस मुकदमे का अनायास और आनन फानन में सर्वोच्च न्यायालय में लिस्ट कराया जाना भी किसी बड़े रहस्य से कम नहीं है. अगर सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका पर मुकदमा चलाए जाने का आदेश दे देता तो योगी के लिए बहुत बड़ी मुसीबत साबित हो जाता क्योंकि इस मुकदमे धारा 302 जैसी अत्यंत संगीन धाराएं भी जोड़ी गई थी, जिसके कारण उनका मुख्यमंत्री का पद भी खतरे में पड़ सकता था.

जनवरी 2007 में मोहर्रम के जुलूस में हुए उपद्रव के कारण उपजे सांप्रदायिक तनाव कि कारण इस मुकदमे की उत्पत्ति हुई जिसका मुख्य कारण तुष्टीकरण और वोटों की राजनीति था. उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जो कार सेवकों पर गोली चलवाकर एक वर्ग विशेष वोटों पर आधिपत्य हासिल कर चूके थे, शशी डे योगी आदित्यनाथ की गिरफ्तारी का आदेश दिया कुशीनगर से गोरखपुर आते समय रास्ते में ही उन्हें गिरफ्तार किया गया क्योंकि शहर के अंदर या मंदिर परिसर में उन्हें गिरफ्तार करना बहुत मुश्किल था. योगी की गिरफ्तारी के बाद पूर्वांचल की राजनीति ने अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाक्रम देखा. योगी को पुलिस लाइन से केवल चार किलोमीटर दूर स्थित जेल ले जाए जाने में  8 घंटे  से अधिक समय लगा. गोरखपुर तथा आसपास के अन्य जिलों में  भी सांप्रदायिक तनाव फैल गया. योगी आदित्य नाथ को 11 दिन बाद जमानत मिल सकी और तब तक स्वतः स्फूर्ति  में गोरखपुर के सभी बाजार बंद रहे. गोरखपुर के इतिहास में यह सबसे लंबी बाजार बंदी थी. मुलायम सिंह यादव ने गोरखपुर और आसपास के क्षेत्रों में योगी आदित्यनाथ के इतने अधिक राजनीतिक प्रभाव कल्पना नहीं की थी. उन्हें भय सताने लगा कि कहीं  तुष्टीकरण के कारण हिंदू मतों से भी हाथ धोना पड़ जाए और इस कारण गोरखपुर के जिलाधिकारी और पुलिस प्रमुख को रातों रात हटा दिया गया. गोरखपुर में आंदोलन की धार को देखते हुए नव नियुक्त जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को  हेलिकॉप्टर से पुलिस लाइन में उतारा गया था.

योगी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था और इसलिए जेल में सुरक्षा चेकिंग को बंद करना पड़ा और जेल की दीवार तोडकर उनकी बैरक तक पहुँचने का एक रास्ता तैयार किया गया ताकि बड़ी संख्या में मिलने आने वाले लोगों भीड़ में तब्दील होने से रोका जा सके. हे जेल में भी योगी की दिनचर्या में कोई खास परिवर्तन नहीं आया और वो हमेशा की तरह ब्रह्म मुहूर्त में जागकर पूजा अर्चना करते थे  और इसलिए 11 दिनों में जेल में  गोरखनाथ मंदिर की तरह माहौल बनने लगा था. योगी ने संसद में रुंधे गले से जब प्रशासन द्वारा उन पर ज्यादती करने और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा तुष्टिकरण के आधार पर पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करते हुए जेल भेजे जाने की घटना का उल्लेख किया तो पूरा सदन सकते में आ गया.

यद्यपि पुलिस ने योगी के विरुद्ध उपयुक्त धाराओं में मुकदमा पहले ही दर्ज कर रखा था. एक वर्ग विशेष के मामले में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ इतनी  उदार वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं की वह कभी कभी देश की मुख्यधारा के विरुद्ध हे षडयंत्र का रूप ले लेता है.  गोरखपुर के मामले में भी वर्ग विशेष से संबंध रखने वाले एक तथाकथित पत्रकार और एक समाजसेवी ने सरकार से अनुरोध किया कि योगी के विरुद्ध जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई है हैं उसमें कड़ी धाराएं नहीं लगाई गई है और इसलिए धारा 302 सहित अत्यन्त सख्त धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए.  

उस समय जनसामान्य में आम चर्चा थी कि मुलायम सिंह यादव ने तुष्टिकरण के लिए योगी आदित्यनाथ को गिरफ्तार किया  था क्योनी  मुलायम सिंह को  लगता था कि योगी की  गिरफ्तारी से उनकी अल्पसंख्यक समाज में पैठ बढ़ेगी।  योगी के पक्ष में अपार जनसमर्थन  देखते हुए मुलायम सिंह ये आशंका होने लगी थी कि अगर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता गया तो मतों का ध्रुवीकरण भाजपा की तरफ हो सकता है, हे जिससे उनकी सरकार की वापसी मुश्किल हो जाएगी. हे आगामी चुनाव को देखते हुए हे और खासतौर से भाजपा को रोकने के लिए उन्होंने गोरखपुर की अपनी योजना से कदम पीछे खींच लिए. लाख कोशिशों के बाद भी मुलायम सिंह मुस्लिम समुदाय को खुश नहीं कर सके। विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय ने बसपा का समर्थन किया और मायावती ने 206 सीटें जीत कर पहली बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी।

गोरखपुर के इन तथाकथित पत्रकार और समाजसेवियों की योगी पर अतिरिक्त  धाराओं के साथ नई एफआईआर दायर करने की मांग नहीं मानी गई हे तो वे लोग उच्च न्यायालय पहुँच गए जहाँ से उन्हें स्थानीय अदालत भेजा गया. हे स्थानीय अदालत में तमाम कार्रवाई के बाद भी याचिकाकर्ता अदालत को संतुष्ट नहीं कर सके और इसलिए उनकी नई एफआईआर दायर करने की मांग नहीं मानी गई. हे इसके बाद ये लोग पुन: उच्च न्यायालय पहुँच गए  तो एक नई एफआइआर दायर करने का आदेश दे दिया गया और इस प्रकार 2008 में  योगी  तथा उनके अन्य नजदीक लोगों के विरुद्ध धारा 302 सहित कई अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया. राज्य सरकार ने दबाव में आकर पूरे मामले की जांच सीबीसीआईडी से करवाई लेकिन जांच में अंकित उचित और पर्याप्त सबूत नहीं मिले. 2015 में सीबीसीआईडी ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट सरकार को सौंप दी और योगी के विरुद्ध कार्यवाही करने की अनुमति मांगी. राज्यपाल ने योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति पर फैसला नहीं किया. इस बीच मार्च 2017 में योगी ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और मई 2017 में सरकार ने योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया. इसके बाद याचिकाकर्ता पुनः उच्च न्यायालय पहुंचे और उन्होंने जांच किसी निष्पक्ष और स्वतंत्र एजेंसी से कराने की मांग के साथ साथ योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाने का आदेश देने का अनुरोध किया.

2018 में उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया में कोई खामी नजर नहीं आती और इसलिए योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाए जाने का कोई आधार नहीं है. उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाने का आदेश देने की मांग की, जहाँ यह मामला 2018 से लगातार लंबित था. 26 जुलाई 2022 को  सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से  योगी के विरुद्ध पिछले 15 वर्षों से लगातार की जा रही एक गहरी  साजिश का पटाक्षेप कर दिया गया ये बिलकुल सही फैसला है. अगर इस मामले की पूरी क्रोनोलॉजी को देखा जाए तो एकदम से स्पष्ट हो जाता है कि यह मुकदमा एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा था जिसमें न केवल योगी आदित्यनाथ बल्कि उनके निकटवर्ती प्रमुख सहयोगी जिसमें डॉक्टर राधा मोहन अग्रवाल, डॉक्टर वाईडी सिंह आदि को भी शामिल किया गया था. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सांप्रदायिक दुर्भावना के मुकदमे की रूप में शुरू हुई इस साजिश का प्रारंभिक उद्देश्य राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करना  था, जिसके अंतर्गत गोरखपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में गोरक्षनाथ पीठ का असर कम करना और मुस्लिम वोटों को एकजुट करना था. जनवरी 2007 में गोरखपुर में सांप्रदायिक तनाव की पटकथा उस समय लिखी गई थी जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे ओर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का माहौल था.  इसका फायदा मुलायम सिंह यादव नहीं उठा सके और उस साल हुए विधानसभा चुनाव में उनकी सरकार की वापसी नहीं हो सकी.

 इंटरनेट मीडिया पर एक विश्लेषण तैर रहा है जिससे लोग खासे हैरान है. इसके अनुसार राज्य सरकार के  कुछ अधिकारियों ने स्वयं  अत्यधिक सक्रियता दिखाते हुए हुए सर्वोच्च न्यायालय में विशेष उल्लेख के जरिये इस मामले को अतिशीघ्र  सुनवाई के लिए खुलवाया. प्रयागराज उच्च न्यायालय द्वारा  22 फरवरी 2018 को दिए गए निर्णय के विरुद्ध फाइल की गई यह अपील से लंबित थी. यह मामला  परवेज परवाज तथा अन्य  ( वादी) बनाम उत्तर प्रदेश सरकार ( प्रतिवादी) थे.

20 जुलाई 2022 को प्रदेश के संयुक्त सचिव स्तर का एक अधिकारी अपने पत्र द्वारा  इस मामले को शुरू से देख रहे प्रदेश के एक अपर महाअधिवक्ता से लेकर एक अन्य नए अपर महाधिवक्ता को सौंपते हुए एक्सपीडाइट ऐप्लिकेशन दाखिल करके शीघ्र सुनवाई हेतु सूचीबद्ध कराने का अनुरोध करता है. ये मामला शीघ्रता से सुनवाई के लिए सूचीबद्ध हो  जाता है  और 24 अगस्त की सुनवाई पूरी हो जाती है और सुरक्षित कर लिया जाता है, जिसे 26 अगस्त को सुनाया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले द्वारा योगी के विरुद्ध मुकदमा चलाए जाने का आदेश नहीं दिया और याचिकाकर्ताओं की अपील खारिज कर दी. अगर सर्वोच्च न्यायालय मुकदमा चलाए जाने की अनुमति दे देता तो क्या होता ? प्रथम सूचना रिपोर्ट में जो धाराएं लगाई गई है उनमें धारा 302 भी शामिल है, जिसमे सामान्यतः अग्रिम जमानत नहीं दी जाती है. योगी तथा उनके अन्य सहयोगियों को जिन्हें याचिकाकर्ता ने अपनी प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामित किया था उनकी गिरफ्तारी  अवश्यंभावी हो जाती. ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता क्योंकि भाजपा में सुचिता के नाम पर पहले भी कई मुख्यमंत्रियो के विरुद्ध इस तरह की कार्यवाही की गई है जिसमें दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना और मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती शामिल हैं. ये बहुत स्वाभाविक था कि योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक भविष्य पर सदा सर्वदा के लिए ग्रहण लग जाता.

ऐसे में यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है कि जब सरकार प्रतिवादी थी तो सरकार की ओर से इस मामले की जल्दी से जल्दी सुनवाई के लिए प्रयास क्यों किए गए और इसमें किसकी रुचि थी और क्यों. क्या पार्टी और सरकार में बैठे कुछ लोग योगी को निपटाना चाहते थे. इसका उत्तर मिलना बहुत मुश्किल है लेकिन योगी के विरुद्ध इस तरह के प्रयास होते रहे हैं. अभी हाल ही में राज्य कर्मचारियों के स्थानांतरण में हुई गड़बड़ियों ने राजनीतिक हलचल पैदा कर दी थी और लगभग उसी समय एक मंत्री के इस्तीफ़े ने भूचाल लाने का काम किया था. योगी के पहले कार्यकाल में भी उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के प्रयास किए गए थे. तब यह माहौल बनाने की कोशिश की गई थी कि योगी राज़ में प्रदेश के अधिकारी विधायको, पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते और इस कारण जनता में नाराजगी बढ़ रही है. ये भी जोड़ा गया कि एक जाति विशेष का बोलवाला है. बिकरू कांड के बाद तो सोशल मीडिया पर बकायदा अभियान चलाया गया और  कहा जाने लगा था कि  प्रदेश के ब्राह्मण योगी से बहुत नाराज है क्योंकि उनका उत्पीड़न किया जा रहा है और ऐसे में वह भाजपा की बजाय किसी अन्य दल को चुनाव में समर्थन करेंगे. इन सब का सारांश ये था कि योगी के मुख्यमंत्री रहते भाजपा की प्रदेश की सत्ता में वापसी नहीं हो पाएगी. इस तरह के अभियान ने जहाँ भाजपा के कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित किया वहीं विपक्ष के हौसले बुलंद किये. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने वस्तुस्थिति का जायजा लेने के लिए बकायदा एक टीम बनाकर प्रदेश में भेज दी थी. जनता में “योगी प्रभाव” की महती भूमिका को देखते हुए भाजपा ने योगी के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव में जाने का फैसला किया. इस विवेकपूर्ण निर्णय से न केवल योगी बाल बाल बच गए बल्कि भाजपा की सत्ता में वापसी भी संभव हो सकी. इस पत्र के 23 जुलाई के अंक में छपे अपने लेख में मैंने लिखा था कि प्रदेश में अच्छे, निस्वार्थ और निष्पक्ष अधिकारियों की कमी नहीं है, योगी को गंभीरता पूर्वक अपने आस पास देखना चाहिए और जहाँ जरूरत हो वहाँ तुरंत बदलाव करना चाहिए और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अपनी निष्ठावान टीम का निर्माण करना चाहिए जो उन्हें संभावित खतरों से न केवल समय रहते आगाह कर सके बल्कि बचा सके.

-    शिव मिश्रा ResponseToSPM@gmail.com

श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...