रविवार, 18 सितंबर 2022

कुर्सी के आसपास घूमती विपक्षी एकता

 

कुर्सी के आसपास घूमती विपक्षी एकता

कांग्रेस का पराभव तो बहुत लंबे समय से हो रहा है. उसके नेता एक एक करके पार्टी छोड़ते जा रहे हैं और इस कारण कांग्रेस बिल्कुल कृषकाय हो गई है, जिसका उपचार गाँधी परिवार से मुक्ति है, जो संभव नहीं है. इसलिए  बिना उपचार के कांग्रेस कितने दिन तक जिंदा रहेगी, कह पाना बहुत मुश्किल है. विपक्ष में कोई भी ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं है जो संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व कर सके लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रप अपने सीमित राजनैतिक दायरे से निकलकर प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े हैं. प्रत्येक दल का नेता  यही चाहता है कि अन्य दल  नेतृत्व करने की जिम्मेदारी उसे सौंप दें ताकि यदि कभी बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे तो  येन केन प्रकारेण प्रधानमंत्री की कुर्सी हथिया सकें.

कांग्रेस में पार्टी  अध्यक्ष का पद पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गाँधी द्वारा इस्तीफा देने के कारण रिक्त हो गया था और तब से इसे भरा नहीं जा सका है. राहुल गाँधी ने घोषणा की थी कि नया अध्यक्ष गाँधी परिवार से नहीं होगा लेकिन शायद सोनिया गाँधी को ये मंजूर नहीं था  क्योंकि वह पार्टी से अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए तैयार नहीं है और इस कारण उन्होंने स्वयं अपने आप को कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत करवा लिया और चुनाव  टाल दिए गए. इस्तीफा देने के बाद भी पार्टी पर पूरी पकड़ राहुल गाँधी की है, जो गंभीर राजनीति के लिए नहीं जाने जाते और ऐसे में इस अस्थायी व्यवस्था से पार्टी का भला नहीं  हो सकता है, लेकिन परिवार के प्रति निष्ठावान नेता वर्तमान व्यवस्था को चलाते रहने के पक्ष में है. पार्टी के वरीष्ठ नेताओं ने मांग की  थी कि अध्यक्ष पद पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा किसी व्यक्ति की स्थायी नियुक्ति की जाए. जी 23 आपके नाम से मशहूर हो गए इन नेताओं के विरुद्ध परिवार के निष्ठावान नेताओं ने  इतने प्रहार किये कि अपमान से आहत कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है और कई छोड़ने की कतार में हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव तक इस बात की संभावना ज्यादा है कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेता पार्टी छोड़ देंगे और उनकी पहली पसंद भाजपा होगी, फिर भी आज कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती. यह प्रश्न तो हमेशा उठाया जाता रहेगा कि जो  पार्टी स्वयं एकजुट नहीं रह सकती, वह पूरे विपक्ष को कैसे एकजुट कर पाएगी.  

राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो गयी है लेकिन अपनी धुन में वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध वही पुराने और घिसे पिटे आरोप लगा रहे हैं जिन्हें जनता कभी का खारिज कर चुकी है. कांग्रेस ने कभी भारत छोड़ो का नारा दिया था और इसके बाद भारत तोड़ने का भी काम किया और अब अगर भारत जोड़ों यात्रा का अभियान चलाया जा रहा है तो असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्व शर्मा का कहना बिल्कुल उचित है कि कांग्रेस को अपनी यह यात्रा पाकिस्तान में शुरू करनी चाहिए. ऐसा लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य सोनिया गाँधी द्वारा राहुल गाँधी का रीलांच करना है ताकि पार्टी में उनके विरुद्ध उठ रहे बगावती स्वरों को ठंडा किया जा सके और साथ ही साथ संयुक्त विपक्ष की नेतृत्व की जिम्मेदारी और परिस्थितियां आने पर प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी को भी मजबूत  जा सके .

 देश में विपक्षी एकता का आवाहन नई बात नहीं है. केंद्र में हर सत्ताधारी दल के विरुद्ध इस तरह की कोशिशे होती आई है. भाजपा की  केंद्र में दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद विपक्ष काफी हद “पराजित होने का भय”  की हीन  ग्रंथि से ग्रसित है, यह विपक्षी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों से भी स्पष्ट हो जाता है. विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए कई क्षेत्रीय राजनेता मैदान में हैं, जिनकी विश्वसनीयता पर भी बड़े  प्रश्न  चिन्ह लगे हैं लेकिन उनका दिल है कि मानता नहीं. विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच अंतर्विरोध भी विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा है.  उदाहरण के लिए तेलंगाना के  मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव उस गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते जिसमें कांग्रेस हो, मायावती की बसपा उस गठबंधन का हिस्सा नहीं हो सकती  जिसमें समाजवादी पार्टी हो, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी उस गठबंधन का हिस्सा नहीं हो सकती  जिसमें जगनमोहन रेड्डी  हों. ओडिशा के नवीन पटनायक ही  केवल ऐसे नेता  होंगे जो किसी भी गठबंधन का हिस्सा न होते हुए भी केंद्र में सरकार बनाने वाले  दल या गठबंधन को बाहर से समर्थन देते रहेंगे.

हाल में एक  नाटकीय घटनाक्रम में बिहार में  पलटूराम यानी  नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ कर एक बार फिर उनका साथ पकड़ लिया जिन्हें  वह जंगलराज कह कर धिक्कारते रहे थे. अपनी राजनैतिक कलाबाजी के लिए कुख्यात हो चुके  नीतीश कुमार ने दो दो बार भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन तोड़ा है और अपनी पार्टी के जार्ज फेर्नान्डीज़, शरद यादव जैसे अनेक नेताओं को ठिकाने लगाया है. राज्य में अब उनकी विश्वसनीयता धरातल पर हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी सिमटकर 43 विधेयकों तक सीमित रह गई थी. उनके निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि 2025 के अगले विधानसभा चुनाव से पहले 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे जिसमें वह अपनी बढ़ती उम्र के कारण अंतिम बार सक्रिय रूप से हिस्सा लें सकेंगे.  इसलिए वह अपने प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को साकार करने के आखिरी अवसर को गंवाना नहीं चाहते. चूंकि भाजपा के साथ गठबंधन में यह संभव नहीं था. इसलिए मुख्यमंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना साकार करने के लिए पलटी मारना  ज़रूरी था ताकि विपक्षी खेमे में शामिल होकर जोड़ तोड़ शुरू करने का मौका मिल सके. यद्यपि उनकी पार्टी जेडीयू उन्हें प्रधानमंत्री मटेरियल बताकर आगे बढ़ा रही है जबकि  स्वयं नीतीश कुमार कहते हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं है. जिससे स्पष्ट है कि उन्होंने अघोषित रूप से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर दी है और दिल्ली आकर विभिन्न दलों के राजनेताओं से मुलाकात कर अपने लिए समर्थन हासिल करने की कोशिश भी की है.

इससे पहले ममता बेनर्जी भी  प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक चुकी है और उन्होंने कह भी दिया है  कि भाजपा का खेला पश्चिम बंगाल से शुरू होगा. प्रधानमंत्री पद के  एक अन्य उम्मीदवार हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव जो तेलंगाना बनने के बाद लगातार उसके  मुख्यमंत्री रहते के कारण अपने आपको बेहद लोकप्रिय नेता मानने लगे हैं. उनको लगता है कि वह राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने के लिए तैयार है.

अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के अत्यंत धनी  आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी प्रधानमंत्री बनने के लिए लंबे समय से अपने आप को प्रस्तुत कर रहे हैं. प्रिंट और डिजिटल मीडिया में छाये रहने  के लिए विज्ञापनों  पर अंधाधुंध सरकारी पैसा खर्च करने वाले और मुफ्त रेवड़ियां बांटने के उस्ताद अरविंद केजरीवाल, जिन्हें समाज और देश बांटने से भी परहेज नहीं है, अब देश की सीमाओं से बाहर जाकर भी सुर्खियां बटोरने में  लगे हैं. स्वाभाविक है कि वह  प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी से  पीछे हटने वाले नहीं.  उनकी महत्वाकांक्षा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक छोटे से राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए मेक इंडिया नंबर वन का अभियान शुरू किया  है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 100 से अधिक विधायकों वाली पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी मैदान में हैं लेकिन उनकी मजबूत दावेदारी इस  पर निर्भर करेगी कि उन्हें  लोकसभा चुनाव में कितनी सफलता मिलती है. स्ट्रॉन्ग या रॉन्ग मराठा नेता  शरद पवार  की महत्वाकांक्षा किसी से भी छिपी नहीं है. यह अलग बात है कि महाराष्ट्र में उनके बड़े राजनैतिक सफ़र  के अनुसार उनका कद उतना बड़ा नहीं है और आज भी वह अपने दम पर राज्य में मुख्यमंत्री भी नहीं बन सकते लेकिन संयुक्त विपक्ष के कंधे पर चढ़कर वे भी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में पीछे नहीं रहेंगे.

इसलिए यह कहना बहुत मुश्किल है की विपक्षी एकता बन पाएंगी या नहीं और अगर बन गयी  तो कब तक बनी रहेंगी.

-    शिव मिश्रा  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे?

  मोदी के तेवर बदल गयें हैं और भाषण भी, क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे? लोकसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के तुरंत बाद मोदी की भाषा और ...