बुधवार, 1 मार्च 2023

फ़िल्मी नहीं सनातनी होली मनायें. होली पूजा की विधि, विधान व प्राचीन परम्प...



होली का त्यौहार  7 मार्च २०२३ को मनाया जाएगा।

इस बार होली का त्यौहार 7 मार्च २०२३ को मनाया जाएगा। शाम करीब 6 बजकर 24 से शुरू हो कर रात 8 बजकर 51 मिनट के बीच का समय होलिका दहन के लिए बेहद शुभ है. इसी शुभ मुहूर्त में होलिका पूजी जाएगी और इसके बाद होलिका दहन का शुभ मुहूर्त है. इस साल 27 साल बाद फागुन में दो एकादशी पड़ रही है और यही होलिस्टिक पर विशेष संयोग है.

यह एक पारंपरिक और सांस्कृतिक सनातन  त्यौहार है, जो अत्यंत प्राचीन मनाया जाता रहा है। यह एक ऐसा त्यौहार हैं जो लोगों को उनके पुराने बुरे व्यवहार को भुला कर रिश्तों की नई शुरूआत भी करता है

प्राचीन काल से दो होलिकाओं का प्रचलन है  एक सामुदायिक होली और दूसरी घर की होली।सामुदायिक होली  सार्वजनिक स्थान पर सामूहिक रूप से स्थापित की जाती है ओर सामूहिक रूप से ही उसकी पूजा अर्चना करके दहन किया जाता है। पूरे गांव या मोहल्ले के लोग होली के गीत और भजन गाते हुए होलिका स्थल पर एकत्र होते हैं और  अपनी अपनी पूजा अर्पित करते हैं। इसके बाद  मंत्रोच्चारण के बीच होलिका दहन करते हैं। लोग आपस में गले मिलते हैं एक दूसरे के मस्तक पर होलिका की भभूति, चंदन, अबीर या गुलाल लगाते हैं।

इस सामुदायिक होलिका से आग लाकर घर में स्थापित की गई होलिका का दहन किया जाता है। सामुदायिक होलिका की पूजा के उपरान्त घर वापस आकर घर में स्थापित होलिका का विधिवत् पूजन अर्चन करते हैं। यदि मुहूर्त निकलने का भय हो तो शुभ मुहूर्त काल में घर में स्थापित होलिका की पूजा कर लेते हैं और उसके उपरांत सामुदायिक होलिका में पूजा हेतु पहुँचते हैं और सामुदायिक होलिका के दहन के बाद उसे लाई हुई आग से घर में स्थापित होलिका का दहन करते हैं।


पूजा विधि

पूजन सामग्री सूची-

  • ·        प्रहलाद की प्रतिमा,
  • ·        गोबर से बनी होलिका,
  • ·        5 या 7 प्रकार के नई फसल के अनाज (जैसे नए गेहूं और अन्य फसलों की बालियां या सप्तधान्य- गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ,  मसूर आदि )
  • ·        एक बडा गन्ना जिसमे गेहूं जौ चने या नई फसल के अन्य पौधे ही बांधकर होलिका की आग में सेंकते हैं.
  • ·        5 मालाएं (इसमें पहली माला पितरों के लिएदूसरी पवनसुत हनुमान जी के लिएतीसरी मां शीतला और चौथी माला परिवार के नाम से रखी जाती है।)
  • ·        रोली,
  • ·        फूल,
  • ·        कच्चा सूत,
  • ·        साबुत हल्दी,
  • ·        मूंग,
  • ·        बताशे,
  • ·        गुलाल,
  • ·        मीठे पकवान,
  • ·        मिठाइयां,
  • ·        फल,
  • ·        गोबर की ढाल, उपले या बल्ले  
  • ·        बड़ी-फुलौरी,
  • ·        एक कलश जल,

होलिका दहन पूजन विधि-

- सबसे पहले होलिका पूजन के लिए पूर्व या उत्तर की ओर अपना मुख करके बैठें।

- अब अपने आस-पास पानी की बूंदें छिड़कें।

- गोबर या आटे  से होलिका और प्रहलाद की प्रतिमाएं बनाएं।

- थाली में रोली, कच्चा सूत, चावल, फूल, साबुत हल्दी, बताशे, फल और एक कलश पानी रखें।

- सबसे पहले गणेश पूजन करें. गणेश को अक्षत और पुष्प अर्पित करें. 

- इसके बाद भगवान शिव की पूजा और आराधना करें

- इसके बाद भगवान विष्णु और उनके  नरसिंह अवतार की पूजा करें     

- नरसिंह भगवान का स्मरण करते हुए भक्त प्रहलाद को  रोली, मौली, चावल, बताशे और फूल अर्पित करें।

- भक्त प्रहलाद की बुआ होलिका को  रोलीमौलीचावलबताशे और फूल अर्पित करें। 

- अग्नि प्रज्वलन  से पहले अपना नाम, पिता का नाम और गोत्र का नाम लेते हुए अक्षत (चावल) में उठाएं और भगवान श्री गणेश का स्मरण कर होलिका पर अक्षत अर्पण करें।

- इसके बाद प्रहलाद का नाम लें और फूल चढ़ाएं। 

- भगवान नरसिंह का नाम लेते हुए पांच अनाज चढ़ाएं। 

- अब दोनों हाथ जोड़कर अक्षत, हल्दी और फूल चढ़ाएं।

- कच्चा सूत हाथ में लेकर होलिका पर लपेटते हुए परिक्रमा करें। होलिका के चारों ओर तीन या सात बार परिक्रमा करते हुए कच्चे सूत को लपेटना चाहिए।

- आखिर में गुलाल डालकर चांदी या तांबे के कलश से जल चढ़ाएं।

- इसके बाद शुद्ध जल सहित अन्य पूजा सामग्रियों को एक-एक कर होलिका को अर्पित किया जाता है। फिर अग्नि प्रज्वलित करने से पूर्व जल से अर्घ्य दिया जाता है।

·        होलिका दहन के समय मौजूद सभी पुरुषों को रोली का तिलक लगाया जाता है।

·        कहते हैं, होलिका दहन के बाद जली हुई राख को अगले दिन प्रात:काल घर में लाना शुभ रहता है। अनेक स्थानों पर होलिका की भस्म का शरीर पर लेप भी किया जाता है।

होलिका की भस्म मस्तक पर लगाने से आरोग्य लाभ के साथ सुख-समृद्धि व खुशहाली मिलती है। होलिका की भभूत संपूर्ण शरीर पर लगाकर स्नान करने से आरोग्य सुख मिलता है।


नारद पुराण में वर्णनहै  होलिका के अगले दिन यानी कि धुलंडी जिसे कि रंग वाली होली के नाम से जानते हैं। उस दिन प्रात:काल नित्‍य कर्मों से निवृत्‍त होकर पितरों और देवताओं का पूजन करें। सभी दोषों की शांति के लिए होलिका की राख की वंदना करके उसे अपने शरीर में लगा लें। साथ ही हो सके तो घर के आंगन में भी अक्षतों को अलग-अलग रंग के गुलाल से रंगकर पूजन-अर्चन करें। इसके बाद मां पृथ्‍वी को प्रणाम करें। सभी पितरों को नमन करें। साथ ही ईश्‍वर से प्रार्थना करें कि वह आपके जीवन में घर-परिवार और समाज में सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दें।


होलिका कथा

होलिका राक्षस राज हिरण्यकश्यप की बहन थी। राजा ने खुद को अजेय मानकर स्वयं को भगवान के रूप में पूजे जाने का आदेश दे दिया था। परंतु, भगवान विष्णु के परम भक्त, उसके अपने पुत्र प्रह्लाद ने उसके आदेश की अवहेलना की। प्रह्लाद की धृष्टता से क्रोधित हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के लिए तरह-तरह के उपाय किए, लेकिन कोई सफल  नहीं हो सका ।  उसकी बहन होलिका ने प्रह्लाद को मारने में भाई की सहायता करने का आश्वासन दिया. होलिका को अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था और इसलिए वह प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुई आग में बैठ गई। भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद को बचा लिया लेकिन होलिका  जल गई, और प्रह्लाद को कोई नुकसान नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि होलिका की वरदान में ये शामिल था कि वह समाज सेवा या परोपकार करने के लिये ही इस वरदान का उपयोग करेगी लेकिन उसने अपने स्वार्थ के लिए इसका उपयोग किया और इसका परिणाम ये हुआ कि वे स्वयं जल कर राख हो गई. यह घटना यह भी रेखांकित करती है कि यदि व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए कार्य करता है तो ईश्वर प्रदत्त वरदान भी उसकी सहायता नहीं करते ओर भगवान अपने भक्तों की हर हालत में रक्षा करते हैं.

होलिका के दिन निम्न पूजा करते हैं

1. डांडे की पूजा : होलिका दहन के पूर्व 2 डांडे रोपण किए जाते हैं। जिनमें से एक डांडा होलिका का प्रतीक तो दूसरा डांडा प्रहलाद का प्रतीक माना जाता है। इन दोनों डांडे की विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद इन डंडों को गंगाजल से शुद्ध करके के बाद इन डांडों के इर्द-गिर्द गोबर के उपले, लकड़ियां, घास और जलाने वाली अन्य चीजें इकट्ठा की जाती है और इन्हें धीरे-धीरे बड़ा किया जाता है और अंत में होलिका दहन वाले दिन इसे जला दिया जाता है। होलिका दहन के पहले होली के डांडा को निकाल लिया जाता है। उसकी जगह लकड़ी का डांडा लगाया जाता है। फिर विधिवत रूप से होली की पूजा की जाती है और अंत में उसे जला दिया जाता है।

2. विष्णु पूजा : होलिका और प्रहलाद के साथ ही भगवान विष्णु की भी पूजा की जाती है। खासकर दूसरे दिन विष्णु पूजा की जाती है। कहते हैं कि त्रैतायुग के प्रारंभ में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है। धूल वंदन अर्थात लोग एक दूसरे पर धूल लगाते हैं। होलिका दहन के बाद धुलेंडी अर्थात धूलिवंदन मनाया जाता है। सुबह उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर होलिका को ठंडा किया जाता है। मतबल पूजा करने के बाद जल चढ़ाया जाता है। धूलिवंदन अर्थात् धूल की वंदना। राख को भी धूल कहते हैं। होलिका की आग से बनी राख को माथे से लगाने की बाद ही होली खेलना प्रारंभ किया जाता है। अतः इस पर्व को धूलिवंदन भी कहते हैं।

3. नृसिंह भगवान पूजा : होली के दिनों में विष्णु के अवतार भगवना नृसिंह की पूजा का भी प्रचलन है क्योंकि श्रीहरि विष्णु ने ही होलिका दहन के बाद नृसिंह रूप धारण करके हिरण्याकश्यप का वध करने भक्त प्रहलाद की जान बचाई थी।

4. श्रीशिव पूजा : होली का त्योहार भगवान शिव से भी जुड़ा हुआ है। भगवान शिव ने इसी दिन कामदेव को भस्म करने के बाद देवी रति को यह वरदान दिया था कि तुम्हारा पति श्रीकृष्ण के यहां प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेगा।

5. श्रीकृष्ण पूजा : होली का त्योहार श्रीकृष्ण से भी जुड़ा हुआ है। इसे ब्रज में 'फाग उत्सव' के रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्‍ण ने रंगपंचमी के दिन श्रीराधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंगपंचमी मनाई जाती है।

6. श्रीपृथु पूजा : होली के दिन ही राजा पृथु ने राज्य के बच्चों को बचाने के लिए राक्षसी ढुंढी को लकड़ी जलाकर आग से मार दिया था। राजा पृथु को विष्णु का अंशावतार भी माना जाता है।

7. श्रीहनुमान पूजा : इस दिन हनुमानजी की पूजा करने से सभी तरह के संकट दूर हो जाते हैं।

 

इस अनुष्ठान के बाद अगले दिन वास्तविक उत्सव मनाया जाता है। ढेरों रंग, कई प्रकार के खान-पान और मौज-मस्ती, इस जीवंत और रंगीन त्योहार के प्रतीक हैं। होली वसंत के आगमन और सर्दियों के अंत को भी इंगित करती है।

होली का त्यौहार अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं की वजह से बहुत प्राचीन समय से मनाया जा रहा है। इसका उल्लेख भारत की पवित्र पुस्तकों,जैसे पुराण, दसकुमार चरित, संस्कृत नाटक, रत्नावली और भी बहुत सारी पुस्तकों में किया गया है। होली, आनंद और उल्लास के साथ-साथ समुदाय को एक साथ लाने और एकजुटता के बंधन को मजबूत करने के बारे में भी है।

इस जीवंत त्योहार को भारत के विविध राज्यों में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। अच्छाई की जीत का जश्न मनाने वाला यह त्योहार वसंत ऋतु के आगमन का भी संकेत देता है।

महाराष्ट्र में, होली को 'रंग पंचमी' के रूप में जाना जाता है, गायन, नृत्य, व्यंजन तैयार करना, और रंग और गुलाल लगाना, ये सभी इस उत्सव का हिस्सा हैं। वास्तविक त्योहार से एक दिन पहले होलिका भी जलाई जाती है।

होली उत्तर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय और दिलचस्प त्योहारों में से एक है। यह बरसाना, मथुरा और वृंदावन जिलों में एक अनोखे तरीके से मनायी जाती है। यहाँ की होली को लोकप्रिय रूप से "लट्ठमार होली" कहा जाता है और इसे वास्तविक त्योहार के एक सप्ताह पहले से मनाया जाता है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि महिलाएँ पुरुषों का पीछा करती हैं और परंपरानुसार उन्हें लाठियों (लाठी) से पीटती हैं। बदले में पुरुष खुद को बचाने के लिए ढाल का इस्तेमाल करते हैं। माना जाता है कि यह विचित्र परंपरा एक किंवदंती पर आधारित है जिसमें भगवान कृष्ण अपनी प्यारी राधा से मिलने आते हैं और वहाँ वह उनको और उनकी सखियों को चिढ़ाते या छेड़ते हैं। कहा जाता है कि उसकी जवाबी कार्रवाई में महिलाओं (गोपियों) ने लाठियों से उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया था।

पंजाब में, होली के एक दिन बाद निहंग सिखों द्वारा "होला मोहाला" मनाया जाता है और इसमें मार्शल आर्ट और कुश्ती का प्रदर्शन, कविता वाचन और रंगों का खेल होता है। इस परंपरा की शुरुआत गुरु गोबिंद सिंह ने 18वीं सदी में की थी।

बिहार राज्य में होली को "फगुवा" के नाम से जाना जाता है। यहाँ यह त्योहार अन्य राज्यों के समान ही मनाया जाता है, जिनमें पारंपरिक संगीत और लोक गीत शामिल होते हैं, और रंगों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया जाता है।

पश्चिम बंगाल में इसे "डोल यात्रा" के रूप में जाना जाता है, और इस क्षेत्र में यह उत्सव एक बार फिर भगवान कृष्ण को ही समर्पित है। इसमें राधा और भगवान कृष्ण की मूर्तियों को फूलों से सजी पालकी में रखा जाता है, और गायन और नृत्य के बीच इन पालकियों को जुलूस में निकाला जाता है। रास्ते में भक्तों पर रंग और पानी का छिड़काव किया जाता है।

मणिपुर में, इस त्योहार के दौरान "यावोल शांग" नामक 5 दिवसीय उत्सव होता है। इसे भगवान पाकहंगबा के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में मनाया जाता है, और प्रत्येक दिन की अपनी रीति-रिवाजें और परंपराएँ होती हैं। रंग और पानी से खेलने का उत्सव आखिरी दो दिनों में होता है।

केरल में, रंगों के इस त्योहार को "मंजुल कुली" कहा जाता है - एक शांतिपूर्ण दो-दिवसीय उत्सव। पहले दिन लोग मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं। दूसरे दिन, पारंपरिक गायन और नृत्य के साथ, हल्दी युक्त रंगीन पानी को एक दूसरे पर छिड़कते हैं।

मथुरा वृन्दावन की होली  

 होली महोत्सव मथुरा और वृंदावन में एक बहुत प्रसिद्ध त्यौहार है। भारत के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले कुछ अति उत्साही लोग मथुरा और वृंदावन में विशेष रूप से होली उत्सव को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं। मथुरा और वृंदावन महान भूमि हैं जहां, भगवान कृष्ण ने जन्म लिया और बहुत सारी गतिविधियों की। होली उनमें से एक है। होली का त्योहार उनके लिए प्रेम और भक्ति का महत्व रखता है, जहां अनुभव करने और देखने के लिए बहुत सारी प्रेम लीलाऍ मिलती है। भारत के हर कोने से लोगों की एक बड़ी भीड़ के साथ यह उत्सव पूरे एक सप्ताह तक चलता है। वृंदावन में बांके-बिहारी मंदिर है जहां यह भव्य समारोह मनाया जाता है। मथुरा के पास होली का जश्न मनाने के लिए एक और जगह है गुलाल-कुंड जो की ब्रज में है, यह गोवर्धन पर्वत के पास एक झील है। होली के त्यौहार का आनंद लेने के लिये बड़े स्तर पर एक कृष्ण-लीला नाटक का आयोजन किया जाता है।

बरसाना में लोग हर साल लट्ठमार होली मनाते हैं, जो बहुत ही रोचक है। निकटतम क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में होली उत्सव को देखने के लिए आते हैं। बरसाना उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में एक शहर है। लट्ठमार होली, छड़ी के साथ एक होली उत्सव है जिसमें महिलाऍ छड़ी से पुरुषों को मारती है। यह माना जाता है कि, छोटे कृष्ण होली के दिन राधा को देखने के लिए बरसाने आये थे, जहां उन्होंने उन्हें और उनकी सखियों को छेड़ा और बदले में वह भी उनके द्वारा पीछा किये गये थे। तब से, बरसाने और नंदगांव में लोग छड़ियों के प्रयोग से होली मनाते हैं जो लट्ठमार होली कही जाती है।

आस-पास के क्षेत्रों से हजारों लोग बरसाने में राधा रानी मंदिर में लट्ठमार होली का जश्न मनाने के लिए एक साथ मिलते है। वे होली के गीत भी गाते हैं और श्री राधे और श्री कृष्ण का बयान करते है। प्रत्येक वर्ष नंदगांव के गोप या चरवाहें बरसाने की गोपियों या महिला चरवाहों के साथ होली खेलते है और बरसाने के गोप या चरवाहें नंदगांव की गोपियों या महिला चरवाहों के साथ होली खेलते है। कुछ सामूहिक गीत पुरुषों द्वारा महिलाओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए गाये जाते है; बदले में महिलाऍ आक्रामक हो जाती हैं और लाठी के साथ पुरुषों को मारती है। यहाँ पर कोल्ड ड्रिंक या भांग के रूप में ठंडई पीने की परंपरा है।

पौराणिक महत्व

जैविक महत्व

होली का त्यौहार अपने आप में स्वप्रमाणित जैविक महत्व रखता है। यह हमारे शरीर और मन पर बहुत लाभकारी प्रभाव डालता है, यह बहुत आनन्द और मस्ती लाता है। होली उत्सव का समय वैज्ञानिक रूप से सही होने का अनुमान है।

यह गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में मनाया जाता है जब लोग स्वाभाविक रूप से आलसी और थका हुआ महसूस करते है। तो, इस समय होली शरीर की शिथिलता को प्रतिक्रिया करने के लिए बहुत सी गतिविधियॉ और खुशी लाती है। यह रंग खेलने, स्वादिष्ट व्यंजन खाने और परिवार के बड़ों से आशीर्वाद लेने से शरीर को बेहतर महसूस कराती है।

होली के त्यौहार पर होलिका दहन की परंपरा है। वैज्ञानिक रूप से यह वातावरण को सुरक्षित और स्वच्छ बनाती है क्योंकि सर्दियॉ और वसंत का मौसम के बैक्टीरियाओं के विकास के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करता है। पूरे देश में समाज के विभिन्न स्थानों पर होलिका दहन की प्रक्रिया से वातावरण का तापमान 145 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ जाता है जो बैक्टीरिया और अन्य हानिकारक कीटों को मारता है।

उसी समय लोग होलिका के चारों ओर एक घेरा बनाते है जो परिक्रमा के रूप में जाना जाता है जिस से उनके शरीर के बैक्टीरिया को मारने में मदद करता है। पूरी तरह से होलिका के जल जाने के बाद, लोग चंदन और नए आम के पत्तों को उसकी राख(जो भी विभूति के रूप में कहा जाता है) के साथ मिश्रण को अपने माथे पर लगाते है,जो उनके स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करता है। इस पर्व पर रंग से खेलने के भी स्वयं के लाभ और महत्व है। यह शरीर और मन की स्वास्थता को बढ़ाता है। घर के वातावरण में कुछ सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करने और साथ ही मकड़ियों, मच्छरों को या दूसरों को कीड़ों से छुटकारा पाने के लिए घरों को साफ और स्वच्छ में बनाने की एक परंपरा है।

 

1.आर्यों का होलका : प्राचीनकाल में होली को होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे। इस पर्व में होलका नामक अन्य से हवन करने के बाद उसका प्रसाद लेने की परंपरा रही है। होलका अर्थात खेत में पड़ा हुआ वह अन्य जो आधा कच्चा और आधा पका हुआ होता है। संभवत: इसलिए इसका नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा। प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ भाग पहले देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है। इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह त्योहार वैदिक काल से ही मनाया जाता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली और दिवाली मनाए जाने के सबूत मिलते हैं।

2. होलिका दहन : इस दिन असुर हरिण्याकश्यप की बहन होलिका दहन हुआ था। प्रहलाद बच गए थे। इसी की याद में होलिका दहन किया जाता है। यह होली का प्रथम दिन होता है। संभव: इसकी कारण इसे होलिकात्वस कहा जाता है।

3.कामदेव को किया था भस्म : इस दिन शिव ने कामदेव को भस्म करने के बाद जीवित किया था। यह भी कहते हैं कि इसी दिन राजा पृथु ने राज्य के बच्चों को बचाने के लिए राक्षसी ढुंढी को लकड़ी जलाकर आग से मार दिया था। इसीलिए होली को ‘वसंत महोत्सव’ या ‘काम महोत्सव’ भी कहते हैं।

4. फाग उत्सव : त्रैतायुग के प्रारंभ में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है। होलिका दहन के बाद 'रंग उत्सव' मनाने की परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से प्रारंभ हुई। तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंग पंचमी मनाई जाती है। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्योहार में रंग को जोड़ा था। 

पहले होली के रंग टेसू या पलाश के फूलों से बनते थे और उन्हें गुलाल कहा जाता था। वो रंग त्वचा के लिए बहुत अच्छे होते थे क्योंकि उनमें कोई रसायन नहीं होता था। लेकिन समय के साथ रंगों में नए नए प्रयोग किए जाने लगे।

5.मंदिरों में चित्रण : प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न मूर्ति या चित्र अंकित पाए जाते हैं। ऐसा ही 16वीं सदी का एक मंदिर विजयनगर की राजधानी हंपी में है। अहमदनगर चित्रों और मेवाड़ के चित्रों में भी होली उत्सव का चित्रण मिलता है। ज्ञात रूप से यह त्योहार 600 ईसा पूर्व से मनाया जाता रहा है। होली का वर्णन जैमिनि के पूर्वमिमांसा सूत्र और कथक ग्रहय सूत्र में भी है।

होली से पहले घर में लाएं ये चीजें तो अच्छा होता है . 

कई बार ऐसा होता है कि लाख कोशिशों के बावजूद हमें जीवन में सफलता नहीं मिलती है या फिर घर में बरकत नहीं आती है. हो सकता है कि आपके घर में वास्तु दोष हो. इससे बचने के लिए आप एक खूबसूरत सा बंदरवार या तोरण अपने घर लाएं और इसे घर के मुख्य दरवाजे पर टांग दें. ये ना सिर्फ घर का वास्तु दोष खत्म करता है बल्कि दिखने में भी बहुत अच्छा लगता है.

घर के उत्‍तर या उत्‍तर-पूर्व दिशा में एक एक्वेरियम रखें क्‍योंकि इसे कुबेर का स्‍थान माना जाता है. इससे घर में सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है. घर में धन आगमन के लिए भी इसे अचूक उपाय माना जाता है.

होली से पहले अपने घर में बांस का पौधा जरूर लाएं. बांस का पौधा घर में सौभाग्य लेकर आता है. यह पौधा घर से नकारात्मक ऊर्जा दूर करता है और इससे घर के सदस्यों की सेहत भी अच्छी रहती है. यह पौधा हर परिस्‍थति में फलता-फूलता है.

कुबेर यन्त्र भी घर में रखें 


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