रविवार, 14 अगस्त 2022

क्या सुशील मोदी को उप मुख्य मंत्री न बनाना , भाजपा को भारी पडा ?

 


लोग कहते हैं कि भाजपा ने सुशील मोदी को किनारे लगा कर बहुत बड़ी गलती की लेकिन ये सही नहीं है लोगों को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि बिहार में नीतीश और सुशील मोदी की जोड़ी जय और वीरू की तरह जानी जाती थी. सुशील मोदी 2013 में भी नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री थे और उस समय भी नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर जंगलराज  का दामन थाम लिया था, जिसके खिलाफ़ वह भाजपा के साथ मिलकर पिछले 10 वर्षों से लड़ रहे थे. इसलिए अगर आपकी बार भी नीतीश ने भाजपा का साथ छोड़ने का मन बना लिया था तो सुशील मोदी कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं कर सकते थे.

अगर कांग्रेस को छोड़ दें तो बिहार की दुर्दशा के लिए तीन बड़े गुनहगार है और वे है लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी. ये तीनों विश्वविद्यालय के समय से ही बड़े अच्छे दोस्त हैं. ये तीनों ही जेपी आंदोलन की उपज है.  सुशील मोदी विद्यार्थी परिषद के माध्यम से भाजपा पहुंचे और नीतीश लालू एक ही दल में एक साथ थे वे जनता पार्टी के विघटन के बाद अलग हुए और धुर विरोधी बन गए. लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री का पद हथियाने में कामयाब हो गए और लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोककर उन्होंने  वर्ग विशेष में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था और उसके बाद एम् वाई  फैक्टर लालू की जीत की गारंटी बन गया था. दुर्भाग्य से नीतीश कुमार भी तुष्टीकरण के माध्यम से एम सेक्टर को हथियाने की कोशिश करते रहे लेकिन लालू यादव जैसे घाघ  नेता के समक्ष सफल नहीं हो सके.

नितीश बेहद मजबूरी में ही भाजपा के साथ सिर्फ इसलिए थे क्योंकि भाजपा के कंधे पर बैठकर वे बिहार के मुख्यमंत्री बन सकते थे. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वह केंद्रीय मंत्री थे और विधानसभा के चुनाव में भाजपा जेडीयू गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन साबित हुआ. नीतीश ने वाजपेयी जी को आश्वस्त किया था कि वे बहुमत का जुगाड़ कर लेंगे और इसलिए मुख्यमंत्री बन गए लेकिन 7 दिन के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और उनका जलवा यह था कि वह पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए.

2005 के विधानसभा चुनाव में भाजपा जदयू गठबंधन को जबरदस्त सफलता मिली और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए. उस समय तक उनकी अभिलाषा सिर्फ मुख्यमंत्री बनने की थी लेकिन 2010 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा के ही कुछ नेताओं ने उन्हें इमली के पत्तों पर यह कह कर बैठा दिया कि वह प्रधानमंत्री मैटीरियल है. गलतफहमी का शिकार हुए नीतीश ने राजनीतिक शुचिता और नैतिकता का तो कभी भी पालन नहीं किया था पर पाखंड जरूर करते थे. 2013 में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया तो उनके अंदर बैठा हुआ प्रधानमंत्री मैटीरियल मचल उठा और उसने नैतिकता के सारे मापदंड ध्वस्त करते हुए भाजपा से किनारा कर लिया और जंगलराज का साथ पकड़ लिया. सभी आवक रह गयी लेकिन नीतीश को मनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया. लोकसभा में भाजपा की जबरदस्त सफलता के बाद उन्हें एहसास हुआ कि बहुत बड़ी गलती हो गई है इसलिए 2015 में विधानसभा चुनाव लालू के साथ लड़ते हुए उन्होंने बहुमत जरूर हासिल किया लेकिन उन्हें संतोष नहीं हुआ और कुछ ज्यादा पाने  के लालच में उन्होंने फिर पाला बदल लिया और भाजपा के साथ चले गए. इस समय भी उनके लिए माध्यम बनने का कार्य किया सुशील मोदी ने. अगर उस समय भाजपा ने उनको साथ नहीं लिया होता तो 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी हो सकती थी. इन चुनावों में नीतीश के साथ मिलकर भाजपा ने अपना परचम फहराया और सशक्त सीटें विधानसभा में प्राप्त की लेकिन अपने बलबूते पर बहुमत प्राप्त करने से बहुत दूर रही.

2020 के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा को नीतीश को कंधे पर बैठाकर चलना अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वे उसी समय फिर जंगलराज के साथ मिलकर सरकार बना लेते क्योंकि चालाकी, और विश्वासघात नीतीश की फितरत में शामिल हैं. इसलिए लालू ने उन्हें पलटूराम और सांप बताया था जो हर 2 साल में केंचुल बदल लेता है.

भाजपा जनता दल यू गठबंधन के पिछले 22 साल का विश्लेषण यह बताता है किस गठबंधन का सबसे अधिक फायदा जनता दल यू और खासतौर से नीतीश कुमार ने उठाया और भाजपा को छोटा भाई बने रहने देने की हरसंभव कोशिश की. एक राष्ट्रीय दल होने के नाते भाजपा ने बिहार में विस्तार के लिए योजना बनाई थी और उस योजना के तहत उन्होंने डॉक्टर और दवा दोनों बदल दी यानी सुशील मोदी को बिहार से निकालकर राज्यसभा भेज दिया और एक नई टीम का प्रयोग किया. दो उपमुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और मंत्री सब मिलकर बिहार की सामाजिक और जातिगत ढांचे में पूरी तरह से फिट बैठते थे. नितीश इस सब से बहुत खुश नहीं थे और उनको लगता था कि अगले चुनावों तक भाजपा अपने दम पर बहुमत प्राप्त कर लेगी और फिर उनको दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर करेगी. भाजपा की नई टीम उनको उस तरह से काम भी नहीं करने दे रही थी जैसा सुशील मोदी के जमाने में हो जाता था और इसलिए उनकी छटपटाहट बढ़ती गयी. बहाना चाहिए आरसीपी सिंह का हो, या जनता दल यू तोड़ने का हो लेकिन असलियत यह थी कि वह अपने अस्तित्व को लेकर बहुत बेचैन थे. राष्ट्रपति बनने के लिए भी उन्होंने संदेश दिया लेकिन नरेंद्र मोदी के मन में द्रोपदी मुर्मू की योजना बहुत पहले से थी. राष्ट्रपति के बाद उपराष्ट्रपति के लिए भी संदेश दिया और इसे भी भाजपा ने सुना अनसुना कर दिया क्योंकि भाजपा को धनखड़ के जरिए जो राजनैतिक फायदा हो सकता था वह नीतीश कुमार को उप राष्ट्रपति बनाने से नहीं मिलता. इसलिए बात यह भी नहीं बनी और इसलिए बड़ी हताशा और निराशा में उन्होंने भाजपा गठबंधन तोड़ दिया और फिर उसी जंगल राज में शामिल हो गए जिससे लड़कर ही उन्होंने अपना कद बड़ा किया था.

इसलिए इस पूरे घटनाक्रम से सुशील मोदी अगर कुछ कर सकते थे तो वह समझौतावादी राजनीति होती है जो केवल नीतीश कुमार के लिए सुविधाजनक होती लेकिन भाजपा को आगे बढ़ने से रोकती. अबकी बार भी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को बहुत पहले से मालूम था कि नीतीश कुमार पलटी मारेंगे और इसलिए भाजपा ने जनता के सामने उनके कद को इतना छोटा कर दिया था जिसे सामान्य करने में उन्हें बहुत समय लगेगा. यह भी बिल्कुल सही है कि अगर बिहार की नीतीश सरकार पूरे पांच वर्ष चलती तो नीतीश कुमार बिहार के राजनैतिक परिदृश्य में खासी पर पहुँच जाते. इसलिए राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश ने अपने जीवन का आखिरी दांव लगाया है और इस बात की पूरी संभावना है कि भाजपा से वह अपनी जो राजनैतिक पूंजी बचाकर लाए हैं वह आरजेडी उनसे छीन लेगी और इसके बाद नीतीश कुमार न घर के रहेंगे न घाट के. नीतीश ने ऐसा अपने दल के कई नेताओं के साथ किया है उनमें जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव जैसे नेता भी शामिल है, इसलिए इतिहास अपने आप को दोहराने के कगार पर खड़ा है.

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने यह फैसला किया कि उन्हें बैसाखी से छुटकारा पाना ही होगा इसलिए नीतीश कुमार को मनाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि सबका ध्यान इस पर था कि बिहार में पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को नए सिरे से बनाया जाए, मजबूत किया जाए और अपने दम पर सरकार बनाने का प्रयास किया जाए.

इसलिए भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के इस नए विश्वासघात से बिल्कुल भी चिंतित दिखाई नहीं पड़ता और सुशील मोदी भी नीतीश कुमार के विरुद्ध जमकर खड़े हो गए हैं.

इसलिए भाजपा का सुशील मोदी को बिहार से दूर करने का आशय देखिए राज्य संगठन का नए सिरे से पुनर्गठन करके जनाधार बढ़ाना था जिसपर भाजपा ने बहुत तेजी के साथ कार्य भी किया है पर पार्टी लोक सभा और विधानसभा के चुनावों की तैयारी सभी सीटों पर  पूरे जोरशोर कर रही थी, जिससे नीतीश कुमार  सशंकित थे. वर्तमान घटनाक्रम का लाभ निश्चित रूप से भाजपा को मिलेगा.  

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