शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

कर्णाटक में जजिया टैक्स

 

 

सोये सनातन पर एक और प्रहार है ये , नया नहीं, पहला नहीं और आख़िरी भी नहीं. यदि हिन्दू नहीं जागा तो ये तब तक चलेगा जब तक भारत इस्लामिक राष्ट्र नहीं बन जाता. 

21 फरवरी 2024 को कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम संशोधन विधेयक 2024 को विधानसभा में पारित करवाकर संशोधित कानून लागू कर दिया. जिसके अनुसार राज्य के ऐसे सभी मंदिरों पर जिनके दानपात्र में आये चढ़ावे की वार्षिक राशि ₹10 लाख रुपए से 1 करोड़ के बीच है, 5% का टैक्स लगा दिया है. जिन मंदिरों की चढ़ावे की वार्षिक राशि 1 करोड़ रुपए से अधिक है, पर 10% का टैक्स लगा दिया है. ये सभी वे मंदिर हैं, जो सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों के अतिरिक्त जिनकी संख्या 35,000 से भी अधिक है. टैक्स की यह राशि कॉमन पूल फंड में डाली जाएगी जिसका उपयोग ज़रूरतमंद धार्मिक संस्थाओं के लिए किया जाएगा. अधिनियम में जोड़ी गईं दो धाराएं बेहद खतरनाक हैं जो सनातन धर्म और प्राचीन भारतीय सनातन संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है.

इस संशोधित अधिनियम की धारा 19 (ए) के अनुसार कॉमन पूल में एकत्र की गई धनराशि का उपयोग किसी भी ज़रूरतमंद धार्मिक संस्था के लिए किया जा सकता है. यानी वसूली गई धनराशि का उपयोग इस्लामिक और क्रिश्चियन संस्थाओं पर भी किया जायेगा. अभी भी मंदिरों से प्राप्त धनराशि को मुस्लिम और क्रिश्चियन संस्थाओं को दिया जाता है, जिसका व्यापक विरोध हो रहा है और इस संदर्भ में कई याचिकाएं न्यायालयों में लंबित भी है, इसलिए कानून बनाया गया. अधिनियम की धारा 25 के अनुसार समग्र संस्थाओं के मामले में हिंदू और अन्य धर्मों दोनों के सदस्यों को प्रबंधन समिति में नियुक्त किया जा सकता है। इसका आशय है कि सरकार अपने नियंत्रण वाले मंदिरों की प्रबंध समिति तथा अन्य मंदिरों को चलाने वाली प्रबंध समितियों में गैर हिंदुओं को सदस्य और पदाधिकारी के रूप में बैठना चाहती है. इस तरह की व्यवस्था आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु में लागू हो चुकी है और कर्नाटक की कांग्रेस सरकार वी इन्हीं राज्यों की तरह राज्य में कर्नाटक में हिंदू मंदिरों और सनातन संस्कृति का सत्यानाश करने के लिए उतावली हो रही है.

राज्य के कुछ हिंदू संगठनों और संत समाज ने इसकी आलोचना करते हुए इसे जजिया टैक्स बताया लेकिन चूंकि हिन्दू और सनातन समाज गहरी नींद सो रहा है इसलिए कहीं से कोई मुखर विरोध सामने नहीं आया. कर्नाटक के बाहर शेष भारत में तो किसी भी हिंदू संगठन या संत समाज की प्रतिक्रिया तक सुनाई नहीं पड़ी, शंकराचार्यों की भी नहीं जिन्होंने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह पर अनावश्यक टिप्पड़िया की थी. मुस्लिम तुष्टिकरण में प्राणप्रण से जुटे राजनैतिक दलों से तो कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि वे सत्ता के समीकरण में गजवा ए हिन्द के भी समर्थक बन चुके हैं. स्वार्थ में अंधे ये राजनैतिक दल राष्ट्र की आहुति देने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं. मुस्लिम तुष्टिकरण के खेल में भाजपा भी बहुत अधिक पीछे नहीं है. केंद्र में भाजपा शासन के पिछले 10 साल का विश्लेषण करने से पता चलता है कि मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से मुसलमानों के लिए जितना किया उतना स्वतन्त्र भारत की किसी सरकार ने नहीं किया. फिरभी भाजपा मुसलमानों के लिए अभी भी अछूत है. इसलिए वह घूम फिर कर हिन्दुओं के साथ खडी होने का प्रयास करती हैं लेकिन ऐसा करने में, मुस्लिम नाराज न हों इस बात का ध्यान रखा जाता हैं. उक्त मामले में भी भाजपा ने कर्णाटक सरकार और कांग्रेस की आलोचना तो की लेकिन उसका विरोध चुनावी वर्ष में राजनैतिक लाभ लेने से अधिक कुछ नहीं जान पडा.

हिंदू मंदिरों के मामले में भारतीय जनता पार्टी का ट्रैक रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है. कर्नाटक में भी चार बार सत्ता में रही कर्नाटक में वह चार बार सत्ता में रह चुकी हैं लेकिन उसने कुछ नहीं किया. भाजपा की पिछली सरकार के मुख्यमंत्री बसवराव बोम्बई ने तो राज्य के सभी मंदिरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की घोषणा भी कर दी थी, लेकिन विधानसभा में बिल तक नहीं लाया गया. कुछ समय पहले ही उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने कानून बना कर बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे महत्वपूर्ण हिंदू धर्म स्थलों को भी सरकारी नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था लेकिन पुजारियों और जनता के भारी विरोध के बाद चुनाव को देखते हुए फैसला वापस लिया गया था.

 कर्नाटक में 1997 में हिंदू धार्मिक संस्थाएं और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, बनाया गया था, जब जनता दल की
 सरकार थी.2003 में इस अधिनियम में बदलाव करके मंदिरों पर टैक्स लगाने की शुरुआत कांग्रेस सरकार ने कि
 जिस समय एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री थे. इससे पहले 5 से 25 लाख रुपये तक कुल राजस्व वाले मंदिरों पर 5% 
और 25 लाख रुपये से ऊपर राजस्व वाले मंदिरों पर 10% की दर से टैक्स लगाया जाता था जिसे कांग्रेस की वर्तमान
 सिद्धारमैया सरकार ने स्लैब में परिवर्तन करके ज्यादा वसूली करने की कोशिश की है. लेकिन मुख्य प्रश्न है कि 
 केवल हिन्दू मंदिरों पर ही टैक्स क्यों ? किसी मस्जिद, चर्च या गुरूद्वारे पर क्यों नहीं ? अगर उद्देश्य मंदिरों और 
इसके कर्मचारियों की भलाई का है तो स्वयात्ताशाषी मंदिर परिषद या सनातन परिषद बना कर क्यों नहीं?  मंदिरों 
के संचालन में दखल क्यों?  

यह अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने सनातन धर्म और संस्कृति के प्रति गहरी आस्था का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से बिना किसी संकोच के किया. प्रमुख मंदिरों में पहुँचकर भगवा वस्त्र धारण कर माथे पर चंदन लेप कर पूजा अर्चना करना और आराध्य को साष्टांग दंडवत करते उन्हें देखना स्वप्न जैसा लगता है क्योंकि स्वतंत्र भारत ने ऐसे प्रधानमंत्री को भी देखा है जो स्वयं तो कभी किसी मंदिर में पूजा अर्चना के लिए नहीं गया, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश के राष्ट्रपति को भी पुनुर्द्धार हुए सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में भाग लेने से रोका.

इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छद्म धर्मनिरपेक्षता का परित्याग कर धर्म के प्रति अपनी आस्था और विश्वास की दृढ इच्छा शक्ति के कारण हिंदू समाज में धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास जगा जिसने हिन्दू स्वाभिमान की नवचेतना स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया. सनातन समाज इससे बेहद प्रफुल्लित है लेकिन सत्ता और शक्ति हमेशा नहीं रहती इसलिए अपेक्षा थी कि सनातन धर्म की राह में संवैधानिक और कानूनी तौर पर जो बारूद बिछाई गई है, उसका सफाई अभियान भी वह चलाते. यह समझना मुश्किल है कि 10 साल तक केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार होते हुए भी वह मंदिर मुक्ति का केंद्रीय कानून क्यों नहीं बना सके, इससे मुस्लिम और क्रिश्चियन सहित किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को कोई परेशानी नहीं थी. विश्व का हर सभ्य समाज स्तब्ध हैं कि स्वतंत्र भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं के मंदिर स्वतंत्र क्यों नहीं जबकि मुस्लिमों और क्रिश्चियन्स के धार्मिक स्थलों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं. यक्ष प्रश्न है कि कई महाभारतकालीन मंदिर वक्फ बोर्ड की संपत्ति कैसे बन सकते हैं, जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था, प्राचीन मंदिरों की जमीन मस्ज़िदों और चर्चों को क्यों दी जा रही है, मंदिरों के चढ़ावे से मौलबियों, इमामों और पादरियों को वेतन कैसे दिया जा सकता है.

कई राज्यों में हिन्दू विरोधी सरकारे होने के कारण सनातन धर्म की भयानक दुर्गति से स्थिति बद से बदतर हो रही है. अगर इस पर शीघ्र रोक न लगी तो इन राज्यों में सनातन धर्म लुप्तप्रायः हो जाएगा. क्या हिन्दू समाज की यह पीड़ा गलत है कि कुछ मन्दिरों में मुस्लिम पुजारी क्यों रखे गए, जो आरती तथा पूजा अर्चना के समय अजान भी दें रहे हैं. बालाजी तिरुपति जैसे प्रिसिद्ध विष्णु मंदिर के प्रबंध बोर्ड का अध्यक्ष क्रिस्चियन को बनाया जाय. मंदिर जो कभी गुरुकुल चलाते थे, पर यतीमखानों के भरण पोषण की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है, सरकारी संरक्षण मे हिंदुओं का धर्मांतरण हो रहा है. और ! ये सब तब जब केंद्र में कथित रूप से हिंदूवादी सरकार है.

अंधभक्त का तमगा लगाएं बहुत से मोदी प्रशंसक उनकी इस बात की कटु आलोचना करते हैं कि वह जिन मुद्दों पर सत्ता में आए थे उन सब को एक एक करके किनारे कर दिया और केवल विकास की माला जपने लगे. भारत को विश्व गुरु बनाने से ज्यादा, दिखाई पड़े, इस प्रयास में लग गए. जितनी मेहनत से वह विकास के मुददे उठाते हैं और अर्थव्यवस्था को ऊंचाइयों पर ले जाने की बात करते हैं, उतना प्रयास अगर सनातन की मजबूती और स्थायित्व के लिए करते तो विकास अपने आप होता और अर्थव्यवस्था नई ऊँचाइयों पर अपने आप पहुँच जाती. इतिहास गवाह कि भारत पहली शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक लगभग 1700 वर्षों तक एक तिहाई हिस्सेदारी के साथ लगातार विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रहा. उसका सबसे बड़ा कारण मंदिर आधारित अर्थव्यवस्था था.

मोदी समय रहते समझ जाएं तो देश बच सकता है, अन्यथा शनै शनै विश्व की सबसे प्राचीन और उन्नत सभ्यता का यह देश इस्लामिक राष्ट्र बनने की ओर खिसक रहा है, सिर्फ समय की बात है.

प्रसन्नता की बात है कि कर्णाटक का यह बिल विधान परिषद् में पास नहीं हो सका इसलिए कानून बनते बनते बाल बाल बच गया, कम से कम लोकसभा चुनावों तक.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~  

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

किसान आन्दोलन 2.0

 

पिछले किसान आंदोलन की कड़वी यादें अभी भूल भी नहीं पाए थे कि दूसरा किसान आंदोलन शुरू हो गया है. पिछले आंदोलन के दौरान लगभग 13 महीने तक दिल्ली को घेर कर बैठे रहे आंदोलनकारियों कथित किसानों ने दिल्लीवासियों का जीना मुश्किल कर दिया था. वित्तीय रूप से राष्ट्र को कितनी क्षति हुई थी, इसकी गणना सरकार ने आवश्यक होगी लेकिन खुलासा नहीं किया था. यह समझना मुश्किल नहीं है कि आर्थिक रूप से देश का कितना बड़ा नुकसान हुआ होगा. 26 जनवरी को लाल किले पर जो उपद्रव हुआ था उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि वे किसान नहीं हो सकते. वह आंदोलन बहुत बड़ा षडयंत्र था और उसमें भारत विरोधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां सक्रिय थी और पैसा पानी की तरह बहाया गया था. हमेशा की तरह सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसे संवेदनशील और राष्ट्रीय हित के मामले में अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया था. अंततः मोदी सरकार को राष्ट्रहित में बनाए गए तीनो किसान कानूनों को वापस लेना पड़ा था. इससे छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों का बहुत नुकसान हुआ.

पिछले आंदोलन की तर्ज पर ही आंदोलन का यह द्वितीय संस्करण दिल्ली को घेरकर राजनीतिक बवंडर उत्पन्न करने के लिए शुरू किया गया लगता है. चूंकि लोकसभा चुनाव 2024 सिर पर है, मंदिर निर्माण से उपजे राममय वातावरण में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अबकी बार 400 के पार का दावा करते, विपक्षी गठबंधन को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ रहे हों और अचानक किसान रास्ता रोककर खड़े हो जाए. इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इसका राजनैतिक निहितार्थ है. पिछली बार का आंदोलन पंजाब में शुरू हुआ था और राज्य सरकार से संघर्ष के बाद रेल रोको आंदोलन करता हुआ दिल्ली पहुंचा था. अब की बार पंजाब सरकार ने तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए सीधे दिल्ली का रास्ता दिखा दिया. पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और आगामी चुनावों को देखते हुए वे कुछ भी कर सकते हैं. हरियाणा की सीमा पर किसानों को रोके जाने पर पंजाब सरकार ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए हरियाणा और केंद्र सरकार की निंदा करते हुए कहा कि किसान लोकतांत्रिक तरीके से अपनी मांगों के समर्थन में विरोध करने के लिए दिल्ली जा रहे हैं सरकार को उनकी मांगों पर विचार करना चाहिए.

दूसरे संस्करण के इस आंदोलन में अंतर यह है कि पिछले आंदोलन में भाग लेने वाले सभी संगठन इस इस बार शामिल नहीं है. हरित क्रांति के जनक कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन तथा पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न सम्मान दिए जाने की पृष्ठभूमि में राकेश टिकैत के नेतृत्व वाली भारतीय किसान यूनियन और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में सक्रिय अधिकांश किसान यूनियन इसमें शामिल नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान तथा खाप पंचायतें इस आंदोलन का विरोध भी कर रही हैं. इसलिए यह आन्दोलन पंजाब के किसानो का और उस पर भी कुछ किसान यूनियनों का आन्दोलन है.

  1. इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि देश में कई दशकों से अधिकांश छोटे और मझोले किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है और इसमें सुधार होना तो दूर वर्ष दर वर्ष स्थिति और खराब होती जा रही है. वैसे तो किसानों की आर्थिक स्थिति में राज्यवार अंतर हो सकता है लेकिन सबसे अधिक खराब स्थिति उत्तर प्रदेश बिहार और उड़ीसा के किसानों की है. समस्या केवल उपज की उचित कीमत ही नहीं बल्कि सिंचाई के साधन, भूमि सुधार, छोटी जोत, अवैज्ञानिक मूलभूत ढांचा, खाद और बीज की बढ़ती कीमतें भी हैं. उत्तर प्रदेश बिहार और उड़ीसा में कृषि मज़दूरों की अनुपलब्धता भी एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है और उसका कारण है इन राज्यों के कृषि श्रमिकों का पंजाब और हरियाणा के लिए पलायन. रही सही कसर मनरेगा ने पूरी कर दी, जिसके कारण श्रमिक मनरेगा में काम करते हैं और जब वहाँ काम नहीं मिलता तो शहर में मजदूरी के लिए चले जाते हैं. कम जोत वालों को बटाईदार भी नहीं मिलते इसलिए ये छोटे और मझोले किसान किसी तरह ट्रैक्टर से अपने खेतों की जुताई बुआई करवा कर जीविका चलाते हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य से तो इनका दूर दूर का रिश्ता ही नहीं जिसका सबसे अधिक फायदा पंजाब और उसके बाद हरियाणा को मिलता है इसलिए इसकी मांग हरियाणा और पंजाब के किसान ही करते हैं जहाँ बिचौलियों से मिलीभगत करके इसके दुरुपयोग का लंबा इतिहास है.  

आंदोलनकारी कथित किसानों की मांगें उचित भले ही न हो लेकिन जो समय उन्होंने चुना है जो शायद पूरी तरह से उचित है जिसे देख कर यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसमें राजनीतिक तड़का लगा है. उनकी मांगो की सूची देख कर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसमें मोदी सरकार को शर्मसार करके राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा है. प्रमुख मांगें इस प्रकार हैं, स्वामीनाथन रिपोर्ट पूरी तरह लागू की जाए, सभी फसलें एमएसपी पर खरीदी जाएं, एमएसपी गारंटी कानून बनाया जाएं और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसलों के भाव तय किए जाएं, किसानों और मजदूरों की पूर्ण कर्जमाफी की जाए, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को पूरे देश में फिर से लागू किया जाए, भूमि अधिग्रहण से पहले किसानों की लिखित सहमति और कलेक्टर रेट से 4 गुना मुआवजा देने की व्‍यवस्‍था हो, लखीमपुर खीरी नरसंहार के दोषियों को सजा और पीड़ित किसानों को न्याय मिले, विश्व व्यापार संगठन से भारत बाहर आए, सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगाई जाए, किसानों और खेत मजदूरों को रुपया 10,000 प्रतिमाह की पेंशन दी जाए, दिल्ली किसान आंदोलन में शहीद हुए किसानों के परिजनों को एक लाख का मुआवजा और नौकरी दी जाए, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को रद्द किया जाए, मनरेगा से प्रति वर्ष 200 दिन का रोजगार, 700 रुपये का मजदूरी भत्ता दिया जाए, मनरेगा को खेती के साथ जोड़ा जाए.

आंदोलनकारियों की उपरोक्त मांगे “मैया मै तो चंद्र खिलौना लैहों” जैसी है जिन्हें पूरा करना किसी भी सरकार के लिए बिना राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अस्तव्यस्त किए संभव नहीं लगता. राहुल गाँधी ने अपनी भारत जोडो न्याय यात्रा के दौरान एक सभा में यह घोषणा की है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार प्रदान करेंगे और अन्य मांगों को भी यथावत लागू कर देंगे. देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए पूरी दुनिया को यह बात मालूम है लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सरकार बनाने नहीं जा रही इसलिए राहुल गाँधी ने इन मांगों पर बिना गंभीरतापूर्वक विचार किए हुए हाँमी भर दी है. कांग्रेस इसके पहले भी कई राज्यों के चुनाव में लोक लुभावन घोषणाएं करके हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक ओर तेलंगाना जैसे राज्यों की अर्थव्यवस्था को लगभग चौपट करने का काम कर चुकी है, जहाँ विकास के कार्य लगभग ठप हो गए हैं और कर्मचारियों के वेतन भुगतान में समस्या आने लगी है.

सभी फसलों पर एमएसपी गारंटी कानून लागू करना भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से चौपट करना होगा क्योंकि इसके बाद कृषि सुधार लागू करने के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बचेगी. मनरेगा की दैनिक मजदूरी बढ़ाकर ₹700 करना और एक वर्ष में 200 दिनों की रोज़गार गारंटी देना वर्तमान उपलब्ध संसाधनो के अंतर्गत बिना अन्य कार्यों को रोके करना मुश्किल है इस समय इस योजना में वर्ष में 100 दिन रोजगार और मजदूरी विभिन्न राज्यों में रु 200 से लेकर रु 350 के बीच है. वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए मनरेगा के लिए 86,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है यदि ये मांगे मान ली जाए तो 7 से 8 लाख करोड़ रूपये का आवंटन चाहिए. हो सकता है कि इससे उप्र, ओडिशा और बिहार से पंजाब और हरियाणा आने वाले कृषि मजदूरों के आने का सिलसिला रुक जाय तो पंजाब और हरियाणा का क्या होगा. उप्र, बिहार और ओडिशा में जहाँ खेतिहर मजदूर नहीं मिलते वहा भी समस्या बढ़ जायेगी. पूरे देश में कृषि उत्पादन की लागत और भी बढ़ जायेगी जिससे एमएसपी न पाने वाले किसानो की हालत और ख़राब हो जायेगी.

देश में लगभग 15 करोड़ लोग 60 वर्ष से ऊपर हैं, जिनमे से दो तिहाई (10 करोड़) गावों में रहते हैं यदि ग्रामीणों किसान और मजदूरों को प्रतिमाह रु10000 पेंशन दी जाए तो प्रति वर्ष 11-12 लाख करोड़ रूपये चाहिए. गारंटीड एमएसपी लागू करने के लिए लगभग 10 लाख करोड़ रूपये की अतरिक्त व्यवस्था करनी होगी. अगर मनरेगा, पेंशन और गारंटीड एमएसपी पर खर्च देखा जाय तो यह 30 लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष बैठता है जिसके सापेक्ष वर्तमान वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियां 27 लाख करोड़ रूपये हैं और खर्च 45 लाख करोड़ रूपये है. अगर सरकार इन आंदोलनरत कथित किसानों की मांगे मान ले तो वर्तमान राजस्व प्राप्तियों से तो कार्य पूरा नहीं हो सकता है. सोचिये देश में अन्य कार्य कैसे होंगे.

आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मोदी सरकार इस रूप में ये मांगे नहीं मानेगी और देश की अर्थ व्यवस्था को बर्बाद नहीं होने देगी.

इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मोदी का रास्ता रोकने की कोशिश में आन्दोलन में जी जान लगा दें और मोदी स्वभाव के अनुसार आन्दोलन की आपदा में अवसर खोज कर कोई मास्टर स्ट्रोक लगा दें, जो कांग्रेस के टूटते गठबंधन और बिखरते कुनबे को पूरी तरह ध्वस्त कर दें. ऐसी स्थिति में आप और कांग्रेस दोनों का बहुत नुकशान होगा. आन्दोलनकारी कथित किसान भी ये जानते हैं कि आयेगा तो मोदी ही इसलिए आन्दोलन न तो बहुत उग्र होगा और न ही लंबा खिंचेगा .

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

इस सम्बन्ध में मेरा एक लेख आज ही प्रकाशित हुआ है .

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

भारत के राजनीति रत्न

 

तीन और भारत रत्न पुरस्कार की घोषणा की गयी है, पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह तथा पी वी नरसिम्हा राव और कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन. इसके साथ वर्ष 2024 में कुल भारत रत्न पुरस्कार प्राप्त करने वालों की संख्या पांच हो गई है, जो किसी एक वर्ष में भारत रत्न पुरस्कार दिए जाने की सबसे बड़ी संख्या है. इससे पहले इस वर्ष कर्पूरी ठाकुर और लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. श्री लालकृष्ण आडवाणी को छोड़कर बाकी सभी को यह पुरस्कार मरणोपरांत प्रदान किया जाएगा. इन नामों को देखकर राजनीति की साधारण समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह बता सकता है कि इसमें सम्मान के साथ भी राजनीति शामिल हैं जिसे राजनीतिक बोल चाल में मोदी का मास्टर स्ट्रोक कहा जाता है.

प्रायः राजनीतिक व्यक्तियों को पद्म सम्मान राजनीतिक सुविधानुसार ही दिया जाता है. इस वर्ष के पद्म पुरस्कारों में सबसे अधिक चर्चा में भारत रत्न पुरस्कार हैं. इसे प्राप्त करने वाले राजनीतिज्ञों में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पिछड़े वर्ग के नेता कर्पूरी ठाकुर, किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह, भारत में उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के प्रणेता पीवी नरसिम्हाराव और सोमनाथ से अयोध्या तक रामरथ यात्रा के माध्यम से हिंदू पुनर्जागरण की शुरुआत करने वाले लालकृष्ण आडवाणी को यह पुरस्कार पहले भी दिया जा सकता था. यदि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के पिछले 10 साल के शासनकाल को छोड़ भी दिया जाए तो मोदी सरकार भी अपने पिछले 10 वर्ष के शासनकाल में कभी भी यह पुरस्कार दे सकती थी लेकिन 2024 में एक साथ पांच भारत रत्न सम्मान दिये जाने का कारण इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है. यह भारतीय राजनीति की विडंबना ही है कि लालकृष्ण आडवाणी को छोड़ कर विपक्षी राजनीतिक दलों ने अन्य व्यक्तियों को भारत रत्न दिए जाने का स्वागत किया है. लालकृष्ण आडवाणी के मामले में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों ने किसी न किसी रूप में प्रश्न उठाए हैं और कारण भी शुद्ध राजनीतिक है क्योंकि आडवाणी की रथ यात्रा के बाद बने माहौल में ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया गया था, स्वाभाविक है कि मामला तुष्टिकरण का भी है.

इस वर्ष भारत रत्न से अलंकृत होने वाले कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन भारत में हरित क्रांति के लिए जाने जाते हैं और इस सम्मान के सर्वथा योग्य हैं. पिछले वर्ष (28 सितंबर 2023) ही उनका देहांत हुआ था. अच्छा होता यदि जीवित रहते हुए उनको यह पुरस्कार दिया जाता. इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में 400 पार करने के संकल्प के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई भी ऐसा मौका नहीं छोड़ रहे हैं जो उन्हें अधिक से अधिक लोकसभा सीटें अर्जित करने में लाभकारी हो सकता है. बिहार में नीतीश के साथ छोड़ने के बाद भाजपा की चुनावी स्थिति थोड़ी कमजोर लग रही थी. जातिगत जनगणना ने भाजपा को असहज कर दिया था. इसलिए सामाजिक संतुलन बनाने और अन्य पिछड़ा वर्ग को अपने पाले में रखने के उद्देश्य से कर्पूरी ठाकुर को भारत के सर्वोच्च सम्मान देने का निर्णय लिया गया और इसके बाद पाला बदल विशेषज्ञ नीतीश कुमार भाजपा खेमे में वापस आ गए. इस सफलता के बाद ही लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की गई जिसका सभी हिंदू संगठनों और समूचे हिंदू समुदाय ने हृदय से स्वागत किया, जो रेखांकित करता है कि कहीं न कहीं इसका उद्देश्य भी अपने परंपरागत मतदाताओं, खासतौर से ऐसे मतदाताओं को खुश करना था जो भाजपा द्वारा मुस्लिमों को रिझाने के लिए किए जा रहे प्रयासों, जैसे मदरसों के आधुनिकीकरण के नाम पर पर अंधाधुंध पैसा खर्च करना, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए केवल मुस्लिमों के लिए मुफ्त कोचिंग चलाना, मदरसा के छात्रों को छात्रवृत्तियां प्रदान करना, मदरसा के अध्यापकों को वेतन सहायता प्रदान करना, मुस्लिमों के लिए विशेष योजनाएं बनाकर अनाप शनाप पैसा खर्च करना, लगभग 90 लाख हिंदुओं के धर्मांतरण के लिए जिम्मेदार ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चादर चढ़ना, पसमांदा, सूफी और वहावी सम्मेलन आयोजित करने आदि से खासे नाराज थे.

भारत रत्न पुरस्कारों की तीसरी सूची में शामिल पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव के नामों के भी राजनीतिक मायने हैं. चौधरी चरण सिंह जाट समुदाय के सबसे बड़े नेता के साथ साथ किसानों के भी बड़े नेता माने जाते हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में उनका व्यापक प्रभाव है. उनके राजनीतिक वारिस चौधरी जयंत सिंह ने पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था. लेकिन वह लगातार भाजपा के संपर्क में थे और चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न सम्मान के बाद उन्होंने भाजपा के साथ जाने की घोषणा भी कर दी. बिहार में नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में चौधरी जयंत सिंह के पाला बदलने से कांग्रेस के इंडी गठबंधन टूट की कगार पर पहुँच गया है. हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भारी पराजय हुई, यद्यपि तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति को हराकर सत्ता प्राप्त करने में सफल रही. भारतीय जनता पार्टी को तेलंगाना से भारी उम्मीदें थी लेकिन वह आशा के अनुरूप सफलता नहीं पा सकी. इसलिए पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भारत रत्न दिए जाने के निहितार्थ हैं. नरसिम्हा राव को भारत रत्न की घोषणा के बाद एक ओर जहाँ तेलंगाना वासियों में हर्ष स्पष्ट नजर आ रहा है वहीं दूसरी ओर कांग्रेस खासतौर से गाँधी परिवार द्वारा उनके शव को कांग्रेस मुख्यालय में कार्यकर्ताओं और जनता के दर्शनार्थ न रखने देने, और दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार न करने देने के घाव भी हरे हो गए हैं. विनय सीतापति की किताब हाफ लायन में जानकारी दी गई है कि पी वी नरसिम्हा राव को कांग्रेस में इस तरह दरकिनार कर दिया गया था कि सोनिया के इशारे पर उनके शव को अंतिम संस्कार के लिए जबरदस्ती हैदराबाद भेज दिया गया जहाँ कांग्रेस की सरकार थी. एक पूर्व प्रधानमंत्री के अंतिम संस्कार में प्रदेश सरकार का सहयोग इस बात से समझा जा सकता है कि उनकी चिता के अवशेषों को आवारा कुत्ते नोच नोचकर खाते रहे. गाँधी परिवार के अनैतिक और अनुचित व्यवहार तथा कांग्रेस की बेरुखी के कारण नरसिम्हा राव से सहानुभूति तो हो सकती है, लेकिन देश ये कैसे भूल सकता है कि उन्हीं के कार्यकाल में पूजा स्थल तथा वक्फ बोर्ड कानून बनाया गया था और अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया था. उन्हें दोषी ठहराते हुए एक तथ्य यह भी है कि संसद में उस समय अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे कद्दावर नेता भी थे और भाजपा सांसदों की संख्या 120 थी. यदि समुचित विरोध किया जाता तो ये कानून पास नहीं हो सकते थे. पिछले वर्ष मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत पद्मविभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया था, जो पद्म पुरस्कारों में दूसरा सर्वोच्च पुरस्कार है. सब जानते हैं कि मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पार करते हुए मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में रामभक्तों पर गोलियां चलवाई थीं जिससे बड़ी संख्या में कारसेवक मारे गए थे. मुलायम सिंह ने यह कहने में कभी संकोच नहीं किया कि मुसलमानों का विश्वास जीतने के लिए कार सेवकों पर गोली चलाना आवश्यक था. आज इस पर चर्चा हो रही है कि अगर अखिलेश यादव भी भाजपा से गठबंधन को तैयार हो जायें तो मुलायम सिंह यादव को भी भारत रत्न दिया जा सकता है. यक्ष प्रश्न है कि क्या मोदी के मास्टरस्ट्रोक में राजनीति ही सर्वोपरि होती है, नैतिकता और सुचिता का कोई स्थान नहीं. संभव है कि मोदी तीसरे कार्यकाल के लिए आश्वस्त तो हों लेकिन वह कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हों ताकि अगले कार्यकाल, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का उत्तर देते हुए बड़े फैसले लेने की घोषणा कर दी है, में राष्ट्र की गंभीर चुनौतियों का समाधान कर सके.

1954 में पद्म पुरस्कार की स्थापना के 70 वर्ष हो चुके हैं किन्तु पिछला रिकॉर्ड बताता है कि 70 में से 43 वर्षों में किसी को भी यह पुरस्कार नहीं दिया गया, केवल 27 वर्षों में ही ये पुरस्कार दिए गए. स्वयं मोदी सरकार के पिछले 10 साल के कार्यकाल में केवल 2015, 2019 और 2024 में ही ये पुरस्कार प्रदान किए गए. क्या भारत जैसे विशाल देश में भारत रत्नों की कमी है या अधिकांशत: राजनीति के रत्न ही भारत रत्न बनने के योग्य होते हैं और वह भी मास्टर स्ट्रोक द्वारा. भारत में रत्नों की कमी नहीं है, केवल राष्ट्र हित, न कि राजनैतिक आधार पर पहचानने की आवश्यकता है.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा `~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

राजनीति, सनातन और सरकार

 



राजनीति, सनातन और सरकार

मोदी सरकार ने वर्ष 2023-24 का अंतरिम बजट संसद में प्रस्तुत जिसमें कोई भी लोकलुभावन घोषणाएं नहीं की गई है और न ही प्रत्यक्ष तौर पर मतदाताओं को आकर्षित करने का कोई विशेष प्रयास किया गया है. मध्यम वर्ग को राहत पहुंचाने के लिए आयकर की दरों में भी कोई छूट नहीं दी गई है. बजट प्रावधानो को देखकर ऐसा लगता है कि यह सामान्य बजट का ही विस्तार है, जिसके केंद्र बिंदु केवल विकास है. चुनावी वर्ष में यह बजट लोगो को आश्चर्यचकित कर सकता है लेकिन यह संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार अपनी सरकार बनाने के लिए पूरी तरह से आश्वस्त हैं. यह पूरे देश के लिए संतोष की बात है लेकिन हिंदुओं के लिए यह संतोष के साथ साथ सजग रहने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है कि अति आत्मविश्वास में कथित हिंदूवादी सरकार राष्ट्रीय मुद्दों और हिन्दू हितों से पूरी तरह से विमुख न हो जाए.

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बाद पूरा भारत आल्हादित है और वातावरण पूरी तरह से राममय है. हिन्दू बहुत खुश है और 500 वर्षों के संघर्ष के बाद राम मंदिर निर्माण को सनातन धर्म की विजय के रूप में देख रहे हैं जो पूरी तरह से गलत अवधारणा है. ये सही है कि यह सनातन के पुनर्जागरण की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है लेकिन यह भी एक तथ्य है कि मंदिर का निर्माण सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही संभव हुआ है, सरकार द्वारा बनाये किसी कानून से नहीं. इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछली सरकारों के विपरीत मोदी सरकार की भूमिका अत्यंत सकारात्मक और उत्प्रेरक रही.

राम के जन्म स्थान पर बना मंदिर इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा सनातन धर्म को अपमानित करने के लिए तोड़ा गया था और उसी स्थान पर मस्जिद का उस समय निर्माण करना जब अयोध्या में एक भी मुसलमान नहीं था, का एकमात्र कारण हिंदू धर्म के ऊपर इस्लाम की सर्वोच्चता प्रदर्शित करना था. ऐसा एक नहीं, अनेक जगह हुआ. दुर्भाग्य से इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों की विस्तृत सूची भी किसी के पास उपलब्ध नहीं है लेकिन एक अनुमान के अनुसार 50 हजार से भी अधिक मंदिर तोड़े गए. इतिहासकार सीता राम गोयल ने कुछ अन्य लेखकों अरुण शौरी, हर्ष नारायण, जय दुबाशी और राम स्वरूप के साथ मिलकर “हिंदू टेम्पल: व्हाट हैपन्ड टू देम” शीर्षक से दो खंडों की किताब प्रकाशित की थी जिसमें  1800 से अधिक उन इमारतों, मस्जिदों और विवादित ढाँचों की सूची है, जिन्हे मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा मंदिरों को तोड़ कर उसी सामग्री का इस्तेमाल करके बनाया गया था. कुतुब मीनार, बाबरी मस्जिद, ज्ञानवापी, पिंजौर गार्डन सहित कई अन्य इमारतों का वर्णन पुस्तक में किया गया है. इस पुस्तक का उद्देश्य हिंदू समाज और विशेषकर नई पीढ़ी को इस विषय में जागृत करना था. यह एक शुरुआत थी और अपेक्षा थी कि हिंदुओं के जागरूक लेखक और इतिहासकार इस विषय को और आगे बढ़ाते हुए मंदिरों के विध्वंस की विस्तृत सूची तैयार करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद भी हिंदू समाज में स्वाभिमान नहीं जागा, और कहीं कोई आंदोलन नहीं हुआ और न ही किसी व्यक्ति, समूह या संगठन ने सरकार से निराकरण की मांग ही की.

कांग्रेस तो गाँधी नेहरू के मुस्लिम तुष्टीकरण के अभियान को पूरे मनोयोग के साथ आगे बढ़ा ही रही थी, अन्य दल भी मुस्लिम तुष्टीकरण मे लग गए, जनसंघ इसका अपवाद रहा. यक्ष प्रश्न है कि क्यों सारे राजनीतिक दल केवल 10 -15% वोटों के लालच में मुस्लिम तुष्टिकरण करने लगे और 80 - 85 प्रतिशत हिंदुओं को पूरी तरह से अनदेखा करने लगे. इसका एकमात्र कारण है मुस्लिम समुदाय की एकता और सामूहिक मतदान की प्रवृत्ति. इसके विपरीत हिंदुओं में एकता नहीं है, जिसका कारण जातिगत विभेद के अलावा धर्म से विमुखता, सामूहिक निर्णय का अभाव तथा स्वकेंद्रित स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण होना है. इस कारण आज भी समूचा हिंदू समुदाय शक्ति और सामर्थ्य विहीन है. भला ऐसे समुदाय को कोई सरकार या राजनैतिक दल महत्त्व क्यों देगा. सभी राजनीतिक दल जब मुस्लिमों  को लुभाने का प्रयास करते हैं तो यह मानकर चलते हैं कि हिंदुओं के मत तो उन्हें जातिगत या अन्य आधार पर मिल ही जाएंगे. कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में केवल मुस्लिम वोटों के कारण नहीं, बल्कि हिंदू वोटो के कारण रही लेकिन कांग्रेस ने मुस्लिमों का तुष्टीकरण किया और हिंदुओं की कीमत पर किया लेकिन स्वाभिमान विहीन हिंदुओं ने कभी प्रतिवाद नहीं किया. स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद और विशेषतया तब जब देश का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ हो, सरकार का पहला कर्तव्य होना चाहिए था “गुलामी के अवशेषों से मुक्ति” जिनमें प्रमुख थे धार्मिक स्थल. कोई भी समुदाय, समाज या राष्ट्र अगर आपने आस्था के केंद्र धार्मिक स्थलों को मुक्त नहीं करा सकता तो वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता और हमेशा गुलामी की मानसिकता में जकड़ा रहेगा. हिंदू समाज आज भी इसी हीन ग्रंथि का शिकार है.

इस्लामिक अतिक्रमण से मंदिर मुक्ति में मुस्लिम तुष्टीकरण बहुत बड़ी बाधा है, लेकिन हिंदुओं के जिन अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिरों पर सरकारी कब्जा है उनके मुक्ति मार्ग में तो कोई बाधा नहीं है. सरकार उनके चढ़ावे की राशि हड़प कर अन्य धर्मों पर खर्च कर रही है किन्तु हिंदू समुदाय से कोई प्रभावी आवाज भी नहीं आ रही है. धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे के बाद भारत में वहीं मुस्लिम हैं जो पाकिस्तान नहीं गए और उनसे यह अपेक्षा थी कि वे सौहार्द और भाईचारा बनाए रखने के लिए सभी विवादास्पद धार्मिक स्थल हिंदुओं को सौंप देंगे लेकिन ऐसा होने की बजाय मुस्लिम हठधर्मिता बढ़ती जा रही है जिसके पीछे ठोस राजनीतिक कारण हैं. इसकी शुरुआत तो नेहरू ने की थी लेकिन अब यह किसी के नियंत्रण में नहीं है. मंदिरों को नष्ट करने और उन पर इस्लामिक इमारतें बनाने के ऐतिहासिक दस्तावेजी प्रमाण तो है ही, इन इमारतों में स्वयं इतने साक्ष्य उपलब्ध हैं जिन्हें देख कर कोई अनपढ़ व्यक्ति भी तुरंत बता सकता है कि इन्हें मंदिरों को तोड़कर बनाया गया है. मुस्लिम भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन इसे धार्मिक हठधर्मिता कहें, राजनीतिक संरक्षण कहें या गजवा ए हिन्द का षड़यंत्र कहें, मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग सांप्रदायिक विद्वेश बढ़ाने का काम कर रहा है और  जहरीले बयान देकर विभाजन के पूर्व की स्थिति उत्पन्न करने की कोशिश कर रहा है. दुर्भाग्य से केंद्र सरकार भी मूकदर्शक है. यही कारण है कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद कई मुस्लिम नेताओं ने भड़काऊ बयान देते हुए कहा कि जब कभी मुस्लिम समुदाय शक्तिशाली होगा मंदिर तोड़कर पुनः मस्जिद बनायी जायेगी. इसका मतलब है कि गज़वा ए हिंद की योजना पर बहुत गंभीरता से काम हो रहा है, इसे हलके में नहीं लिया जाना चाहिए.  

ज्ञानवापी मंदिर की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट में इतने साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं कि कोई भी धर्मनिष्ठ और ईमानदार मुस्लिम इस ज्ञानवापी मंदिर में नमाज़ नहीं पड़ेगा और तुरंत इसे हिंदुओं को सौंप देगा लेकिन मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक और धार्मिक व्यक्तियों द्वारा झूठ और कुतर्क गढ़ने का काम जारी है. अभी हाल की बात है जब 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने ज्ञानवापी मंदिर के व्यासजी तहखाने में अवरोध लगाकर पूजा अर्चना बंद करवा दी थी. उसी समय से श्रृंगार गौरी की भी पूजा भी बंद हो गयी. इसे हिंदू समाज की सहिष्णुता कहें या कायरता, समुचित प्रतिरोध नहीं हुआ और इस कारण पिछले 30 सालों से बंद पूजा, कुछ दिन पहले न्यायालय के आदेश के बाद पुनः शुरू हो सकी. विडंबना देखिए कि मस्जिद पक्ष ने इस अदालती आदेश का विरोध यह झूठ बोलते हुए किया कि यहाँ कभी पूजा नहीं होती थी यद्दपि उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष के इस झूठ का संज्ञान नहीं लिया.

मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा मंदिरों को तोड़कर इस्लामिक इमारतें बनाने के अकाट्य साक्ष्य सामने आने के बाद मुस्लिम समुदाय नि:शब्द है और केवल पूजा स्थल कानून 1991 की बात करता है. यह कानून पी वी नरसिम्हा राव सरकार ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण को आगे बढ़ाते हुए बनाया था जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आये पूजा स्थलों का स्वरूप नहीं बदला जा सकता है. वैसे तो यह कानून अपने आप में असंवैधानिक है क्योंकि 1991 में बनाए गए कानून को चार दशक पीछे से लागू नहीं किया जा सकता है और तब से, जब संविधान भी अस्तित्व में नहीं था. यह भी एक तथ्य है कि जब संसद में यह कानून पास हुआ, नरसिम्हाराव सरकार बहुमत में नहीं थी किन्तु भाजपा के लोकसभा में 120 सांसद मूक दर्शक क्यों बने  रहे. भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह नेहरू से भी ज्यादा नेहरूवियन थे, ने इसका समुचित विरोध नहीं किया अन्यथा यह कानून बनना संभव नहीं था. यही नहीं अटल-आडवाणी के रहते हुए नरसिम्हा राव ने वक्फ बोर्ड कानून बनाया और अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा भी दिया. इसके पहले 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद जब अटल जी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा बनाया तो इंदिरा ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बना दिया.

वर्तमान वर्ष चुनावी वर्ष है इसलिए हर राष्ट्रवादी को विशेषतय: हिंदू समाज को जागरूक होकर राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना चाहिये जिससे समान नागरिक संहिता लागू की जाय, 10+2 तक समान शिक्षा लागू हो और मदरसा शिक्षा पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जाए. मंदिरों को सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए, धर्मांतरण पर सख्त केंद्रीय कानून बनाया जाए और पूजा स्थल कानून समाप्त किया जाए. वक्फ बोर्ड कानून में समुचित बदलाव करके इसकी संपत्तियों का स्वामित्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंप कर उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए. अल्पसंख्यक को पुनर्परिभाषित किया जाए और देश की जनसंख्या के 1% से कम जनसँख्या वाले पंथ को ही अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाए. सभी विवादित धार्मिक स्थलों को  उनके धार्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व के आधार पर संबंधित समुदाय को सौंपने के उद्देश्य से एक विशेष आयोग का गठन किया जाय जो निश्चित अवधि में सभी विवादित स्थलों का निपटारा करें. गज़वा ए हिंद के षडयंत्र से निपटने के लिए राष्ट्रांतरण विरोधी सख्त से सख्त कानून बनाया जाए.

सबसे आवश्यक है की हिन्दू समाज की एकजुटता के लिए हर संभव प्रयास किये जाय ताकि एकीकृत और समन्वित शक्ति से राष्ट्र और समाज की रक्षा की जा सके.

~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्र ~~~~~~~~~~~~~~~~~~  

 

 




श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...