सर्वोच्च न्यायालय या अन्यायालय
नूपुर शर्मा
प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की टिप्पणियों ने केवल न्यायपालिका
को ही नहीं, पूरे देश को शर्मसार कर दिया
है. उनकी टिप्पणियों से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा तो गिरी ही, राष्ट्रीय एकता
अखंडता और अस्मिता को जितना नुकसान कट्टरपंथी और जिहादी कई वर्षों में नहीं पहुंचा सके थे, उतना नुकसान इन न्यायाधीशों
ने अपनी अज्ञानता, बड़बोलेपन और निरंकुशता से एक क्षण में कर दिया. इन की
टिप्पड़ियों ने कट्टरता, धर्मान्धता और “सर तन से जुदा” करने वाली मांग पर न्यायिक मुहर
लगा दी. किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से इस तरह की टिप्पणियां
आश्चर्यचकित करने वाली है. इस बात का विश्वास नहीं किया जा सकता कि इन न्यायाधीशों
को यह नहीं मालूम था कि उनकी टिप्पणियों का क्या परिणाम निकलेगा, इसलिए इस बात की
जांच की जानी आवश्यक है कि ऐसा किसी स्वार्थपूर्ति के लिए किया गया या अज्ञानता
बस. दोनों ही परस्थितियों में इन न्यायाधीशों को पद पर बने रहने का नैतिक आधार
नहीं है.
इस घटना ने एक
बार फिर सर्वोच्च न्यायलय और उच्च न्यायालयों में
न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रकिया पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं. जो
न्यायाधीश भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और गैर पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया से चुनकर
आया हो, उससे निष्पक्ष और पारदर्शी न्याय की अपेक्षा करना कितना खतरनाक हो सकता
है, यह इस घटना ने दिखा दिया.
भारत की सामान्य
जनता में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा वैसे
भी धरातल पर हैं और उसका प्रमुख कारण है तारीख पर तारीख और कदम कदम पर भ्रष्टाचार. कहावत है कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता लेकिन अब तो इतना विलंब हो रहा है कि कई बार तो
पीढ़ियां गुजर जाती है और मुकदमा प्रारंभिक सुनवाई से आगे नहीं बढ़ पाता. यह न्याय
नहीं अन्याय की पराकाष्ठा है. भारत में इस
समय कुल लंबित मामले 4.78 करोड़ हैं, इनमें से 1,77,189 मामले 30 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित हैं, और मज़े की बात यह है कि
इनमें से कुछ मामले जेल में निरुद्ध कई लोगों की जमानत के लिए है. कितना दुर्भाग्य
पूर्ण है कि कोई व्यक्ति 30 वर्ष से अधिक समय से जेल में बंद है और उसकी जमानत याचिका पर आज तक
सुनवाई ही नहीं हुई. कुछ लोग जमानत का इंतजार करते करते मर गए और बाकी लोगों की जमानत पर सुनवाई ज़िंदा रहते हो पाएगी, यह भी निश्चित नहीं कहा जा
सकता. उच्च न्यायालयों में इस समय लगभग 60
लाख और सर्वोच्च न्यायालय में 70 हजार से
भी अधिक मामले लंबित हैं. 30 वर्ष से अधिक के जो भी मामले लंबित हैं, उनमें 70
हजार से अधिक मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं. यह सभी सूचनाएं नेशनल
ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड और सर्वोच्च
न्यायलय की वेबसाइट पर उपलब्ध है.
ऐसा लगता है कि सर्वोच्च
न्यायालय को इस सब की परवाह नहीं है. कितने ही मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) आये और चले गए लेकिन न्यायपालिका की गाड़ी पटरी पर
नहीं आ सकी. ऐसा लगता नहीं कि किसी भी मुख्य न्यायाधीश ने लंबित मुकदमों की समस्या से निपटने के लिए कोई रणनीति बनाई हो
और सरकार को उस पर चलने का सुझाव दिया हो. कई मुख्य न्यायाधीश सिर्फ
न्यायाधीशों की कमी का सार्वजनिक रूप से रोना रोते और आंसू पोंछते चले गए. किसी ने
न्यायिक सुधार और न्यायपालिका की जवाबदेही की ना तो बात की और न ही कभी कोई
ठोस सुझाव दिया कि मुकदमों के बढ़ते बोझ को कैसे कम किया जाए और कैसे एक
निश्चित समय सीमा में मुकदमों का निपटारा किया जाय. और तो और किसी भी न्यायाधीश ने आज तक इस बात का
विरोध नहीं किया कि अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन
अवकाश जैसे राजसी ठाठ बाठ का अब क्या
औचित्य है? स्पष्ट है कि अपनी स्वार्थपूर्ति में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च
न्यायालय के न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश भी किसी से पीछे नहीं है.
नूपुर शर्मा
प्रकरण अब भारत में बच्चे बच्चे को पता है. ज्ञानवापी मस्जिद में काशी विश्वनाथ
मंदिर कि अवशेष मिलने के बाद कुछ चरमपंथी मुस्लिम नेता कोई न कोई बड़ा विवाद खड़ा करने का बहाना ढूंढ रहे
थे और जल्द ही उन्हें नूपुर शर्मा के टीवी
डिबेट में मिल गया. बस फिर क्या था तलवारें खिंच गई, देश में मोदी भाजपा विरोधी और विदेशों में भारत विरोधी माहौल बनाया जाने
लगा. भाजपा ने दबाव में आकर नूपुर शर्मा को पार्टी से निकाल दिया लेकिन मामला शांत नहीं होना था तो नहीं हुआ
क्योंकि कट्टरपंथी मांग कर रहे थे कि गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा.
इसके बाद जुमे
की जंग हुई जो कानपुर से होकर प्रयागराज और तमाम शहरों में फैल गई. ऐसा लगता है कि
जैसे कुछ स्वार्थी धार्मिक और राजनैतिक लोग दंगा, फसाद, और गृह युद्ध जैसे हालत बनाने के लिए हमेशा
तैयार रहते हैं और समय समय अपनी तैयारियों का परीक्षण भी करते रहते हैं. आखिर
यह देश संविधान और कानून से चलेगा या
मजहबी कानून और जूनून से. हाल में बहुत सी घटनाएं ऐसी हुई है जिन्हें विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा
उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना देश की एकता अखंडता कायम रखने के लिए लिया
जाना चाहिए था. इसका परिणाम यह निकला कि इस तरह की घटनाएं अब जल्दी जल्दी हो रही
है, और आम होती जा
रही हैं. चाहे केरल में एक व्यक्ति के हाथ काट देने का मामला हो, कमलेश तिवारी की जघन्य और
निर्ममता पूर्वक की गई हत्या का मामला हो
और अब उदयपुर में कन्हैयालाल तेली और अप्म्रवती में उमेश कोल्हे का सर तंग से जुदा
करने की दुस्साहसिक वारदातें, ये सभी केवल कानून और व्यवस्था की शिथिलता का मामला
नहीं, बल्कि कट्टरपंथियों के सामने शिथिल पड जाने का मामला है. उदयपुर की घटना से पहले भी वीडियो पोस्ट किया गया था और उसके बाद भी वीडियो में खून से सने हुए हथियार लहराते हुए न केवल इस
घटना की जिम्मेदारी ली गयी थी बल्कि ये नारा भी बुलंद किया गया था कि गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा. ...
उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को भी चुनौती दी कि उनकी तलवार उनकी गर्दन तक भी
पहुंचेगी. यह सब कट्टरपंथियों के बढ़ते हौसले का परिचायक है, जिसका कारण राजनैतिक
इच्छाशक्ति की शिथिलता और राजनैतिक स्वार्थ के लिए एक वर्ग विशेष की हर अच्छी बुरी
बात का अंध समर्थन करने के साथ साथ सबका विश्वास पाने की तीव्र अभिलाषा भी
है.
नूपुर शर्मा के विरुद्ध विभिन्न राज्यों में
पुलिस में एफआईआर दर्ज की गई हैं और अब यह एक फैशन हो गया है कि राजनीतिक आधार पर
विरोधी दलों या खास दलों का विरोध करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए एफआईआर
दर्ज की जाती है और इस तरह एक ही मामले में पूरे देश भर में सैकड़ों एफआईआर दर्ज हो
जाती है. कानून व्यवस्था और न्यायिक दृष्टि से देखा जाए तो एक ही मामले के लिए
इतनी सारी एफआइआर अलग अलग जगहों पर दायर किया जाना न्यायोचित नहीं है. एफआइआर की
अंतिम परिणति मुकदमा चलाने की होती है ऐसे में एक अपराध के लिए सैकड़ों मुकदमे,
सैकड़ों जगह नहीं चलाये जा सकते. एक मुकदमा तो इस जन्म में खत्म नहीं हो पाता इतने
सारे मुकदमे खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति को कई जन्म लेने पड़ेंगे और जब लोग सर तन से जुदा
करने के लिए पीछे पड़े हो, तो इस व्यक्ति का क्या हाल होगा, यह समझना भी मुश्किल
नहीं.
अपनी जान को
गंभीर खतरे को देखते हुए नूपुर शर्मा ने देश भर में उनके खिलाफ़ दायर की गईं बहुत सारी एफआईआर को एक साथ संयुक्त करके उनकी सुनवाई दिल्ली में की जाने की
सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दी थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई करते हुए
कई टिप्पणियां की जिनका याचिका से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था और दबाव बना कर याचिका इस आपत्ति के साथ वापस
करवा दी, कि इसे उच्च न्यायलय में दाखिल किया जाय. सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश
को यदि यह बात नहीं मालूम कि विभिन्न उच्च न्यायालयों के कार्य क्षेत्र में दायर की गयी एफआईआर के सन्दर्भ में दिल्ली उच्च न्यायलय की कोई भूमिका नहीं तो यह न्यायाधीशों की गुणवत्ता पर
भी प्रश्न खड़े करता है.
न्यायाधीशों ने एक कदम आगे जाते हुए कहा कि अगर आप (नुपुर या
भाजपा) किसी दूसरे के विरुद्ध एफआईआर लिखवाते हैं तो वे तुरंत गिरफ्तार हो जाते
हैं और जब एफआईआर आपके विरुद्ध हुई है तो आपको कोई छूने की हिम्मत क्यों नहीं कर
रहा है. हर एफआईआर पर अगर गिरफ्तारी आवश्यक होती तो कई न्यायाधीश भी नियुक्ति से पहले
जेल पहुंच गए होते. इस तरह की बाते या तो राजनीति प्रेरित व्यक्ति करता है या फिर
बदले की भावना प्रेरित व्यक्ति करता है. इससे बचा जाना चाहिए था. इसी तरह के आरोप तमाम मुस्लिम राजनेता और विपक्षी पार्टियों
के लोग लगा रहे हैं, वही भाषा न्यायाधीशों
की है, जिससे बहुत गलत सन्देश चला गया है और सर्वोच्च न्यायलय की छवि धूल धूसरित
हो गयी है.
सर्वोच्च
न्यायालय ने किसी कानूनी पेचीदगी का जिक्र
नहीं किया केवल व्यक्तिगत पसंद नापसंद के
आधार पर टिप्पणियां की जो बेहद आपत्तिजनक, अपमानजनक, न्यायविरुद्ध, और गैर कानूनी
हैं. कोई भी सामान्य बुद्धि और विवेक का व्यक्ति इस का विश्लेषण कर सकता है और निहातार्थ समझ सकता है. यह
सर्वोच्च न्यायलय की गारिमा की सबसे बड़ी गिरावट है.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
- शिव मिश्रा (responsetospm@gmail.com)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~