मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

कन्यादान को महादान क्यों कहा जाता है?

 संक्षेप में अगर हम समझना चाहें तो-

  • कन्यादान एक अनुष्ठान है, और पाणि ग्रहण एक संस्कार है .
  • विवाह पति-पत्नी के बीच एक वचन वद्धता हैं, जिसमें कन्यादान एक अति महत्वपूर्ण हिस्सा है.

ये तीनों एक साथ ही संपन्न किए जाते हैं लेकिन बिना कन्यादान के न तो पाणि ग्रहण हो सकता है और न ही विवाह.

इसे विस्तार से समझने के लिए हमें काफी पीछे जाना पड़ेगा.

सनातन सभ्यता का जब विकास हो रहा था, उस समय त्रिदेव के आदेशानुसार ऋषि और मुनियों ने समाज के लिए आदर्श आचार संहिता बनाना शुरू किया जिसमें वैज्ञानिक, सामाजिक, चिकित्सीय, तथा मानव मस्तिष्क के विकास के उपायों को समाहित करते हुए उसे धर्म का अभिन्न अंग बनाना शामिल था .

उस समय धर्म का मतलब मजहब नहीं था बल्कि वह समाज के लिए वैज्ञानिक पद्धति की आदर्श आचार संहिता ही होती थी. इस समय सनातन संस्कृति के अलावा न तो कोई धर्म था और न ही कोई संस्कृति. इस आचार संहिता में एक प्रमुख वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पालन किया जाना था जिसके अनुसार

"एक कुल, एक परिवार और एक ही माता पिता की संतानों - पुत्र और पुत्रियों के मध्य शारीरिक संबंध स्थापित नहीं होने चाहिए और विवाह नहीं होने चाहिए क्योंकि इससे रिश्तों की शुचिता और पवित्रता खत्म हो जाने का तो डर था ही, अनुवांशिकीय विकास में यह सबसे विध्वंस कारी हो सकता था."

आज दुनिया के सभी समाज और सभी धर्म इसी परंपरा का पालन करते हैं कुछेक धर्मों ने इसमें शॉर्टकट अपनाए हैं, जिनके परिणामों के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं है, आप स्वयं समीक्षा कर सकते हैं.

विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए मनुष्यों के समूह को कुल या वंश में वर्गीकृत करने का निर्णय लिया गया और इसके लिए बहुत ही वैज्ञानिक विधि का इस्तेमाल किया गया. इसमें ऋषियों को कुल का प्रथम पुरुष बनाया गया था.

इस व्यवस्था के दो स्वरूप प्रस्तावित थे -

१. पितृकुल व्यवस्था और

२. मातृ कुल व्यवस्था

पितृकुल व्यवस्था में पीढ़ी का अंतरण या वंश का अनुगमन पिता के आधार पर किया जाना था, यानी पीढ़ी अंतरण की इकाई पुरुष थी. इस व्यवस्था में इस कुल से पुत्रियों को पृथक किया जाना था ताकि वह दूसरे कुल में विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकें और उस कुल का हिस्सा बन जाए.

मातृ कुल व्यवस्था में पीढ़ी अंतरण माता के आधार पर होना था इसमें पीढ़ी अंतरण की इकाई महिला थी इसलिए पुत्रों को इस कुल व्यवस्था से पृथक किया जाना था ताकि पुत्रियों की तरह वे दूसरे कुल में विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकें और फिर उस कुल का हिस्सा बन जाए.

इन दोनों व्यवस्थाओं में क्रमश: पुरुषों और महिलाओं को टैग किया जाना था और उन्हें पहचान दिया जाना था.

इस के वर्गीकरण के लिए -कुल, गोत्र, जाति, उपजाति, उत्पत्ति, सूक्ष्म समूह, आदि को प्राथमिक डाटा बनाया गया था. अन्य डाटा के लिए जन्म तिथि और समय के अनुसार गणना स्वयमेव कर ली जाती है. यह आज भी प्रचलित है और एक ही गोत्र के लड़का और लडकी के मध्य आज भी विवाह नहीं किया जाता है .

आज विज्ञान जब बहुत उन्नति कर चुकी है तब भी पूरे भूमंडल पर जीव जंतुओं और वनस्पतियों का वर्गीकरण भी इसी व्यवस्था की तरह ही किया जा रहा है . ( डिवीजन, फाइलम, क्लास, सब क्लास, स्पीशीज आदि )

अनुवांशिकीय लक्षणों की स्थानांतरण क्षमता और सामाजिक व्यावहारिकता को देखते हुए पितृकुल व्यवस्था को श्रेष्ठ माना गया और इसे लागू किया गया.

लेकिन प्रायोगिक तौर पर मातृ कुल व्यवस्था को भी सीमित स्वरूप में लागू किया गया जिसमें से ज्यादातर कालांतर में पितृ कुल व्यवस्था में समाहित हो गए.

लेकिन बेहद विचारणीय प्रश्न है कि

  • क्या किसी माता-पिता के लिए अपनी किसी भी संतान को चाहे वह पुत्र हो या पुत्री अपने से पृथक करना और दूसरे कुल का हिस्सा बना देना आसान कार्य है ?
    • नहीं यह बिल्कुल भी आसान नहीं है और कोई भी माता पिता अपने कलेजे के टुकड़े को अलग कैसे कर सकता था ? यह मामला ममत्व का है और बेहद संवेदनशील और भावनात्मक भी है . लेकिन यह संपूर्ण मानव जाति की सुरक्षा और निरंतरता के लिए प्रस्तावित सामाजिक व्यवस्था के अनुपालन हेतु आवश्यक था.
  • इसलिए इसे धार्मिक बनाकर माता पिता के प्रथम कर्तव्य में शामिल करते हुए महादान की संज्ञा दी गई, भाई और बहिन के रिश्ते की पवित्रतास्थापित की गयी.
    • इसे महादान इसलिए कहा गया क्योंकि यह दान की तरह साधारण कार्य नहीं था . यह अपने आप में असाधारण कार्य था जिसे करने के लिए माता और पिता के पास बहुत बड़ी मानसिक शक्ति की आवश्यकता थी और इसलिए कन्यादान या पुत्र दान को बहुत अद्भुत और अद्वितीय बनाते हुए महादान की संज्ञा दी गई.
    • माता पिता को आश्वस्त करने के लिए ही पति और पत्नी के लिए वचनबद्धता बनाई गई जिसे अग्नि को साक्षी बनाकर वचनबद्ध होते हुए विवाह बंधन में बंधने का संस्कार बनाया गया.

कन्यादान की महत्ता को और विस्तार से समझने के पहले हमें पुत्र दान के बारे में जान लेना भी जरूरी है. हमारे देश में कई स्थानों पर अभी भी मातृ कुल व्यवस्था चल रही है जहां कन्यादान की जगह पुत्र दान होता है.

मेघालय में ज्यादातर लोग खासी जनजाति समुदाय से है जहां मातृ कुल व्यवस्था का प्रचलन आज भी है. यहां परिवार की संपत्ति मां के नाम पर होती है और उसकी मृत्यु के उपरांत बेटियों के नाम में स्थानांतरित होती है. बेटियां उसी घर में रहती हैं. शादी में दूल्हे विदा होकर आ जाते हैं और शेष जीवन लड़की के पास रहते हैं .

इसी तरह परिवार के पुत्र भी शादी के बाद विदा होकर अपनी पत्नियों के पास अन्यत्र चले जाते हैं.

यह पूरी परंपरा मुख्य धारा के विपरीत है लेकिन हजारों वर्षों से लगातार चल रही है. मेघालय में इसे राज्य की मान्यता प्राप्त है और संपत्ति का सरकारी दस्तावेजों में हस्तांतरण इसी प्रकार होता है.

अब उदाहरण से समझते हैं कन्यादान की महत्ता और इसे महादान क्यों समझा जाना चाहिए ?

कन्यादान कब से शुरू हुआ इसका बिल्कुल सटीक समय बताना तो संभव नहीं है लेकिन यह सनातन सभ्यता के साथ ही शुरू हो गया था. इसका पता इस बात से चलता है कि भगवान शंकर का सती के साथ विवाह भी इसी पितृ व्यवस्था के अंतर्गत हुआ था, जिनमें सती विवाह के उपरांत शंकर जी के साथ रहने कैलाश आ गई थी.

दक्ष प्रजापति अपनी कन्या सती से बेहद प्यार करते थे और उन्हें यह बिल्कुल भी पसंद नहीं था कि उनकी लाडली बेटी किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करें जिसके पास रहने के लिए न घर हो, न खाने की कोई व्यवस्था हो. उन्होंने सती को समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन वह नहीं मानी. कहते हैं कि अति प्रेम भी मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है इसलिए कभी-कभी यह प्रेम नाराजगी में भी बदल जाता है.

राजा दक्ष अपनी पुत्री सती के शंकर को पति के रूप में वरण के निर्णय से बहुत दुखी थे इसलिए उन्होंने पुत्री और जामाता से लगभग संबंध विच्छेद कर लिए थे. इसलिए जब उन्होंने यज्ञ किया, सती और शंकर को आमंत्रित नहीं किया. सती बिना बुलाए ही पहुंच गई और उसका परिणाम यह हुआ कि उनका और उनके पति का अपमान किया गया. इससे आहत होकर सती ने यज्ञ कुंड में अपने आप को भस्म कर लिया. शंकर जी को पता चला तो उन्होंने यज्ञ का विध्वंस कर दिया और सती का मृत शरीर बाहों में लेकर शोकाकुल और विषाद की की अवस्था में ब्रह्मांड में विचरण करने लगे.

यह पूरे भूमंडल के लिए एक सन्देश था . यह प्रसंग कन्यादान और कन्या के नए कुल में प्रवेश का महत्व दर्शाने के लिए पर्याप्त है जिसके कुछ विचारणीय प्रश्न है -

  • सती अपने पति के अपमान से इतनी व्यथित हो गई कि उन्होंने अपने आप को समाप्त कर लिया, आखिर उनके पति का अपमान करने वाला उन को जन्म देने वाला उनका पिता ही तो था. पति तो दूसरे कुल से संबंधित था. फिर सती ने ऐसा क्यों किया ?
    • इसका कारण है पति पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और संबंधों की मजबूत आधारशिला जो शायद माता-पिता से उसके संबंधों से भी ज्यादा मजबूत है.
  • शंकर ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ और कुछ विध्वंस कर दिया, क्योंकि राजा दक्ष ने उनकी पत्नी सती का निरादर किया था. पर उनकी पत्नी तो राजा दक्ष की बेटी थी, उनको बेटी से नाराजगी जाहिर करने का अधिकार था. फिर शंकर जी ने ऐसा क्यों किया ?
    • शंकर जी का यह कृत्य, पति पत्नी के बीच प्रेम के संबंधों की प्रगाढ़ता को रेखांकित करता है. उनका प्रेम चरम की वह अवस्था है जिसमें वह देवों के देव होने के बाद भी शोकाकुल हो जाते हैं, अवसाद में आ जाते हैं और उनके मृत शरीर को लेकर ब्रह्मांड में भटकने लगते हैं.
  • इस घटना या लीला से से संसार के सभी माता पिता को आश्वस्त होने का सन्देश भी मिला और पुत्री विछोह सहन करने का शक्ति और सामर्थ्य भी मिलता है .

मैंने शंकर जी का उदाहरण इस लिए दिया है कि यह विवाह सनातन सभ्यता के विकास के समय ही हुआ था, जिस समय वेदों की रचना भी नहीं हो पाई थी.

शंकर जी के विवाह का ही दूसरा उदाहरण देखें.

जब शंकर जी का विवाह पर्वतराज हिमालय की बेटी पार्वती के साथ में हुआ. शादी समारोह सब कुछ सामान्य ढंग से हुआ और सबसे बड़ी चीज थी कि पार्वती के पिता पर्वतराज हिमालय ने बहुत खुशी-खुशी कन्यादान किया और इस कारण दोनों परिवारों के बीच में बहुत ही मधुर संबंध बने रहे. न केवल शंकर पार्वती और उनके बेटे, बेटियां बल्कि पार्वती के माता-पिता भी कैलाश पर आते जाते रहे.

इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि कन्यादान का मतलब परित्याग करना नहीं है बल्कि अपनी कन्या को, अपनी लाडली को, सनातन परंपरा के अनुसार दूसरे कुल में स्थापित करना है ताकि न केवल दो कुलों के बीच में संतुलन और सामंजस्य बना रहे बल्कि सनातन सभ्यता की इस वैज्ञानिक पद्धति द्वारा वंश वृद्धि हो और समाज में शुचिता और रिश्तो की पवित्रता कायम रहे.

क्यों प्रश्न उठते हैं कन्यादान पर ?

  • आज के नारी सशक्तिकरण के इस काल में कुछ प्रगतिशील महिलाएं ही कन्यादान पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं. इसका कारण संभवत: यह होता है कि उनको लगता है कि दान सिर्फ वस्तुओं का होता है और ऐसे में उन्हें पुत्री की जगह वस्तु समझकर दान किया जा रहा है, जो उनके साथ अन्याय है. ये विषय के समझ के अभाव में स्वभाविक है .
  • प्रश्न इसलिए भी उठाए जाते हैं क्योंकि कुछ लोग अपने बुद्धि और विवेक के आधार पर ऋषि-मुनियों, और यहां तक कि स्वयं भगवान के आचरण पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं.
  • यह लोग भगवान को भी अपने समकक्ष बना लेते हैं और खुद उनसे भी ज्यादा ज्ञानी बन जाते है। उनके अपने अपने तर्क हैं, जो कुतर्क ज्यादा होते हैं और जिनका कोई उत्तर नहीं हो सकता है.

यह पूरा लेख कई ग्रंथो और भाष्यों पर आधारित है, इसमें अगर कहीं संशोधन की आवश्यकता महसूस हो तो ज्ञानी जन कृपया टिप्पड़ियों में दे जिसे मैं सहर्ष जोड़ दूंगा .

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

क्या भारत बंद एक राजनैतिक षड्यंत्र है?

 

इसे राजनीतिक षड्यंत्र तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन यह किसान आन्दोलन के विरुद्ध एक षड़यंत्र अवश्य है.षड्यंत्रकारी राजनैतिक दल अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल करना चाहते हैं, जिन्हें जनता का कोई भी समर्थन हासिल नहीं है और किसानों की भलाई से तो इनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है.

यह भारत बंद प्राथमिक रूप से भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरोध स्वरूप आयोजित किया गया है क्योंकि जो विपक्षी दल राजनीतिक रूप से नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं वे कोई न कोई ऐसा मौका तलाशते रहते हैं जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से नरेंद्र मोदी के साथ राजनीतिक हिसाब-किताब चुकता किया जा सके.

भारत बंद के बारे में किसानों के साथ साथ विपक्षी दलों को भी आशंका थी कि इसे जनता का समर्थन हासिल नहीं होगा . इसी कारण इस बंद का समय दिन में केवल 11:00 बजे से लेकर 3:00 बजे तक के लिए किया गया है. एसा लगता है कि किसी फिल्म का शो आयोजित किया गया है. बहुत स्पष्ट है कि सुबह का समय ऑफिस जाने वालों के लिए छोड़ दिया हैं और शाम का समय भी आफिस से आने वालों के लिए छोड़ा हैं , अन्यथा उन्हें जनता के सीधे विरोध का सामना करना पड़ता.

ऐसा लगता है कि भारत बंद आयोजित करके विपक्षी दलों के साथ-साथ प्रदर्शनकारी किसान भी फंस गए हैं और अब किसी तरह इसकी औपचारिकता भर पूरी करना चाहते हैं.

दिखावा ही करना था तो अच्छा होता कि भारत बंद के लिए रात 11:00 बजे से सुबह 3:00 बजे का समय चुना गया होता तो यह पूरी तरह से सफल होता और सड़कों पर सन्नाटा होता.
  • अगर हम राज्य वार विश्लेषण करें तो पाते हैं कि प्रत्येक राज्य में बंद का वही समर्थन कर रहे हैं जो या तो राज्य में विपक्ष में है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना दुश्मन मानते हैं.
  • इनमें से भी ममता बनर्जी ने किसानों की मांगों का तो समर्थन किया है लेकिन उन्होंने बंद से किनारा कर लिया है.
  • सत्ताधारी दलों में वाईएसआर कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में, एआईडीएमके ने तमिलनाडु में, बीजू जनता दल ने उड़ीसा में बंद का समर्थन नहीं किया है.
  • तेलंगाना में हैदराबाद निकाय चुनाव में बुरी तरह मात खाने वाली सत्ताधारी टीआरएस ने बंद का समर्थन किया है और यही नहीं टीआरएस के कार्यकर्ताओं ने हैदराबाद में रोजाना ड्यूटी पर जाने वाले लोगों के साथ पुलिस के सहयोग से दुर्व्यवहार भी किया है.
  • जिन राज्यों में बंद का थोड़ा बहुत असर दिखाई पड़ रहा है ये वहीं राज्य हैं जहां पर सत्ताधारी दल नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत हिसाब-किताब चुकता करना चाहते हैं.
  • बिहार में जहां राष्ट्रीय जनता दल और अन्य अनगिनत छोटे-छोटे दलों ने अभी हाल में हार का स्वाद चखा है वे पटना की सड़कों पर हुड़दंग मचा रहे हैं लेकिन न तो स्थानीय दुकानदारों का और ना ही पटरी दुकानदारों का उन्हें समर्थन हासिल है.
  • उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने कल ही प्रेस कांफ्रेंस करके भारत बंद की हवा निकाल डी थी . आज छिटपुट जगहों पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अराजकता फैलाने की कोशिश की जिसे पुलिस ने सख्ती से रोका. ज्यादातर जगहों पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता फोटो खिंचवाते ही दिखे और उनके समर्थन में कोई स्थानीय शामिल नहीं हुआ.
  • भारत बंद का यह अभियान पूरी तरह से विपक्षी नेताओं के कहने से ही आयोजित किया गया था और इस चालाकी को दिल्ली में प्रदर्शन करने वाले किसान संगठन समझ नहीं सके. इसलिए उन्होंने 5 दिसंबर की वार्ता की असफलता के बाद पून: 7 दिसंबर को वार्ता का प्रस्ताव सिर्फ इस आधार पर ठुकरा दिया था कि 8 दिसंबर को भारत बंद आयोजित किया गया है. इसलिए अगली वार्ता 9 दिसंबर को रखी जाए.
  • वास्तव में किसान संगठन पूरे भारत में आंदोलन को मिल रहे समर्थन का मूल्यांकन करना चाहते थे.
निष्कर्ष :
  • अब पूरी तरह से स्पष्ट है कि इस आंदोलन का व्यापक जनसमर्थन नहीं है . इसलिए किसान संगठनो को अपने रुख को लचीला बनाते हुए सरकार से वार्ता में सहयोग करना चाहिए और संदेहास्पद बिंदुओं पर सरकार से स्पष्टीकरण लेना चाहिए और परस्पर सहमति से कानून में संशोधन स्वीकार कर लेना चाहिए.
  • सभी जानते हैं कि भारत में तीन चौथाई किसान बहुत छोटे किसान हैं जिन्हें न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है,और न हीं मंडियों में बिचौलिए होने का कोई अतिरिक्त फायदा होता है. उन्हें केवल प्रधान मंत्री मोदी द्वारा सीधे दिए जाने वाले रु. ६००० बार्षिक मिलते हैं. उनका भरोसा मोदी पर ज्यादा है.
  • पंजाब सहित पूरे भारत के छोटे किसान इस समूचे आंदोलन से बहुत दूर है क्योंकि कुछ बड़े किसान जो मंडियों पर भी काबिज है वही उनके शोषण के प्रमुख कारक हैं. इसलिए इस आंदोलन में ज्यादातर बड़े किसान और बिचौलिए ही शामिल हैं.
  • अब जबकि आन्दोलन रास्ते से भटक गया है, जैसे -जैसे समय गुजरता जाएगा लोगों को पूरी बात समझ में आती जाएगी और इस आंदोलन की धार कुंद होती जाएगी .
  • फिर इस आंदोलन का अंत उसी तरह से होगा जैसे शाहिनबाग आंदोलन का हुआ था केवल समय की बात है .
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श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. ज...