लंका दहन के बीच भारत में विपक्षी
चिंगारी
आर्थिक
संकट के दौर से गुजर रहे श्रीलंका ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का 51 अरब डॉलर का
कर्ज चुकाने में असमर्थता के कारण अपने आप को दिवालिया घोषित कर दिया था. इस समय
श्रीलंका में स्थिति बहुत नाजुक और हालात काबू से बाहर हो गए लगते हैं. राष्ट्रपति
गोतबाया राजपक्षे श्रीलंका से मालदीप और वहाँ से सिंगापुर भाग चुके हैं. देश में व्यापक विरोध प्रदर्शनों
के कारण कर्फ्यू लगा दिया गया है, वहाँ आपात स्थिति पहले से ही लागू है, लेकिन
प्रदर्शनकारी फिर भी राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय घेरे हुए हैं. आजादी
के बाद से श्री लंका के ये अब तक के सबसे खराब और खतरनाक हालात हैं.
श्रीलंका
की आर्थिक संकट का मुख्य कारण सत्ता पर एक परिवार का कब्जा और राष्ट्रीय हितों की
अनदेखी करना है. एक ही परिवार के पास देश के सभी प्रमुख पद थे और इसलिए आर्थिक और
प्रशासनिक फैसलों में बौद्धिक विमर्श और प्रभावी नियंत्रण की कोई गुंजाइश ही नहीं
थी. इस कारण परिवार के एक या कुछ सदस्यों की सोच बिना किसी विशेषज्ञ अनुशंसा के ही
पूरे देश पर लागू की जाती रही जिससे देश के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ते गए. कोरोना
की महामारी ने पर्यटन आधारित इस देश के पर्यटन उद्योग को लगभग ठप कर दिया था जिसके
कारण श्री लंका की आर्थिक स्थिति काफी डांवाडोल हो गई थी और सामान्य जनजीवन
अत्यधिक प्रभावित हो गया था. जनता को आर्थिक तंगी से मुक्ति दिलाने के नाम पर
वाहवाही लूटने के लिए सत्ताधारी परिवार ने लोगों में मुफ्तखोरी की संस्कृति को
बढ़ावा दिया. मुफ्त में लोगों को पैसे बांटने और कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज लेने
से हालात बद से बदतर होने लगे.
लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में सरकार
ने कर की दरों में भी भारी कटौती की थी. इससे हुई राजस्व की क्षति तथा भुगतान
असंतुलन उत्पन्न हुई के कारण वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने श्रीलंका की साख
पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए, जिससे उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से
सस्ते दर पर कर्ज मिलना मुश्किल होता चला गया और इस कारण श्रीलंका वैश्विक पठान चीन
की शरण में गया जहाँ से उसने ऊंची दरों पर बड़ी मात्रा में कर्ज लिया और कर्ज के
जाल में फंस गया.
इससे पहले कृषि मंत्रालय का कामकाज देख रहे परिवार के एक इस सदस्य ने
एक गैर सरकारी संगठन की सिफारिश पर देश में ओर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के अनेक
कार्य किये क्योंकि उसका मानना था कि ऑर्गेनिक खेती से देश बहुत शीघ्र ही समृद्धि
प्राप्त कर सकेगा. जल्दी समृद्धशाली देश बनने का सपना पूरा करने के लिए खेती में
प्रयुक्त होने वाले केमिकल्स और फर्टिलाइजर्स का आयात बंद कर दिया गया ताकि सभी
किसान अनिवार्य रूप ऑर्गेनिक खेती करने लगे. इस कारण अनाज के उत्पादन में भारी
गिरावट आई और देश के आंतरिक उपयोग के लिए खाद्यान्न की भारी कमी हो गई और आर्थिक
संकट के इस दौर में खाद्यान्न आयात करने के लिए भी श्री लंका के पास पैसे नहीं थे.
अनाज की कमी के कारण भूखी श्रीलंका की जनता को सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने के
लिए मजबूर कर दिया.
विदेशी मुद्रा की कमी और आयात बंद हो जाने के कारण उपभोक्ता वस्तुओं
के दाम आसमान छूने लगे और महंगाई अपने चरम पहुँच गयी जिसके कारण सरकार के खिलाफ़
लोगों का गुस्सा बढ़ता चला गया. श्रीलंका अपनी रोज़मर्रा की जरूरत के बहुत सम्मान के
लिए आयात पर निर्भर है, जिसमे खाद्यान्न, पेट्रोलियम पदार्थ और दवाइयां प्रमुख हैं.
विदेशी मुद्रा संकट के कारण न केवल आयात बंद करना पड़ा बल्कि विदेशी कर्ज का भुगतान
भी रुक गया. श्री लंका इसके पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 51 अरब डॉलर का
कर्ज ले चुका है और उस पर चीन का भी बहुत बड़ा कर्ज है. इसके अलावा श्रीलंका ने
एशियन डेवलपमेंट बैंक, जापान सरकार और भारत से भी कर्ज ले रखा है. भारत
ने इस वर्ष श्रीलंका में गंभीर आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए 5 बिलियन अमेरिकी
डॉलर से अधिक का अभूतपूर्व समर्थन दिया है. श्रीलंका सरकार ने स्थानीय बाजार से भी बहुत बड़ी मात्रा में कर्ज ले
रखा है. इन सब कारणों से श्रीलंका के गले में आर्थिक संकट का फंदा कसता चला गया. सरकार
द्वारा किए गए तमाम प्रयासों का कोई नतीजा
नहीं निकला और इसके बाद सरकार ने श्री लंका को दिवालिया घोषित कर दिया.
श्रीलंका में
संकट की आहट इस वर्ष के शुरू से ही मिलने लग गई थी और मार्च आते आते इसकी स्पष्ट
संकेत मिल चुके थे और जनता का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था. इसे देखते हुए
मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे
दिया था. दुनिया के किसी देश में जो नहीं हुआ था वह श्रीलंका में हुआ, जहाँ छोटा भाई राष्ट्रपति था और उसने अपने बड़े
भाई को प्रधानमंत्री मनोनीत कर लिया था. सरकार के सभी प्रमुख मंत्रालय परिवार के
सदस्यों के पास थे. आसानी से समझा जाता है कि देश में संवैधानिक दायित्वों का
निर्वहन कैसे किया जा रहा था. सही अर्थों में अगर देखा जाए तो परिवारवादी राजनीति के
स्वार्थ ने श्रीलंका को चौपट कर दिया और ये भारत की जनता के लिए बहुत बड़ा संदेश है.
श्री
लंका के संकट से विश्व के उन तमाम संगठनों की असलियत भी उजागर हो गई है जो तरह तरह
की रिपोर्ट जारी करके भारत जैसे देशों को
कटघरे में खड़ा करने का स्वार्थ आधारित काम करते हैं. 2020 की मानव विकास दर
में श्री लंका भारत से बेहतर था. श्रीलंका
की स्थान 72 वां और भारत का 132 वां था. विश्व
हैपिनेस इंडेक्स में भी भारत से श्रीलंका
बहुत आगे था और प्रति व्यक्ति आय में भी भारत से बेहतर था. इन आंकड़ों को लेकर भारत
में मोदी सरकार की बहुत आलोचना होती थी जिसमें कांग्रेस और वामपंथी सबसे आगे थे.
कोरोना संकट के समय राहुल गाँधी विश्व
के अनेक अर्थशास्त्रियों से बात कर रहे थे और मोदी सरकार पर दबाव बना रहे थे कि
प्रत्येक जरुरतमंद व्यक्ति के खाते में ₹7500
प्रति माह डाले जाएं जिससे विस्थापित और बेरोजगार हुए लोगों का जीवन यापन भी हो
सके और बाजार में मांग भी बढ़ सके. रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी
उनकी इस मांग का समर्थन किया था. इसके पहले भी 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस
न्याय नाम की एक योजना अपने घोषणापत्र में लाई थी जिसके अनुसार देश के सर्वाधिक
20% गरीब परिवारों को ₹72,000 प्रति परिवार सालाना दिया जाना था यद्यपि कांग्रेस यह नहीं बता सकी थी कि इतना
पैसा कहाँ से लाएगी. सौभाग्य या दुर्भाग्य से कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी
अन्यथा न्याय योजना और कोरोना संकट के समय हर जेब में ₹7500 डालने की योजना से भारत को भी श्रीलंका जैसी स्थितियों से दो
चार होना पड़ सकता था यद्यपि अभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था संकट के साये में है और भारतीय रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले गिरती
जा रही है. आने वाले समय में भारत को वैश्विक कर्ज का भुगतान करना है जिससे रुपये
की कीमत और गिर जाने का खतरा है.
श्रीलंका के
राजनीतिक और आर्थिक हालात से वहाँ गृह युद्ध की आशंका बढ़ती जा रही है और इससे भारत
की चिंता बढ़ गई है। खस्ताहाल आर्थिक स्थिति वाले देशों से नागरिक पड़ोसी देश की
तरफ भागते हैं और अगर ऐसा हुआ तो श्रीलंकाई नागरिको का पलायन भारत में शरणार्थियों
की समस्या के साथ साथ देश की सुरक्षा को भी गंभीर खतरा पैदा करेगा. इसलिए भारत की
चिंता बढ़ती जा रही है यद्यपि भारत के लिए यह श्री लंका से अपने संबंध को पुन
प्रगाढ़ बनाने का अवसर है जिससे उसकी स्थिति हिंद महासागर में और मजबूत हो सकती है
जिससे चीन के इस क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव को रोका जा सकता है. श्रीलंका में हो रहे
प्रदर्शन में भी इस बात की झलक मिलती है कि वहाँ के लोग भारत से अभिभूत हैं और चीन
से खासे नाराज हैं, जिसने श्रीलंका की आर्थिक स्थिति खराब करने में कोई कसर नहीं
छोड़ी.
श्रीलंका
की इस विकट स्थिति के बीच भारत में विपक्ष समर्थित एक अफवाह फैलाई जा रही है कि
भारत की स्थिति भी श्रीलंका जैसी होने वाली है और अब टीवी चैनलों पर इस बात पर बहस
भी लगातार ज़ोर पकड़ती जा रही है. शायद विपक्ष का एक बड़ा वर्ग यह चाहता है कि भारत
की स्थिति श्रीलंका जैसी हो और उस संकट की स्थिति का वह राजनीतिक फायदा उठा सके.
देश ने देखा है कि कोरोना के संकट के समय भी विपक्ष के एक बड़े वर्ग ने अफवाहों के
माध्यम से पूरे देश में असंतोष और अराजकता फैलाने की कोशिश की थी और अस्पतालों की
बदइंतजामी और मरने वालों की संख्या बढ़ा चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश की गई थी
जिससे भारत की छवि को काफी धक्का लगा था.
जहाँ
तक भारत में श्रीलंका जैसी स्थिति का प्रश्न है तो फिलहाल ऐसी किसी स्थिति की
संभावना नहीं लगती है क्योंकि भारत और श्रीलंका की परिस्थितियों में बहुत अंतर है.
श्रीलंका एक छोटा सा देश है और उसकी तुलना में भारत की अर्थ व्यवस्था विविधतापूर्ण
है इसलिए किसी एक क्षेत्र में खराब आर्थिक स्थितियों से पूरे देश की आर्थिक स्थिति
खराब नहीं हो सकती. कहावत भी हैं “साइज
मैटर्स” यद्यपि एक बात बिल्कुल सच है कि भारत के कई राज्य जैसे पंजाब, केरल,
पश्चिम बंगाल, झारखंड, राजस्थान और कर्नाटक, आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं
और इसका मुख्य कारण खराब वित्तीय प्रबंधन और मुफ्त की संस्कृति है, जिससे हर हालत
में छुटकारा पाया जाना चाहिए. फिर भी भारत की आर्थिक स्थिति की किसी भी हालत में
श्रीलंका से तुलना नहीं की जा सकती और निकट भविष्य में भारत ने श्रीलंका जैसी
स्थिति बनने की दूर दूर तक कोई भी आशंका नजर नहीं आती.
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शिव मिश्रा
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