बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

लखीमपुर खीरी की घटना के निहितार्थ

 


लखीमपुर खीरी में घटी घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इस घटना ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि भारत में राजनीतिक हित हमेशा  राष्ट्रीय हितों से हमेशा ऊपर रखे जाते हैं और  राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहां तक कि मानवीय संवेदनाएं भी उनके लिए कोई महत्व नहीं रखती।

 

बताया जाता है कि लखीमपुर खीरी में घटी घटना के पीछे केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा का दिया गया एक तथाकथित विवादास्पद बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि किसानों को सुधार देंगे। बस इसी बात को लेकर स्थानीय किसान नेता उनका विरोध करना चाहते थे और उन्हें काले झंडे दिखाना चाहते थे लेकिन बात इतनी बढ़ गई जिसमें चार  किसान, दो भाजपा कार्यकर्ता, एक मंत्री अजय मिश्रा की गाड़ी का ड्राइवर और एक पत्रकार की मौत हो गई। यह बात सुनने में  तो बहुत साधारण लगती है लेकिन  है नहीं।

 

इस घटना में हुई 8 मौतें  बेहद दुखद है और यह  हिसाब-किताब लगाना कि इसमें कितने किसान थे,  कितने भाजपा के कार्यकर्ता थे और कितने पत्रकार थे, बिल्कुल बेमानी है।  दुर्भाग्य से अपने लाभ के लिए सभी राजनीतिक दलों ने लाशों और मानवीय संवेदनाओं का बंटवारा कर लिया, जिसमें राजनीतिक लाभ मिल सकता था उनके लिए तो धरना प्रदर्शन और राजनीतिक पर्यटन बन गया  लेकिन जिन बातों से  राजनीतिक दलों को कोई फायदा नहीं था वह कहीं चर्चा में भी नहीं आई। बताने  की आवश्यकता नहीं कि घटना में मारे गए एक पत्रकार, ड्राइवर और  भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी राजनीतिक दल ने  न तो कोई संवेदना प्रकट की है और न ही कोई इनके घर पर दिखावे के लिए ही पहुंचा। विशुद्ध हाथरस- कांड के आधार  पर लखीमपुर खीरी में भी राजनीतिक पर्यटन शुरू हुआ और सपा, बसपा, कांग्रेस और आप जैसे दलों ने वोटों के लालच में जो कुछ भी संभव था, सब  किया और इसके लिए सभी मर्यादाओं और मानवाधिकारों को तिलांजलि दे दी।

 

 घटना में मारे गए 4 किसानों के ऊपर कथित रूप से केंद्रीय राज्य  मंत्री अजय मिश्रा के पुत्र आशीष मिश्रा ने गाड़ी चढ़ाकर कुचल दिया था, जिसके बाद  गाड़ी में बैठे दो भाजपा कार्यकर्ता और एक ड्राइवर को तथाकथित किसानों की भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। एक पत्रकार भी इन किसानों के हत्थे चढ़ गया उसे  भी बहुत बेरहमी से पिटाई करके मौत के घाट उतार दिया गया।गाड़ियां फूंक दी  गयीं । यह सब बिना पूर्व तैयारी के  नहीं किया सकता था । इस घटना के संबंध में कई वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुए, लेकिन उन्ही  वीडियो का संज्ञान लिया गया और उनका   दुष्प्रचार किया गया जिससे  सरकार को किसान विरोधी ठहराया  जा सके। एक वायरल वीडियो में ड्राइवर से जबरन यह कहलवाने  की कोशिश की जा रही है कि उसे मंत्री ने अपनी गाड़ी से किसानों को कुचलने के लिए भेजा था  लेकिन एक बेहद गरीब परिवार से संबंध रखने वाले इस ड्राइवर ने यह जानते हुए भी कि उसकी न उसकी मौत का कारण बन सकती है, यह झूठ स्वीकार नहीं किया और फिर उसे बेहद बेरहमी से पीट पीट कर मार डाला गया। इस घटना में मृत  ड्राइवर और पत्रकार दोनों  बेहद गरीब परिवार से संबंध रखते हैं लेकिन राजनीतिक फायदे  की लूट के इस युग में किसी भी राजनीतिक दल ने इन दोनों के घर न तो  जाना उचित समझा और ना ही उनकी मौत की निंदा की क्योंकि वोटों का फायदा तथाकथित  किसानों के साथ खड़े होने में  ही है

 

                                           

                                                 ( बेहतरीन अदाकारी के क्षण )

कांग्रेस की  प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी दोनों ने ही लखीमपुर खीरी को हाथरस बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हास्यास्पद नाटकीयता का पर्याय बने सिद्धू ने  दोषियों की गिरफ्तारी न होने तक आमरण अनशन शुरू  कर दिया। कांग्रेस ने यहां दलित कार्ड खेलने की भी भरपूर कोशिश की। राहुल के साथ तो पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भी साथ गए और उन्होंने घटना में मारे गए किसानों के लिए राज्य सरकार की ररफ  ५० लाख रुपये की सहायता राशि की घोषणा की, जो उ.प्र. सरकार द्वारा घोषित ४५ लाख रुपये से ज्यादा है। इसका उद्देश्य पंजाब की राजनीति साधना ज्यादा है ।   उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ में पुलिस द्वारा कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। काग्रेस शासित राजस्थान में भी हनुमानगढ़ जिले में एक दलित की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और नृशंशता की सारी सीमाएं तोड़ते हुए उसके मृत शरीर को उसके घर घर में  परिवार वालों के सामने फेंककर आतंकित किया गया लेकिन इस मामले में हीं कोई राजनीतिक पर्यटन नहीं हुआ और न ही कोई सहयता राशि दी  गयी। स्वाभाविक रूप से यह कार्य स्वयं कांग्रेश स्वयं तो नहीं कर सकती थी, किंतु अन्य विपक्षी दलों ने भी इस मामले में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि वहां निकट भविष्य  में चुनाव नहीं होने हैं। निश्चित रूप से यह भाजपा की राज्य इकाइयों  की कमजोरी है जो इन दोनों ही प्रदेशों की इन घटनाओं को उचित तरीके से जनता के सामने ला भी नहीं सकी। 

 


                                                  ( गिद्ध राजनीति )

लखीमपुर  घटना को सबसे खतरनाक मोड़   देकर   ब्राह्मण ( हिन्दू)  बनाम सिख बनाने की कोशिश की गई क्योंकि इस क्षेत्र में सिखों के साथ  ब्राह्मण भी संख्या में ठीक-ठाक होने के साथ ही राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भी हैं।  अजय मिश्रा के केंद्रीय राज्य मंत्री बनने के बाद से ही उन्हें निशाना बनाना शुरू कर दिया गया था ताकि इस क्षेत्र से उनके मंत्री होने का  राजनीतिक लाभ भाजपा को न मिल सके। चूंकि  उत्तर प्रदेश में चुनाव बहुत नजदीक है, और प्रदेश की जनता योगी आदित्यनाथ की कानून व्यवस्था और माफियाओं के विरुद्ध अपनाई गई नीति से काफी हद तक  संतुष्ट है, इसलिए   सभी राजनीतिक दल योगी की छवि बिगाड़ कर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। इसलिए पिछले काफी समय से लगभग सभी राजनीतिक दलों के निशाने पर योगी और मोदी है। प्रदेश में घटने वाली हर छोटी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को तूल देकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की कोशिश की जाती है ताकि  योगी की छवि को धक्का पहुंचाया जा सके और उनकी सरकार  पर प्रश्न चिन्ह  लगाया जा सके। लगातार  चल रहे किसान आंदोलन का राजनीतिक  उद्देश्य  तो किसी से छिपा नहीं है और उसका लक्ष्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव और बाद में लोकसभा चुनाव ही हैं।

 



                   

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण पूजन का दौर शुरू हुआ था और इसके लिए सभी दलों ने विकरू  कांड में विकास दुबे इन काउंटर  की आड़ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मण विरोधी ठहराने की भरपूर कोशिश की थी। इसके साथ ही सभी दलों ने प्रदेश में  ब्राह्मणों की लगभग 14% जनसंख्या को लुभाने के लिए अनेक वायदों की झड़ी लगा दी है। सपा और बसपा में तो   भगवान परशुराम की मूर्तियां बनवाने में भी आपसी  होड़ है कि कौन कितनी ऊंची मूर्ति बना सकता है और कहां कहां बना सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से भाजपा सहित किसी भी राजनीतिक दल का कोई भी ब्राह्मण और दलित नेता लखीमपुर खीरी कांड में मारे गए शुभम मिश्रा ( ब्राहमण) और श्याम सुंदर (दलित)  के परिवार वालों को सांत्वना देने भी नहीं पहुंचा, मुआबजा तो बहुत दूर की बात है ।

 

 प्रदेश का  प्रबुद्ध वर्ग सबसे ज्यादा इस बात से चिंतित है कि  विधानसभा चुनाव तक उत्तर प्रदेश में होने वाली हर दुर्भाग्यपूर्ण घटना को राजनीतिक रंग दिया जाएगा और अनेक षड्यंत्रकारी घटनाएं भी प्रायोजित की जाएंगी लेकिन इसके बाद भी केंद्र और राज्य सरकार, इस संदर्भ में कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पा रही  हैं।  किसान आंदोलन के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी आंदोलन या विरोध को केवल अनदेखा करने से ही उसका समाधान नहीं हो जाता। इन आंदोलनों को समाप्त करने के लिए कोई न कोई नीतिगत निर्णय लेना होगा और तदनुसार कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी, आखिर कुछ लोगों के संवैधानिक अधिकारों की स्वतंत्रता के नाम पर सामान्य जनता के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। किसान आंदोलन से आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ सामान्य जनता की दैनिक गतिविधियां भी बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। यह बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकता और इससे जनता में सरकार के कमजोर होने का संदेश जा रहा है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा के संदर्भ में न केवल केंद्र सरकार की साख में बट्टा लगा बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के व्यक्तिगत छवि को भी   गहरी चोट पहुंची है।

 

 दुर्भाग्य से  लखीमपुर खीरी में घटी घटना का स्वत संज्ञान लेने वाले और उत्तर प्रदेश सरकार की कार्यप्रणाली पर असंतोष प्रकट करने वाले सर्वोच्च न्यायालय  भी किसान आंदोलन के संबंध में अब तक कोई न्यायोचित  निर्णय नहीं दे सका है और इस कारण आर्थिक नुकसान के अलावा सामान्य जनता के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार भी बाधित हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने संसद द्वारा  पारित तीनों किसान कानूनों पर रोक लगाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं किया है इससे ऐसा लगता है कि न्यायालय सरकार पर तो बड़ी आसानी से चाबुक चला सकता है, तीखी टिप्पणियां कर सकता है लेकिन आंदोलनकारियों के विरुद्ध कोई भी सख्त  निर्णय देने में डरता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसा ही कुछ शाहीनबाग मामले में भी  किया गया था। देश की निचली अदालतों ने  जनता के  एक बहुत बड़े वर्ग का विश्वास पहले ही खो दिया है। उच्च न्यायालय भी उसी रास्ते पर  हैं लकिन  जनता का  विश्वास  अभी भी  सर्वोच्च न्यायालय पर है। अब   यह आशंका बलवती हो रही है कि यह विश्वास भी बहुत जल्दी न टूट जाए। पश्चिम बंगाल में चुनाव उपरांत हुई हिंसा, बलात्कार और आगजनी के मामले लगभग वैसे ही  थे जो देश के विभाजन के समय हुए  थे लेकिन दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय ने इनका स्वत: संज्ञान नहीं लिया इसके विपरीत पश्चिम बंगाल की सरकार से संबंधित कई मुकदमों से  पश्चिम बंगाल से संबंध रखने वाले न्यायाधीशों ने अपने आप को  अलग कर लिया। इसके क्या मायने हो सकते हैं, समझना मुश्किल नहीं । इससे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को अपूरणीय  क्षति पहुंची है और कम से कम प्रबुद्ध वर्ग में न्यायालय के प्रति सम्मान की भावना को गहरा आघात लगा है ।

 

गोरखपुर के मनीष हत्या कांड के बाद लखीमपुर खीरी और उसके बाद कुछ और........। इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का  उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव तक राजनीतिक प्रस्तुतीकरण किया जाता रहेगा। यह भी हो सकता है कि कुछ घटनाओं का मंचन और प्रायोजन भी किया जाए। इस संदर्भ में सरकार को अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है और यह सुनिश्चित करना राज्य सरकार का दायित्व भी है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए प्रदेश  को रंगमंच के रूप में प्रयोग करके प्रदेश की जनता को अनावश्यक परेशान न किया जाए।

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                                        - शिव मिश्रा 

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