बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

गोरखपुर हत्याकांड - पुलिस का क्रूर और अमानवीय रूप

 



गोरखपुर एक होटल में तलाशी के दौरान पुलिस की पिटाई के कारण वहां ठहरे एक व्यापारी की  मौके पर हुई मौत ने   पुलिस का वीभत्स चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया है.  व्यापारी गोरखपुर के  रामगढ़ ताल क्षेत्र के एक होटल में ठहरा था और पुलिस  उस होटल में तलाशी के लिए गई हुई थी. तलाशी लेने का कोई वैध कारण अभी तक किसी को समझ में नहीं आया है. कोई इसकी   कल्पना भी नहीं कर सकता है कि तलाशी के दौरान ऐसा क्या हुआ कि पुलिस को इस हद तक व्यापारी की पिटाई करनी पड़ी कि उसकी मौके पर ही मौत हो गई.  

इस घटना ने प्रदेश का राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया और विपक्ष ने हाथो हाथ इस मुद्दे को लपक लिया और फिर सियासी गतिविधियों का दौर शुरू हो गया. यद्यपि मुख्यमंत्री योगी  ने संवेदनशीलता को समझते हुए मामले को गोरखपुर से बाहर कानपुर स्थानांतरित कर दिया जहां व्यापारी का परिवार रहता है. जांच के लिए उच्च स्तरीय पुलिस दल गठित कर दिया गया है और घटना में शामिल सभी पुलिस वालों के विरुद्ध हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया है. मृतक की पत्नी को ₹50 लाख की सहायता राशि के अलावा कानपुर विकास प्राधिकरण में विशेष कार्य अधिकारी की नौकरी भी दी गई है. इस तरह विपक्ष द्वारा पूरे मामले को सियासी रंग देने के प्रयासों की हवा जरूर  निकल गई है लेकिन यक्ष प्रश्न है कि एसा हुआ क्यों?

 

 इस घटना ने जहां पुलिस सुधारों की अत्यंत पुरानी मांग को एक बार फिर से तरोताजा कर दिया है. जब भी कभी पुलिस द्वारा इस तरह की क्रूर, असंवेदनशील और अमानवीय घटनाओं को अंजाम दिया जाता है चारों तरफ पुलिस सुधारों की बातें होने लगती हैं . और फिर ऐसा लगने लगता है कि जैसे पुलिस का यह रवैया सिर्फ पुलिस सुधारों को लागू न होने के कारण है जो बिल्कुल भी सही नहीं है. आज भी पूरे भारत में पुलिस का रवैया वही है जो अंग्रेजों के जमाने में हुआ करता था.  यह भी हो सकता है कि सभी पुलिस वालों के लिए अंग्रेजों की समय वाली पुलिस एक आदर्श और स्वयं सुखदाई स्थिति हो लेकिन आज के लोकतांत्रिक परिदृश्य में इस तरह की पुलिस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता.

 

 


                             (गोरखपुर के गुनाहगार )

आखिर ऐसा क्यों होता है कि पुलिस बल  लुटेरे और हत्यारों के रूप  में सामने आता है. इसके कई कारण स्पष्ट है जिन पर प्रहार करके फौरी तौर पर पुलिस की स्थिति को काफी हद तक सुधारा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक कारणों से कोई भी सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती है और इस तरह पुलिस का भयावह चेहरा जस का तस है. आइए इस पर चर्चा करते हैं कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे पुलिस व्यवस्था में तुरंत कुछ सुधार किया जा सके.

 

 उत्तर प्रदेश सहित किसी भी राज्य की पुलिस अपने काम के प्रति न तो पूरी तरह समर्पित है और न ही दक्ष. इसका सबसे बड़ा कारण है पुलिस में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार और जब कभी इसे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है, यह अपने चरम पर पहुंच जाता है जैसा कि हमने अभी मुंबई पुलिस के संदर्भ में देखा जहां  किसी विशेष व्यक्ति को जेल में डालने के लिए पुलिस राजनीतिक इशारों पर नाचते हुए कुछ भी कर सकती है और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी पुलिस व्यवस्था द्वारा राजनीतिक मांग पर मासिक  लक्ष्य  बनाकर वसूली की जाती है, लोगों की हत्या और अपहरण किए जाते हैं. ऐसी पुलिस व्यवस्था जनता के लिए सहायक नहीं आतंक से भी बदतर  है और इसी कारण सामान्य जनमानस पुलिस से बचकर रहने की हर संभव कोशिश करता है.

 

 जनता में पुलिस की भूमिका आज भी खलनायक की ही है. मजेदार बात यह है कि पुलिस की यह भ्रष्ट व्यवस्था इतनी लचीली है कि वह किसी भी राजनीतिक दल की सरकार के साथ सामंजस्य बना लेती है और उसके अनुरूप कार्य करने लग जाती है, लेकिन ऐसा करने में उसके अपने हित सबसे पहले होते हैं और राजनीतिक दल के साथ साथ उन्हें भी अपनी जेब  भरने की खुली छूट मिल जाती है. शायद इसीलिए कोई भी सरकार न तो पुलिस सुधार की दिशा में कोई कदम उठाती है और न ही पुलिस के विरुद्ध कोई सख्त कार्यवाही करती है. पुलिस सुधार  की बात भी ज्यादातर सेवा निवृत पुलिस अधिकारी ही करते हैं  जिन्होंने अपने कार्यकाल में इस दिशा में कुछ नहीं किया.  कुल मिलाकर आजादी के बाद से अब तक " चलता है" का  राजनीतिक रवैया बना हुआ है और इसी कारण अंग्रेजों की पुलिस और आज की पुलिस में कोई बहुत अंतर नजर नहीं आता जो कुछ सुधार नजर आता भी है वह सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और सक्रियता के कारण ही है. जब कभी कोई सरकार थोड़ी बहुत सख्ती  करती है उसका भी थोड़ा बहुत असर पुलिस की  कार्यप्रणाली पर परलक्षित होता है.

 

पुलिस की  मुख्यतय: दो  समस्याएं हैं - एक पुलिसकर्मियों के व्यक्तिगत आचरण और दूसरा अनवरत  भ्रष्टाचार. इन दोनों के कारण ही  पुलिस  प्रोफेशनल नहीं हो पाती बल्कि स्वयं राजनीतिक गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई जनता के शासक बनने का प्रयास करती रहती है. जब पूरा  तंत्र भ्रष्टाचार से लाभान्वित हो रहा तो   कोई नियंत्रण प्रणाली भी विकसित नहीं हो सकती और जिससे पुलिस की निरंकुशता बढ़ना  बहुत स्वाभाविक है. 

 

पुलिस में कम अवधि में व्यापक सुधार के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की अत्यंत आवश्यकता है और तभी निम्नलिखित परिवर्तन पुलिस व्यवस्था में किया जा सकता है.

 

 अंग्रेजो  के जमाने से लेकर आज भी पुलिस में सिपाही के लिए शैक्षणिक योग्यता केवल हाई स्कूल रखी गई है जो आजकल के वैश्विक परिवेश में लगभग अनपढ़ होने जैसी है. सेना और अर्धसैनिक बलों में  तो यह एक बार फिर भी स्वीकार्य है लेकिन पुलिस बल के लिए जिसका दिन-रात जनता से संपर्क होता हो, यह शैक्षणिक योग्यता बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है. अतः सरकार को सिपाहियों की भर्ती के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता स्नातक कर देना चाहिए, और इस कारण भर्ती की न्यूनतम और अधिकतम आयु में परिवर्तन किया जा सकता है. ट्रेनिंग में व्यवहार विज्ञान का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए और इसके साथ ही सिपाहियों के लिए आकर्षक करियर के लिए वर्तमान प्रमुख व्यवस्था में परिवर्तन करना  होगा. ट्रेनिंग व्यवस्था में शारीरिक दक्षता के अलावा अन्य विषयों की ट्रेनिंग को पूरी तरह से आउट सोर्स किया जाना चाहिए जिससे पूरे तंत्र में नए विचारों का संचार हो सके और उन्हें मालूम हो सके कि समाज के लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं और उनसे क्या अपेक्षा रखते हैं. सक्षम और उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सिपाहियों को सेवा निवृत्ति तक पुलिस अधीक्षक पद तक पहुंचने में कोई भी बाधा नहीं होनी चाहिए. इस कारण उनका मनोबल ऊंचा रहेगा, उनकी सोच का दायरा विस्तारित होगा. उपनिरीक्षक जैसे पद सीधी भर्ती के बजाय प्रोन्नति के आधार पर भरे जाने चाहिए और अगर यह संभव ना हो तो कम से कम 50% पद प्रोन्नति के आधार पर भरने के लिए आरक्षित होने चाहिए. प्रोन्नत की यही व्यवस्था राज्य और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर भी लागू होनी चाहिए. किससे न केवल तंत्र में गति मिलेगी बल्कि पुलिस कर्मियों की कर्तव्य परायणता में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होगी.

-    पुलिस तंत्र का सबसे पुराना और लगभग लाइलाज हो चुका मर्ज है भ्रष्टाचार जो अंग्रेजों के जमाने से आज तक न केवल बरकरार है बल्कि नित  नए आयाम स्थापित कर रहा है. ऐसे पुलिसकर्मी उंगलियों पर गिनने लायक होंगे जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं होगे.  भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाही के दायरे में आए कई पुलिस अधिकारियों से मिले तक चौंकाने वाले हैं. कई अधिकारी केवल पांच से दस  साल सेवाकाल  में हजारों करोड़ की  संपति के मालिक  हैं. उत्तर प्रदेश में ही कई बड़े पुलिस अधिकारी, जिन पर भ्रष्टाचार और संगीन अपराधों के आरोप हैं,  फरार घोषित किए गए हैं, क्योंकि उ.प्र. की  दक्ष पुलिस उन्हें पकड़ने में असहाय है. कई पुलिस अधिकारियों पर आतंकवादियों के साथ सांठगांठ के आरोप प्रमाणित हुए हैं. इस दिशा में भी अत्यंत सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है.

प्रत्येक सीधी भर्ती के पदों पर, समुचित संख्या में कर्मियों की भर्ती करके प्रतीक्षा सूची बना ली जाए. भर्ती के विज्ञापन में स्पष्ट तौर पर इसकी घोषणा की जाए कि यह भर्ती प्रतीक्षा सूची बनाने के लिए है जिसे भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त किए जाने के बाद समायोजित की जाएगी. शुरुआत में यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है क्योंकि मोटे तौर पर एक तिहाई पुलिस तंत्र भ्रष्टाचार में गंभीर रूप से जकड़ा  हुआ है, इनमें से   बड़ी संख्या में ऐसी कर्मी  है जिन्हें तुरंत निकाल बाहर करने की आवश्यकता है . इससे न केवल भ्रष्ट कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा वरन  दूसरे पुलिस कर्मियों को भी उदाहरण पेश किया जा सकेगा. एक बात हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा ऐसा कवच है जो कर्मचारियों की उत्पादकता घटाता है और उन्हें भ्रष्ट रास्ते पर जाने के लिए प्रेरित करता है इसलिए सेवा शर्तों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है ताकि अवांछित और सिफारिश के आधार पर आए अक्षम  कर्मियों को बिना समय गवाएं  निकाल बाहर किया  जा सके.

 

इस तरह पुलिस व्यवस्था में तुरंत परिवर्तन दिखाई पड़ने लगेगा और इसके बाद व्यवस्थित रूप से व्यापक विचार-विमर्श के बाद पुलिस या अन्य तरह के सुधार किए जा सकते हैं.

 

यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि  जैसे खरबूजा  को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, विभिन्न विभाग भी इसी तरह भ्रष्टाचार की चपेट में आते हैं. अन्य विभाग जहां जनता का सबसे अधिक कामकाज पड़ता है वहां के भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए.   उत्तर प्रदेश में इस तरह के  विभागों की पहचान मुश्किल नहीं है, - परिवहन विभाग, रजिस्ट्री ऑफिस, तहसील / कचहरी आदि इसके निकृष्टतम  उदाहरण है.   इन विभागों में पासपोर्ट कार्यालय में अपनाई जाने वाली आउटसोर्सिंग सहित  इस तरह के परिवर्तन तुरंत किए जाने की आवश्यकता है अन्यथा भ्रष्टाचार पर शायद कभी भी लगाम नहीं लगाई जा सकती.

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                             - शिव मिश्रा 



 

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