गोरखपुर एक होटल में तलाशी के दौरान पुलिस की पिटाई के कारण वहां ठहरे एक व्यापारी की मौके पर हुई मौत ने पुलिस का वीभत्स चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया है. व्यापारी गोरखपुर के रामगढ़ ताल क्षेत्र के एक होटल में ठहरा था और पुलिस उस होटल में तलाशी के लिए गई हुई थी. तलाशी लेने का कोई वैध कारण अभी तक किसी को समझ में नहीं आया है. कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता है कि तलाशी के दौरान ऐसा क्या हुआ कि पुलिस को इस हद तक व्यापारी की पिटाई करनी पड़ी कि उसकी मौके पर ही मौत हो गई.
इस घटना ने प्रदेश का
राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया और विपक्ष ने हाथो हाथ इस मुद्दे को लपक लिया और फिर
सियासी गतिविधियों का दौर शुरू हो गया. यद्यपि मुख्यमंत्री योगी ने संवेदनशीलता को समझते हुए मामले को गोरखपुर
से बाहर कानपुर स्थानांतरित कर दिया जहां व्यापारी का परिवार रहता है. जांच के लिए
उच्च स्तरीय पुलिस दल गठित कर दिया गया है और घटना में शामिल सभी पुलिस वालों के
विरुद्ध हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया है. मृतक की पत्नी को ₹50 लाख की सहायता राशि के
अलावा कानपुर विकास प्राधिकरण में विशेष कार्य अधिकारी की नौकरी भी दी गई है. इस
तरह विपक्ष द्वारा पूरे मामले को सियासी रंग देने के प्रयासों की हवा जरूर निकल गई है लेकिन यक्ष प्रश्न है कि एसा हुआ
क्यों?
इस घटना ने जहां पुलिस
सुधारों की अत्यंत पुरानी मांग को एक बार फिर से तरोताजा कर दिया है. जब भी कभी
पुलिस द्वारा इस तरह की क्रूर, असंवेदनशील और अमानवीय घटनाओं को अंजाम दिया जाता है चारों
तरफ पुलिस सुधारों की बातें होने लगती हैं . और फिर ऐसा लगने लगता है कि जैसे
पुलिस का यह रवैया सिर्फ पुलिस सुधारों को लागू न होने के कारण है जो बिल्कुल भी
सही नहीं है. आज भी पूरे भारत में पुलिस का रवैया वही है जो अंग्रेजों के जमाने
में हुआ करता था. यह भी हो सकता है कि सभी पुलिस वालों के लिए
अंग्रेजों की समय वाली पुलिस एक आदर्श और स्वयं सुखदाई स्थिति हो लेकिन आज के
लोकतांत्रिक परिदृश्य में इस तरह की पुलिस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता.
(गोरखपुर के गुनाहगार )
आखिर ऐसा क्यों होता है कि पुलिस बल लुटेरे और हत्यारों के रूप में सामने आता है. इसके कई कारण स्पष्ट है जिन
पर प्रहार करके फौरी तौर पर पुलिस की स्थिति को काफी हद तक सुधारा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक कारणों से
कोई भी सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती है और इस तरह पुलिस का भयावह
चेहरा जस का तस है. आइए इस पर चर्चा करते हैं कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे
पुलिस व्यवस्था में तुरंत कुछ सुधार किया जा सके.
पुलिस की
मुख्यतय: दो समस्याएं हैं - एक
पुलिसकर्मियों के व्यक्तिगत आचरण और दूसरा अनवरत
भ्रष्टाचार. इन दोनों के कारण ही
पुलिस प्रोफेशनल नहीं हो पाती
बल्कि स्वयं राजनीतिक गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई जनता के शासक बनने का प्रयास
करती रहती है. जब पूरा तंत्र भ्रष्टाचार
से लाभान्वित हो रहा तो कोई नियंत्रण
प्रणाली भी विकसित नहीं हो सकती और जिससे पुलिस की निरंकुशता बढ़ना बहुत स्वाभाविक है.
पुलिस में कम अवधि में व्यापक सुधार के लिए
दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की अत्यंत आवश्यकता है और तभी निम्नलिखित परिवर्तन पुलिस
व्यवस्था में किया जा सकता है.
-
पुलिस तंत्र का सबसे पुराना और लगभग लाइलाज हो
चुका मर्ज है भ्रष्टाचार जो अंग्रेजों के जमाने से आज तक न केवल बरकरार है बल्कि
नित नए आयाम स्थापित कर रहा है. ऐसे
पुलिसकर्मी उंगलियों पर गिनने लायक होंगे जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं होगे. भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाही के दायरे में आए
कई पुलिस अधिकारियों से मिले तक चौंकाने वाले हैं. कई अधिकारी केवल पांच से
दस साल सेवाकाल में हजारों करोड़ की संपति के मालिक हैं. उत्तर प्रदेश में ही कई बड़े पुलिस अधिकारी,
जिन पर भ्रष्टाचार और संगीन अपराधों के आरोप हैं, फरार घोषित किए गए हैं, क्योंकि उ.प्र. की दक्ष पुलिस उन्हें पकड़ने में असहाय है. कई
पुलिस अधिकारियों पर आतंकवादियों के साथ सांठगांठ के आरोप प्रमाणित हुए हैं. इस
दिशा में भी अत्यंत सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है.
प्रत्येक सीधी भर्ती के
पदों पर, समुचित संख्या
में कर्मियों की भर्ती करके प्रतीक्षा सूची बना ली जाए. भर्ती के विज्ञापन में
स्पष्ट तौर पर इसकी घोषणा की जाए कि यह भर्ती प्रतीक्षा सूची बनाने के लिए है जिसे
भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त किए जाने के बाद समायोजित की जाएगी. शुरुआत
में यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है क्योंकि मोटे तौर पर एक तिहाई पुलिस तंत्र
भ्रष्टाचार में गंभीर रूप से जकड़ा हुआ है, इनमें से बड़ी संख्या में ऐसी कर्मी है जिन्हें तुरंत निकाल बाहर करने की आवश्यकता
है . इससे न केवल भ्रष्ट कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा वरन दूसरे पुलिस कर्मियों को भी उदाहरण पेश किया जा
सकेगा. एक बात हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा ऐसा कवच है जो
कर्मचारियों की उत्पादकता घटाता है और उन्हें भ्रष्ट रास्ते पर जाने के लिए
प्रेरित करता है इसलिए सेवा शर्तों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है ताकि अवांछित
और सिफारिश के आधार पर आए अक्षम कर्मियों
को बिना समय गवाएं निकाल बाहर किया जा सके.
इस तरह पुलिस व्यवस्था में तुरंत परिवर्तन
दिखाई पड़ने लगेगा और इसके बाद व्यवस्थित रूप से व्यापक विचार-विमर्श के बाद पुलिस
या अन्य तरह के सुधार किए जा सकते हैं.
यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि जैसे खरबूजा
को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, विभिन्न विभाग भी इसी तरह भ्रष्टाचार की चपेट में आते हैं.
अन्य विभाग जहां जनता का सबसे अधिक कामकाज पड़ता है वहां के भ्रष्टाचार पर भी
अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए. उत्तर प्रदेश में इस तरह के विभागों की पहचान मुश्किल नहीं है, - परिवहन
विभाग, रजिस्ट्री ऑफिस, तहसील / कचहरी आदि इसके
निकृष्टतम उदाहरण है. इन विभागों में पासपोर्ट कार्यालय में अपनाई
जाने वाली आउटसोर्सिंग सहित इस तरह के
परिवर्तन तुरंत किए जाने की आवश्यकता है अन्यथा भ्रष्टाचार पर शायद कभी भी लगाम
नहीं लगाई जा सकती.
***************************
- शिव मिश्रा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें