कृषि कानूनों की वापसी – एक
निराशाजनक अध्याय
कृषि कानूनों की वापसी को लोग भले ही मोदी
सरकार का मास्टर स्ट्रोक कहे लेकिन मुझे तो लगता है कि है कि यह मास्टर स्ट्रोक का
ब्रेन स्ट्रोक है. इन कानूनों की वापसी बेहद निराशाजनक है किंतु वापसी के इस कदम
की आलोचना भी उचित नहीं कही जा सकती.
यद्दपि
संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानून प्रचलन में नहीं थे, क्योंकि इन पर सर्वोच्च
न्यायालय ने रोक लगा रखी थी किन्तु इसके बाद भी इन कानूनों के विरुद्ध संपूर्ण
विपक्ष और तथाकथित किसानों के भेष में देश विरोधी ताकतें भी सक्रिय थी और मोदी सरकार पर लगातार निशाना साध
रही थी. पिछले एक साल से दिल्ली घेरकर बैठे इन चन्द लोगों ने दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोगों का जीना
दूभर कर रखा था और इस क्षेत्र के उद्योगों को माल के आवागमन बाधित होने के कारण
भारी क्षति हो रही थी. इस आंदोलन के कारण देश को कितनी आर्थिक क्षति हुई है इसका
आकलन करना मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि इस आंदोलन ने अंतरराष्ट्रीय जगत में
भारत की छवि को जितनी क्षति पहुंचाई उसकी भरपाई आसानी से नहीं की जा सकती है.
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जो कानून
प्रचलन में ही न हो उनका विरोध हो रहा हो
और उसका अंतरराष्ट्रीय करण किया जा रहा है. इसलिए ऐसे कानूनों को वापस लेने
से भी कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है. फिर भी सरकार के इस काम से देश हित में काम
करने वाले प्रगतिशील बुद्धिजीवियों
को बेहद निराशा हुई है क्योंकि इससे देश
के अधिसंख्य किसानों का लंबी अवधि में बहुत
नुकसान होगा और इसलिए मैं व्यक्तिगत रूप से सरकार के इस कदम का समर्थन नहीं
कर सकता खासतौर से तब जबकि आन्दोलन अपनी मौत मर चुका था.
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इन कानूनों को
वापस लेने के क्या कारण बताये इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मुझे नहीं लगता
है कि सरकार ने यह बिल केवल राजनीतिक दबाव में वापस लिए हैं क्योंकि जो लोग विरोध
कर रहे थे वे इनके वापस होने के बाद भी बीजेपी को वोट नहीं करेंगे और यह बात
बीजेपी भी अच्छी तरीके से समझती होगी.
कानून वापसी के निहातार्थ
इस तथाकथित किसान आंदोलन को हर उस व्यक्ति का
समर्थन मिल रहा था जो व्यक्तिगत रूप से प्रबल मोदी विरोधी था. पूरे विपक्ष सहित
अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ भी इस आंदोलन को न केवल समर्थन कर रहे थे बल्कि उन्हें इसके लिए
धन भी मुहैया करवा रहे थे. ऐसे समय में जब
क्रिस्चियन मिशनरियों द्वारा पंजाब
में बड़े पैमाने पर सिखों का धर्मांतरण किया जा रहा है, इस आंदोलन के कारण पंजाब
और तराई क्षेत्रों में हिंदू और सिख आमने-सामने आ गए, और यही इस आंदोलन को हवा दे रही देश विरोधी ताकतों की सबसे बड़ी उपलब्धि
है.
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है सर्वोच्च न्यायालय
का रवैया जिस पर कोई भी खुलकर नहीं बोल रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने अति सक्रियता
दिखाते हुए तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी किंतु इस आंदोलन के समाधान की दिशा
में एक भी कदम नहीं उठाया. आन्दोलनकारियों द्वारा दिल्ली पहुंचने के रास्तों को अवरुद्ध करने के विरोध में सर्वोच्च
न्यायालय में कई जनहित याचिकायें दायर की गई थीं लेकिन कई मामलों में स्वत: संज्ञान लेने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने
इन जनहित याचिकाओं पर कुछ भी नहीं किया. एक समाधान के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई जिसने तय
सीमा के अंदर अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इसे
देखने के लिए समय नहीं मिल पाया. यह अपने आप में बहुत बड़ा संकेत है कि कृषि
कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के न्यायिक समाधान में उसकी कोई रुचि नहीं है, चाहे दिल्ली सहित तीनों
राज्यों की असंख्य जनता को कितनी ही परेशानी क्यों न हो और राष्ट्रीय राजधानी
क्षेत्र में चल रहे उद्योगों को कितना ही नुकसान उठाना क्यों न उठाना पड़े.
इसके पहले पश्चिम बंगाल में हुई वीभत्स हत्याएं
बलात्कार लूटपाट और आगजनी ठीक वैसे ही थी जैसे विभाजन के समय हुई थी और इसके कारण
हजारों लोग अपना घर बार छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन कर गए लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वत: संज्ञान
लेना तो छोड़ दीजिए जनहित याचिकाओं पर भी
कोई कार्यवाही नहीं हुई. इसके ठीक विपरीत लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा और उसमें
मारे गए 4 किसानों के
मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने, एक एसआईटी गठित की है जिसकी निगरानी दैनिक आधार पर करने के लिए
उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश नियुक्त किए गए हैं और यह ध्यान रखा गया है कि उनकी जड़ें उत्तर
प्रदेश से ना हो. सर्वोच्च न्यायालय ने एसआईटी में भी सीधे नियुक्त आईपीएस के आईजी स्तर के वरिष्ठ अधिकारी शामिल किए हैं, और यह ध्यान रखा है कि वे
उत्तर प्रदेश के निवासी न हो.
सर्वोच्च न्यायालय के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है, संभवत अवमानना की
कार्यवाही के डर से और इसलिए न्यायालय के अत्यंत सम्मान के साथ मुझे यह कहते हुए
खेद है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई
राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर उदासीन रवैया अपनाकर न केवल देश को संकट में डाले
रखा है वरन सरकार को भी अप्रत्यक्ष रूप से संकट में डालने का काम किया है.
न्यायालयों की कार्यप्रणाली की यह एक नई
शुरुआत है. इसके पहले शाहीन बाग के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने
आंदोलनकारियों से सड़क खाली कराने का आदेश
देने के बजाय मध्यस्थ वार्ताकार नियुक्त कर
दिए थे, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला था.
ऐसे में सरकार के पास इन कानूनों को वापस लेने
के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचा था. इसलिए सरकार द्वारा इन कानूनों को वापस
लेने की आलोचना करना उचित नहीं है.
कृषि कानूनों के वापस होने
के बाद भी आंदोलन खत्म नहीं होगा
मेरा मानना है और मैंने कई बार यह लिखा भी है कि सरकार द्वारा कृषि कानून वापस लेने के बाद
भी आंदोलन समाप्त नहीं होगा क्योंकि इस
आंदोलन का उद्देश्य किसानों का हित तो केवल दिखाव़ा है असली उद्देश्य राजनीतिक है. इसलिए किसी न
किसी बहाने आंदोलन को न केवल 2024 तक जिंदा रखने की कोशिश
की जाएगी बल्कि नए नए मुद्दे भी शामिल किए जाते रहेंगे. आंदोलनकारियों के ताजा रुख से यह बिल्कुल स्पष्ट भी हो गया है. उन्होंने इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य
को कानूनी रूप देने, स्वामीनाथन आयोग
की रिपोर्ट अक्षरस: लागू करने, किसानों के सभी मुकदमे वापस लेने, आंदोलन के दौरान किसी भी
कारणवश मृत किसानों को शहीद का दर्जा देने
और उचित मुआवजा देने की मांगे शामिल कर ली हैं. किसान नेता राकेश टिकैत ने तो यह
भी मांग कर डाली है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कृषि
क्षेत्र के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार से जो मांगे की थी वे भी लागू की जाए
क्योंकि अब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. वास्तव में यह बेतुकी मांग तो कांग्रेश ने की थी जिसे टिकैत
दोहरा रहे हैं.
अगर सरकार ये
सभी नई मांगे मान लें तो भी आंदोलन वापस नहीं होगा क्योंकि तब वे संशोधित नागरिकता कानून की वापसी की मांग करेंगे
और अगर वह भी मान ली जाती है तो फिर धारा 370 की वापसी की मांग करेंगे. इस तरह मांगों का अंतहीन सिलसिला चलता रहेगा.
आंदोलन को लंबा खींचने के
लिए सरकार भी जिम्मेदार
सरकार ने आवश्यकता से अधिक लचीला रुख अपनाया
जिससे आंदोलनकारियों के हौसले बढ़ते गए और उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि वह
कुछ भी करें सरकार उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करेगी. इसका परिणाम 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज
के अपमान, लाल किले पर एक
धर्म विशेष का झंडा फहराने और दिल्ली में अराजकता फैलाने के रूप में सामने आया.
जांच में विदेशी साजिश का पर्दाफाश हुआ और सरकार के पास कार्यवाही करने का पर्याप्त आधार
था. ज्यादातर आंदोलनकारियों ने स्वयं को इस अराजक होते आंदोलन से अलग कर
लिया था लेकिन सरकार ने जरूरत से ज्यादा सहिष्णुता का परिचय देकर इस आंदोलन को
जीवनदान दे दिया.
न्यूनतम समर्थन मूल्य
समस्या का हल नहीं
किसान नेताओं द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य को
कानूनी जामा पहनाने की मांग मानना किसानों और देश के हित में बिल्कुल भी नहीं है.
इससे अर्थव्यवस्था को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य के
नीचे खरीदारी नहीं की जा सकेगी इसलिए
बाजार भाव समर्थन मूल्य से नीचे आने पर खरीदारी बंद हो जाएगी. इससे कमोडिटी बाजार ध्वस्त
हो जाएगा और कोई भी व्यापारी नुकसान होने
के डर से स्टॉक नहीं करना चाहेगा. यह एक
ऐसी स्थिति होगी जब कृषि उपज या तो महंगी बिकेगी या फिर बिकेगी ही नहीं. इस सब का असर किसानों और सामान्य उपभोक्ताओं पर
पड़ेगा. इसलिए सरकार को न्यूनतम समर्थन
मूल्य की बजाय किसानों की आय बढ़ाने के अन्य उपाय करने चाहिए.
राजनीतिक नफा नुकसान
किसान आंदोलन से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले राज्य उत्तर
प्रदेश और पंजाब हैं. जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है वहीं पंजाब में
उसका कोई बहुत बड़ा आधार नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई के कुछ इलाके इससे
प्रभावित हैं जहां पिछले चुनाव में भाजपा को भारी सफलता मिली थी. कृषि कानूनों की वापसी के कारण यहां भाजपा को
संभावित नुकसान से कुछ राहत अवश्य मिलेगी. राष्ट्रीय लोक दल जिसका जनाधार पश्चिमी
उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक ही सीमित है, का समाजवादी पार्टी के साथ घोषित गठबंधन है किंतु सीटों के
बंटवारे को लेकर मतभेद है. अब इस बात की
प्रबल संभावना है कि जयंत चौधरी अपना भविष्य
सुरक्षित करने के उद्देश्य से भाजपा के पाले में जा सकते हैं . इससे भाजपा को फायदा भले ही न हो लेकिन
समाजवादी पार्टी को नुकसान अवश्य होगा.
पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेश छोड़ने
के बाद नई पार्टी बनाने का ऐलान किया था
और इस बात की संभावना जताई थी कि यदि
सरकार कृषि कानून वापस लेती है या उनमे
समुचित बदलाव करती है तो वह भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं. कृषि कानून
लागू होने के बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए शिरोमणि अकाली दल पंजाब में भाजपा से
अलग हो गया था लेकिन उसे न माया मिली न राम तो उन्होंने मायावती से गठबंधन कर
लिया. जिसका बहुत फायदा होता नजर नहीं
आता, इसलिए अब इस बात की भी संभावना है कि
अकाली दल फिर से भाजपा के साथ गठबंधन
पर विचार करें. यदि भाजपा, कैप्टन
अमरिंदर सिंह और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन मिलकर चुनाव लड़ता है तो यह गठबंधन
पंजाब में नई सरकार बना सकता है. कृषि कानूनों की वापसी ने इसकी जमीन तैयार कर दी है.
कृषि कानूनों की वापसी ने आंदोलनकारी नेताओं के
पैरों से जमीन खींच ली है और विपक्ष भी मुद्दा विहीन हो गया है. गुरु नानक जयंती के
अवसर पर इन कानूनों को वापस लेना भी एक बहुत बड़ा संदेश है, जिससे पंजाब में भाजपा के
विरुद्ध सिखों का रोष कम होगा और हरियाणा
में भी सरकार के खिलाफ असंतोष कम हो सकेगा.
जहां तक कृषि सुधारों से संबंधित नए कानून बनाने का का प्रश्न है, हमें याद रखना चाहिए कि
मोदी एक गंभीर राजनेता है और वह देश और किसानों के हित में किसी
महत्वपूर्ण मुद्दे को यूं ही छोड़ देना पसंद नहीं करेंगे. आशा है कि कृषि सुधारों से संबंधित नए कानून सभी संबंधित
पक्षों से व्यापक विचार-विमर्श के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले जरूर आ जाएंगे.
- शिव मिश्रा
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