एक समय था जब भारत में युद्ध और आपदा के समय सत्ता और विपक्ष देश हित में एक साथ खड़े हो जाते थे लेकिन अब समय बदल गया है पहले का सत्ता पक्ष अब विपक्ष में आ गया है, जिसने राजनीति के नियम बदल दिए हैं. अब आपदा में भी अवसर तलाशे जाने लगे हैं . “युद्ध हो या महामारी, राजनीति है जरूरी,” और वह भी बेहद निम्न स्तर की. कुछ राजनीतिक दल मोदी विरोध करते-करते कब राष्ट्र विरोध करने लगते हैं शायद इसका उन्हें पता ही नहीं चलता.
पिछले साल चीनी वायरस के भारत में प्रवेश के साथ ही, राजनीति शुरू हो गई. लॉकडाउन लगाने का विरोध किया गया, ताली और थाली बजाने को लेकर ताने मारे गए, प्रवासी श्रमिकों के विस्थापन को लेकर निम्न स्तरीय राजनीति हुई, उत्तर प्रदेश की सीमा पर 1000 बसें खड़ी करने का फर्जीवाड़ा किया गया, विशेष ट्रेनों से श्रमिकों को भेजने का पूरी तरह राजनीतिकरण किया गया. प्रवासी श्रमिकों के रोजगार और आर्थिक सहायता को लेकर भी अनावश्यक राजनीति की गई.
कोरोना महामारी के इस संक्रमण काल में किसान आंदोलन को लेकर भी खूब राजनीति हुई. पंजाब से शुरू हुए इस राजनीतिक आंदोलन ने दिल्ली की सीमाओं को घेर लिया. मौके की तलाश में बैठे लगभग सभी विपक्षी दलों ने इसे अपना समर्थन दिया और कुछ लोग उनके मंच पर भी जाकर भी बैठे। दिल्ली की सरकार ने तो जैसे पलक पावड़े बिछा दिए और पूरी कैबिनेट सहित अरविंद केजरीवाल ने आंदोलन स्थल पहुंचकर इन तथाकथित किसान नेताओं को तन मन धन से सहायता का आश्वासन भी दिया.
कोरोना वायरस की पहली लहर के प्रबंधन में भारत को विश्व में बहुत सराहना मिली. विश्व में संक्रमण के शुरुआती दिनों में भारत ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सहित विश्व के कई देशों को दवाइयां और अन्य सहायता भेज कर भारत की प्राचीन “वसुधैव कुटुंबकम” संस्कृति का सराहनीय उदाहरण प्रस्तुत किया था .
रिकॉर्ड समय में कोरोना वायरस की दो वैक्सीन बनाकर भी भारत ने विश्व में ख्याति अर्जित की. इसमें एक भारत बायोटेक की को-वैक्सीन पूर्णता स्वदेशी है, लेकिन विपक्षी राजनीति ने इस उपलब्धि को भी देश हित को अनदेखा कर बहुत छोटा बना दिया. वैक्सीन के संदर्भ में अनेक भ्रम उत्पन्न किए गए . कुछ राजनीतिक दलों ने इसे जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ बताया तो कुछ ने इसे भाजपा की वैक्सीन बताया और न लगवाने का ऐलान कर दिया.
वैक्सीन के उत्पादन के सापेक्ष भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए टीकाकरण के लिए एक नीति बनाई गई जिसके अंतर्गत प्रथम चरण में कोरोना योद्धाओं, स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हुए कर्मचारियों तथा सेना एवं अर्धसैनिक बलों का टीकाकरण किया गया . दूसरे चरण में 60 वर्ष और अधिक आयु के लोगों तथा 45 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के ऐसे लोगों को जो गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं, के टीकाकरण का अभियान शुरू किया गया. राजनीति ने उसे भी नहीं छोड़ा. वैक्सीन की गुणवत्ता पर संदेह प्रकट किया गया और प्रश्न किया गया कि मोदी ने वैक्सीन क्यों नहीं लगवाई ? ताकि वैक्सीन की गुणवत्ता पर भ्रम फैलाया जा सके. यह झूठ अभियान तब तक चलाया गया जब तक अपनी बारी आ जाने पर मोदी ने वैक्सीन नहीं लगवा ली. किंतु आज भी कोई नहीं जानता कि सोनिया गांधी ने कहां और कब वैक्सीन लगवाई ? सूत्रों के अनुसार उन्होंने वैक्सीन लगवा ली है. कितना अच्छा होता अगर वह स्वयं आकर सार्वजनिक रूप से यह बताती तो जनता पर न सही लेकिन उनकी पार्टी के लोग तो टीकाकरण के लिए प्रेरित होते.
विपक्ष द्वारा जहां एक ओर वैक्सीन का विरोध किया जा रहा था वही दूसरी ओर मुफ्त वैक्सीन की मांग भी की जा रही थी, यह जानते हुए भी कि टीकाकरण केंद्र सरकार की तरफ से मुफ्त किया जा रहा है. प्राइवेट अस्पताल में जो ₹250 प्रति व्यक्ति लिए जाते हैं वह अस्पताल के लिए निर्धारित शुल्क है लेकिन सरकारी अस्पतालों में यह पूरी तरह निशुल्क है.
कोरोना की दूसरी लहर आने पर विपक्षी दलों ने वैक्सीन के लिए हाय तौबा मचाने शुरू कर दी और कहा कि “यूनिवर्सल वैक्सीनेशन” होना चाहिए यानी सभी नागरिकों को वैक्सीन उपलब्ध कराई जानी चाहिए. यह आरोप लगाया गया कि केंद्र सरकार ने पूरे वैक्सीन कार्यक्रम को हाईजैक कर लिया है. गई कि टीकाकरण का कार्य राज्य सरकारों को सौंप देना चाहिए ताकि वह जल्दी से जल्दी मुफ्त टीकाकरण शुरू करके राज्य के नागरिकों को सुरक्षित कर सकें. सर्वदलीय बैठक के बाद जब राज्य सरकारों को 18 से 45 आयु वर्ग के लोगों के लिए टीकाकरण करने के लिए अधिकृत कर दिया गया तो एक बार फिर राजनीति शुरू हो गई. विपक्षी दलों ने वैक्सीन के मूल्यों को लेकर हंगामा खड़ा कर दिया.
दरअसल सीरम इंस्टिट्यूट पुणे और भारत बायोटेक हैदराबाद दोनों ही भारत सरकार को ₹150 प्रति डोज के हिसाब से वैक्सीन आपूर्ति करते हैं. अब सीरम इंस्टीट्यूट राज्य सरकारों को ₹300 और प्राइवेट अस्पतालों को ₹600 प्रति डोज़ के हिसाब से वैक्सीन की आपूर्ति करेगी. भारत बायोटेक ने राज्य सरकार को ₹400 और प्राइवेट अस्पतालों को रु. 800 प्रति डोज हिसाब से आपूर्ति का प्रस्ताव दिया है. आश्चर्यजनक बात यह है कि इन विपक्षी दलों को वैक्सीन के मूल्य की चिंता नहीं है उन्हें इस बात पर आपत्ति ज्यादा है कि वैक्सीन निर्माता केंद्र सरकार से कम और राज्य सरकारों को ज्यादा मूल्य क्यों ले रहे हैं? मेरा मत है कि सभी वैक्सीन की डोज सरकारी खरीद है, चाहे वह केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार इसलिए मूल्य तो एक ही होना चाहिए. मूल्य में अंतर होने से भारत जैसे देश में जहां जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार होते देर नहीं लगती कहीं ऐसा न हो कि केंद्र सरकार की सस्ती वैक्सीन खुले बाजार में मेडिकल स्टोर पर बिकने लगे.
पूरे विश्व में दवाओं की लागत और उनके मूल्य निर्धारण पर नियंत्रण एक बहुत बड़ी समस्या है. इसलिए बड़े ब्रांड की दवाएं कम लागत के बाद भी बेहद महंगी होती हैं. यह सही है कि वैक्सीन जैसी औषधि में अनुसंधान की कीमत बहुत ज्यादा होती है इसलिए इसका मूल्य निर्धारण इतना आसान भी नहीं है. चीन की वैक्सीन जिसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है, को छोड़कर दुनिया की सभी वैक्सीन भारत भारत में बन रही वैक्सीन से कई गुना महंगी है. उदाहरण के लिए अमेरिका में एक वैक्सीन की कीमत लगभग 19.5 डॉलर आती है.
सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी वैक्सीन यूरोपीय देशों को 2.18 डॉलर ( लगभग डेढ़ सौ रुपए) और दक्षिण अफ्रीका को 5.25 डॉलर ( लगभग ₹400 ) में आपूर्ति की है. इसलिए मूल्यों पर वैक्सीन उत्पादक कंपनियों से बात की जा सकती है.
इस बीच आपूर्ति बढ़ाने और विभिन्न वैक्सीन निर्माताओं के बीच मूल्य प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत सरकार ने रूस की स्पूतनिक V का अनुमोदन कर दिया है इसका मूल्य लगभग ₹1000 है और जब यह भारत में बनाई जाएगी तो इसका मूल्य कम हो जाएगा. प्रधानमंत्री मोदी के आग्रह पर रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने उसकी पहली खेप 1 मई को भेजने का आश्वासन दिया है. विपक्षी दलों के शोर में एक छुपा हुआ कारण यह भी है कि राज्य टीकाकरण की इस कीमत को स्वयं वहन नहीं करना चाहते बल्कि उनकी इच्छा है कि केंद्र सरकार इसे वहन करें. इसलिए मुफ्त में रेवड़ी बांटने वाले राज्यों सहित कई अन्य राज्य सरकारों ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं.
कितना अच्छा होता कि टीकाकरण केंद्र सरकार के निर्देशन में होता और विवादों से परे होता, जिससे उसे जल्दी से जल्दी पूरा किया जा सकता था. देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक गिद्ध दृष्टि से कुछ भी नहीं बख्शा जा रहा है न आपदा, न महामारी और न ही युद्ध जैसी स्थितियां. टीकाकरण भी युद्ध स्तर पर होना चाहिए पर क्या कोई युद्ध ऐसे ही लड़ा और जीता जा सकता है ?
स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले दल को भी ये चिंता नहीं है कि उसकी कुटिल राजनीति से जनता को कितना कष्ट हो रहा है और विश्व में भारत की साख को कितना बट्टा लग रहा है.
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- शिव मिश्रा
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