रविवार, 17 अक्तूबर 2010

दुर्गा पूजा एवं विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें

सर्व बाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुतान्विता .
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न    संशया ..

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         -  शिव प्रकाश मिश्र
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क्षणिकाएं

(१)

प्रेम में     तुम्हारे है
यही मुझसे से अन्तर,
तुम  देखते हो   बाहर
मै देखता  हूँ अन्दर ..


(२)

एक बस कंडेक्टर ने
टिकेट बनाने में किया
 नया तरीका अख्तियार,
फर्स्ट ऐड बॉक्स पर
लिख दिया
" बिना टिकेट यात्री होशियार".


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-  शिव प्रकाश मिश्र
-    S.P.MISHRA
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गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

सपना....The Dream

रात्रि  सपने में जो देखा था,
वही रंग फिर उभर आया .
खामोशियों में गुनगुनाहट भर गयी,
दिल में ही दर्पण सा नजर आया.
पवन के मात्र लघु झोंके से ,
सुगंधों का बड़ा तूफ़ान आया.
सौंदर्य मणि की रश्मिया ऐसी कि,
चित्रकारों की तूलिका पर तरस आया,
मुग्ध हो ज्यों भानु ने  देखा ,
धरा को नाचते पाया......
````````````````````````````````````````````````
-   शिव प्रकाश मिश्र
-    S.P.MISHRA

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

ऋतुराज बसंत ( मधुमास )

अरे तुम फिर आ गयी ऋतुराज,
                            बहाती सुंदर सुरभि सुवास,
बिखेरा कैसा ये उन्माद,
                         लगाती हो मुझसे कुछ आश,
ओट में सुन्दरता के हो,
                             बुना है कैसा दुर्गम जाल,
फंस गए सब ही अपने आप,
                             टेक तेरे घुटुनो पर भाल,
रुचेगी  कैसे सुन्दरता,
                          रिस रहे जिसके घाव हरे
हो रहा हो काँटों से प्यार ,
                             उसे क्या गंध सुगंध करे,
चाहिए नहीं मुझे सुख चारू,
                           अगर हो निर्जन कोई ठौर,
रहूँगा भी कैसे मैं वहां
                           जहाँ हो मानवता ही गौड़,
बुझी हो आंसू से जो प्यास
                        न आएगा उसको मधु रास,
लगा दो अपना सारा जोर,
                      न होगा मुझको अब विश्वाश.

###########     शिव प्रकाश मिश्र    ###########

(मूल कृति दिसम्बर १९७९ - सर्व प्रथम दैनिक वीर हनुमान औरैय्या में प्रकाशित)

रविवार, 26 सितंबर 2010

पतझड़ का पेड़

मैं पतझड़ का पेड़ हूँ,
छाया और हरित विहीन,
अपने आप टूट रहा हूँ,
अनगिनत आशाएं
फूली फली कभी,
और अनगिनत बहारों में,
आये कितने ही फूल और  फल,
मोहक आकर्षण में ,
कितने ही पंथियों का था,
मै आश्रय स्थल,
बहारों के साथ,
काफिला खिसक गया,
प्यार और अपनापन,
छूमंतर हो गया,
और अब है
यहाँ वीरान,
मरघट सा सुनसान
शायद
फिर कोई आये
अपना हाथ बढाये
प्रेम का दिया जलाये
 और
मेरे  सूखेपन का श्राप
फलित हो जाये,
इस आशा में,
थोडा सा ही सही
जमीन से जुड़ा हूँ मै,
और
प्रतीक्षा में
सूखा ही सही
न जाने कब से,
खड़ा हूँ मै.
____________________
  - शिव प्रकाश मिश्र
____________________

शनिवार, 11 सितंबर 2010

कौन हूँ मैं

कौन हूँ मैं, कहाँ से गुजरता रहा ?
आज पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?


एक चाहत लिए दावं रखता रहा ,
शह उनकी पे ही मात खाता रहा.
हार कर मैंने खोया नहीं हौसला,
जीत की हार होना नहीं फैसला.
आज ऐसा नवी बन गया अजनवी,
रोज़ जिसको हृदय में बिठाता रहा.
आज पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?.......




एक पागल पथिक सा फिर दर बदर,
कितनी मंजिल चली कुछ नहीं है खबर,
ताक पर आश सपने सजाता भी क्या ?
नीर पलको पे आँखें चुराता न क्या ?
आज ऐसी कहानी नहीं कह सका ,
शब्द जिसके लिए दूड़ता फिर रहा.
आज पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?.......
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
        - शिव प्रकाश मिश्र
           shiv prakash mishra
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

कुछ कह रहे हैं

कुछ कह रहे हैं,
सूखे की आग में
जलती फसलो को देख,
जी को जला कर
 जी रहे है.
डीजल केरोसीन डीलरो की तरह
इन्द्र का स्टॉक में नहीं है की तख्ती देख
 रो रहे हैं.
भूख से बिलखते सिसकते आदिवासी,
 बेबस मजबूरी में
जड़े ही खा रहें है,
करके हड़ताल  नज़रबंदी में,
 नशा बंदी में ,
भंग छान ,
मस्ती में लम्बी तान,
 इन्द्र अब भी सो रहे हैं !!
____________________
     - शिव प्रकाश मिश्र
____________________

हड़ताल

होकर परेशान,
 महगाई भत्ते से,
 वर्षा विभाग सहित
 इन्द्र ने कर दी हड़ताल,
सूखे की आग में,
 जलती फसलो को जैसे
घर में श्मसान देख,
 जनता हो गयी बेहाल .
आवश्यक सेवाओं में भी,
 अब तो हड़ताल होने लगी है,
नजरबंदी में
जमाखोरी की आदत बनी है.
हे इन्द्र देव !
अब तो दया कर दो,
कण्ट्रोल से न सही,
ब्लैक में ही,
वर्षा कर दो !!
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    - शिव प्रकाश मिश्र
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
मूल कृत - १९७९, ६ नवम्बर १९७९ को दैनिक वीर हनुमान औरय्या में प्रकाशित 

आतंकी प्यास... एक कवि की....

 प्यास से व्याकुल एक व्यक्ति ने,
एक घर का दरवाजा खटखटाया,
एक 
कविनुमा चेहरा  बाहर आया,
जिसे देख कर वह व्यक्ति बोला ,
"प्यासा हूँ" ....अगर .....पानी...
 मिल जाये
"हाँ हाँ क्यों नहीं " कह कर कवि ने
उसे ड्राइंग रूम में बिठाया,
और खुद भी बैठ कर बोला,
कल भी मैं प्यासा था,
 आज भी मै प्यासा हूँ,
सब कुछ आस पास है,
 फिर भी मन उदास है,
न जाने कैसी प्यास है ?
प्यासे व्यक्ति को बात समझ नहीं आयी,
कवि ने बात थोडा आगे बढ़ायी,
वह था ग्यारह सितम्बर,
अमेरिका पर आतंकी कहर,
उसी के अपह्रत विमानों को
वर्ड ट्रेड  सेंटर से टकरा दिया,
एक सौ दस मंजिली बिल्डिंग को,
 धूल में मिला दिया,
हजारो सिसकियाँ मलबे में दफ़न हो गयी,
समूचे विश्व की आत्मा दहल गयी,
कौन थे हमलावर ? क्या उद्देश्य था ?
न इसका आभास है,
न जाने कैसी प्यास है ?
प्यासा व्यक्ति घबराया,
उसे लगा,
 कवि उसकी बात समझ नहीं पाया,
उसने सोचा विज्ञापन की भाषा में बताएं,
शायद समझ .........जाये   ...,
पानी की जगह पेप्सी मिल जाये,
ये सोच कर बोला,
"ये दिल मांगे मोर"
कवि ने कहा "श्योर"
और बोला
वे पूरी दुनिया की करते थे निगरानी,
पर अपने घर की बात ही न जानी,
चार चार विमान एक साथ अपह्रत हो गए,
दुनिया की सुरिक्षतम जगह,
पेंटागन पर हमले हो गए,
अब आतंकी साये में ,
आतंकियों की तलाश है,
न जाने कैसी प्यास है ?
प्यासा व्यक्ति चिल्लाया -
"ओह नो"
कवि बोला " ओह यस"
इतिहास गवाह है,
जो भस्मासुर बनाता है,
यह उसी के पीछे पड़ जाता है,
आतंकवाद का दर्द भी,
 तभी समझ में आता है,
जब कोई स्वयं,
 इसकी चपेट में आता है,
आतंकवाद से लड़ने के लिए,
 वे उसी के साथ खड़े है,
 जिसके तार स्वयं आतंकवादियों से जुड़े हैं,
आतंकवाद से लड़ने का
 यह अधूरा प्रयास है,
न जाने कैसी प्यास है ?
प्यासा व्यक्ति निढाल हो ,
सोफे पर लुढ़क गया,
यह देख
कवि पत्नी का दिल दहल गया,
वह बोली
न आप अमेरिका हैं , न पाकिस्तान,
न रूस है , न अफगानिस्तान,
आप भारत हैं ,
और भारत को
दूसरो की आश छोडनी होगी,
आतंकवाद के खिलाफ,
 अपनी लडाई स्वयं  लडनी होगी,
इस बिचारे को  तो नाहक सता रहे हो ,
पानी की जगह कविता पिला रहे हो,
यह मूर्क्षित व्यक्ति, कोई और नहीं,
 स्वयं एक बड़ा आतंकवादी है,
न इसका तुम्हे ..अहसास है ?
ओफ़ ..न जाने कैसी प्यास है ??
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 -शिव प्रकाश mishra
-SHIV PRAKASH MISHRA
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कैसे.. कैसे.. लोग

खुद मरने की मन्नत मनाते हैं लोग,
हंसते हंसते भी रोते से रहते है लोग .

सूना घर     है   कोई रहने वाला नहीं  ,
छत में रहने को कितने तरसते हैं लोग.

कोई      अपना नहीं कोई     सपना नहीं,
कितने अपने भी सपने से लगते हैं लोग.

फासले हैं   बहुत फिर    कितने    करीब ,
कितने अपनो    से दूरी बनाते   हैं लोग .

क्यों ज़नाज़ा गया ? जानते हैं सभी,
फिर भी मरने से कितना डरते हैं लोग.

ऐ सितम अब शिव पर क्या भरोसा करे,
अपनी छाया से अक्सर डरते हैं लोग..
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             - शिव प्रकाश मिश्र
                मूल कृति जून १९८०
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दाग हूँ मैं.....

छोड़ दो साथ अब मेरा एक बुझता चिराग हूँ मै,
नहीं भाता   किसी को वह बदनुमा      दाग हूँ मै,
यही दुर्भाग्य है मेरा    न आया काम     कुछ तेरे,
सिवा दुःख दर्द  गम के    नहीं  था पास कुछ मेरे,
आज चाहो तो मुझे अंतिम मधुर मुस्कान दे दो,
दिया हो ना किसी को   या  वही  अपमान दे दो,
अँधेरी  वादियों में भटकता   विरह का राग हूँ मैं,
नहीं भाता    किसी को वह     बदनुमा दाग हूँ  मै !  ......१....

आत्मा पर बोझ बन कर, चाह कर भी न बोल पाया,
रिस रहे घाव अंतर में ,कभी उनसे नहीं   पर्दा उठाया,
आज   चाहे इस तपस्या  का  यहीं अवसान कर दो,
कहूँगा    कुछ     नहीं    चाहे   मुझे बदनाम कर दो,
नहीं      बुझती  कभी,       ऐसी सुलगती आग हूँ मैं,
नहीं  भाता   किसी    को  वह बदनुमा  दाग हूँ मै !!   .....२....
...........................................................................
          - शिव प्रकाश मिश्र
...........................................................................

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कोई खयालो में क्यों..... नहीं ....होता ....?

आसमां  क्यों नहीं झुकता,
समुंदर क्यों नहीं थमता,
प्रेम का अंकुर पनप कर ,
हिमालय क्यों नहीं होता?



चांदनी मन में खटकती,
हवा तन मन को झुलसती,
कूक कोयल की न भाए,
मेघ सावन में रुलाएं,
कोई भी मौसम यहाँ पर ,
सुहाना क्यों नहीं होता ?



पंथ लम्बा भ्रमित राही,
दर्द बन कर घटा छाई,
उष्ण बालू फटे छाले ,
कौन पीड़ा को संभाले,
कोई भी अपना यहाँ पर,
अपना क्यों नहीं होता ?


नेह के बंधन जटिल है ,
नीद में पंछी बिकल है,
जिंदगी का क्या ठिकाना,
खो गया है आशियाना,
प्रेम का आँचल यहाँ पर,
बसेरा क्यों नहीं होता ?


नींद पलकों में नहीं है ,
ख्वाब है न इंतजार,
मन है व्याकुल तन सुलगता ,
दिल बहकता बार बार,
कोई आकर ख्यालो में,
हमारा क्यों नहीं होता ?


***** शिव प्रकाश मिश्र******

आपका काम तमाम

चुनाव प्रचार में
बोले एक नेता
बेरोजगार मै भी हूँ,
 मुशीबतो का मरा हुआ.
काम जब मिला नहीं,
 चुनाव में खड़ा हुआ ..
मेरी हालत पर,
 सब लोग रहम कीजिये.
वोट न सही चंदा ही दीजिये..
आपकी सब बातें,
 अक्सर भूल जाता हूँ.
पर आपका चुनाव चिन्ह,
 याद दिलाता हूँ..
कोचिंग दल बदल की अच्छी चलाता हूँ,
कुछ नहीं दे सका विश्वास तो दिलाता हूँ..
नौकरी नहीं तो आरक्षण
 जरूर दूंगा,
आप मेरा काम करिए
आपका काम तमाम
कर दूंगा..
`````````````````````````````````````````
 - शिव प्रकाश मिश्र
````````````````````````````````````````

आज का इन्सान

सरे बाज़ार में इमान धरम बेच  रहे है,
बोलिया बोल कर इन्सान का मन बेच रहे है !
रक्त अधरों पे उदित हास क्या करे  कोई,
साजे गम फ़ख्र के आने की तपन सेंक रहे हैं !!

मांगने पर नहीं मिलता था कभी कुछ जिनसे,
धरम के नाम पर आकर के रहम बेंच रहें हैं !
आश भगवान    से  इन्सान क्या    करें कोई,
आज इन्सान ही इन्सान का खुद बेंच रहे हैं !!
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-----  शिव प्रकाश मिश्र
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रोज़ी और रोटी

मेरी कहानी
 बिखर रही है,
स्वप्निल प्रासाद में,
 रोशनी खुद भटक रही है,
कांप रहा है मेरा भविष्य,
 मेरे ही हांथो में.
जान बूझ कर
 कोई डालता है,  गरम रेत,
 मेरे फूटे हुए छालो में.
विचारो के वातायन से
 गिर रहा हूँ मै,
 धरती पर,
पग पग पर,
ठोकर ,
और
हर ठोकर पर
वास्तिविकता का एक नया अनुभव.
आ पड़ा है मेरे दिल पर
एक भारी भरकम बोझ अनायास ही,
असंतुलित से कदम,
पड़ रहे है,
कहीं के कहीं.
मिल रही है,
कृतिमता,छुद्रता और समस्याओं की
असहनीय चिकौटी,
मेरे नेत्रों के धुंधलके में,
चमक रहे है सिर्फ दो शब्द,
रोज़ी और रोटी.........!
=================
     शिव प्रकाश मिश्र
=================

सिर्फ तेरा साथ हो

जुल्फों की छाँव में,
 सपनो के गाँव में,
 अधरों को ढूड़ता,
 नन्हा सौगात हो.

घर में जमात में ,
दिल में दवात में,
 बचपन से खेलता,
जवानी का हाथ हो.

आँखों से आँखों में,
 टूटती सांसो में ,
कस्तूरी महकता ,
अपना जजबात हो.

सावन के झूलों में,
 वर्षा की बूंदों में,
 प्रेम से भीगता ,
सिर्फ तेरा साथ हो..
*****************
शिव प्रकाश मिश्र
*****************

सोमवार, 23 अगस्त 2010

वक़्त से पहले ....

भावनाएं जलती हैं,
 कभी ...
सिद्धांतो के संकुचित से घेरे में,
जैसे किसी प्रेमी का पत्र,
 दिन के अँधेरे में.
 चूर चूर होता है व्यक्तित्व ,
या संपूर्ण अस्तित्व,
 जीवन में कई बार,
हल्की सी हिचकी
ले लेती है भूकंप का स्वरुप,
और आस्था के आयाम,
 लेते है एक नयी हिलकोर,
 पतझड़ सी बिखरती है आशाए,
 और चुभते है काँटों से उपदेश,
 फीके लगते है
सैद्धांतिक आदर्श,
 और अविस्मर्णीय प्रेमावशेष,
 दुखता है रोम रोम,
 अनजानी पीड़ा में ,
होते है  सूने सपने सुनहले,
 जब परम प्रिय सा
कुछ  खोता है,
अप्रत्यासित,
अकाल्पनिक,
 और वक़्त से पहले.
*******************
शिव प्रकाश मिश्र
********************

छोटा सा बादल ......

स्मित मुस्कान हो,
लाल आसमान हो,
पलके उठे झुके,
लब थर थराए रुके,
पास तुम बैठी रहो,
लहराती आंचल ॥


गुल मोहर खिले कहीं
दो पल मिले कहीं
और एक साथ गिने
हृदय की धड़कने
चांदनी ढके रहे
छोटा सा बादल ॥ ॥

****शिव प्रकाश मिश्र ******

बुधवार, 18 अगस्त 2010

प्रेम बंधन .......

जिन्दगी के मोड़ ले आये कहाँ पर,
मै सुबह से शाम तक चलता गया.
कल्पना का इन्द्र धनुषी मधुर उपवन,
कर्मनाशा की लहर को छू  गया..
आग सी तपती छुधा की रेत पर,
कामना का बीज कोई बो गया.
आस्था के चाँद सीमित बिदुओं में,
सत्य खुद का ही बबंडर बन गया..
प्रेम के बंधन बंधे है रबर जैसे,
पास होकर दूर कोई कर गया..
**********************
शिव प्रकाश मिश्र
*********************

रविवार, 15 अगस्त 2010

दो ऑंखें ......

दो ऑंखें
निरंतर,
 मेरा पीछा करती है,
हडबडाहट और बेचैनी में,
 अधजली सिगरेट सी,
 छोड़ देता हूँ,
 अपनी बातें,
रह रह कर
 जो मेरे अन्दर बुझती  है,
सुलगती है,
मसल देता हूँ अकेले में,
 अनजाने में,
 खुद ही जिन्हें
अपलक चाहता हूँ,
 निहारना,
 दिन में कई बार जिन्हें.
धुंए की  तरह खो जाती है,
 उनकी बहमूल्य जवानी,
स्वतन्त्र अस्तित्व
और बिखर जाती है,
 सजी सवरी कहानी,
शब्दों
की  सांत्वना में,
 मिलती है समाज की
भोड़ी सलाखे,
मूक हो,
 निगूड़ खड़ा वहीँ हूँ मै,
 और
मेरे पीछे है वही,
 दो\आँखे.........
      ***
शिव प्रकाश मिश्र
*************

सिर्फ ...एक बार .......

मर चूका हूँ मै कभी का,
मातम नहीं मनाता कोई.
जिज्ञासु सा खुद रो रहा हूँ,
धाडस नहीं बंधाता कोई .
मेरी लाश भी
 न जाने कब से अकेली पड़ी है,
सुनते सभी है,
 पर गरज क्या पड़ी है ?
जो कोई
 निस्वार्त के पास आये,
मनुष्यत्व, अपनत्व
या
झूठी औपचारिकता ही निभाए,
और मेरी लाश पर
 मेरा ही कफ़न ओडाये,
यद्यपि हमें
कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर हमारा
उनसे कोई योग तो नहीं है,
सोचते होंगे
 कि सिरफिरा हूँ मै ,
यद्यपि
उनके लिए ही मरा हूँ मै,
और फिर मर सकता हूँ,
 कई बार ...
सबके लिए ,
पर
क्या उनके सहारे,
 जीने कि कल्पना कर सकता हूँ?
सिर्फ ......एक बार
अपने लिए ??
************************
शिव प्रकाश मिश्र
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 14 अगस्त 2010

तुम्हारी हंसी .....

है फूलों सी नाज़ुक
तुम्हारी हंसी ,
कितनी प्यारी दुलारी
तुम्हारी हंसी,
जिन्दगी धूप में
तप रही रेतहै ,
प्यार की छाँव
देती तुम्हारी हंसी,
कोई सावन कहीं
झूम के आ गया
है फुहारे सी झरती,
तुम्हारी हंसी,
मन पपीहा सा
व्याकुल फिरे घूमता,
है स्वाति की बूँद
तुम्हारी हंसी,
चाँद बदल में
जाने कहाँ जा छिपा,
है सितारों का उपवन
तुम्हारी हंसी,
एक उफनती नदी
तोड़ बंधन चली ,
मोहक झरने बनाती
तुम्हारी हंसी,
मोर जंगल में नाचे
पृकृति खिल उठे ,
और घुँघरू बजाती
तुम्हारी हँसी ,
मृग वन मन भटक
ढूद्ता फिर रहा ,
कोष कस्तूरी का है
तुम्हारी हंसी ,
सुर्ख जोड़ा पहिन
एक दुल्हन सजी,
कंगनों सी खनकती
तुम्हारी हंसी,
एक तूफ़ान आकर
कहीं थम गया,
शोख बिजली गिराती
तुम्हारी हंसी,
शब्द होटों पे आयें
न आया करें ,
मूक आमंत्रण देती
तुम्हारी हंसी,
दिल की अमराइयों में
बसंत आ गयी,
कूक कोयल की मीठी
तुम्हारी हंसी,
तुम रहो न रहो
ये रहेगी हंसी,
रोज मुझको रुलाती
तुम्हारी हंसी,

     ********
--शिव प्रकाश मिश्र

~~~~~~~~~~~~~~~

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

भविष्य........

कैसे मुस्कान हो ,
निरुद्वेग अधरों पर,
बदलो सा मिलना,
निकलना भी छूट गया.

जीवन के कतिपय अंश
स्वस्ति के लिए हव्य,
आशातीत बेडा एक,
 सपना सा टूट गया..

कच्ची पगडण्डी सी,
 किस्मत की रेखाए,
धूमिल आशाओं में,
 वर्तमान भटक गया.

अतीत के दलदल में ,
डूबती       तस्वीरे,
कल्पना का यान जीर्ण,
 दूब में अटक गया..

शक्ति के समन्वय में,
 शांति के प्रणेता से ,
वर्षो का खोटा सिक्का,
 गांठ से निकल गया..

*****************
शिव प्रकाश मिश्र
*****************

बुधवार, 11 अगस्त 2010

सड़क पर ........

फुटपाथ पर लेटते हैं ,
हाथ का तकिया लगा कर ।
ओढ़ते अम्बर दिसम्बर में ,
अख़बार की रद्दी बिछा कर॥
सड़क पर ही दिन निकलता ,
रात भी होती सड़क पर ,
सड़क पर ही प्रसव होता ,
मौत भी होती वहीँ पर ।
अभावो में बाल लीला ,
टेकती घुटने सिमट कर॥
गलिया सुन बड़े होते ,
रो रहे होते सिसक कर ।
भूख होती प्यास होती ,
छत नहीं होती सिरों पर ॥
बाल दिवस हर वर्ष होता ,
जान नहीं पाते उम्र भर ॥
*****
शिव प्रकाश मिश्र

सोमवार, 9 अगस्त 2010

लक्ष्मण रेखा ..........

आज मै उपेक्षित हूँ ,
समाज के घेरे से ,
बहार खड़ा क्षुब्ध हो ताकता हूँ ,
कितनी बिषैली ,
पर-
वास्तविकता है ये,
विस्मय,
 विषाद या
अपेक्षा में सोचता हूं ,
भावनावों में,
 कुछ ज्यादा ही बह गया था मै,
 या  फिर  
किसीने अपने विचारों में ,
जान बूझ कर ,
इतना ऊँचा उठा दिया था,
कि गिर कर
मै उठ भी सकू,
और
उनकी ज्यादितियों का,
प्रतिकार भी कर सकू ,
तभी तो मेरा तिरस्कार हुआ है,
मेरी हर हरकत पर उन्हें संसय है ,
कही
कोई बितंडा न बन दू ,
उनके कलमस कि कहानी,
होठो पर न ला दू,
 तभी तो करते है ,
रोज एक नयी व्यूह रचना ,
शायद  यही लक्ष्मण रेखा है,
या फिर
कोरी बिडम्बना........
**********************
      शिव प्रकाश मिश्र
**********************

सोमवार, 2 अगस्त 2010

HAM HINDUSTANI: धोखा

HAM HINDUSTANI: धोखा: "आँखों का धोखा, जिसे मंजिल समझने की भूल, अक्सर कर जाते है ठोकर लगनी होती है जहाँ , चाह कर भी नहीं संभल पाते है, लड़खड़ाते है, गिरते है ,..."

धोखा

आँखों का धोखा,
जिसे मंजिल
समझने की भूल,
अक्सर कर जाते है
ठोकर लगनी होती है जहाँ ,
चाह कर भी नहीं संभल पाते है,
लड़खड़ाते है,
गिरते है ,
और
फिर उठ कर चल देते है ,
यंत्रवत
उसी राह पर ,
बंद होठो की पीड़ा ,
अंधरे में विसर्जित कर ,
जैसे जो कुछ हुआ
वह कुछ नया नहीं है ,
भुला देते है ,
जल्द ही बड़ी से बड़ी ठोकर ,
और दर्द का अहसास ,
और ,
फिर भटकने लगते है ,
नयी मरीचकाओं के बीच .........
***** शिव प्रकाश मिश्र **********