फुटपाथ पर लेटते हैं ,
हाथ का तकिया लगा कर ।
ओढ़ते अम्बर दिसम्बर में ,
अख़बार की रद्दी बिछा कर॥
सड़क पर ही दिन निकलता ,
रात भी होती सड़क पर ,
सड़क पर ही प्रसव होता ,
मौत भी होती वहीँ पर ।
अभावो में बाल लीला ,
टेकती घुटने सिमट कर॥
गलिया सुन बड़े होते ,
रो रहे होते सिसक कर ।
भूख होती प्यास होती ,
छत नहीं होती सिरों पर ॥
बाल दिवस हर वर्ष होता ,
जान नहीं पाते उम्र भर ॥
*****
शिव प्रकाश मिश्र
हाथ का तकिया लगा कर ।
ओढ़ते अम्बर दिसम्बर में ,
अख़बार की रद्दी बिछा कर॥
सड़क पर ही दिन निकलता ,
रात भी होती सड़क पर ,
सड़क पर ही प्रसव होता ,
मौत भी होती वहीँ पर ।
अभावो में बाल लीला ,
टेकती घुटने सिमट कर॥
गलिया सुन बड़े होते ,
रो रहे होते सिसक कर ।
भूख होती प्यास होती ,
छत नहीं होती सिरों पर ॥
बाल दिवस हर वर्ष होता ,
जान नहीं पाते उम्र भर ॥
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शिव प्रकाश मिश्र
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