मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कोई खयालो में क्यों..... नहीं ....होता ....?

आसमां  क्यों नहीं झुकता,
समुंदर क्यों नहीं थमता,
प्रेम का अंकुर पनप कर ,
हिमालय क्यों नहीं होता?



चांदनी मन में खटकती,
हवा तन मन को झुलसती,
कूक कोयल की न भाए,
मेघ सावन में रुलाएं,
कोई भी मौसम यहाँ पर ,
सुहाना क्यों नहीं होता ?



पंथ लम्बा भ्रमित राही,
दर्द बन कर घटा छाई,
उष्ण बालू फटे छाले ,
कौन पीड़ा को संभाले,
कोई भी अपना यहाँ पर,
अपना क्यों नहीं होता ?


नेह के बंधन जटिल है ,
नीद में पंछी बिकल है,
जिंदगी का क्या ठिकाना,
खो गया है आशियाना,
प्रेम का आँचल यहाँ पर,
बसेरा क्यों नहीं होता ?


नींद पलकों में नहीं है ,
ख्वाब है न इंतजार,
मन है व्याकुल तन सुलगता ,
दिल बहकता बार बार,
कोई आकर ख्यालो में,
हमारा क्यों नहीं होता ?


***** शिव प्रकाश मिश्र******

आपका काम तमाम

चुनाव प्रचार में
बोले एक नेता
बेरोजगार मै भी हूँ,
 मुशीबतो का मरा हुआ.
काम जब मिला नहीं,
 चुनाव में खड़ा हुआ ..
मेरी हालत पर,
 सब लोग रहम कीजिये.
वोट न सही चंदा ही दीजिये..
आपकी सब बातें,
 अक्सर भूल जाता हूँ.
पर आपका चुनाव चिन्ह,
 याद दिलाता हूँ..
कोचिंग दल बदल की अच्छी चलाता हूँ,
कुछ नहीं दे सका विश्वास तो दिलाता हूँ..
नौकरी नहीं तो आरक्षण
 जरूर दूंगा,
आप मेरा काम करिए
आपका काम तमाम
कर दूंगा..
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 - शिव प्रकाश मिश्र
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आज का इन्सान

सरे बाज़ार में इमान धरम बेच  रहे है,
बोलिया बोल कर इन्सान का मन बेच रहे है !
रक्त अधरों पे उदित हास क्या करे  कोई,
साजे गम फ़ख्र के आने की तपन सेंक रहे हैं !!

मांगने पर नहीं मिलता था कभी कुछ जिनसे,
धरम के नाम पर आकर के रहम बेंच रहें हैं !
आश भगवान    से  इन्सान क्या    करें कोई,
आज इन्सान ही इन्सान का खुद बेंच रहे हैं !!
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-----  शिव प्रकाश मिश्र
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रोज़ी और रोटी

मेरी कहानी
 बिखर रही है,
स्वप्निल प्रासाद में,
 रोशनी खुद भटक रही है,
कांप रहा है मेरा भविष्य,
 मेरे ही हांथो में.
जान बूझ कर
 कोई डालता है,  गरम रेत,
 मेरे फूटे हुए छालो में.
विचारो के वातायन से
 गिर रहा हूँ मै,
 धरती पर,
पग पग पर,
ठोकर ,
और
हर ठोकर पर
वास्तिविकता का एक नया अनुभव.
आ पड़ा है मेरे दिल पर
एक भारी भरकम बोझ अनायास ही,
असंतुलित से कदम,
पड़ रहे है,
कहीं के कहीं.
मिल रही है,
कृतिमता,छुद्रता और समस्याओं की
असहनीय चिकौटी,
मेरे नेत्रों के धुंधलके में,
चमक रहे है सिर्फ दो शब्द,
रोज़ी और रोटी.........!
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     शिव प्रकाश मिश्र
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सिर्फ तेरा साथ हो

जुल्फों की छाँव में,
 सपनो के गाँव में,
 अधरों को ढूड़ता,
 नन्हा सौगात हो.

घर में जमात में ,
दिल में दवात में,
 बचपन से खेलता,
जवानी का हाथ हो.

आँखों से आँखों में,
 टूटती सांसो में ,
कस्तूरी महकता ,
अपना जजबात हो.

सावन के झूलों में,
 वर्षा की बूंदों में,
 प्रेम से भीगता ,
सिर्फ तेरा साथ हो..
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शिव प्रकाश मिश्र
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सोमवार, 23 अगस्त 2010

वक़्त से पहले ....

भावनाएं जलती हैं,
 कभी ...
सिद्धांतो के संकुचित से घेरे में,
जैसे किसी प्रेमी का पत्र,
 दिन के अँधेरे में.
 चूर चूर होता है व्यक्तित्व ,
या संपूर्ण अस्तित्व,
 जीवन में कई बार,
हल्की सी हिचकी
ले लेती है भूकंप का स्वरुप,
और आस्था के आयाम,
 लेते है एक नयी हिलकोर,
 पतझड़ सी बिखरती है आशाए,
 और चुभते है काँटों से उपदेश,
 फीके लगते है
सैद्धांतिक आदर्श,
 और अविस्मर्णीय प्रेमावशेष,
 दुखता है रोम रोम,
 अनजानी पीड़ा में ,
होते है  सूने सपने सुनहले,
 जब परम प्रिय सा
कुछ  खोता है,
अप्रत्यासित,
अकाल्पनिक,
 और वक़्त से पहले.
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शिव प्रकाश मिश्र
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छोटा सा बादल ......

स्मित मुस्कान हो,
लाल आसमान हो,
पलके उठे झुके,
लब थर थराए रुके,
पास तुम बैठी रहो,
लहराती आंचल ॥


गुल मोहर खिले कहीं
दो पल मिले कहीं
और एक साथ गिने
हृदय की धड़कने
चांदनी ढके रहे
छोटा सा बादल ॥ ॥

****शिव प्रकाश मिश्र ******

बुधवार, 18 अगस्त 2010

प्रेम बंधन .......

जिन्दगी के मोड़ ले आये कहाँ पर,
मै सुबह से शाम तक चलता गया.
कल्पना का इन्द्र धनुषी मधुर उपवन,
कर्मनाशा की लहर को छू  गया..
आग सी तपती छुधा की रेत पर,
कामना का बीज कोई बो गया.
आस्था के चाँद सीमित बिदुओं में,
सत्य खुद का ही बबंडर बन गया..
प्रेम के बंधन बंधे है रबर जैसे,
पास होकर दूर कोई कर गया..
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शिव प्रकाश मिश्र
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रविवार, 15 अगस्त 2010

दो ऑंखें ......

दो ऑंखें
निरंतर,
 मेरा पीछा करती है,
हडबडाहट और बेचैनी में,
 अधजली सिगरेट सी,
 छोड़ देता हूँ,
 अपनी बातें,
रह रह कर
 जो मेरे अन्दर बुझती  है,
सुलगती है,
मसल देता हूँ अकेले में,
 अनजाने में,
 खुद ही जिन्हें
अपलक चाहता हूँ,
 निहारना,
 दिन में कई बार जिन्हें.
धुंए की  तरह खो जाती है,
 उनकी बहमूल्य जवानी,
स्वतन्त्र अस्तित्व
और बिखर जाती है,
 सजी सवरी कहानी,
शब्दों
की  सांत्वना में,
 मिलती है समाज की
भोड़ी सलाखे,
मूक हो,
 निगूड़ खड़ा वहीँ हूँ मै,
 और
मेरे पीछे है वही,
 दो\आँखे.........
      ***
शिव प्रकाश मिश्र
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सिर्फ ...एक बार .......

मर चूका हूँ मै कभी का,
मातम नहीं मनाता कोई.
जिज्ञासु सा खुद रो रहा हूँ,
धाडस नहीं बंधाता कोई .
मेरी लाश भी
 न जाने कब से अकेली पड़ी है,
सुनते सभी है,
 पर गरज क्या पड़ी है ?
जो कोई
 निस्वार्त के पास आये,
मनुष्यत्व, अपनत्व
या
झूठी औपचारिकता ही निभाए,
और मेरी लाश पर
 मेरा ही कफ़न ओडाये,
यद्यपि हमें
कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर हमारा
उनसे कोई योग तो नहीं है,
सोचते होंगे
 कि सिरफिरा हूँ मै ,
यद्यपि
उनके लिए ही मरा हूँ मै,
और फिर मर सकता हूँ,
 कई बार ...
सबके लिए ,
पर
क्या उनके सहारे,
 जीने कि कल्पना कर सकता हूँ?
सिर्फ ......एक बार
अपने लिए ??
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शिव प्रकाश मिश्र
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शनिवार, 14 अगस्त 2010

तुम्हारी हंसी .....

है फूलों सी नाज़ुक
तुम्हारी हंसी ,
कितनी प्यारी दुलारी
तुम्हारी हंसी,
जिन्दगी धूप में
तप रही रेतहै ,
प्यार की छाँव
देती तुम्हारी हंसी,
कोई सावन कहीं
झूम के आ गया
है फुहारे सी झरती,
तुम्हारी हंसी,
मन पपीहा सा
व्याकुल फिरे घूमता,
है स्वाति की बूँद
तुम्हारी हंसी,
चाँद बदल में
जाने कहाँ जा छिपा,
है सितारों का उपवन
तुम्हारी हंसी,
एक उफनती नदी
तोड़ बंधन चली ,
मोहक झरने बनाती
तुम्हारी हंसी,
मोर जंगल में नाचे
पृकृति खिल उठे ,
और घुँघरू बजाती
तुम्हारी हँसी ,
मृग वन मन भटक
ढूद्ता फिर रहा ,
कोष कस्तूरी का है
तुम्हारी हंसी ,
सुर्ख जोड़ा पहिन
एक दुल्हन सजी,
कंगनों सी खनकती
तुम्हारी हंसी,
एक तूफ़ान आकर
कहीं थम गया,
शोख बिजली गिराती
तुम्हारी हंसी,
शब्द होटों पे आयें
न आया करें ,
मूक आमंत्रण देती
तुम्हारी हंसी,
दिल की अमराइयों में
बसंत आ गयी,
कूक कोयल की मीठी
तुम्हारी हंसी,
तुम रहो न रहो
ये रहेगी हंसी,
रोज मुझको रुलाती
तुम्हारी हंसी,

     ********
--शिव प्रकाश मिश्र

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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

भविष्य........

कैसे मुस्कान हो ,
निरुद्वेग अधरों पर,
बदलो सा मिलना,
निकलना भी छूट गया.

जीवन के कतिपय अंश
स्वस्ति के लिए हव्य,
आशातीत बेडा एक,
 सपना सा टूट गया..

कच्ची पगडण्डी सी,
 किस्मत की रेखाए,
धूमिल आशाओं में,
 वर्तमान भटक गया.

अतीत के दलदल में ,
डूबती       तस्वीरे,
कल्पना का यान जीर्ण,
 दूब में अटक गया..

शक्ति के समन्वय में,
 शांति के प्रणेता से ,
वर्षो का खोटा सिक्का,
 गांठ से निकल गया..

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शिव प्रकाश मिश्र
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बुधवार, 11 अगस्त 2010

सड़क पर ........

फुटपाथ पर लेटते हैं ,
हाथ का तकिया लगा कर ।
ओढ़ते अम्बर दिसम्बर में ,
अख़बार की रद्दी बिछा कर॥
सड़क पर ही दिन निकलता ,
रात भी होती सड़क पर ,
सड़क पर ही प्रसव होता ,
मौत भी होती वहीँ पर ।
अभावो में बाल लीला ,
टेकती घुटने सिमट कर॥
गलिया सुन बड़े होते ,
रो रहे होते सिसक कर ।
भूख होती प्यास होती ,
छत नहीं होती सिरों पर ॥
बाल दिवस हर वर्ष होता ,
जान नहीं पाते उम्र भर ॥
*****
शिव प्रकाश मिश्र

सोमवार, 9 अगस्त 2010

लक्ष्मण रेखा ..........

आज मै उपेक्षित हूँ ,
समाज के घेरे से ,
बहार खड़ा क्षुब्ध हो ताकता हूँ ,
कितनी बिषैली ,
पर-
वास्तविकता है ये,
विस्मय,
 विषाद या
अपेक्षा में सोचता हूं ,
भावनावों में,
 कुछ ज्यादा ही बह गया था मै,
 या  फिर  
किसीने अपने विचारों में ,
जान बूझ कर ,
इतना ऊँचा उठा दिया था,
कि गिर कर
मै उठ भी सकू,
और
उनकी ज्यादितियों का,
प्रतिकार भी कर सकू ,
तभी तो मेरा तिरस्कार हुआ है,
मेरी हर हरकत पर उन्हें संसय है ,
कही
कोई बितंडा न बन दू ,
उनके कलमस कि कहानी,
होठो पर न ला दू,
 तभी तो करते है ,
रोज एक नयी व्यूह रचना ,
शायद  यही लक्ष्मण रेखा है,
या फिर
कोरी बिडम्बना........
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      शिव प्रकाश मिश्र
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

HAM HINDUSTANI: धोखा

HAM HINDUSTANI: धोखा: "आँखों का धोखा, जिसे मंजिल समझने की भूल, अक्सर कर जाते है ठोकर लगनी होती है जहाँ , चाह कर भी नहीं संभल पाते है, लड़खड़ाते है, गिरते है ,..."

धोखा

आँखों का धोखा,
जिसे मंजिल
समझने की भूल,
अक्सर कर जाते है
ठोकर लगनी होती है जहाँ ,
चाह कर भी नहीं संभल पाते है,
लड़खड़ाते है,
गिरते है ,
और
फिर उठ कर चल देते है ,
यंत्रवत
उसी राह पर ,
बंद होठो की पीड़ा ,
अंधरे में विसर्जित कर ,
जैसे जो कुछ हुआ
वह कुछ नया नहीं है ,
भुला देते है ,
जल्द ही बड़ी से बड़ी ठोकर ,
और दर्द का अहसास ,
और ,
फिर भटकने लगते है ,
नयी मरीचकाओं के बीच .........
***** शिव प्रकाश मिश्र **********